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Magazine - Year 1960 - Version 2

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Language: HINDI
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हम पहले अपने को ही क्यों न सुधारें?

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मनुष्य जीवन में आये दिन उपस्थित रहने वाली कठिनाइयों का कुछ ठिकाना नहीं, कोई व्यक्ति इस संसार में ऐसा नहीं जिसे किसी न किसी प्रकार की आपत्तियों और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना न करना पड़ता हो, इस विश्व का निर्माण सत, रज, तम इन तीनों गुणों के मिलने से हुआ है। निस्संदेह दुनिया में सज्जनता, नेकी, सौहार्द, स्नेह और सहयोग की पर्याप्त मात्रा मौजूद है उससे प्रेरित होकर लोग एक दूसरे की भलाई करते हैं, स्वयं कष्ट उठाकर दूसरों को सुख पहुँचाते हैं तथा औरों के दुर्व्यवहार सहन कर लेते हैं। इस संसार में आनन्ददायक तत्व भी कम नहीं हैं। यदि आशा और उल्लास के कारण समुचित मात्रा में न हों तो कोई आत्मा जीवन को जीना ही स्वीकार न करती। कठिनाइयों के बावजूद सुविधाओं और आकर्षणों की इतनी बड़ी मात्रा मौजूद है कि यदि मृत्यु का प्रश्न सामने आवे तो हर कोई उसे नापसंद करता है और दुःखी होता है। मृत्यु का भय और इस बात की मात्रा ही अधिक है।

फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज के युग में सर्वत्र सुखों की अपेक्षा दुःखों की ही वृद्धि हो रही है, भलाई के स्थान पर बुराई पनप रही है, सज्जनों की अपेक्षा दुर्जनों का ही बाहुल्य हो रहा है फलस्वरूप आनन्द और सन्तोष की अपेक्षा दुख और असन्तोष की बढ़ोतरी दिखाई देती है। तृष्णा और वासना की ओर लोगों का झुकाव अधिक हो जाने से व्यक्ति, दूसरों के प्रति सेवा और सद्भावना का व्यवहार करने की अपेक्षा आक्रमणात्मक रुख अपनाये हुए हैं। दूसरों को हटाकर या किसी अन्य प्रकार से मजबूर करके उसके तत्वों का अपहरण करने और स्वयं मौज मजा करने की इच्छाएं हर किसी के मन में, काम करने लगी हैं। इसके परिणामस्वरूप संघर्ष, क्लेश, असन्तोष, द्वेष आदि दुर्भावों की तथा अनाचार मूलक दुर्घटनाओं की अभिवृत्ति का कुचक्र चल पड़ा है। वासना ग्रसित मनुष्य अधिकाधिक इन्द्रिय सुखों की हविस से पागल होकर स्वाभाविक मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगा है फलस्वरूप बीमारी दुर्बलता और अल्प जीवन का शिकार उसे होना पड़ रहा है।

इन परिस्थितियों में यदि कोई साधारण मनःस्थिति का व्यक्ति अपने चारों ओर अप्रिय, कष्ट-कर दुर्गन्धित वातावरण अनुभव करे और उससे दुखी रहे तो यह स्वाभाविक ही है। आज अधिकाँश व्यक्ति खिन्न और असंतुष्ट दिखाई पड़ते हैं इसके कारण में आवश्यकता की अपेक्षा साधन सामग्री की कमी, वातावरण में अनाचार की अधिकता तथा असज्जनता दुष्टता से पूर्ण व्यवहार जैसे कारण ही प्रधान हैं।

प्रश्न यह है कि क्या इन विषम परिस्थितियों के होते हुए भी हम उनसे किसी कदर अपने को अप्रभावित रख सकते हैं, उनकी प्रतिक्रिया से अपने को कम से कम प्रभावित किये अपना गुजारा कर सकते हैं, यदि ऐसा मार्ग मिलता है तो निश्चय ही इसे बड़ी बात कहा जा सकता है।

यह बात ध्यान रखने की है कि हर परिस्थिति, हर घटना, हर वस्तु के लिए कुछ बातें अनुकूल हैं तो कुछ प्रतिकूल पड़ती हैं। उनका विशेष प्रभाव अनुकूलों पर ही होता है, प्रतिकूलों पर या तो वह प्रभाव होता ही नहीं, होता भी है तो बहुत कम। आग का विशेष प्रभाव सूखी लकड़ी पर जितना होता है उतना गीली पर नहीं, पानी को जितना रेतीली जमीन सोखती है उतना पथरीली जमीन नहीं, बीमारी का आक्रमण जितना अशुद्ध रक्त वालों पर होता है उतना शुद्ध रक्त वालों पर नहीं, रंग जितना साफ कपड़े पर चढ़ता है, उतना गंदे पर नहीं, इसी प्रकार बुरी परिस्थितियों, बुरे तत्वों और बुरे व्यक्तियों का प्रभाव भी हलके दर्जे की मनोभूमि के लोगों पर ही पड़ता है। ऊंची और सुसंस्कृत मनोभूमि के लोग उससे बहुत कम ही प्रभावित होते हैं।

कुमार्ग पर ले जाने वाली अनेकों बुराइयाँ जगह-जगह मौजूद हैं और वे अपना क्षेत्र बढ़ाने के लिये भी सक्रिय रहती हैं। अनेकों व्यक्ति उनके चंगुल में फंसते हैं और अपने आपको उस रंग में इतना रंग लेते हैं कि फिर इस जाल से निकल सकना कठिन हो जाता है। जुए बाजी के, शराब खोरी के, सिनेमाबाजी के, व्यभिचार के, आवारागर्दी के, शैतानी के अड्डे हर जगह पाये जाते हैं, उनके जाल में अनेक लोग रोज ही फंसते हैं और अपना समय, स्वास्थ्य, धन लोक परलोक सभी कुछ गंवा कर छूँछ हो जाते हैं। इससे उन बुराइयों की शक्ति और सफलता का अन्दाज सहज ही लगाया जा सकता है।

पर यह प्रभाव एक खास तरह की उथली मनोभूमि के लोगों पर ही पड़ता है, वे ही इनके चंगुल में फंसते और बर्बाद होते हैं। उनका प्रभाव सभी पर पड़े ऐसी बात नहीं है। जहाँ एक व्यक्ति इन बातों में आसानी से ग्रस्त हो जाता है। वहाँ, उसी क्षेत्र का, उसी का पड़ोसी, उसी परिस्थितियों का व्यक्ति उन बातों से सर्वथा दूर रहता है। दूर ही नहीं रहता वरन् उन बुराइयों से घृणा भी करता है उनका विरोध भी। इस प्रकार यह स्पष्ट देखा जाता है कि जहाँ एक व्यक्ति उन बुराइयों के चपेट में अपनी आन्तरिक दुर्बलता के कारण सहज ही आ गया वहाँ दूसरा व्यक्ति उनसे अप्रभावित ही नहीं रहा वरन् उनके उन्मूलन में भी बहुत दूर तक सफल हुआ इससे यह अन्दाज भी लगता है कि बुराइयों में उनके अड्डों में अपना प्रभाव विस्तार करने की जो शक्ति है वह वहीं तक सीमित है जहाँ व्यक्तियों की मानसिक दुर्बलताएं उनके अनुकूल पड़ती हों, यदि मनोभूमि परिष्कृत हो तो उन बुराइयों का वहाँ पनपना ही नहीं ठहरना भी असम्भव हो जाता है।

यही बात बुरे व्यक्तियों के बारे में भी लागू हो जाती है। वे तरह-तरह से हमें सताने का षडयंत्र करते हैं और कई बार अपनी करतूतों में सफल भी होते हैं पर उसका कुचक्र हर किसी के ऊपर नहीं चल सकता वे बहुत शक्तिशाली होते हुए भी हर किसी को अपनी दुष्टता से मनचाही मात्रा में सता सकने में सफल नहीं हो पाते। उनके आक्रमण का शिकार भी बहुत बार उन्हीं को होना पड़ता है जो अपने भीतर उस तरह की दुर्बलताएं धारण किये हुए हैं जिन पर दुष्टता का आक्रमण सफल हो सके।

ठगों के जाल में अनेक लोग फंस जाते हैं और उनके द्वारा बहुत ही हानि उठाते हैं पर उन समस्त लोगों में अधिकतर ऐसी मनोवृत्ति के लोग होते हैं जो बहुत सस्ते में, बहुत सा लाभ प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं। जिन्हें अपनी योग्यता एवं श्रम के आधार पर परिश्रम की कमाई पर संतोष है जो केवल नीतिपूर्वक उचित तरीके से जितना प्राप्त हो सकता है उससे काम चलाते हैं और प्रसन्न रहते हैं उन्हें कोई ठग नहीं ठग सकता। यों ठगी के अनेकों तरीके हैं पर उनमें सिद्धान्त एक ही काम करता है कि ठग लोग यह सोचते हैं कि शिकार में लालच पर्याप्त है कि नहीं, वह योग्यता और श्रम की बात को भुलाकर जैसे बने वैसे अधिक लाभ प्राप्त करने का इच्छुक है कि नहीं? यदि है तो ठग समझ लेते हैं कि यह हमारा पक्का शिकार है। इसे ठगा जा सकता है। फिर भी नोट दूना कराने, ताँबे से सोना बनाने, जमीन में से गढ़ा धन निकालने कोई बड़ा लाभ करा देने आदि के प्रलोभन देकर लोगों को लालायित करते हैं और यह निर्विवाद है कि लोभ में मनुष्य अन्धा हो जाता है, उसे उचित अनुचित, संभव असंभव, कुछ सूझता नहीं, ऐसी मनोदशा जब उत्पन्न कर लेते हैं तब ठग उसका माल असबाब लेकर चम्पत हो जाते हैं। यदि मनुष्य निर्लोभ हो तो इस प्रकार के प्रलोभनों के सामने आते ही उनके गुण अवगुण पर विचार करेगा, प्रलोभनकारी क्यों इतना उदार बन रहा है इस पर दृष्टि डालेगा। उसका विवेक सावधान रहा तो कुछ ही विचारने पर वास्तविकता का पता लग जायेगा और वह उस प्रयत्न में फंस कर अपनी हानि कराने से बचा रहेगा।

इसी प्रकार जिसके मन में अनुचित लोभ वृत्ति न होगी वह जुआ, लाटरी, सट्टा आदि की बुरी लतों से बचा रहेगा। चोरी, उठाईगीरी, बदमाशी बेईमानी के लिए न तो उसकी इच्छा होगी और वह अपकीर्ति नरक निन्दा राजदंड आदि की आपत्तियों से बचा रहेगा। इन दुष्कर्मों के अड्डे चाहे उसके कितने ही समीप क्यों न हों उनका कोई आकर्षक प्रभाव उस पर नहीं पड़ेगा वे उसे आकर्षित करने में समर्थ न हो सकेंगे।

आजकल इन्द्रिय मनोरंजनों के अनेक साधन चल पड़े हैं, उनकी ओर इन्द्रियाँ लालच के साथ आकर्षित हो जाती हैं और उन्हें अधिकाधिक मात्रा में भोगने के लिए मचलती हैं। दुर्बल मनोभूमि के लोग उनमें फिसलते हैं और अमर्यादित उपभोग के लालच में अपना शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़ लेते हैं। सिनेमा, नाच आदि मनोरंजन, मिठाई मसाले, चाट पकौड़ी आदि भोजन काम विकार की अनुचित प्रक्रियाएं उपलब्ध करने के अनेकों अवसर आज सर्वत्र मौजूद हैं और वे जन-साधारण के लिए बड़े हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं पर वह उन्हें ही उठानी पड़ती है, जिनकी विवेक शक्ति दुर्बल है, जो दूरवर्ती हानि-लाभ की परवा किए बिना आज के अभी के छोटे से आकर्षण में फंस जाते हैं। यदि यह विवेक दुर्बलता न हो तो यह प्रलोभन किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते। ऐसे असंख्यों व्यक्ति हैं जो इनकी व्यर्थता और हानियों को जानते हैं और जबकि दूसरे लोग इनमें बुरी तरह फंसे होते हैं वे इनकी और आँख उठा कर भी नहीं देखते।

झगड़ालू, दुष्ट, उद्दण्ड, उच्छृंखल अशिष्ट लोग कई बार अपने दुष्ट स्वभाव से अकस्मात ही कटुवचन कहते और दुर्व्यवहार करते देखे गये हैं। ऐसे लोगों से निपटने का सरल तरीका तो उन्हें यह अनुभव करा देना ही है कि उद्दण्डता को रोकने वाली शक्तियाँ भी इस दुनिया में मौजूद हैं और वे मनमानी करने वालों को वैसा न करने के लिए मजबूर कर सकती हैं। ऐसी शक्ति किसी मजबूत संगठन, शरीरबल या सत्ता बल से ही उत्पन्न हो सकती है। देखा जाता है कि आज की बढ़ती हुई गुण्डागर्दी को रोकने के लिए जैसा विरोधी प्रबल जनमत आवश्यक है वैसा उठ नहीं रहा है वरन् लोग अपनी सुरक्षा का ख्याल करके उन गुण्डों का ही सहयोग और समर्थन करने लगते हैं।

जो हो उन लोगों की उद्दण्डता को तभी अवसर मिलता है जब सामने वाले में भी थोड़ी वैसी ही अनुकूलता हो। उनसे उदासीन रहना न संपर्क बढ़ाना, न झगड़ा मोल लेना, न डरना, न खुशामद करना, छेड़ना ऐसी अपनी नीति हो तो उनकी गुण्डागर्दी बढ़ना हद तक, नियमित हो जाता है। उद्दण्ड व्यक्ति यह देखते रहते हैं कि कौन आदमी उनसे डरता और खुशामद करता है वे समझ लेते हैं कि यह हमसे डरता है बस यही एक कारण ऐसा प्रतीत होता है कि इसे और डरा धमका कर अनुचित स्वार्थ सिद्ध करना चाहिए। बन्दर का किसी आदमी से या बच्चे से मुकाबला पड़े तो वह सामने वाले की आँखों और चेहरे को ध्यानपूर्वक देख कर यह पहचानता है कि यह मुझसे डर रहा है या नहीं भागने की सोच रहा है या नहीं, यदि उसको सामने वाला डरता और भागता दीखा तो वह समझ लेता है कि जीत मेरी ही है, बस वह दौड़ पड़ता है और काट खाता है। यदि यह छोटा बच्चा भी निडर होकर हाथ में एक छोटा पत्थर या लकड़ी का टुकड़ा भी लिये खड़ा रहे तो बन्दर अपनी दाल गलती न देख कर चला जाता है। यह बात उद्दण्ड लोगों के संबंध में भी है। यदि हम अपने मन में उनकी विशेषता स्वीकार न करें, उनकी परवा न करें और डरने या खुशामद करने की न सोचें तो हमारी इस उपेक्षा के पीछे हमारे आत्मबल और साहस को छिपा हुआ देखेंगे और फिर उलझने की हिम्मत न करेंगे।

एक और भी बात है कि ऐसे लोगों को अपनी ओर से छेड़ना न चाहिए। साँप, बरें, भेड़िये आदि दुष्ट प्रकृति के जीव वैसे तो अपनी आन्तरिक दुर्बलता के कारण भीतर ही भीतर डरते रहते हैं पर छेड़ने पर उनकी मनोभूमि दुर्बल पड़ती है और वे आगे बढ़ कर अनर्थ करने पर उतारू हो जाते हैं फिर चाहे वे उस संघर्ष में स्वयं ही क्यों न पिस जाएं। इसलिये सुनिश्चित रूप से इतनी शक्ति न हो कि उन्हें भली प्रकार दबाया जा सके तब तक छेड़छाड़ न करनी चाहिए क्योंकि यदि उन्हें किसी संघर्ष में विजय मिलती है तो आगे के लिए उनकी हिम्मत और भी अधिक बढ़ जाती है। इसलिए जहाँ तक हो सके अपनी ओर से तब तक छेड़छाड़ न करने की नीति ही अपनानी उचित है जब तक कि उपयुक्त अवसर दृष्टिगोचर न हो।

इसी प्रकार दूसरों की साधारण छेड़छाड़ की भी उपेक्षा कर देनी चाहिए क्योंकि साधारण बात पर जो लोग बहुत आवेश में आ जाते हैं, बहुत घबराते और परेशान होते हैं वे भी मानसिक दृष्टि से दुर्बल माने जाते हैं और दुर्बल पर आक्रमण करने की हर किसी की इच्छा होती है। आवश्यकतानुसार विरोध किया जा सकता है और संघर्ष का अवसर आने पर उसके लिए भी प्रस्तुत रहना चाहिए। पर उसके लिए यह आवश्यक है कि अधीरता, आवेश, उत्तेजना, घबराहट, रोष एवं बेचैनी की अपनी स्थिति न बन जाय वरना सामने वाला अपनी दुर्बलता भाँप लेगा और समय-समय पर थोड़ा-थोड़ा चिढ़ाते या छेड़ते रह कर हमें और भी अधिक परेशान किये रहेगा। अपने चेहरे पर निर्भीकता, दृढ़ता, साहस, धैर्य एवं अनुद्वेष के भाव ही और सीधे शब्दों में उसे समझ लिया जाय तो वह सामने वाले की मजबूती को भाँप कर समझ भी जाता है क्योंकि कोई भी गुण्डा वस्तुतः पहले सिरे का कायर होता है। वह बाहर से जितना शेर बनता है उतना ही भीतर से पोला कमजोर भी होता है।

दैवी आपत्तियाँ, बीमारी, घाटा अपमान किसी प्रियजन की मृत्यु, विछोह, चोरी, अग्निकाँड आदि कई आकस्मिक कारण भी ऐसे आ जाते हैं जब अप्रत्याशित रूप से मनुष्य को कोई हानि एवं वेदना सहन करनी पड़ती है। ऐसी परिस्थितियाँ आने पर जो लोग भावावेश में बह जाते हैं, उस हानि को अत्याधिक बढ़ा-चढ़ाकर सोचते हैं, व्याकुल और बेचैन हो जाते हैं, सर्वनाश हुआ देखते हैं और भविष्य के बारे में घोर अन्धकारपूर्ण मानस चित्र बनाते हैं, वे लोग ही अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और आत्महत्या सरीखे कोई दुखद कार्य कर डालते हैं या इतने दुखी रहते हैं कि अपना स्वास्थ्य ही जला डालते हैं और आयु का एक बड़ा भाग कम कर लेते हैं। इसके विपरीत जो लोग इस तथ्य से परिचित हैं कि- “मानव जीवन सुख और दुख के, लाभ और हानि के, सम्पत्ति और विपत्ति के ताने-बाने से बुना हुआ है, यह दोनों ही रात-दिन के गर्मी-सर्दी के जोड़े की तरह आती और जाती ही रहती हैं, इनके प्रभाव से कोई राजा रंक अछूता नहीं रहता, यह सभी के लिए स्वाभाविक एवं अवश्यंभावी है।” उसे इन आपत्तियों का इतना गम नहीं होता जितना भावुक और दुर्बल मनोभूमि के लोगों को होता है। वे समझदार व्यक्ति विवेक पूर्वक अपना मन समझा लेते हैं, आपत्ति के कारण लगे हुए आघात की मरहम पट्टी कर लेते हैं और काम चलाऊ साधारण स्थिति तक थोड़े ही समय में आसानी से जा पहुँचते हैं।

एक प्रकार की स्थिति दो अलग-अलग व्यक्तियों पर उनकी मनोभूमि के अनुसार अलग-अलग प्रकार के प्रभाव डालती है। संसार में बुराई और भलाई सभी कुछ पर्याप्त मात्रा में मौजूद है पर हम अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुसार उसे ही पकड़ते हैं जो अपने को रुचता है। यदि यह रुचि परिमार्जित हो तो संसार में जो कुछ श्रेष्ठ है उसे ही पकड़ने के लिये अपने प्रयत्न होते हैं और जिस प्रकार शहद ही मक्खी बगीची में से शहद और गुबरीले कीड़े गोबर इकट्ठा करते रहते हैं, उसी प्रकार अपनी मनोभूमि के अनुसार हम भी बुरे या भले तत्वों से अपना सम्बंध जोड़ कर अपने पल्ले सुख या दुख इकट्ठा कर सकते हैं। संसार में बुरा भला सभी कुछ है पर हम प्रायः उन्हीं तत्वों को आकर्षित एवं एकत्रित करते हैं जिस प्रकार की अपनी मनोदशा होती है।

इन सब बातों पर विचारशील व्यक्ति इस एक ही निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि हम जैसी परिस्थितियाँ प्राप्त करना चाहते हैं उसी के अनुसार अपनी मनोभूमि को ढाले। आत्मनियंत्रण और आत्म निर्माण के आधार पर हम अपने लिए अपनी भली बुरी दुनिया का निर्माण आप कर सकते हैं। अपने भाग्य के निर्माता स्वयं बन सकते हैं।

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