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Magazine - Year 1968 - Version 2

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Language: HINDI
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प्रेम-साधना हमें परमात्मा से मिला देती है।

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परिश्रम के पश्चात विश्राम, क्षुधा के पश्चात भोजन और कष्ट के पश्चात सुख का आनन्द मिलता है- इसी प्रकार मिलन का आनन्द विछोह के बाद ही मिलता है। दो स्नेही जन एक स्थान पर रह कर जब नित्य मिलते हैं तो नवीनता समाप्त हो जाने पर मिलन का आनन्द शिथिल हो जाता है। किन्तु जब वे दोनों सुहृद कुछ समय अलग रहने के बाद मिलते हैं तो मिलन का आनन्द सहस्त्रों गुना हो जाता है।

परमात्मा एकाकी था। उसे अपने एकाकीपन से विरक्ति हुई और चाहा कि एक से बहुत हो जाऊँ। उसके अन्तर में ‘एकोहं बहुस्यामि’ की ध्वनि होते ही सृष्टि रचना का काम आपसे आप प्रारम्भ हो गया और जड़-चेतनमय यह सारा संसार बन कर तैयार हो गया।

संसार और कुछ नहीं एक परमात्मा का ही अंश है। उसी से उत्पन्न हुआ है और उसी में लीन हो जायेगा। चेतन सृष्टि परमात्मा का विशेष अंश है और उसमें व्यक्ति विशिष्ट- वह परमात्मा की समीपता के क्रम में सबसे आगे और सबसे पहले हैं। व्यक्ति अन्य जीवों की अपेक्षा परमात्मा के अधिक निकट है। इन दोनों के बीच पारस्परिक प्रेम की धारा भी अधिक गहरी है। यों तो परमात्मा को अपनी सृष्टि के अणु-अणु से प्रेम है। किन्तु तब भी व्यक्ति से कुछ अधिक प्रेम-भाव है। इसका कारण यह है कि अन्य सृष्टि की उत्पत्ति जहाँ माया के माध्यम से हुई है, वहाँ मनुष्य जीवात्मा के रूप में उसका सीधा-सीधा अपना अंश है, जिसे व्यक्ति ने अपने विवेक द्वारा समझ कर उसके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न कर ली है।

तो मनुष्य परमात्मा का विशिष्ट अंश है। उसने ‘बहुस्यामि’ की इच्छा से अपने इन अंशों को अपने से पृथक कर संसार में बिखेर दिया है। इसलिये कि बिछोह के बाद मिलन का अनिवर्चनीय आनन्द प्राप्त हो सके। इस मिलन का माध्यम क्या हो सकता है? प्रेम और केवल प्रेम। बिछोह से बड़ी प्रेम की तड़पन ही वह साधन है, जो व्यक्ति को परमात्मा की ओर और परमात्मा को व्यक्ति की ओर आकर्षित करती है। इसलिए प्रेम को शक्ति की परमात्मा मिलन की बहुत बड़ी साधना माना गया है। जिन दो के बीच प्रेम नहीं होता वे परस्पर कभी नहीं मिल पाते।

परमात्मा से मिलन का आनन्द एक लम्बी साधना और लम्बी अवधि के बाद होता है। इस बीच जीव अपने प्रेम की कसौटी की अभिव्यक्ति कहाँ करे? किस माध्यम से अपनी इस आनंददायक वेदना को सहन करे? इसका एक ही उपाय है। परमात्मा के अंश जीव-मात्र से प्रेम किया जाय। जिस प्रकार प्रियजन की वस्तुएं और उसके अनुबन्ध भी प्रिय होते हैं, विरही उनमें ही अपने प्रेमास्पद का प्रतिबिंब देखकर उसकी याद से संतोष कर लेता है, उसी प्रकार जीवों का पारस्परिक प्रेम उस एक परमात्मा के प्रति प्रेम का ही एक प्रकार है। और यही कारण है कि जहाँ परस्पर प्रेम, सौहार्द और आत्मीयता होती है, वहाँ भाव रूप परमात्मा की उपस्थिति मानी जाती है और उसी के मिलन जैसा आनन्द छाया रहता है। मनुष्य का पारस्परिक प्रेम परमात्मा से ही प्रेम का एक रूप है।

मानव-जीवन परमात्मा की महती कृपा है। व्यक्ति और कुछ भी तो नहीं, परमात्मा का ही एक अंश है, जिसको परमात्मा ने स्वयं ही अपने से पृथक कर पुनर्मिलन के लिए निर्मित किया है। परमात्म मिलन ही मानव-जीवन का ध्येय है। इस ध्येय की पूर्ति प्रेम द्वारा ही हो सकती है। जिन मनुष्यों के बीच परस्पर प्रेम सौहार्द और सहयोग की भावना रहती है, जो दूसरों से प्रेम और प्राणी मात्र पर दया का भाव रखते हैं, और जो सबके प्रति स्नेह एवं शिष्टता का व्यवहार करते हैं, वे सब परमात्मा से मिलने के अपने ध्येय की ओर ही अग्रसर होते रहते हैं।

परमात्म से मिलन का उपाय साधना, उपासक तथा योग आदि भी बतलाया गया है। किन्तु यह उपाय भी तभी सफल होते हैं जब इनमें भी प्रेम की प्रधानता होती है। यह प्रेम श्रद्धा, भक्ति, आस्था, विश्वास आदि किसी रूप में भी हो सकता है। श्रद्धा अथवा प्रेम से रहित कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। प्रेम की व्याकुलता ही परमात्मा से मिलाने में समर्थ है। इसके बिना सारे तप कठोर तितिक्षा के सिवा और कुछ नहीं होते।

आध्यात्म का मूल मंत्र प्रेम ही बताया गया है। भक्ति साधना से मुक्ति का मिलना निश्चित है। जिस भक्त को परमात्मा से सच्चा प्यार होता है, वह भक्त भी परमात्मा को प्यारा होता है। उपनिषद् का यह वाक्य ‘रसो वै सः’ इसी एक बात की पुष्टि करता है- ‘‘परमात्मा प्रेम रूप है’ इसका स्पष्ट तात्पर्य यही है कि जिसने प्रेम की सिद्धि कर ली है, उसने मानो परमात्मा की प्राप्ति कर ली है अथवा जहाँ प्रेमपूर्ण परिस्थितियाँ होंगी, वहाँ परमात्मा का वास माना जायेगा। परमात्मा की प्राप्ति आनन्द का हेतु होता है।

प्रेम का आनन्द अनिवर्चनीय है। वह एक ऐसा आनन्द होता है, जिसकी तुलना में संसार का दूसरा कोई आनन्द नहीं रखा जा सकता। प्रेम की इस अनुभूति का आनन्द कबीर ने लिया और एक स्थान पर कहा है- ‘राम बुलावा भेजिया कबिरा दीना रोय। जो सुख प्रेमी संग में सौ बैकुण्ठ न होय।’ भक्त प्रेम के आनन्द में वैकुण्ठ का निवास तुच्छ मानता है। और उसको प्रेम के वातावरण से निकाल कर प्रेमी जनों से पृथक करके स्वर्ग ले जाने की बात कही जाती है तो वह रोने लगता है, उसे अपार दुख होने लगता है। प्रेम का आनन्द ऐसा ही आनन्द है।

किन्तु प्रेम में इस प्रकार के अनिवर्चनीय आनन्द की प्राप्ति तभी होती है, जब वह सच्चा हो, निःस्वार्थ हो। झूठा प्रेम तो शत्रुता की नींव होता है, दुख और क्लेश का आधार होता है। बहुत बार लोग अपने मतलब से बड़ा प्रेम दिखलाने लगते हैं। बहुत से लोग इस प्रवंचना में आ भी जाते हैं। मतलब निकल जाने अथवा उस विषय में निराश हो जाने पर स्वार्थी व्यक्ति का प्रेम समाप्त हो जाता है और तब वह अपने सामयिक प्रेमास्पद की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखता, मिलने पर पीठ फेर लेता है। उसका यह व्यवहार वहीं से बुराई, मनोमालिन्य अथवा शत्रुता का सूत्रपात कर देता है। इसलिए कहा गया है कि एक बार प्रेम भले ही न किया जाये, पर स्वार्थपूर्ण प्रेम का नाटक न किया जाये। नहीं तो इसमें हित के स्थान पर अहित होता है। आनन्द के स्थापन पर दुख मिलता है।

आनन्द, संतोष, प्रफुल्लता और आत्म-भाव आदि की दिव्य अनुभूतियाँ वहीं प्राप्त हो सकती हैं, जहाँ निर्मल और निःस्वार्थ प्रेम की पावन गंगा बहती है। जिन परिवारों मित्रों और सुहृदजनों के बीच सच्चा प्रेम रहता है, उनके बीच क्या सम्पन्नता और क्या विपन्नता- किन्हीं भी स्थितियों में कलह, क्लेश तथा विवाद नहीं होता। उनका सारा जीवन एक स्निग्ध पुष्कारिणी की भाँति आनन्द की शीतलता और सरलता से भरा रहता है। यह मानव-जीवन की एक महान उपलब्धि है। प्रेम विहीन जीवन एक शुष्क मरुस्थल के समान होता है। उसमें रस अथवा आनन्द का एक कण भी नहीं मिल सकता, फिर चाहे उसमें कितनी ही धन-दौलत और सुख-साधन क्यों न भरे हों।

प्रेम द्वारा शत्रु को भी वश में किया जा सकता है। प्रथम तो जो प्रेमी हृदय होते हैं, वे स्वभावतः अजातशत्रु होते हैं। संसार में उनसे द्वेष करने वाला कोई नहीं होता। और यदि अपने दुष्ट स्वभाव-वश कोई उनसे द्वेष मानने भी लगता है तो भी वह उनके सम्मुख आकर विनत हो जाता है। सच्चे संत और महात्माओं को न जाने कितने चोर, डाकू मिले उन्होंने उनको हानि पहुँचानी चाही। किन्तु पास जाते ही उनके आन्तरिक प्रेम से प्रभावित होकर पैरों पर ही गिरे हैं। बहुत से डाकू और दुष्ट लोग महात्माओं की प्रेमानुभूति से विवश होकर संत तक बन गये हैं।

आकस्मिक घटनाओं को यदि छोड़ दिया जाय तो भी ऋषि-मुनियों के आश्रम का हाल पढ़कर भी इस सत्य की पूर्णतः पुष्टि हो जाती है। पूर्वकालीन ऋषि आश्रमों में शेर, चीते आदि हिंस्र जन्तु भी आते थे और ऋषियों से बोलने के बात तो दूर वे अपने स्वभाव विरोधी गाय और हिरनों से भी नहीं बोलते थे। उनके साथ उठते, बैठते और खेलते थे। इसका कारण और कुछ नहीं, ऋषि का वह सच्चा प्रेम ही होता था, जो जीव मात्र की मैत्री के रूप में उसके अन्तर में प्रवाहित होता रहता था। उसी के संपर्क में आकर सारे जीव अपना द्वेष-भाव भूल जाया करते थे।

साँसारिक जीव ही नहीं, ईश्वर तक प्रेम के वश में हो जाता है। ‘भक्त के वश में भगवान’- यह कथन आज नया नहीं है। यह युगों से अनुभूत किया हुआ एक सत्य है। जिन महात्माओं, संतों और साधुजनों ने भगवान की भक्ति की है, उससे निश्छल-प्रेम किया है, उन्होंने भगवान को अपने वश में कर लिया है। उसे दर्शन देने के लिये मजबूर कर लिया है। तुलसी, सूर, नानक आदि सन्त इसके प्रमाण है। प्रेम का यह प्रभाव कोई चमत्कार नहीं है बल्कि यह एक आध्यात्मिक तथ्य है। प्रेम की हिलोरें जिस मानस में उठती रहती हैं, जो सहृदय भक्त संसार के अणु-अणु में अपने प्रेमास्पद परमात्मा को ही देखता है, उसकी आत्मा का स्तर असाधारण कोटि तक उन्नत हो जाता है। उसमें समग्र दिव्य गुणों का विकास हो जायेगा। उसके चरित्र और आचरण में आदर्शवाद का समावेश हो जायेगा, जिससे वह महान और पवित्र कर्म ही करेगा। समाज अथवा आत्मा विरोधी कर्म उससे हो ही नहीं सकता। ऐसे सुकर्मी और पवित्र भक्त पर आत्मा स्वयं ही आसक्त हो जाता है और उसकी पुकार पर प्रकट होकर दर्शन देता है।

यह प्रेम का ही प्रभाव है जो पाषाण को भी भगवान बना देता है। मूर्ति क्या है? पाषाण की एक प्रतिमा मात्र। उसमें अपनी व्यक्तिगत विशेषता कुछ नहीं होती। किन्तु यही साधारण प्रस्तर प्रतिमा तब परमात्मा के रूप में बदल जाती है और वैसा ही प्रभाव सम्पादन करने लगती है, जब भक्तों की प्रेम भावना उसमें समाहित हो जाती है। भक्त का प्रेम पाते ही पाषाण-खण्ड अपनी शोभा, आकर्षण, तेज और प्रभाव में सजीव हो उठता है। प्रतिमा पूजन का तत्व-ज्ञान यही है कि परम परमात्मा, ब्रह्म, सामान्य जनों के लिये अज्ञेय और असाध्य होता है। उससे प्रेम किया जा सकता है, उसकी भक्ति भी की जा सकती है, किन्तु यह भावना मानसिक अस्थैर्य के कारण निराधार रह जाती है।

मनुष्य की भावना एक आधार चाहती है, एक ऐसा अवलंब चाहती है, जिसका सहारा लेकर वह ठहर सके और अपनी वाँछित दिशा में विकसित भी हो सकते हैं। मानव की भक्ति भावना को आधार देने के लिए ही मूर्ति पूजा का आविष्कार किया गया है। युग-युग से परमात्मा का प्रतीक के रूप में मूर्ति पूजन होता आ रहा है और लोग उस माध्यम से आनन्द और सद्गति पाते चले जाते हैं। इस प्रयोग में एक महान आध्यात्मिक तथ्य वर्तमान है। वह यह कि जिस किसी में, अपनी भावना का आरोपण कर प्रेम किया जायेगा, वह वस्तु चाहे जड़ हो या चेतन, सजीव हो अथवा निर्जीव व्यक्ति की भावना के अनुसार ही फलीभूत होने लगती है।

मूर्ति पत्थर अथवा धातु की बनी एक निर्जीव प्रतिमा होती है। किन्तु भक्त से परमात्मा की भावना पाकर वह उसके लिए भगवान ही बन जाती और तदनुसार ही फल देने लगती है। तथापि मूर्ति में यह विशेषता आती तब ही है, जब भगवान के साथ अखण्ड आस्था और असंध श्रद्धा का भी समावेश हो।

प्रेम संसार का अमृतत्व माना गया है। अमृत की तरह ही इसमें आनन्द और अमरता का गुण होता है। प्रेमी का हृदय प्रतिक्षण आनन्द से परिप्लावित रहता है और परमात्मा से सान्निध्य पाकर वह अमर पद तो पा ही लेता है। इसलिये इन दोनों स्थितियों को पाकर मानव-जीवन को सफल और सार्थक बनाने के लिए प्रेम की साधना करनी ही चाहिये। यह साधना अपने आस-पास से प्रारम्भ कर जीव मात्र को लेते हुए निखिल ब्रह्मांड तक विस्तृत की जा सकती है, और प्रेम ही परमात्म है इस तथ्य वाक्यांश को अपने इसी जीवन में चरितार्थ कर मुक्ति और मोक्ष का लाभ उठाया जा सकता है।

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