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Magazine - Year 1966 - Version 2

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Language: HINDI
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परिवार का वातावरण धार्मिक हो

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जिन भावनात्मक आदर्शों और आस्थाओं पर पारिवारिक व्यवस्था का प्रचलन हुआ है उन्हें सजीव रखने के लिये परिवार की सम्पूर्ण व्यवस्था धार्मिक होनी चाहिए। बड़ों के प्रति छोटों की विनम्रता, छोटों के प्रति बड़ों का स्नेह और कर्त्तव्य भाव, समवयस्कों में आदर और सम्मान की भावना को स्थिर रखना धर्म का उद्देश्य होना चाहिए। इन सभी बातों को लेकर उसे रहन-सहन, आहार-विहार, वेष-भूषा, शिक्षा-दीक्षा, पारस्परिक व्यवहार, व्रत, पर्व और त्योहारों में प्रविष्ट हो जाना चाहिये। परिवार का छोटे से छोटा ओर बड़े से बड़ा कृत्य भी धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत होना चाहिए। साराँश में धर्म पारिवारिक जीवन में प्राण की भाँति घुला होना चाहिए।

घर में लोगों की बैठक का कमरा अलग होता है। रसोई घर, स्नानागार और शयनागार भी विभाजित होते हैं। हर स्थान पर वहाँ को स्थिति के अनुकूल सामान रखा हुआ होता है। किसी स्थान के सामान, क्रम व्यवस्था को देखते ही उस स्थान में क्या होता है इस का पता चल जाता है। इसी क्रम में आपके घर में एक छोटा-सा “साधनाकक्ष” भी होना चाहिए। एक छोटी -सी देव प्रतिमा, नहीं तो किसी चित्र को जो भगवान का, गायत्री या किसी देवता का हो एक सुन्दर वेदी पर स्थापित कर लीजिये। सामने चौकी पर धूप-दान दीपक और जप की मालायें रखी हुई होनी चाहिए। एक छोटा-सा हवन कुण्ड भी हो। सम्पूर्ण कक्ष स्वच्छ, सुन्दर लिप-पुता। ऊपर महापुरुषों के चित्र, प्रेरणाप्रद वाक्य और देव स्थलों, प्राकृतिक दृश्यों वाले चित्र टँगे हों। कागज के फूलों और पताकाओं से कमरा सजा रहे। सम्भव हो तो वहाँ हर समय एक अगरबत्ती जलती रहे। यह स्थान इतना सुन्दर, इतना पवित्र बनाकर रखिये कि वहाँ पहुँचते ही दिव्य भावनायें उठने लगें। मन की मलिनता मिट जाय और विचारों में पवित्रता आ जाय। सुन्दर महकता हुआ साधना स्थान जिसे देखते ही आत्मा पुलकित, प्रफुल्लित हो जाया करे।

प्रातःकाल जल्दी सोकर उठने के लिए सारे सदस्य राजी होने चाहिए। स्नान, शौच आदि से निवृत होकर सामूहिक प्रार्थना को पति-पत्नी साथ-साथ या क्रम बनाकर घर का प्रत्येक सदस्य उस साधना स्थल में प्रवेश करे और परमात्मा की उपासना करे। आज का दिन एक परिपूर्ण जीवन है, यह मानकर परमात्मा से सच्चाई, ईमानदारी और नेक निष्ठा की ओर प्रेरित रखने के लिए बल की माँग की जाय। भावना के अनुसार, धूप, दीप, अक्षत, रोली आदि से देव प्रतिमा का अभिषेक किया जाय। प्रातःकाल का नाश्ता सदस्य इसी स्थान के प्रसाद रूप में ग्रहण करें तो वह और भी मंगल दायक हो सकता है।

प्रातःकालीन उपासना समाप्त करके जिसे जिस कार्य में जाना हो उसमें चले जाना चाहिए। स्त्रियाँ गृह-कार्यों में लग जायँ, विद्यार्थी पाठशाला की ओर चले जायें और पुरुष वर्ग जो जिस कार्य में नियत हो उसमें चला जाय।

काम करते हुए भी मनुष्य को धर्म का पालन करना चाहिए। भावनात्मक उपासना से यह उपासना कहीं अधिक बड़ी है। काम करते हुये छोटे-बड़े काम का ध्यान न कर उसे विशुद्ध कर्त्तव्य पालन की दृष्टि से करना चाहिए। काम की धुन हमारे भीतर होनी चाहिए। आप अध्यापक हैं तो यह समझें कि इस समय आप ब्राह्मणत्व का पालन कर रहे हैं। प्रत्येक विद्यार्थी को आप शिष्य भावना से देखें और यह प्रयत्न करें कि आपका प्रत्येक शिष्य आदर्श चरित्र, अटल निष्ठा लेकर विद्यालय से निकले। व्यवसाय की दृष्टि से नहीं आपका अध्यापन कार्य राष्ट्र को सुशिक्षित, कर्त्तव्यशील नागरिक प्रदान करने की दृष्टि से होना चाहिये।

खेत में कार्य करने से लेकर दुकानदारी करने तक नौकरी पेशे से लेकर किसी औषधालय में काम करने तक सर्वत्र आपको सेवा भावना और कर्त्तव्यनिष्ठा का अभिमान होना चाहिये। आपकी भावनाओं में विशालता हो तो भले ही आप साधारण कर्मचारी हों ईश्वर की दृष्टि में आप अभिनन्दन के पात्र हैं और उसी में आपको आन्तरिक शान्ति मिल सकती है। रोजगार, आफिस की नौकरी, दुकानदारी आदि कोई भी काम हो धर्म भावना नहीं रहती तो लोग स्वार्थवश, लोभवश बेईमानी और भ्रष्ट आजीविका कमाते हैं। आप को यह विश्वास कर लेना चाहिए कि बेईमानी कभी फलती नहीं। वह किसी न किसी रूप में आपके चुगल से निकलेगी जरूर, साथ ही आपकी गाँठ की कमाई भी ले जायेगी।

महात्मा आनन्द स्वामी ने एक मार्मिक घटना का उल्लेख किया है जो बताती है कि अनीति की कमाई मनुष्य को कितना दुःख देती है।

कहानी लाहौर के दो व्यक्तियों की है। उन दोनों में बड़ी मित्रता थी। एक बार दोनों ने आजीविका कमाने के लिए बाहर जाने का निश्चय किया और बम्बई पहुँचे। भाग्य अच्छा था एक छोटे से रोजगार से वे ऊँचे उठे और कुछ ही दिनों में लाखों रुपये कमा लिये। कमाई बहुत हो गई तो दिनों ने घर लौटने की इच्छा की। घर चलने के एक दिन पूर्व एक साथी के मन में लोभ आ गया। सारा धन स्वयं हड़प जाने की इच्छा से उसने रात में अपने मित्र को विष देकर मार डाला। पैसे की कमी न थी रिश्वत दी और बीमारी से मर जाने के डाक्टरी प्रमाण पत्र ले लिये और सारा धन लेकर अपने देश लौट गया। घर पहुँचकर उसने आलीशान मकान बनवाया और शादी कर विलासिता का जीवन बिताने लगा। कुछ दिन में उसे एक पुत्र पैदा हुआ। बड़ा सुन्दर और रूपवान। वह व्यक्ति उसे एक क्षण के लिए भी दूर न करता पर दुर्भाग्य जो न करे सो थोड़ा। बच्चे को कुष्ठ हो गया। सिन्ध के डॉक्टर इलाज न कर सके, बियाना और अमेरिका के डॉक्टर भी उसे अच्छा न कर सके। सारी कमाई उसी में स्वाहा हो गई और बहुत बड़ा कर्ज ऊपर हो गया। एक दिन बच्चा मरने लगा तो वह व्यक्ति पास ही बैठा था। बच्चा जोर से चिल्लाया और बाप से बोला—”मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूँ तुमने मेरा धन मुझ से छीना अब वह सारा धन हड़पकर मैं जा रहा हूँ।” यह कहकर वह मर गया।

आनन्द स्वामी लिखते हैं कि इस दुःख से दुःखी होकर वह व्यक्ति संन्यासी हो गया पर उसे वहाँ भी शान्ति व चैन नहीं मिल सकी।

अनीति की कमाई इसी तरह सभी को कष्ट ही देती है भले ही वह आज समझ में न आता हो। इसलिये जीविकोपार्जन भी विशुद्ध धार्मिक दृष्टि से ही होना चाहिए। रूखा-सूखा खा लेना अच्छा पर अधार्मिक कमाई कभी हितकर नहीं होता इस बात को गाँठ बाँध लेना चाहिये।

बच्चों के लिये वेद शास्त्रों की चरित्र निर्माण की कहानियाँ, महापुरुषों के संस्मरण और जीवन चरित्र पढ़ने को दें। स्त्रियों का साहित्य उनके अनुरूप हो। रामायण भागवत, गीता-कथा तथा महाभारत जैसे ग्रन्थों का सामूहिक स्वाध्याय भी किया जा सकता है। इनमें कोई एक व्यक्ति दृष्टान्त और कहानियाँ जोड़कर प्रसंगों को सरल और रोचक करता रहे तो और भी लाभदायक। छोटे या बड़े किसी न किसी रूप में आपके परिवार में स्वाध्याय की व्यवस्था रहनी अवश्य चाहिये, इससे परिजनों का जीवन स्तर विकसित होता है, भावनाओं का परिष्कार होता है और सच्चा ज्ञान उदय होता है।

सायंकाल सामूहिक प्रार्थना आदि की व्यवस्था रहनी चाहिए। साधना स्थल में प्रतिमा की आरती आदि की जाय तो वह भी अच्छा है।

शयन के लिए अपने बिस्तर पर पहुँचिये तो आज के जीवन पर आत्म निरीक्षण कर जाइये। आज के अच्छे कार्यों पर प्रसन्नता अनुभव कीजिए और कल के लिए और भी दृढ़ता उत्पन्न कीजिए। बस इस प्रकार परमात्मा की याद करते हुए निद्रा देवी की गोद में चले जाइए। यह आपकी एक दिन की पारिवारिक धर्म व्यवस्था हुई।

पर्व और त्यौहारों पर घर की सफाई सजावट तथा विशेष हवन, पूजन के कार्यक्रम रहें और उन्हें प्रेरणाप्रद रूप में मनाया जाना चाहिए। घर के सब सदस्य एक दूसरे से गले मिला करें और पहिले हुई भूलों की क्षमा याचना किया करें।

इस प्रकार का वातावरण निःसंदेह परिवार में नया जीवन, नया प्राण और नव उल्लास पैदा करता है। हिन्दुओं का पारिवारिक जीवन इसी तरह का रहा है, बीच में कुछ विकृति आ गई है सो उसे दुरुस्त कर इस नयी व्यवस्था का पुनर्जागरण करना चाहिए।

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