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Magazine - Year 1960 - Version 2

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पहले स्वयं पर विजय प्राप्त कीजिये

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(श्री प्रो. रामप्रसाद चतुर्वेदी एम. ए.)

शुभ कर्म सदैव शुभ रहेंगे, उनमें देश, काल एवं जाति का कोई बन्धन नहीं है। जहाँ मनुष्य हैं, वहीं शुभ कर्म हैं और जहाँ शुभ कर्म हैं, वहाँ मोक्ष तो होगा ही। मोक्ष की प्राप्ति के लिए इधर उधर जाने की आवश्यकता नहीं है।

मोक्ष की कामना से मनुष्य तीर्थों में जाते हैं, परन्तु तीर्थ कर्मों को नहीं बदल सकते। जैसा किया हैं, वैसा फल पाना ही होगा। मोक्ष की इच्छा है तो पहले अपने कर्मों को बदलो। यदि अशुभ कर्मों को शुभ कर्मों में बदल दिया गया तो फिर जीवन की धारा ही बदल जाएगी।

तीर्थ स्नान के पश्चात् भी दुष्कर्मों को नहीं छोड़ा तो वह सब व्यर्थ होगा। पुण्य की जड़ को हरी रखने के लिए पुण्य का ही जल सींचना पड़ेगा। पाप का ताप तो उसे सुखा डालेगा। तीर्थों में जाने से मन की विचार धारा बदल सकती हो तो वहाँ जाने में कोई हानि नहीं है। परन्तु, अभीष्ट सिद्धि तो हमारे कर्म से ही होगी।

गीता, गंगा, गायत्री यह तीनों ही मोक्षदायिनी बताई गई हैं। परन्तु गीतापाठ के उपरान्त भी उसकी शिक्षाओं पर अमल न किया तो गीता अपनी मोक्षदायिनी शक्ति का प्रयोग किस प्रकार करेगी? गंगा स्नान के पश्चात् भी मन निर्मल न हुआ तो क्या लाभ होगा उससे ? गायत्री की सिद्धि भी तभी होगी, जब ज्ञान और कर्म में प्रवृत्त हुआ जाएगा। यह माना कि इन तीनों में शक्ति है, परन्तु उस शक्ति से काम लेने के लिए स्वयं भी तो कुछ करना होगा ?

प्राचीनकाल में हमारे ऋषियों की तपस्या ने इन्द्रासन तक तो हिला डाला था, परन्तु आज इन्द्रासन तो क्या मनुष्यों के भी आसन विचलित नहीं होते। इसका कारण यह नहीं है कि आज कोई तप और अनुष्ठान नहीं करता, बल्कि इसका कारण है कि आज की तपस्या में तेज नहीं रहा। आप अपने शरीर को तपस्या की अग्नि में कितना ही झौंकिये, जब तक तन, मन और वाणी भी दत्तचित्त होकर आपका साथ नहीं देते तब तक आपका कर्म फलदायक नहीं होगा।

तेजस्विता बातों से उत्पन्न नहीं होती। उसके लिए साधना की आवश्यकता है। साधना भी पूर्ण सम्पन्न होनी चाहिए। ‘मन कहीं तन कहीं’ वाली बात से कार्य सिद्धि तो हो नहीं सकती। उससे तो परिश्रम भी व्यर्थ जाता है।

जिसने क्रोधादि विकारों को त्याग दिया, वही सच्चा साधक है। यदि आत्मा के मल दूर नहीं हुए तो साधना के मार्ग में आने वाले विघ्न ही कैसे दूर होंगे?

साधक जब तेजस्वी हो जाता है तो वह संसार के साम्राज्य को भी त्याग सकता है। क्योंकि उसके जीवन में मोह ममता का अभाव हो जाता है। उसकी आत्मा स्वच्छ हो जाती है और यह सब ज्ञान का ही प्रभाव है।

जहाँ ज्ञान है, विवेक है, शुद्ध बुद्धि और श्रेष्ठ कर्म हैं वहाँ सभी समृद्धियाँ उपस्थित हैं। जिसका मन प्रभु चिन्तन में लगा है, उसके लिए कोई कामना शेष नहीं रहती। जिस साधक में ज्ञान का अभाव है, वह सत्य का निरूपण करने में समर्थ नहीं होता।

ज्ञान के साथ ही अभ्यास की भी आवश्यकता है। जैसे देह को स्वस्थ रखने के लिए दैनिक उपचार स्नान, नियमित आहार और व्यायाम किया जाता है, वैसे ही मन को स्वस्थ रखने के लिए नियमित अभ्यास आवश्यक होता है।

हमारे मन में ऐसे विचार न उठें जो दुःख, मोह, क्रोध, पश्चाताप आदि में हमें डाल दें। इसलिए बाह्य संसार से दूर रहकर साधना में लगें।

लोगों से मिलना जुलना उतना ही रखें जितने के बिना काम न चलता हो। अन्यथा अधिक मनुष्यों का संपर्क मन को दूषित कर डालेगा क्योंकि उससे मोह, वासना, क्रोध और लोभ आदि का आविर्भाव होने लगता है।

लोगों का अधिक संसर्ग हमारे अहंकार को जागृत करेगा। साधक होने के नाते हम अपने को श्रेष्ठ तो मानेंगे ही, साथ ही इच्छा उत्पन्न होगी कि आने वाले सभी व्यक्ति हमको प्रणाम करें। वे हमारी सेवा और सत्कार करें। यदि किसी ने सत्कार में किंचित् त्रुटि भी कर डाली तो हमारा अहंकार उससे बदला लेने की सोचेगा और इस प्रकार हमारा मन क्रोध से विषाक्त हो जाएगा। हमारा जीवन आध्यात्मिक भित्ति पर चढ़कर भी नीचे गिर पड़ेगा।

ज्ञान भी पूरा हो तो लाभप्रद है अन्यथा अधूरा ज्ञान कभी-कभी कुएँ में ढकेल देता है। तलवार का निर्माण यह सोचकर हुआ कि इसके द्वारा शत्रु से रक्षा हो सकेगी। परन्तु, यदि आप अपनी तलवार का ठीक उपयोग नहीं जानते तो वह बहक जाएगी और जिसे आप मारना चाहते हैं, सम्भव है कि वही तुम्हारी तलवार किसी प्रकार अपने अधिकार में करले और उसका प्रयोग भी तुम्हारे विरुद्ध ही कर बैठे। तो विचार कीजिये कि इसमें दोष तलवार का होगा या स्वयं आपका?

तलवार आपकी है, उसका प्रयोग भी आपने ही किया, परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुई, आप अपने अज्ञान के कारण उसका ठीक उपयोग नहीं कर सके। अथवा उसके भोंथरी होने का पता तब चला जब आपने उसे म्यान से बाहर निकाला। इसमें दोष तलवार का नहीं, आपका है।

वीर पुरुष तो शत्रु को हथियार देकर युद्ध करते हैं। वे निहत्थे पर वार कभी नहीं करते। उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं होती कि यदि शत्रु का दाव लग गया तो हमारे दिये हुये हथियार से वह हमारा ही वध कर देगा। वे तो अपनी शक्ति पर भरोसा करते हैं, अपनी विजय में उन्हें विश्वास है, साथ अपने कर्तव्य से भी अनभिज्ञ नहीं हैं।

एक बार एक सेनापति अपने सैनिक की कर्तव्य हीनता पर रुष्ट हो गया और उसने, उस सैनिक को दो कोड़े जमा दिये। सैनिक धृष्ट था, उसने बंदूक उठाकर सेनापति पर चला दी। परन्तु, किसी प्रकार लक्ष्य चूक गया और गोली सेनापति को नहीं लगी। सेनापति ने अन्य सैनिकों को उसे बन्दी बनाने का आदेश देकर कहा-’मुझे तुम्हारे द्वारा गोली चलाई जाने का दुःख नहीं हैं, परन्तु दुःख इस बात का है कि बन्दूक का सही उपयोग नहीं जानते। तुम्हें यह भी नहीं मालूम कि उसे किस समय, किस के विरुद्ध प्रयुक्त करना चाहिए और सब से बड़े दुःख की बात तो यह है कि तुम निशाना लगाना भी नहीं जानते। यदि किसी शत्रु से लड़ते तो स्वयं मारे जाते और यह बंदूक भी शत्रु के हाथ पड़ जाती।’

सैनिक के मिथ्या अहंकार का यह समुचित उत्तर था। जो व्यक्ति हथियार चलाना न जाने, उसे उसके रखने का भी अधिकार नहीं होना चाहिए। सैनिक के अहंकार ने ही क्रोध जागृत किया और क्रोध ने शस्त्र-संधान का ज्ञान भी नष्ट कर डाला। तो क्या लाभ हुआ ऐसे अहंकार से?

इससे सिद्ध हुआ कि बन्दूक बुरी वस्तु नहीं है, हम स्वयं बुरे हैं कि उसके गुणों को जानते हुए भी उचित उपयोग नहीं कर सकते।

सत्य भाषण को ही लीजिए। शास्त्र कहते हैं कि सदा सत्य बोलना चाहिए, परन्तु शास्त्रों का ही कथन ‘सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियम्’ भी है। इसके शब्दार्थ की ओर ही मत जाइये। यह विचार कीजिए कि इसमें कौन-सा भाव छिपा है। सत्य बोलिए, परन्तु अप्रिय अथवा जिस सत्य से किसी की हानि हो रही हो तो उस सत्य को कहने के लिए उतावले मत हूजिए। मान लीजिए कि किसी निर्दोष को प्राण दण्ड मिलने वाला है, उसका अपराध तो न था परन्तु वह घटनास्थल पर किसी कारणवश उपस्थित था, उसकी उपस्थिति उसका हत्यारा होना सिद्ध करती है। उसी में आप साक्षी हैं तो आपके द्वारा उपस्थिति होने की बात कहना ही उसे मृत्युदण्ड दिलाने में सहायक हो जाएगा।

संसार के सभी पदार्थ उपयोगी हैं। विष का प्रभाव मारक है परन्तु उचित रीति से व्यवहार करने पर वह भी औषधि बन जाता है। दुराचारी व्यक्ति भी स्वयं बुरा नहीं है, बुरे से बुरे मनुष्य को सुधारा जा सकता है, क्योंकि उसकी आत्मा अनन्त गुणों से विभूषित है। भोग लिप्सा में फँसे हुए व्यक्तियों के भी चरित्र का जब विकास हुआ तो वे महात्मा बन गए। प्रतिशोध से धधकते हुए हृदय वाले पुरुष भी शान्ति, क्षमा और दया की मूर्ति बनते देखे गए। इसलिए संसार में कोई भी मनुष्य बुरा नहीं है। यदि हम स्वयं मनुष्य हैं तो हमें किसी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए, किसी के प्रति घृणा-भाव नहीं रखना चाहिए और न किसी को ठुकराना चाहिए।

मार्ग से भ्रमित व्यक्ति के जीवन-प्रवाह को मोड़ा जा सकता है, परन्तु मोड़ने वाला सद्गुरु सुयोग्य हो। आज शिष्य तो बहुत मिल सकते हैं, परन्तु सुयोग्य गुरु का मिलना ही कठिन है। इसलिए यदि किसी को बुरे मार्ग पर चलता देखें तो चेष्टा करें कि वह अपने ठीक मार्ग पर आ जाए।

दूसरे के छिद्र देखने से पहिले अपने छिद्रों को टटोलो। किसी और की बुराई करने से पहिले यह देख लो कि हम में तो कोई बुराई नहीं है। यदि हो तो पहले उसे दूर करो। दूसरों की निन्दा करने में जितना समय देते हो, उतना समय अपने आत्मोत्कर्ष में लगाओ। तब स्वयं इससे सहमत होगे कि परनिन्दा से बढ़ने वाले द्वेष को त्याग कर परमानन्द प्राप्ति की ओर बढ़ रहे हो।

मनुष्य कितना दुर्बल है कि वह अपने ही मन और इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकता। दूसरों की अनिष्ट कामना करने वाले उस मानव की इन्द्रियाँ ही उसका आदेश पालन नहीं करतीं। जब उसके जीवन राज्य में ही विद्रोहाग्नि भड़क रही है तो वह दूसरों का दमन करने की इच्छा क्यों करता है ?

संसार को जीतने की इच्छा करने वाले मनुष्यों! पहले अपने को जीतने की चेष्टा करो। यदि तुम ऐसा कर सके तो एक दिन तुम्हारा विश्व-विजेता बनने का स्वप्न पूरा होकर रहेगा। तुम अपने जितेन्द्रिय रूप से संसार के सब प्राणियों को अपने संकेत पर चला सकोगे। संसार का कोई भी जीव तुम्हारा विरोधी नहीं रहेगा।

आप कहेंगे कि ‘आज भोजन मन पसंद नहीं बना’ भाई! वह भोजन मन को पसन्द नहीं आया तो न सही, उदर पूर्ति तो हुई उससे? भोजन पेट भरने के लिए ही तो किया जाता है, उसमें मिर्च-मसाले कम थे, अथवा मिठाई का अंश नहीं था तो वह बुरा कैसे हो गया? मन के स्वामी तुम हो, फिर वह तुम्हारी बात क्यों नहीं मानता? यदि तुमने दृढ़ता से सोचा होता कि मन माने या न माने, मैं इस भोजन को अवश्य करूंगा तो मन कभी विरोध नहीं करता।

मन बालक के समान चंचल है। बालक यदि कहने से नहीं मानता तो ताड़न की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार मन भी बिना ताड़न के नहीं मानता। आप उसे इधर-उधर जाने से रोकिए, प्रयत्न पूर्वक रोकिए तो वह रुक जाएगा।

लोग कहते हैं कि राम ने रावण को मारा। परन्तु रावण इतना बलवान था कि यदि वह सच्चरित्र होता तो एक राम क्या हजार राम मिल कर भी न मार पाते। वह अपने चारित्रिक पतन के कारण ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसे राम ने नहीं मारा, उसने स्वयं ही अपने को मार लिया। भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है :-

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥

-गीता 6/6

‘जिस जीवात्मा ने मन और इन्द्रियों के सहित अपने शरीर को जीत लिया है, वह जीवात्मा स्वयं ही अपना मित्र है और जिस जीवात्मा ने अपने मन इन्द्रियों सहित देह को जीता है, उसके साथ वह स्वयं शत्रु के समान भाव रखता है।’

परन्तु राम ने रावण को हथियार के बल पर जीता, प्रेम के बल पर नहीं, इसलिए रावण तो मारा गया, किन्तु रावणत्व का नाश नहीं हुआ। आज रावण के समान बुरे काम करने वाले व्यक्तियों की कमी नहीं है। यदि गणना करने लगें तो सहस्रों रावण दिखाई देंगे और राम खोजने पर भी कहीं न मिलेंगे।

यदि किसी प्रकार रावण को प्रेम के बल पर झुकाया जा सकता तो आज संसार की रूप-रेखा नए प्रकार की होती। यदि कंस को किसी प्रकार समझा कर सत्वगुण सम्पन्न बनाया जा सकता तो उसके साथ जरासंध आदि भी धर्म के प्रचार में लग गए होते। यदि दुर्योधन को ज्ञान और कर्म का उपदेश दिया जा सकता तो महाभारत से संसार का विनाश न हुआ होता। इससे हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि राम और कृष्ण ने भूल की, बल्कि प्रयोजन यह है कि किसी प्रकार ऐसा होना सम्भव होता तो क्यों इतना भारी विनाश होता?

कब क्या हो सकता है? यह समय की परिस्थिति पर ही निर्भर है। चेष्टा की जाए तो परिस्थितियाँ भी बदल सकती हैं। अशान्ति के दावानल को बुझाने के लिए छोटे दायरों से निकल कर विराट बनना होगा। हृदय की क्षुद्रता को भी दूर कर समुद्र के समान गंभीर और विशाल होना होगा। जब आपके हृदय में प्रेम, कल्याण, दया, सेवा और सद्भावना का बीज अंकुरित हो जाएगा, तब आपको संसार का महान ऐश्वर्य भी तुच्छ लगने लगेगा। आपकी आत्मा व्यक्तिवाद से उठकर समष्टिवाद की ओर बढ़ेगी।

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