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Magazine - Year 1961 - Version 2

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ईश्वर विश्वास से ही सदाचार सम्भव है

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(श्री जान्हवीचरण ब्रह्मचारी)

प्रत्येक प्राणी के हृदय में एक आकाँक्षा यह पाई जाती है कि वह दुःख और मृत्यु से बचा रहे। अगर विचारपूर्वक देखा जाय तो आज तक मनुष्य ने जितने प्रयत्न किये है उन सबका उद्देश्य इन्हीं दो बातों की पूर्ति करना था। मनुष्य ने समाज की रचना ही इस लिये की कि एक दूसरे के सहयोग से उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक उत्तम ढंग से होने लगे और बड़े समुदाय बनाकर रहने से आपत्तियाँ ओर संकटों का सामना अच्छी तरह किया जा सकें। नगर ओर ग्रामों का निर्माण, शासन व्यवस्था की स्थापना, फौज और पुलिस का संगठन, चिकित्सालय, न्यायालय, आदि का कायम करना सभी कार्यों का उद्देश्य यही होता है कि मनुष्यों के कष्टों, अभावों को दूर किया जा सकें। पर यह सब होने पर भी आज हम देख रहे है कि मनुष्यों के दुःखों और मृत्यु में विशेष अन्तर नहीं पड़ा है। इसी लक्ष्य को सामने रखकर वेद में कहा गया है।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्य वर्ण तमसस्पुरतात्। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्थः विद्यतेऽयनाय॥

इसका आशय यह कि “मनुष्य को उचित है कि वह उस महान ज्योतिस्वरूप तथा अन्धकार रहित ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करे, जिसके जानते से ही वह मृत्यु से बच सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय इससे बचने का नहीं है।” इस पर बहुत से लोग यह तर्क हम ईश्वर को जानने की कोशिश क्यों करे? क्या उसके बिना हमारा जीवन सुखी नहीं बन सकता? क्या जो लोग ईश्वर को नहीं मानते वे आनन्द के साथ नहीं रहते? हमको तो दुनियाँ में प्रायः यह दिखलाई पड़ता है कि गुण्डे बदमाश इच्छानुकूल ढंग से पापकर्म करते हुए मस्त रहते है, मृत्यु की भी बहुत कम परवा करते है और पापी से डरते वाले प्रायः गरीबी और अभावों में ही जीवन बिताते है। इस प्रकार की शंकायें उठाकर ये लोग यह निष्कर्ष निकालते है कि मनुष्य को यथा सम्भव इसी प्रश्न पर विचार करना चाहिये कि हम क्या करें, कैसे करें? इसके बजाय जो लोग विचार करते है कि “मैं कौन हूँ” “ईश्वर क्या है, कहाँ है, कैसा है?” वे अपना समय व्यर्थ गँवाते हैं।

पर जब हम गम्भीरता पूर्वक विचार करते है तो हमको स्पष्ट मालूम होता है कि जब तक हम इस प्रश्न को न समझ लेंगे कि “हम कौन हैं” तब तक दूसरे प्रश्न का कि “हमको क्या करना चाहिये” समाधान हो ही नहीं सकता। मनुष्य ने अपने सुख के लिए जो विभिन्न व्यवस्थायें बनाई है वे ठीक भी हो तो भी जब तक हम आस्तिक बन कर और ईश्वर में विश्वास रखकर कार्य न करे तब तक न तो दुःखों से छुटकारा मिल सकता है, न शान्ति प्राप्त हो ही सकती है। इस सम्बन्ध में आस्तिकता की विवेचना करते हुए एक विद्वान ने लिखा है।

“ईश्वर का विश्वास मनुष्य को उस समय सत्य मार्ग पर दृढ़ होने के लिए बल देता है जब संसार के अनेक प्रलोभन और भय उसे झूठ बोलने की प्रेरणा करते है। ईश्वर विश्वासी मनुष्य फाँसी पाने से भी नहीं डरता और हर्ष पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है, क्योंकि वह समझता है कि मृत्यु के समय भी ईश्वर का करुणामय हाथ उसके ऊपर रहेगा। ईश्वर विश्वास मनुष्य को सच्ची क्षमा सिखाता है। ईश्वर विश्वास मनुष्य को दम, शम तथा इन्द्रिय निग्रह के अभ्यास में सहायता देता है। ईश्वर विश्वास उसे पापाचरण से रोकता है। वस्तुतः यदि विचार किया जाय तो ईश्वर विश्वास एक ऐसा पारसमणि है जिसको छूने से मनुष्य का जीवन कुछ का कुछ बन जाता है।

“लोग कहेंगे कि क्या बिना ईश्वर विश्वास के हम इन गुणों को धारण नहीं कर सकते? मैं कहता हूँ नहीं कदापि नहीं। हमको इतिहास और जीवन चरित्रों का जो ज्ञान है उससे यह बात सिद्ध नहीं होती। सच्ची बात यह है कि सृष्टि के आदि से अब तक ईश्वर विश्वास किसी न किसी रूप में प्रचलित रहा है। इसी के आधार पर लोगों ने आचार शास्त्र की नींव रखी है। और इसी के आश्रय से वे नियम संसार के वायु मंडल में व्याप्त हो रहे है। उनका येन केन प्रकारेण प्रत्येक मनुष्य के ऊपर प्रभाव है। इस लिए यदि कोई मनुष्य ईश्वर पर विश्वास नहीं भी करता, तो भी ये नियम उसे एक सीमा तक सदाचार के नियमों का उल्लंघन नहीं करने देते और इस प्रकार पाप एक सीमा से बाहर जाने नहीं पाते। अब यदि नास्तिक लोग ऐसे स्थान पर पहुँच सकें जहाँ ईश्वर विश्वास का क्लेश भी नहीं है और वह अपने पुराने संस्कारों को पूरी तरह से धो डाले, तब शायद इस बात का अनुमान किया जा सकता है कि ईश्वर विश्वास के बिना मनुष्य सदाचारी रह सकता है या नहीं? परन्तु यह कैसे होगा?

सदाचार का अर्थ प्रायः यही लिया जाता है कि मनुष्य झूठ न बोले किसी को कष्ट न दे चोरी न करे आदि। थोड़ी देर के लिए हम यह मान भी ले कि केवल सामाजिक आवश्यकताओं से मनुष्य को इन नियमों के पालने की प्रेरणा मिल सकती है। परन्तु वह प्रेरणा आयेगी तो बाहर से ही। और इस सदाचार की एक सीमा भी होगी जो अधिक विस्तृत नहीं हो सकती। पर यदि सदाचार के लिये आत्मशक्ति भी आवश्यक है तो उसकी प्राप्ति ऊपर बातों से न होगी। जिसे हम परमसुख या परमानन्द कहते है उससे मनुष्य उस समय तक वंचित ही रहेगा, जब तक अपने भीतर एक महती सत्ता का प्रकाश नहीं देखता। चेतन मनुष्य जड़ वस्तुओं द्वारा केवल शारीरिक दुःखों से बच सकता है और शारीरिक सुखों की ही प्राप्ति कर सकता है। परन्तु हम भली प्रकार जानते है कि शारीरिक सुख कितने क्षण भंगुर हैं। अधिकांश भोगो के विषय में तो यह दिखलाई पड़ता है कि उनसे हमारी तृप्ति होने के बजाय उनकी अग्नि दिन पर दिन प्रचण्ड होती जाती है और जिसे मनुष्य सुख समझ कर करता है वही दो दिन बाद जी का जंजाल बन जाता है। वास्तव में देखा जाय तो बाहरी सुख हमारी साधारण शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है। भूख लगे तो खाना खा लो, जिससे शरीर काम करने योग्य बना रहें। परन्तु जिस मनुष्य ने खाने को ही जीवन का मुख्य सुख और उद्देश्य बना लिया हो तो उसे खाने से बहुत जल्दी रोगी बनकर कष्ट भोगना पड़ता है।

सारांश यही है कि जिन लोगों ने कभी आत्मा की तरफ ध्यान नहीं दिया और शरीर को ही सब कुछ समझ कर इसी के पालन पोषण में लगे रहे, वे ईश्वर की बात को नहीं समझ पाते और न उनको ईश्वर के मानने में किसी प्रकार का लाभ दिखलाई पड़ता है। पर सच पूछा जाय तो उनका जीवन पशुओं से कुछ भी अच्छा नहीं कहा जा सकता। खाना, पीना, विषय भोग के लिये पशु भी प्रयत्नशील रहते है और अनेकों अमीरों के यहाँ पाले हुये पशुओं को मनुष्यों की अपेक्षा भी उत्तम भोज्य सामग्री प्राप्त हो जाती है। राजा, रईसों के प्रिय घोड़ों को दूध, मलाई, मक्खन जलेबी आदि नित्य खिलाये जाते है। विलायती कुत्तों को गर्मी से बचने के लिए बिजली के पंखे लगाये जाते है। पर इन बातों के आधार पर उनको सुखी या श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता। श्रेष्ठता का चिन्ह तो ज्ञान ही है और उसी को कहा जा सकता है जिसके द्वारा मनुष्य अपने सच्चे स्वरूप और कर्तव्य को पहिचाने। पर यह बात तभी हो सकती है जब मनुष्य इस विश्व के मूल स्त्रोत परमात्मा की तरफ ध्यान दे। इसी से मानव जीवन की सफलता ही प्राप्ति हो सकती है।

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