
सूर्य चिकित्सा या धूप−स्नान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुपश्च
—ऋग्वेद 1-1 15-1
“देवगण का अद्भुत मुखरूप तथा मित्र, वरुण (जल), अग्नि का नेत्र रूप सूर्य उदय हो गया। जो सूर्य समस्त स्थावर तथा जंगम सृष्टि का प्राणस्वरूप है उसने आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्ष को सब ओर से प्रकाशित कर दिया।”
संसार में हमको जितनी प्रकार की शक्तियाँ दिखाई पड़ती हैं उन सबका मूल सूर्य में ही है। जल का बहना, वायु का चलना, अग्नि का जलना, पृथ्वी का भाँति−भाँति की वनस्पतियों को उत्पन्न करना आदि सबका आधार सूर्य ही है। वास्तविक बात तो यह है कि हमारी पृथ्वी, ग्रह, उपग्रह सब सूर्य से ही उत्पन्न हुए हैं और उसी के द्वारा पाले जा रहे हैं। इसलिए पंचतत्वों से उत्पन्न कोई भी पदार्थ या प्राणी सूर्य की शक्ति के द्वारा ही अपने अस्तित्व को स्थिर रखता है, वृद्धि को प्राप्त होता है और समयानुसार परिवर्तित रूप को ग्रहण करता है। साधारणतः लोग सूर्य को प्रकाश तथा उष्णता का साधन मानते हैं और उससे रोगों के निवारण का कार्य भी लेते हैं। पर सूर्य का महत्व इससे कहीं अधिक है और वह मनुष्य के लिए भोजन या आहार का काम भी देता है। अगर सूर्य का प्रकाश ठीक ढंग से न मिले या उससे बिल्कुल ही वंचित रहना पड़े तो मनुष्य थोड़े समय में अवश्य ही निर्बल और अस्वस्थ हो जायेगा।
मानव−शरीर में जो अनेक रासायनिक तत्व पाये जाते हैं उनमें फास्फोरस और कैल्शियम की गणना प्रधान द्रव्यों में की जाती है। हमारी हड्डियों और दाँतों का निर्माण विशेषतः इन्हीं से होता है। सूर्य की धूप जब हमारे चर्म पर लगती है तो उससे रक्त में उष्णता आती है और रक्त संचार की गति बढ़ने लगती है जिससे नया रक्त ऊपर आने लगता है। इस रक्त में “अर्गोसटेरोल” नामक पदार्थ होता है जो सूर्य की धूप के संयोग से ‘विटामिन डी’ में बदल जाता है। यह विटामिन डी आँतों में एसिड (अम्ल) और अल्कली (क्षार) के परिमाण को नियंत्रित करता है और भोजन में से कैल्शियम (चूना) और फास्फोरस को ग्रहण करने में सहायता पहुँचाता है। इसलिये यदि मनुष्य को सूर्य प्रकाश प्राप्त न हो तो वह इन दो प्रधान तत्वों को भोजन में से प्राप्त करके शरीर में सम्मिलित नहीं कर सकता। ऐसी अवस्था में हड्डियों का निर्माण ठीक ढंग से नहीं हो पाता और बहुसंख्यक बालकों को ‘रिकेट’ (सूखा) रोग लग जाता है।
प्राकृतिक−चिकित्सा में बिना पकाये भोजन का बहुत अधिक महत्व बतलाया गया है। उससे खाद्य पदार्थ के समस्त स्वाभाविक तत्व शरीर को प्राप्त हो जाते हैं। खास कर भोजन में पाये जाने वाले कई प्रकार के विटामिन, जिनको नवजीवनदाता कहा जाता है, आग पर पकाने से अधिकाँश त: नष्ट हो जाते हैं। इसलिये सब देशों के प्राकृतिक चिकित्सक रोगियों और स्वास्थ्यभिलाषियों को ताजा फल, तरकारी, शाक आदि कम से कम परिवर्तन किये बिना भोजन के रूप में ग्रहण करने की सलाह दिया करते हैं। बहुत से लोग ऐसे भोजन को ‘कच्चा भोजन’ या ‘बिना पकाया भोजन’ के नाम से पुकारते हैं, पर वास्तव में वह भोजन सूर्य द्वारा पेड़ के ऊपर ही पकाया जाता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि ऐसा सूर्य द्वारा पकाया भोजन स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त लाभदायक होता है और उससे शरीर को ऐसे अमूल्य तत्व प्राप्त होते हैं जो और किसी उपाय से मिलने सम्भव नहीं होते। डा. सर राबर्ट मैकरीसन ने एक लेख में बतलाया है कि “भोजन की ताजगी और बढ़ियापन में एक ऐसा तत्व होता है जिसको आधुनिक आहार−वैज्ञानिकों ने, जिन्होंने कि प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रैट्स, खनिज लवण और विटामिन जैसे महत्वपूर्णों तत्वों का पता लगाया है, अभी तक उस तत्व का पता उनको भी नही लग सका है। कहना नहीं होगा कि वह तत्व ‘प्राण’ अथवा जीवन है, जो वनस्पतियों में सूर्य के प्रकाश में रहने से ही उत्पन्न होता है। पर यह तत्व फल तरकारी आदि में तभी तक रहता है जब तक वे ताजा रहती हैं। जैसे−जैसे ताजगी कम होती जाती है वह तत्व भी कम पड़ता जाता है। इसलिये यदि हम खाद्य पदार्थ की प्राण शक्ति से लाभ उठाना चाहते हैं तो हमें उसे यथा सम्भव ताजा से ताजा अवस्था में ही काम में लाना चाहिये।
चालीस−पचास वर्ष पहले की बात है कि जर्मनी के एक ऐलोपैथिक डाक्टर मि. बैनर को एक रोगी का इलाज करना पड़ा जिसे बदहजमी की बीमारी थी। डा. बैनर ने उसका अच्छे से अच्छा इलाज किया और बहुत बढ़िया दवाएँ खिलाईं पर कोई लाभ न जान पड़ा। अन्त में डाक्टर ने अपनी असफलता स्वीकार कर ली और रोगी को अन्य इलाज करने की अनुमति दे दी। उस रोगी ने किसी प्राकृतिक चिकित्सक की सलाह से केवल कच्ची वनस्पति खाना आरम्भ किया जिससे उसकी बीमारी थोड़े समय में पूर्णतया ठीक हो गई। यह देखकर डा. बैनर को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इस सम्बन्ध में खोज करना आरंभ किया और सूर्य−किरणों की पौष्टिकता प्रदान करने वाली शक्ति का सिद्धान्त सर्वसाधारण के सामने रखा। उन्होंने अपनी प्रभावशाली शैली में इसका विवरण करते हुये लिखा—
“हमारे ऊपर आकाश में दिन का जोरदार तारा (सूर्य) दमकता है। अपने प्रकाश की धारा के साथ वह दिन रात बहुत अधिक शक्ति भी निकालता रहता है। पर उस शक्ति का बहुत थोड़ा अंश पृथ्वी तक पहुँच पाता है। फिर भी वह शक्ति इतने परिमाण में होती है कि हम उसकी कल्पना नहीं कर सकते। यह सौर−शक्ति की धारा पृथ्वी को जिस स्थान पर स्पर्श करती है वहीं सब तरह की हरियाली, वनस्पतियाँ, फूल, पत्ते आदि विकसित हो उठते हैं। विचारशील व्यक्ति प्राचीन काल से इस शक्ति का अनुभव करते आये हैं और उनके मतानुसार यह शक्ति यद्यपि गुह्य (सूक्ष्म) है पर उसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। जब यह शक्ति पौधों, वनस्पतियों तथा फलों को स्पर्श करती है तो यह परिवर्तित होकर अन्य रूप में उनके भीतर समाविष्ट हो जाती है।”
जिस प्रकार यह शक्ति वनस्पति−जगत पर प्रभाव डालती है उसी प्रकार अन्य प्राणियों तथा मनुष्यों पर इसका प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। गायों के दूध की परीक्षा करके मालूम किया गया है कि जिन गायों को घरों के भीतर ही बाँधकर रखा जाता है उनके दूध में विटामिन डी का अभाव होता है और उसके द्वारा शरीर को यथेष्ट लाभ नहीं पहुँचता। पर जो गायें दिन भर मैदानों में घूमती हुई चरती रहती हैं, उनका दूध चाहे हल्का जान पड़े पर उसमें विटामिन की मात्रा पर्याप्त होती है। मनुष्य शरीर पर सूर्य की किरणों का प्रभाव बड़ा हितकारी होता है। ये किरणें शरीर में काफी गहराई तक प्रवेश करती हैं और शरीर के समस्त कोषों और तन्तुओं को उद्दीपित करती हैं। इन किरणों को नियमित रूप से सेवन करने से रक्त के अन्दर लाल और सफेद कणों की संख्या बढ़ जाती है और हानिकारक कीटाणुओं को नष्ट करने की शक्ति की भी वृद्धि होती है। इसके प्रभाव से शरीर के स्नायु सतेज हो जाते हैं जिससे सम्पूर्ण शरीर की क्रियाऐं अधिक उत्तमता से होने लगती हैं। इतना ही नहीं मानसिक अस्वस्थता पर भी सूर्य−प्रकाश का कल्याणकारी प्रभाव पड़ता है और मानसिक कार्य की क्षमता की वृद्धि होती है।
सूर्य−प्रकाश में सात रंग पाये जाते हैं जो किसी तीन पहल के काँच में होकर देखने में इस क्रम से दिखाई पड़ते हैं—(1) लाल (2) नारंगी (3) पीला (4) हरा (5) आसमानी (6) नीला (7) बैंगनी। इन्हीं सातों रंगों के मिल जाने से सूर्य का श्वेत रंग दिखाई देता है। सूर्य की ये सातों किरणें तो आँखों से दिखाई देती हैं और इनका वर्णन वेदों से लेकर पुराणों तक में पाया जाता है। आजकल वैज्ञानिकों ने दो तरह की किरणों का पता और लगाया है, जिनको ‘अल्ट्रा रेड’ और अल्ट्रा वायलेट’ कहते हैं। ये दोनों अदृश्य होती हैं, पर इनका प्रभाव समस्त प्राणियों पर पड़ता है। इनमें ‘अल्ट्रा वायलेट’ किरणें विशेष महत्वपूर्ण होती हैं और आजकल उन्होंने चिकित्सा विज्ञान में एक क्राँति सी उत्पन्न कर दी है। संसार भर के छोटे−बड़े अस्पतालों में तथा डाक्टरों के यहाँ भी ‘अल्ट्रा−वायलेट’ किरणों से चिकित्सा की व्यवस्था पाई जाती है और अनेक रोग जो औषधियों से ठीक नहीं हो पाते इन्हीं किरणों द्वारा मिटाये जाते हैं। वैसे तो ये सर्वोत्तम रूप में सूर्य की धूप में रहने से ही प्राप्त होती हैं, पर अब ऐसे कई प्रकार के बिजली के लैम्प बनाये गये हैं जिनसे इस रंग की किरणें मनुष्य के किसी भी अंग पर डाली जा सकती हैं। इन किरणों में कीटाणुओं को नष्ट करने की अपूर्व शक्ति पाई जाती है और इन्हीं से विटामिन डी की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार ये मानव शरीर को दोष रहित बनाकर उसे रोगोत्पत्ति करने वाले कीटाणुओं का मुकाबला करने योग्य बनाती हैं। चर्म के रोग, गठिया आदि, संधि स्थानों के रोग, गन्दे घाव और फोड़े रिकेट अर्थात् हड्डी की कमजोरी के रोग आदि में धूप स्नान बहुत लाभदायक सिद्ध हो चुका है।
रोगों को दूर करने के लिए धूप स्नान एक विशेष विधि से लिया जाता है। चाहे जैसे धूप में घूमते रहने से अधिक लाभ नहीं हो सकता। खासकर भारतवर्ष जैसे ग्रीष्म−प्रधान देश में, जहाँ गर्मी का तापमान काफी ऊँचा जाता है और धूप में लोग व्याकुल हो जाते हैं इस क्रिया को बहुत संभालकर और क्रमशः करना पड़ता है। गर्मी की ऋतु में केवल सुबह के समय ही धूप स्नान लिया जाता है। दुर्बल रोगियों को एक साथ अधिक देर तक धूप में बैठा देना हानिकारक सिद्ध होता है। पहले केवल उनके पैरों को पाँच−सात मिनट तक धूप में रखा जाता है। फिर दोनों हाथों को रखा जाता है। तत्पश्चात गले तक समस्त देह को धूप में रखना उचित होता। धूप लेने का समय क्रमशः आधा घंटा तक बढ़ाया जा सकता है। जाड़े के दिनों में एक घंटा या अधिक समय तक भी धूप सहन कर सकते हैं।
धूप−चिकित्सा से लाभ उठाने का एक तरीका रंगीन बोतलों में पानी, दूध, तेल, शक्कर मिसरी आदि भर कर और उन्हें नियत समय तक धूप में रख कर काम में लाना भी है। रंगीन काँचों द्वारा तो धूप का लाभ दिन के समय ही लिया जा सकता है, और जब आकाश में बादल आदि हों तब भी वह उपाय बेकार हो जाता है। पर रंगीन बोतलों की विधि द्वारा हर समय सूर्य चिकित्सा से लाभ उठा सकना संभव है। इसके लिए नीली, लाल, बैंगनी, नारंगी आदि रंगों की बोतलें एक लकड़ी के तख्ते के ऊपर धूप में ऐसे स्थान पर रखनी चाहिये कि उन पर किसी भी प्रकार की छाया न पड़े। इतना ही नहीं इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि बोतलों की छाया भी एक दूसरे पर न पड़ सके। पानी की बोतलों को आठ घण्टे धूप में रखना चाहिये और सूर्यास्त से पहले ही उठा लेना चाहिये मकान में लाने पर भी उन पर किसी प्रकार का दीपक आदि का प्रकाश न पड़े ऐसी व्यवस्था होनी उचित है। तेल तैयार करना हो तो उसे उपरोक्त विधि से 10 दिन तक , घी को 6 दिन तक तथा शक्कर और मिसरी को एक सप्ताह तक धूप में रखना पड़ता है।
सूर्य प्रकाश से तैयार पानी तीन दिन तक काम दे सकता है, फिर बेकार हो जाता है। अन्य वस्तुएँ दो−चार महीने तक भी गुणकारी रहती हैं। यह ख्याल करना कि पानी, शक्कर आदि जैसी साधारण खाने की वस्तुओं से रोग क्या दूर हो सकते हैं, ठीक नहीं। अगर इस चिकित्सा को ठीक विधि से किया जाता है तो इससे जादू का−सा असर दिखाई पड़ता है और भयंकर रोग देखते−देखते ठीक हो जाते हैं। यह चिकित्सा−प्रणाली सर्वथा निर्दोष है। इसमें मनुष्य के शरीर में किसी प्रकार की विषाक्त या अस्वाभाविक वस्तु का प्रवेश नहीं कराया जाता। इसलिये सूर्य−चिकित्सा से जो रोग मिटता है वह स्थायी रूप से दूर होता है और किसी अन्य प्रकार का कुफल नहीं होता।