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Magazine - Year 1961 - Version 2

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महान कर्मयोगी स्वामी विवेकानन्द

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(श्री भारतीय योगी)

हिन्दू धर्म में अनेक प्रकार की साधन-प्रणालियाँ प्रचलित है, जिनका उद्देश्य आत्मा की उन्नति के पथ पर अग्रसर होते हुए जीवनमुक्ति की स्थिति को प्राप्त करना बतलाया गया है। अगर विभिन्न सम्प्रदायों और पंथों की दृष्टि से विचार किया जाय तो इन प्रणालियों की संख्या सैंकड़ों तक गिनी जा सकती है, पर जिन प्रणालियों को सब प्रकार के विचारों के विद्वानों ने सर्व सम्मति से श्रेष्ठ और प्रभावशाली स्वीकार किया है वे तीन है- कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग। कर्म योग का अर्थ है निष्काम भाव से परोपकार और सेवा के कार्य करना। परमात्मा के प्रति एकान्त भाव से भक्तिभाव रखते हुये परमार्थ करना भक्तियोग है। ज्ञान मूलक कर्म द्वारा भगवान प्राप्ति का प्रयत्न करना ज्ञान योग हे। इस प्रकार बाह्य दृष्टि ये तीन पृथक् पृथक् मार्ग है, पर वास्तव में सबका उद्देश्य लोक सेवा और परपीडा निवारण ही माना गया है। अब तक के उदाहरणों पर विचार करने से हमको तो यही दिखलाई देता है कि जिन साम्प्रदायिक विद्वानों अथवा आचार्यों ने इन तीनों की विभिन्नता और किसी एक मार्ग की श्रेष्ठता का आग्रह किया है, उन्होंने विवाद के अतिरिक्त वास्तव में लोकोपकार का कोई कार्य नहीं किया, जब कि वास्तविक कार्य करने वाले महापुरुषों ने कभी इस बात पर विचार ही नहीं किया कि इनमें से कौन मार्ग श्रेष्ठ और कौन साधारण है, अथवा हम किसका अनुसरण करें?

स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे ही महापुरुष थे। उनका जीवन आरम्भ से ही आध्यात्मिक नहीं था और एक समय था जब कि वे ईश्वर के अस्तित्व में भी संदेह प्रकट किया करते थे, पर तब भी उनमें निष्कामभाव से सेवाकार्य की भावना मौजूद थी। स्कूल और कालेज में पढ़ते समय से ही वे आवश्यकता पड़ने पर अपने सभी साथियों की हर प्रकार से सहायता करने में दत्तचित्त रहते थे। इसके पश्चात् जब श्रीरामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आये तब भी उन्होंने अपने समस्त गुरुभाइयों की सेवा करनी और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये स्वयं अधिक से अधिक परिश्रम और प्रयत्न करना ही अपना लक्ष्य रखा। परमहंस देव के इहलीला संवरण करने के पश्चात् जब परिव्राजक बनकर उन्होंने देश भ्रमण किया तो मार्ग में अलवर, खेतड़ी, लिम्बडी, मैसूर, रामनद आदि अनेक राज्यों के शासक उनके भक्त बन गये और उन सबने उनसे अपने यहाँ सुख पूर्वक रहकर साधन भजन करने का अनुरोध किया। पर उन्होंने उत्तर में सदैव यही कहा कि “मैं नहीं मानता कि इस प्रकार एकान्त में बैठकर साधन करने से मनुष्य की मुक्ति हो सकती है। इस प्रकार के लाखों साधु संन्यासी लोगों के लिये क्या कर रहे है? तत्वज्ञान का उपदेश? पर यह तो पागलपन या ढोंग है। भगवान रामकृष्ण का यह कथन पूर्णतः सत्य है कि ‘भूखे मरते को धर्म का उपदेश व्यर्थ है। जहाँ लाखों लोगों को खाने को नहीं मिलता। वहाँ वे धार्मिक कैसे बन सकते है? इस लिये सबसे पहले देश वासियों को पेट की समस्या हो हल करने लायक उपयोगी शिक्षा देनी चाहिये। इस कार्य के लिये पहले तो कार्यकर्ता चाहिये। इस कार्य के लिये पहले तो कार्यकर्ता चाहिये। फिर धन की आवश्यकता है। यह कार्य मेरे जैसे भिखारी संन्यासी के लिये कठिन अवश्य है, पर गुरू की कृपा से मैं इस कार्य को पूर्ण करके रहूँगा। भारत के एक एक शहर से ऐसे व्यक्ति इकट्ठे होंगे। जिनका हृदय देशबन्धुओं की दशा सुधारने के लिये जल रहा है और जो इस कार्य के लिये जीवन अर्पण करने को तैयार है। पर पैसा! मैं देश भर में रंक से लेकर राजाओं के पास तक घूम चुका हूँ, इस लिये मैं कंगाल हिन्दुस्तान में किसी का सहारा न लेकर समुद्र पार करके पश्चिम के देशों में जाऊँगा, वहाँ से अपनी बुद्धि के प्रभाव से धन प्राप्त करके देशोद्धार की योजना को पूर्ण करूँगा या इसी प्रयत्न में प्राण उत्सर्ग कर दूँगा।”

यह है एक सच्चे कर्म योगी की भावना। इसका अर्थ यह नहीं कि स्वामी विवेकानन्द को भगवान का ध्यान नहीं था अथवा वे ज्ञान और मुक्ति के मार्ग से अनजान थे। नहीं वे तो पहले ही श्रीरामकृष्ण की कृपा से भगवान का साक्षात्कार प्राप्त कर चुके थे और अब भगवान के आदेश से ही उन्होंने भारतवर्ष की दुर्दशा को मिटाने का प्राण किया था। वे जानते थे कि निस्वार्थ भाव से सेवा करना ही आत्मा को अपने लक्ष तक पहुँचाने का सर्वोत्तम मार्ग है। जो व्यक्ति अन्य प्राणियों को कष्टों और आवश्यकताओं के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है, वह अध्यात्मिक मार्ग में कभी उन्नति नहीं कर सकता।

अपनी इस भावना को कार्य रूप में परिणित करने के लिये स्वामी जी सन् 1893 में, जब कि उन की आयु केवल 30 वर्ष की थी, और बहुत थोड़े साधन उनको प्राप्त थे, अमरीका जा पहुँचे। वहाँ कुछ ही दिनों में हजारों व्यक्तियों को हिन्दू-धर्म का प्रेमी बना दिया और सैंकड़ों ही उनके पास रह कर भारतीय साधन प्रणाली का अनुसरण करके आध्यात्मिक प्रगति में दत्तचित्त हो गये। स्वामी जी लगातार कई वर्ष तक अमरीका में और इंग्लैण्ड में धर्म-प्रचार करते रहे और फिर अपने निश्चय के अनुसार वहाँ के अनेक सुयोग्य तथा साधन सम्पन्न व्यक्तियों को लेकर भारतवर्ष वापस आये। पहले उन्होंने देश भर का दौरा करके जनता को जागृति का सन्देश सुनाया, मुक्ति का मार्ग दिखलाया और फिर अपने गुरु के नाम पर राम कृष्ण मिशन’ की स्थापना की जिसका एकमात्र लक्ष स्वामी जी की भावना के अनुसार भारतीय जनता की हर प्रकार से सहायता और उन्नति का प्रयत्न करना था।

स्वामी जी संकीर्णता की भावना से भी बहुत परे थे और वास्तव जिस किसी को धर्म के सत्य स्वरूप के दर्शन हुये है, वह चाहे किसी भी महत्व का अनुयायी क्यों न हो उसमें सब के प्रति सहिष्णुता, उदारता, प्रेम की भावना अवश्य पाई जाएगी। अमरीका की ‘सर्वधर्म महासभा’ में स्वामी जी ने सबसे पहले दिन जो संक्षिप्त भाषण दिया उसमें उन्होंने अपनी इस भावना को पूर्ण रूप से व्यक्त कर दिया। उन्होंने कहा कि “मुझे यह कहते गर्व होता है कि मैं जिस सनातन हिन्दू धर्म का अनुयायी हूँ उसने जगत को उदारता और विश्व को अपना समझने की उच्च भावना सिखाई है। इतना ही नहीं हम सब धर्मों को सच्चा मानते है और हमने प्राचीन काल में यहूदी और पारसी जैसे भिन्न धर्म वालों को भी अपने यहाँ आश्रय दिया था। मैं छोटेपन से नित्य कुछ श्लोकों का पाठ करता रहा हूँ और अन्य लाखों हिन्दू भी उनका पाठ करते है। उनका आशय यही है कि- “जिस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानों से उत्पन्न होने वाली नदियाँ अन्त में एक ही समुद्र में इकट्ठी हो जाती है, इसी प्रकार हे प्रभु! मनुष्य अपनी भिन्न-भिन्न प्रकृति के अनुकूल पृथक्-पृथक् धर्म-मार्गों से अन्त में तेरे ही पास पहुँचते है” इसी प्रकार गीता में भी भगवान ने यही कहा है कि “मेरे पास कोई भी व्यक्ति चाहे जिस तरह का आये, तो भी मैं उसे मिलता हूँ। लोग जिन भिन्न-भिन्न मार्गों से अग्रसर होने का प्रयत्न करते है, वे सब रास्ते अन्त में मुझ में ही मिल जाते है।” पंथ-द्वेष धर्मान्धता और इनसे उत्पन्न क्रूरतापूर्ण पागलपन के जोश ने इस सुन्दर धरती को दीर्घकाल से नष्ट कर रखा है; बार-बार भूमि को मानव रक्त से तर कर दिया है, और संस्कृति को छार-छार कर दिया है। पर अब इन बातों का समय पूरा हो चुका है और मैं आशा करता हूँ कि आज प्रातः इस सभा को आरम्भ करने का जो घण्टा बजाया गया था वह सब प्रकार की अनुदारता, संकीर्णता और तलवार तथा कलम द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों का अन्त करने वाला ‘मृत्यु घण्टा’ सिद्ध होगा।” स्वामी जी यद्यपि एक बहुत बड़े योगी थे और उन्होंने राजयोग की शिक्षा के लिए अमरीका में जो विद्यालय खोला था, उसमें शिक्षा पाकर कितने ही व्यक्ति प्रसिद्ध योगी बन गये हैं, पर उन्होंने कभी योग की सिद्धियों या अद्भुत शक्तियों की तरफ ध्यान नहीं दिया। उनकी सबसे बड़ी सिद्धि यही थी कि उन्होंने भिक्षुक के रूप में रहते हुए जिस सेवा संस्था का संकल्प किया उस राम-कृष्ण मिशन’ की शाखाऐं आज देश भर में फैली हैं और उसकी तरफ से सैंकड़ों बड़े-बड़े अस्पताल, स्कूल और अन्य सेवा कार्य संचालित हो रहे है। इसी प्रकार जब ये अमरीका की सर्वधर्म महासभा में भाग लेने पहुँचे तो न तो उनके पास प्रतिनिधि का टिकिट था, और न कहीं ठहरने का ठिकाना था। एक दिन तो उनको स्टेशन के बाहर पड़े खाली बक्स में घुसकर रात व्यतीत करनी पड़ी पर उनको एक एक करके अपने आप सहायता मिलती गई और वे सभा में व्याख्यान देने को पहुँच गये। उस समय तक अव्यवस्थित दशा रहने के कारण उन्होंने अपने भाषण की कुछ भी तैयारी नहीं की थी और न उस सम्बन्ध में कुछ विचार ही किया था, जब कि अन्य धार्मिक संस्थाओं के प्रतिनिधि महीनों से अपने भाषणों को तैयार करके और उनमें बहुत कुछ सुधार करके रट चुके थे। इसलिए अध्यक्ष के बार-बार कहने पर बहुत याद व्याख्यान मंच पर गये और विचार करने लगे कि ऐसी संसार प्रसिद्ध सभा के सामने क्या कहूँ। पर जैसे ही वे भाषण देने के स्थान पर खड़े हुए कि उनको अनुभव हुआ कि गुरुदेव श्रीराम कृष्ण पीछे खड़े उनको आशीर्वाद दे रहे है। बस उनका आत्मतेज जागृत हो उठा और उनका भाषण संसार के चुने हुए उन समस्त विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ माना गया।

इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द का लक्ष्य सदैव व्यवहारिक रूप में दीन जनों की सेवा उनका उद्धार रहा और इसी को उन्होंने सबसे बड़ा योग तथा परमात्मा का ध्यान जप, तप, माना। कलकत्ते में सन 1898 में जौन प्लेग का प्रकोप हुआ और सब जनता घबड़ा कर वहाँ से भागने को उद्यत हो गई, तो स्वामी जी ने नोटिस बँटवाकर लोगों को आश्वासन दिया और अपनी तरफ से सेवा योजना तैयार की। कई गुरु भाइयों ने शंका की कि इसके लिए धन कहाँ से आयेगा? स्वामी जी ने तुरन्त उत्तर दिया कि ‘यदि आवश्यकता होगी तो हमने अपने मठ के लिए जो स्थान खरीदा है उसे बेच देंगे। जब संन्यास लिया है तो हमें सदैव भिक्षा माँगकर खाने और पेड़ के नीचे रहने को तैयार रहना ही चाहिए।”

स्वामीजी का जीवन अन्त तक कर्ममय रहा। उनको बहुत अस्वस्थ देखकर एक दिन नाग महाशय ने विश्राम करने की सलाह दी तो उन्होंने कहा कि “गुरु महाराज मेरे भीतर जो शक्ति स्थापन कर गये हैं वह मुझे शान्त बैठने ही नहीं देती, निरन्तर कर्म के लिए ही प्रेरित करती रहती है। “यही कारण था कि जीवन के अन्तिम दिन (4 जुलाई 1902) को भी उन्होंने वेदान्त कालेज की योजना बनाकर उसे स्वामी प्रेमानन्द को समझाया। उस दिन उन्होंने अस्वस्थता का ध्यान न करके सब कार्य अपने हाथ से बड़े मनोयोग के साथ किया। पूजा मंदिर का दरवाजा बन्द करके तीन घण्टा तक वह ध्यान में बैठे रहे। उसमें सम्भवतः उनको अपने गुरुदेव और जगज्जननी का साक्षात्कार हुआ क्योंकि ध्यान से उठकर वे धीरे धीरे एक गीत गुनगुनाने लगे ‘चल मन निज निकेतन’ उसी रात्रि को लगभग नौ बजे उन्होंने एकान्त कमरे में लेटकर योग विधि से ब्रह्माण्ड को भेदकर प्राण त्याग दिया।

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