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Magazine - Year 1971 - Version 2

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मानव जीवन की सार्थकता

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जीव के लिये मनुष्य शरीर एक अलभ्य अवसर है ! इसका सदुपयोग करने से जीव जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करता हुआ परम शाँति का अधिकारी बन सकता है। किन्तु यदि वह इस अवसर को व्यर्थ गँवाता है अथवा दुरुपयोग करता है तो फिर नरक की यातनायें तैयार है और चौरासी लाख निकृष्ट योनियों में भ्रमण करने की विवशता सामने हैं। इन्द्रिय तृप्ति तो जीव अन्य योनियों में भी कर सकता है पर परम पद की प्राप्ति कर सकना केवल मनुष्य शरीर में ही सम्भव है। चिर काल के पश्चात् ही यह सुर दुर्लभ मानव-जीवन प्राप्त होता है, इसे निरर्थक न गँवाना चाहिये।

स्वयं शाँति से रहना और दूसरों को शाँति से रहने देना यही जीवन जीने की सर्वोत्तम नीति है। दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो हमें अपने लिये पसन्द न हो। सत्य ही बोलना चाहिए और अन्याय के मार्ग पर एक कदम भी नहीं धरना चाहिये। श्रेष्ठ, सदाचारी और परमार्थ युक्त जीवन ही मनुष्य की उपयुक्त बुद्धिमता कही जा सकती है।

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