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Magazine - Year 1961 - Version 2

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कठिन समस्याओं का सरल समाधान

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अध्यात्म का उपदेश

प्रसन्नता, अप्रसन्नता, आत्मरक्षा, संघर्ष, जिज्ञासा, प्रेम, सामूहिकता, संग्रह, शरीर पोषण, क्रीड़ा, महत्व प्रदर्शन, भोगेच्छा यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ है। शरीर और मन परिस्थितियों के अनुसार इन परिस्थितियों के क्षेत्र में विचरण करते रहते है। उसकी एक अध्यात्मिक विशेषता भी है जिसे महानता, धार्मिकता, आस्तिकता, दैवी सम्पदा आदि नामों से पुकारते है। उसके द्वारा मनुष्य दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपने आपको कष्ट में डाल कर भी प्रसन्नता अनुभव करता है। दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दुःख मानता है। जिस प्रकार अपने सुख को बढ़ाकर और दुःख को घटाकर प्रसन्नता का अनुभव होता है इसी प्रकार दूसरों में आत्मीयता का आरोपण करके उनके हित साधन में भी संतोष और सुख का अनुभव होता है।

यह उदारता एवं सेवा की वृत्ति तभी प्रस्फुटित होती है जब मनुष्य अपने आपको संयमित करता है। अपने लिए सीमित लाभ में संतोष करने से ही दूसरों के प्रति कुछ उदारता प्रदर्शित करना संभव होता है। इसलिए इस सर्वतोमुखी संयम को नैतिकता या धर्म के नाम से पुकारा जाता है। इसी का अभ्यास करने के लिए नाना प्रकार के जप, तप, व्रत अनुष्ठान किये जाते है। शास्त्र श्रवण, स्वाध्याय और सत्संग का उद्देश्य भी इन्हीं प्रवृत्तियों को विकसित करना है। चरित्र निर्माण और नैतिकता भी इसी प्रक्रिया का नाम है। पुण्य, परमार्थ भी इसी को कहते है और स्वर्ग तथा मुक्ति इसके फल माने गये है। ईश्वर उपासना के महात्म्य से यह आत्म-निर्माण का कार्य अधिक सरलता से पूर्ण होता है।

सरलता और सान्त्वना चाहिए।

दुखियों को तुम्हारी सान्त्वना भी आवश्यकता है। परेशान और पीड़ित मनुष्य दूसरों से यह आशा करता है कि उसके कष्ट में कमी करने के लिए कोई सहायक व्यक्ति उससे साधनों से न सही कम से कम वचन और भावना द्वारा उसे आश्वासन प्रदान करेंगे।

जिन भूलों के कारण उसे दुःख उठाना पड़ा, इनको व्यंग भरे छेदने वाले शब्दों से कहना, ताना देना, उपहास उड़ाना असज्जनता भरा अमानवीय कार्य है। दुःख देने के लिए उसकी परिस्थितियाँ ही पर्याप्त है, कटु शब्दों के डंक मार कर उसकी व्यथा और बढ़ाकर हम उसका क्या उपकार करते है?

कोई परेशान व्यक्ति आपके पास इसलिए नहीं आता कि उसके कष्ट को मर्मभेदी वचन कह कर

हृदय का संस्कार।

बुद्धि का संस्कार करना उचित है। पर हृदय का संस्कार करना तो नितान्त आवश्यक है। बुद्धिमान और विद्वान बनने से मनुष्य अपने लिए धन और मान प्राप्त कर सकता है। पर नैतिक दृष्टि से वह पहले दर्जे का पतित भी हो सकता है। आत्मा को ऊँचा उठाना और मानवता के आदर्शों पर चलने के लिए प्रकाश प्राप्त करना हृदय के विकास पर ही निर्भर है। बुद्धि हमें तर्क करना सिखाती है और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन खोजती है। जैसी आकाँक्षा और मान्यता होती है उसके अनुरूप दलील खोज निकालना भी उसका काम है पर धर्म कर्तव्यों की ओर चलने की प्रेरणा हृदय से ही प्राप्त होती है।

जब कभी बुद्धि और हृदय में मतभेद हो, दोनों अलग अलग मार्ग सुझाते हो तो हमें सदा हृदय का सम्मान और बुद्धि का तिरस्कार करना चाहिए। बुद्धि धोखा दे सकता है पर हृदय के दिशासूचक यंत्र (कुतुबनुमा) की सुई सदा ठीक ही दिशा के लिए मार्ग दर्शन करेगी।

गलतियाँ और उनके सुधार

तैरना सीखने वाला डूब जाने के सिवाय और सब गलतियाँ कर सकता है। तब वह अचानक किसी दिन देखता है कि उसे तैरना आ गया। इसलिए गलतियाँ होती है तो निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जिस तरह बिना गलतियाँ किये तैरना नहीं आता उसी तरह गलतियों के बिना जिन्दगी जीना भी नहीं सीखा जाता।

मनुष्य अपूर्ण है इसलिए उसके कार्यों में गलती हो सकती है। इसमें शर्म की कोई बात नहीं है शर्म की बात यह है कि गलती को सही साबित करने और उस पर अड़े रहने की कोशिश की जाय। गलती को ढूँढ़ना मानना और सुधारना किसी मनुष्य के बड़प्पन का कारण हो सकता है। जो सीखने और सुधारने में लगा हुआ है वही एक दिन उस स्थिति को पहुँचेगा जिसमें त्रुटियों और बुराइयों से छुटकारा मिलता है।

दुर्भावनाओं का स्वास्थ्य पर प्रभाव

अस्वस्थ मन वाले व्यक्ति का शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता। जिसका मन चिन्ता, भय, शोक, क्रोध, द्वेष, घृणा आदि से भरा रहता है उसके वे अवयव विकृत होने लगते है जिनके ऊपर स्वास्थ्य की आधार शिला रखी हुई है। हृदय, आमाशय, जिगर, आँतें, गुर्दे तथा मस्तिष्क पर मानसिक अस्वस्थता का सीधा असर पड़ता है। निष्क्रियता आती है उनके कार्य की गति मंद हो जाती है, अन्न पाचन एवं शोधन, जीवन कोषों का पोषण ठीक प्रकार न होने से शिथिलता का साम्राज्य छा जाता है। पोषण के अभाव से सारा शरीर निस्तेज और थका मादा सा रहने लगता है। जो विकार और विष शरीर में हर घड़ी पैदा होते रहते है, उनकी सफाई ठीक प्रकार न होने से वे भीतर ही जमा होने लगते है। इनकी मात्रा बढ़ने से रक्त में, माँस पेशियों में और नाडियों में विष जमा होने लगता है जो अवसर पाकर नाना प्रकार के रोगों के रूप में फूटता रहता है। ऐसे लोग आये दिन किसी न किसी बीमारी से पीड़ित रहते देखे जाते है। एक रोग अच्छा नहीं होता कि दूसरा नया खड़ा होता है।

दुश्चिंताऐं जीवन शक्ति को खा जाती है। शरीर के अंदर एक विद्युत शक्ति काम करती है, उसी की मात्रा पर विभिन्न अवयवों की स्फूर्ति एवं सक्रियता निर्भर रहती है। इस विद्युत शक्ति का जितना ह्रास मानसिक उद्वेगों से होता है उतना और किसी कारण से नहीं होता। पन्द्रह दिन लंघन में जितनी जितनी शक्ति नष्ट होती है उससे कही अधिक हानि एक दिन के क्रोध या चिन्ता के कारण हो जाती है। जिसका मन किसी न किसी कारण परेशान बना रहता है, जिसे अप्रसन्नता, आशंका तथा निराशा घेरे रहती है उसका शरीर इन्हीं अग्नियों से भीतर ही भीतर घुलकर खोखला होता रहेगा। चिन्ता को चिन्ता की उपमा दी गई है वह अकारण नहीं है। वह एक तथ्य है। चिन्तित रहने वाला व्यक्ति घुल घुलकर अपनी जीवन लीला को समय से बहुत पूर्व ही समाप्त कर लेता है।

उदारता और कठोरता।

दूसरों के साथ उदारता का व्यवहार केवल वे कर सकते है जो अपने प्रति कठोर होते है। जो अपने साथ रियायत चाहते है उन्हें दूसरों के साथ कठोर बनना पड़ता है। तराजू का एक पलड़ा ही झुक सकता है और वह भी तब, जब दूसरा ऊपर उठता है। यदि मनुष्य अपने लिए अधिक सुविधायें चाहेगा तो स्वभावतः उसे दूसरों की उपेक्षा करनी पड़ेगी दूसरों के प्रति जितनी अधिक ममता और करुणा होगी उतनी ही अपनी जरूरतें घटाकर, अपनी सुविधाएँ हटा कर उन्हें जरूरतमन्दों के लिए लगाने का भाव जागेगा उदार हृदय व्यक्ति अन्ततः बिल्कुल खाली हाथ और निरन्तर सेवा परायण हो जाता है। इसलिए उसकी महानता है।

जब तक आक्रमण की, प्रतिहिंसा की, बदला लेने की या किसी को चोट पहुँचाकर सन्तुष्ट होने की इच्छा जीवित है तब तक हमारे अन्दर असुरता एवं दुष्टता विद्यमान है यह मानना होगा। जब इस दिशा में उत्पन्न होने वाला उत्साह उपेक्षा में बदलने लगे तो समझना चाहिये वह दुष्टता शांत होती जाती है। जब दूसरों की भूलों के प्रति क्षमा का, दूसरों के प्रति करुणा का, और दूसरों के अभावों के प्रति सहानुभूति का भाव उदय होने लगे तो समझना चाहिए कि मानवता विकसित हो रही है। यह विकास इस सीमा तक पहुँच जाय कि हानि पहुँचाने और शत्रुता रखने वालों को भी सुख पहुँचाने का प्रयत्न किया जाय तो समझना चाहिए कि साधुता प्रकट होने लगी।

जीवन एक समझौता है।

जीवन एक समझौता है, सिर उठाकर चलने में सिर कटने का खतरा है। जो पेड़ अकड़े खड़े रहते हैं वे ही आँधी से उखड़ते देखे गये हैं। बेंत की बेल जो सदा झुकी रहती है हर आँधी तूफान से बच जाती है। धरती पर उगी हुई घास को देखो वह आँधी से टकराती नहीं वरन हवा चलने पर उसी दिशा में मुझ जाती है जिधर को हवा का रुख होता है। इस परिस्थिति का परखने वाली घास का कोई आँधी तूफान कुछ बिगाड़ नहीं सकता।

नवकर चलो। मत कहो कि हमीं सही है और हमारी बात सब को माननी चाहिए। मत समझो कि तुम्हीं सबसे श्रेष्ठ निर्दोष और बुद्धिमान हो। दूसरे लोग भी अपने दृष्टिकोण के अनुसार सही हो सकते है और हो सकता है जिन परिस्थितियों में वे रहे है उनमें उनके लिए वैसा ही सोचना, बनना, करना भी स्वाभाविक हो। इसलिए दूसरों को समझने की कोशिश करो। उनके दृष्टि कोण की, उनकी परिस्थितियों की भिन्नता को स्वीकार करो। इस दुनियाँ का सारा कारोबार एक दूसरे को समझने और सहन करने की नींव पर ठहरा हुआ है। समझौता ही जीवन का प्रधान आधार है। यदि तुम अड़ियल और जिद्दी बनकर अपने ही मत की श्रेष्ठता प्रतिपादन करते रहोगे तो कुछ ही दिन में अपने को अकेला पड़ा हुआ और असफलता के गर्त में गिरता हुआ पाओगे।

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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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Version 2
Type: TEXT
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