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Magazine - Year 1968 - Version 2

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सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति

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जिस प्रकार सोना आग में तप कर और कसौटी पर कस कर ही अपना खरापन सिद्ध कर पाता है। इसी प्रकार व्यक्ति का खरापन तब ही सिद्ध हो पाता है, जब वह समाज में सत्याचरण का प्रमाण दे पाता है। एक बार खरा सिद्ध हुआ सोना संसार में कही भी अपना पूरा मूल्य पा जाता है। उसी प्रकार सत्याचरण का प्रामाणिक व्यक्ति सब जगह समाज का विश्वास प्राप्त कर लेता है।

सत्य मानव-जीवन की अनमोल विभूति है। जो अपने प्रति, अपनी आत्मा के प्रति, अपने कर्तव्यों के प्रति, परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति मन-वचन-क्रम से सच्चा रहता है वह इसी जीवन, इसी देह और इसी संसार में स्वर्गीय आनन्द प्राप्त करता है। उसके लिए सुख-शाँति और साधन संतोष की कमी नहीं रहती।

सत्य मानव जीवन की सबसे शुभ और कल्याणकारी नीति है। इसका अवलम्बन लेकर चलने वाले जीवन में कभी असफल नहीं होते। यह बात मानी जा सकती है कि सत्य का आश्रय लेकर चलने पर प्रारम्भ में कुछ कठिनाई हो सकती है। किन्तु आगे चलकर उसका आशातीत लाभ होता है। सत्य, पुण्य की खेती है। जिस प्रकार अन्न की कृषि करने में प्रारम्भ में कुछ कठिनाई उठानी पड़ती हैं और उसकी फसल के लिए थोड़ी प्रतीक्षा भी करनी पड़ती है। किन्तु बाद में जब वह कृषि फलीभूत होती है तो घर, धन-धान्य से भर देती है। उसी प्रकार सत्य की कृषि भी प्रारम्भ में थोड़ा त्याग, बलिदान और धैर्य लेती है। किन्तु जब वह फलती है तो लोक से लेकर परलोक तक मानव-जीवन को पुष्पों से भर कर कृतार्थ कर देती है।

सत्य मानव-जीवन को महानता और उत्कृष्टता के शिखर पर पहुँचाने वाला प्रशस्त और निरापद राज-मार्ग है। इस पर निष्ठापूर्वक चलने वाले पथिक को किसी भी देशकाल में भय अथवा संकट नहीं रहता। सत्य-निष्ठा व्यक्ति को पाप कर्मों से निरत रखती है। सत्यवादी व्यक्ति इस डर से कोई अकरणीय कार्य करेगा ही नहीं कि दण्ड अथवा निन्दा के भय से कहीं उसे असत्य का सहारा न लेना पड़े। जो अपकर्मों और अपाशयों से बचा रहता है, वह अपवाद, अपमान अथवा आघातों से भी सुरक्षित बना रहता है। सत्याश्रमी व्यक्ति का जीवन सुख और शाँति से भरा पुरा रहता है। उसकी प्रसन्नता में विघ्न डालने वाले तत्व उसके पास कदाचित ही आ पाते हैं।

सत्य मनुष्य के सम्मान, प्रतिष्ठा और आत्म-गौरव के लिए अमोघ कवच के समान होता है। जिसने इस कवच को धारण कर लिया है, उसके लिए अपमान, निन्दा और अपवाद का कोई कारण ही नहीं रहता। सत्यनिष्ठ व्यक्ति संसार में निर्भय होकर विचरण करता है और स्पष्ट होकर व्यवहार करता है। उसने तो कही भय होता है और न आशंका। वह अजातशत्रु होकर समाज को अपने व्यवहार से जीत लेता है।

सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने एक स्वरूप में स्थिर रह कर आत्म-लाभ जैसा सुख भोगता है। उसका अन्तःकरण दर्पण की तरह स्वच्छ और मस्तिष्क प्रज्ञा की तरह संतुलित रहता है। उसे न तो मानसिक द्वन्द्वों से त्रस्त होना पड़ता है और न निरर्थक वितर्कों से अस्त व्यस्त। वह जो कुछ सोचता है सारपूर्ण सोचता है और जो कुछ करता है कल्याणकारी करता है। मिथ्यात्व के दोष से मुक्त सत्यनिष्ठ व्यक्ति के पास कुकल्पनाओं का रोग नहीं आता। वह तो अपनी सीमा, अपनी सामर्थ्य और अपने साधनों के अनुरूप ही जीवन की कल्पनाएं किया करता है और अधिक से अधिक यथार्थ के धरातल पर ही विचरण किया करता है।

सत्य प्रिय व्यक्ति मिथ्यावादियों की तरह कल्पना की न तो ऊँची-ऊँची उड़ानें भरता है और न अनहोनी कामनाएं करता है। वह जानता है कि ऐसा करने से महत्वाकाँक्षाओं में, ऐसी महत्वाकाँक्षाओं में फैलना पड़ेगा जो उसकी स्थिति से बाहर की होंगी और तब हो सकता है कि किन्हीं कामनाओं अथवा वांछाओं के दबाव में आकर उनकी पूर्ति के लिए ऐसा काम करना पड़े जो असत्य के दोष से दूषित हो। सत्यनिष्ठ व्यक्ति जीवन में आकाँक्षाओं के पथ पर बड़ा सावधान होकर चलता है।

राग-द्वेष, लोभ, मोह और मद, मत्सर आदि दुर्गुणों से सत्यनिष्ठ व्यक्ति की कोई मित्रता नहीं होती। वह जानता है कि इन विकारों को प्रश्रय देना अपनी सत्यनिष्ठा के लिये खतरा पैदा करना है। यह विकार ही व्यक्ति के वे शत्रु हैं, जो उसे जीवन के पावन पथ से गिरा देते हैं। जिसके प्रति राग होगा उसके प्रति निष्पक्ष न रहा जायेगा। उसकी प्रसन्नता के लिये कुछ भी करना पड़ सकता है। जिससे द्वेष होगा उसका अनिष्ट चिन्तन का प्रेम पकड़ सकता है। लोभ तो सत्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है। जिसे लोभ के पिशाच ने पकड़ लिया उसके सत्य की रक्षा हो ही नहीं सकती। लोभ सदैव ही अपने अधिकार से अधिक पाने की लिप्सा किया करता है। अधिकार से अधिक पाने के लिए छल-कपट और असत्य आदि अपकर्मों को ग्रहण करना पड़ता है।

इसी प्रकार मोह तो स्पष्ट अज्ञान ही है। अज्ञान से दूषित व्यक्ति जीवन में किसी भी व्रत का पालन ही कर पाता। मोहग्रस्त व्यक्ति अनिष्ट में इष्ट, हानि में लाभ और असत्य में सत्य का आभास पाने लगता है। मद और मत्सर अहंकार के ही दो प्रचंड प्रकार होते हैं। इनका प्रकोप व्यक्ति को कर्तव्य भ्रष्ट बना देता है। अहंकारी व्यक्ति स्वयं ही अपने की संसार में दूसरों से श्रेष्ठ मान बैठता है। अपनी बात मनवाना और दूसरे की बात न मानना उसका सहज स्वभाव होता है।

अपने दम्भ की रक्षा में उसके लिए कोई भी कार्य अकरणीय नहीं होता। इस प्रकार मद और मत्सर सत्य पालन में बहुत बड़ी बाधाएं हैं। सत्यनिष्ठ व्यक्ति इन विकारों से सदा सावधान रहता है। ऐसे विचार मुक्त व्यक्ति और एक देवता में क्या अन्तर रहा जाता है? सत्याश्रमी व्यक्ति को यदि देवता कहा दिया जाय तो भी कोई अतिशयोक्ति न होगी। निश्चय ही सत्यनिष्ठ व्यक्ति देवता ही होते हैं। धरती के देवता।

निर्विकार, निर्लेप और निर्भय जीवन जीने के लिए सत्य से बढ़कर कोई उपाय नहीं। सत्य एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो देश, काल, पात्र अथवा परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती। संसार में जहाँ जो भी धर्म-ग्रन्थ और आर्ष अभिवचन पाये जाते हैं, उनमें जिन नियमों की विशेषता दी गई है, सत्याचरण व सत्य भाषण उनमें सर्वप्रधान है। मनीषियों ने सत्य को मनुष्य के हृदय में रहने वाला ईश्वर बतलाया है और सत्य पर आरूढ़ रहने का उपदेश किया है। सत्य ही वह सार्वकालिक और सार्वदेशिक तथ्य है, जो सूर्य के समान हर स्थान पर समान रूप से चमकता रहता है।

सृष्टि के आदि में सत्य की जो महत्ता और श्रेष्ठता थी वैसी आज बनी बनी हुई है। कोई मानवीय नियम समय के अनुसार भले ही बदले और संशोधित किए गये हों किन्तु सत्य के नियम में आज तक परिवर्तन नहीं किया गया और न कभी किया जा सकता है। सत्य सारे जीवन और सारी सृष्टि का एक मात्र आधार है। सत्य की महत्ता बतलाते हुए महात्मा इमरसन ने एक स्थान पर कहा है- “जिस सुन्दरतम और श्रेष्ठतम आधार पर मनुष्य को अपना जीवन अवस्थित करना चाहिए वह है- सत्य। सत्य के विरुद्ध किया हुआ प्रत्येक आचरण मानव समाज के स्वस्थ शरीर में छुरी भौंकने के समान निन्दनीय है।”

आत्मिक उन्नति के जो साधन और उपाय ऋषियों, मुनियों और धर्म-प्रवर्तकों ने प्रतिपादित किए हैं, सत्य को उनमें सबसे पहला स्थान दिया है। कोई भी साधना, फिर वह कितनी ही ऊँची क्यों न हो, सत्य के बिना सफल नहीं हो सकती। सत्य सारे साधनों की आधार-शिला है। एक सत्य का आधार ले लेने के बाद यह अनिवार्य नहीं रह जाता कि आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ने के लिये अन्य बहुत से साधन भी किए जाएं। सत्य की महिमा वर्णन करते हुए शास्त्रकारों ने उसे सर्वोपरि साधन बतलाया है, एक सत्य का आधार ही व्यक्ति को संसार सागर से पार कर देता है। महाभारत के उद्योग पर्व में आया है-

“सत्य स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव।’’

-समुद्र में नाव के समान सत्य स्वर्ग का सोपान है। अर्थात्- जिस प्रकार नाव का सहारा व्यक्ति को समुद्र के बीच से पार कर किनारे पर पहुँचा देता है उसी प्रकार सत्य व्यक्ति को संसार से पार कर स्वर्ग पहुँचा देता है।

शाँति पर्व में कहा गया है-

“नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम। श्रुतिहिं सत्य धर्मस्य तस्यात्सत्यं न लोप्यते॥”

-सत्य के बढ़ कर कोई धर्म नहीं। असत्य से बड़ा कोई पाप नहीं है। सत्य ही धर्म का आधार है। अतएव सत्य का परित्याग कभी भी नहीं करना चाहिये।

सत्य का सम्पूर्ण तत्व है। उसके खण्ड नहीं किये जा सकते। सत्य बोला जाय और उसके अनुसार आचरण न किया जाय। सत्याचरण और सत्य भाषण तो किया जाय किन्तु मनोदशा उसके अनुसार न रखी जाय तो उसे सत्यनिष्ठा नहीं कहा जायेगा। ऐसे विखंडित सत्य से किसी प्रकार के लाभ की आशा नहीं की जा सकती। टूटा-फूटा, अस्त-व्यस्त अथवा कौटिल्यपूर्ण सत्य भी अमृत का ही एक स्वरूप है। सत्य का स्वरूप वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-

“सत्य यथाथे वांग् मनसे यथा दृष्टं तथानुमतिं तथा वांग् मनश्चेति, परत्र स्वबोध संक्रान्तये वागुप्ता सा यदि न वंचिता, भ्रान्ता वा, प्रतिपन्ति बन्ध्या व भवेत्।”

“सत्य का तात्पर्य है- वाणी के साथ-साथ मन का भी सच्चा होना। जैसा देखा जाय अथवा जैसा अनुमान किया जाय, वैसा ही भाव प्रकट करने का निश्चय रखते हुए बात कहना ‘सत्य’ माना जायेगा। उसमें छल न हो। दूसरों को भ्रम में डालने वाला अथवा वस्तुस्थिति से भिन्न ज्ञान देने का प्रयत्न न किया जाय।” इस प्रकार सर्वांगपूर्ण सत्य ही सत्य है, विखंडित सत्य-असत्य का ही एक प्रकार होता है।

जिस प्रकार सत्य का आचरण हर दशा में कल्याणकारी होता है, उसी प्रकार असत्य का आचरण हर प्रकार से अमाँगलिक होता है। भाषण, आचरण अथवा विचार किसी में भी असत्य का दोष मानव-जीवन में उसके अंतर और बाह्य दोनों में विषमता पैदा कर देता है। व्यक्तित्व को हर प्रकार से कलुषित और दोषपूर्ण बना देता है। असत्य का त्याग करना जीवन में आनन्द और विकास के बीज बोने के समान है। असत्य का त्याग और सत्य का आचरण मानव-जीवन की सबसे सुन्दर नीति है। इस नीति का अनुसरण करने वाला क्या भौतिक और क्या आध्यात्मिक किसी भी क्षेत्र में असफल नहीं होता। सत्य बोलने, सत्य के अनुरूप सोचने और सत्य से स्वीकृत कर्म करने से ही मनुष्य सत्यस्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।

सत्य की यह महत्ता कोई कल्पना अथवा वैज्ञानिक विलास नहीं है। यह एक ठोस और सारपूर्ण सिद्धान्त है। विद्वान् जोफसपार्कर ने कहा है- “असत्य अस्थिर और उतावला होता है। उसे कभी भी पहचाना और दण्डित किया जा सकता है। सत्य शांत और गम्भीर होता है। उसे ईश्वर का उच्च न्यायालय भी केवल सम्मानित ही कर सकता है।”

सत्य संसार की सबसे बड़ी शक्ति और सबसे प्रभावकारी नीति है। इस पर चलने वाला व्यक्ति न तो कभी अशाँत होता है, न भयभीत और न उसे असफल होने की आशंका रहती है। भय-शोक, संताप और अशांति आदि आसुरी दण्ड केवल असत्य परायणों के लिये ही निश्चित है। सत्य परायण के लिए लोक में शाँति और सम्मान एवं परलोक में स्वर्ग सुरक्षित रखा है, जिसे वह अधिकार पूर्वक प्राप्त कर लेता है।

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