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Magazine - Year 1961 - Version 2

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कठिन समस्याओं के सरल समाधान

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आत्मोपदेश सरल है

दूसरों को उपदेश देने के लिए बहुत ज्ञान की, विद्या की आवश्यकता पड़ती है, परन्तु आत्मोपदेश के लिए थोड़े से ज्ञान से भी काम चल सकता है। दूसरों के मारने के लिए तीर तलवारों को जमा करने और उनका चलाना सीखने की आवश्यकता होती है, पर आत्महत्या के लिए एक छोटी सी रस्सी से गले में फाँसी लग सकती है जरा से चाकू से नस काटकर प्राण गँवाया जा सकता है। आत्म-कल्याण का मार्ग इतना सीधा और सरल है कि उस पर चलने के लिए साधारण बुद्धि भी पर्याप्त है। यहाँ तक कि अशिक्षित व्यक्ति भी उस पर उसी तरह चल सकते हैं जैसे राजकीय सड़क पर हर कोई बिना किसी योग्यता या प्रमाण-पत्र के भी प्रसन्नता पूर्वक चल सकता है।

सज्जनता का सौन्दर्य

चेहरे के सौन्दर्य को देखकर अनेक लोग प्रभावित होते हैं। पर नम्रता भी सौन्दर्य से किसी प्रकार कम आकर्षक और प्रभावोत्पादक नहीं है। नम्रता और सज्जनता के गुण जिसमें हैं, जो सदा मुस्कराता रहता है वह जहाँ कहीं जायेगा अपने लिए स्थान बना लेगा। इस चिन्ता और परेशानी से भरी हुई दुनियाँ में ऐसे लोगों की हर जगह माँग है जो अपने उत्तम स्वभाव के कारण दूसरों की व्यथा में थोड़ी कमी कर सकें, उन्हें अपनी प्रसन्नता और सज्जनता से कुछ मानसिक शान्ति प्रदान कर सकें।

कुरूपता कोई दोष नहीं है। नम्र और हँसमुख रहने से कुरूपता का दोष दूर किया जा सकता है। घमंडी चिड़चिड़ा स्वार्थी और कटुवादी कोई स्त्री या पुरुष चाहे कितना ही सुन्दर क्यों न हो कुछ ही देर में घृणास्पद बन जायेगा-चाहे वह कितना ही सुन्दर क्यों न दिखता हो। इसके विपरीत कुरूप व्यक्ति में भी यदि सौजन्य की समुचित मात्रा मौजूद है तो वह अपने लिए आदर और बड़प्पन प्राप्त करके रहेगा। कहते हैं कि द्रौपदी स्याह काली थी। इसी से उसे ‘कृष्ण’ भी कहते थे जिसका अर्थ है-कलूटी फिर भी उसके गुणों पर मुग्ध होकर पाण्डव उसका भारी आदर करते थे और राजमहल की बहुत सी व्यवस्था वही संभालती थी।

हमारी अपनी जिम्मेदारी

दुनियाँ को चलाने और सुधारने की हमारी जिम्मेदारी नहीं है। पर अपने लिए जो कर्तव्य सामने आते हैं उन्हें पूरा करने में सच्चे मन से लगना और उन्हें बढ़िया ढंग से करके दिखाना निश्चय ही हमारी जिम्मेदारी है। अपने आपको व्यवस्थित करके हम दुनियाँ के संचालन और सुधार में सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण योग दे सकते है। अधूरे और भद्दे काम करना अपने आप को कलंकित करना है। परमात्मा ने हमारी रचना अपूर्ण नहीं सर्वांग और उच्चकोटि की सामग्री से की है। उसने हमें सजाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिर हमीं अपने गौरव को मलीन क्यों न होने दें। हमें जैसा अच्छा बनाया गया है उसी के अनुरूप हमारे काम भी गौरवपूर्ण होने चाहिए।

आत्म-भाव का विस्तार

इस संसार का अणु-अणु एक दूसरे से संबंधित है। एक दूसरे को पकड़े हुए है। यह कण यदि आपस में बँधे न रहें सहयोग न करें। परस्पर बँधे रहने की प्रक्रिया से मुँह मोड़ ले तो सृष्टि क्रम ही बिखर जायेगा, प्रत्येक पदार्थ के भीतर विघटन आरम्भ हो जायेगा और वह अपने अस्तित्व को ही खो बैठेगा। एकता के बंधनों का ऐसा ही महत्व है। जड़ जगत में ही नहीं सब चैतन्य प्राणियों विशेषतया मानव-समाज में यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि एकता, प्रेम और आत्मीयता के आधार पर उनका बल तथा विस्तार सुदृढ़ होता है। जो जितना ही आत्मीयता की भावनाओं से ओतप्रोत है वह उतना ही विकसित कहा जा सकता है। उदारमना महापुरुष-वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श को अपनाते हैं, उन्हें सभी अपने ही दिखाई पड़ते हैं। जिसका स्वार्थ-आत्मभाव जितना छोटा है, जितना संकीर्ण है उस व्यक्ति को उतना ही तुच्छ माना जायेगा।

आत्म विश्वास का शास्त्र

जीवन संग्राम का सबसे बड़ा शस्त्र आत्मविश्वास है। जिसे अपने ऊपर-अपने संकल्प बल और पुरुषार्थ के ऊपर भरोसा है वही सफलता के लिये अन्य साधनों को जुटा सकता है। आत्म संयम भी उसी के लिये सम्भव है जिसे अपने ऊपर भरोसा है। जिसने अपने गौरव को भुला दिया, जिसे अपने में कोई शक्ति दिखाई नहीं पड़ती जिसे अपने में केवल दीनता, अयोग्यता, एवं दुर्बलता ही दिखाई पड़ती है। ह किस बलबूते पर आगे बढ़ सकेगा? और कैसे इस संघर्ष भरी दुनियाँ में अपना अस्तित्व यम रख सकेगा। बहती धार में जिसके पैर उखड़ गया, उसे पानी बहा ले जाता है पर जो अपना हर कदम मजबूती से रखता है वह धीरे-धीरे तेज धार को भी पार कर लेता है।

हमें परमात्मा ने उतनी ही शक्ति दी है जितना कि किसी अन्य मनुष्य को। जिस मंजिल को दूसरे पार कर चुके हैं उसे हम क्यों पार नहीं कर सकते? फौज के प्रत्येक सैनिक को एक सी बन्दूक दी जाती है। निशाना लगाना हर सिपाही की अपनी सूझबूझ और योग्यता का काम है। सभी व्यक्ति अनन्त सामर्थ्य लेकर इस भूतल पर अवतीर्ण हुए हैं। प्रश्न केवल पहचानने, भरोसा करने और उसके सदुपयोग का है। जिन्हें अपने ऊपर भरोसा है वे अपनी उपलब्ध सामर्थ्य का सदुपयोग करके कठिन से कठिन मंजिल को पार कर सकते हैं।

दोष तो अपने ही ढूँढ़ें

दोष दृष्टि रखने से हमें हर वस्तु दोषयुक्त दीख पड़ती है। उससे डर लगता है, घृणा होती है। जिससे घृणा होती है, उसके प्रति मन सदा शंकाशील रहता है, साथ ही अनुदारता के भाव भी पैदा होते हैं। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति या वस्तु से न तो प्रेम रह सकता है और न उसके गुणों के प्रति आकर्षण उत्पन्न होना ही सम्भव रहता है।

दोष दृष्टि रखने वाले व्यक्ति को धीरे-धीरे हर वस्तु बुरी, हानिकारक और त्रासदायक दीखने लगती है। उसकी दुनियाँ में सभी विराने, सभी शत्रु और सभी दुष्ट होते है। ऐसे व्यक्ति को कहीं शान्ति नहीं मिलती।

दूसरों की बुराइयों को ढूँढ़ने में, चर्चा करने में जिन्हें प्रसन्नता होती है वे वही लोग होते हैं जिन्हें अपने दोषों का पता नहीं है। अपनी ओर दृष्टिपात किया जाय तो हम स्वयं उनसे अधिक बुरे सिद्ध होंगे, जिनकी बुराइयों की चर्चा करते हुये हमें प्रसन्नता होती है। दूसरों के दोषों को जिस पैनी दृष्टि से देखा जाता है। यदि अपने दोषों का उसी बारीकी से पता लगाया जाय तो लज्जा से अपना सिर झुके बिना न रहेगा और किसी दूसरे का छिद्रान्वेषण करने की हिम्मत न पड़ेगी

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Type: SCAN
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