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Magazine - Year 1973 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सर्पों से भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।

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First 15 17 Last
सर्प के सम्बन्ध में किम्वदन्तियाँ जितनी अधिक प्रचलित हैं उनसे भी अधिक वे तथ्य हैं जिन्हें अप्रचलित और अविदित ही कहना चाहिए। साधारण तथा सर्प को मृत्यु दूत के रूप में चित्रित किया जाता है। ईसाई और मुसलिम धर्म में ईश्वर के प्रतिद्वन्द्वी शैतान का सर्प रूप में वर्णन हुआ है। हिन्दू धर्म में हर प्राणी और हर वस्तु में भगवान का दर्शन करने के दार्शनिक आदर्श के अनुरूप सर्प का स्वरूप भी श्रेष्ठता के साथ सम्बद्ध किया गया है किन्तु साथ ही उसकी गरिमा को उच्चस्तरीय स्थान दिया गया है।

शेष नाग के फन पर यह धरती टिकी हुई है। विष्णु भगवान की शैया सर्प पर हैं, शंकर भगवान ने सर्प के अलंकार धारण किये हैं। समुद्र मन्थन में सर्प की रस्सी का प्रयोग हुआ है जैसे पौराणिक उपाख्यानों में उसकी महिमा का वर्णन है। जहाँ अशुभ वर्णन है वहाँ भी उसे भगवान के समतुल्य ही कूता गया है। कालिया नाग का दर्प दमन करने में श्री कृष्ण को स्वयं जुटना पड़ा, भागवत् के इस उपाख्यान में ईसाई धर्म के सर्प शैतान जैसा ही वर्णन है। राजा परीक्षित का सर्प द्वारा काटा जाना इसके पश्चात् कलियुग का आगमन-जन्मेजय द्वारा नागयज्ञ करके विकृति के निराकरण का प्रयास जैसी आख्यायिकाएँ भी सर्प की ध्वंसात्मक शक्ति पर प्रकाश डालती है। योग साधना में कुण्डलिनी जागरण विद्या की सर्प सर्पिणी संयोग के रूप में चर्चा की जाती है। इस प्रकार के वर्णन यह बताते हैं कि सर्प की अपनी कुछ भली बुरी विशेषताएँ उच्च स्तर की हैं और ऐसी हैं जिन पर गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करके जीवनोपयोगी तथ्य हस्तगत किये जाने चाहिए।

ईसाई धर्म की पौराणिक गाथा है कि शैतान ने साँप बन कर हौवा को बहकाया कि वह ईश्वरी आदेश की अवज्ञा करे। इस पर अल्लाह ने शैतान रूपी साँप को शाप दिया कि ‘तेरी और हौवा की सन्तान में सदा बैर रहेगा।’ सो साँप और मनुष्य का बैर तो प्रख्यात है, पर बात यहीं समाप्त नहीं हुई। उस शैतान सर्प ने अपने वंशजों से भी बैर ही बना रखा है।

सर्पों के बारे में अनेकानेक किम्वदन्तियाँ प्रचलित हैं। ह्यूम सर्प के बारे में कहा जाता है कि उसकी फुफकार से पेड़ जल जाता है बल्कि स्नेक के बारे में कहा जाता है कि वह दुधारू जानवरों के थनों से लिफ्ट कर दूध पी जाता है। अमेरिका के किसान ऐसा मानते थे कि घिर जाने पर सर्प अपने आपको काट कर आत्म हत्या कर लेता है। एशिया और अफ्रीका के अनेकों देशों में किसी न किसी रूप में सर्प पूजा प्रचलित हैं उसे कहीं देवताओं का ही दैत्यों का प्रतिनिधि मानकर पूजा-पत्री द्वारा संतुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता है। भारत में मान्यता है कि कृपण व्यक्ति अपनी भूमि में छिपी सम्पदा की रक्षा के लिए सर्प बनते हैं और उसका उपयोग किसी को नहीं करने देते। किसी सर्प को मार देने पर उसके साथी मारने वाले से बदला लेते हैं। और मौका पाते ही काट लेते हैं ऐसा कहा जाता है।

साँप मनुष्यों का ही शत्रु नहीं, अपने जाति बन्धुओं और वंशजों का भी शत्रु है। वह मात्र मनुष्यों के ही प्राण हरण नहीं करता, मात्र चिड़ियों, चूहों पर ही आक्रमण करके संतुष्ट नहीं होता वरन् वही व्यवहार उनके साथ भी करता है जो उसके साथी सहचर ही नहीं वंशज होने का भी दावा करते हैं। क्रोधी दुष्ट को अपने पराये का ज्ञान रह भी कैसे सकता है। सच तो यह है कि साँप ही साँप का सबसे बड़ा शत्रु है। जाति विनाश में उसकी भूमिका अन्य सब प्राणियों से आगे है।

ब्लैक केसर नाग का प्रिय भोजन अपने ही स्वजातीय हैं। न मिलने पर वह मिलते जुलते सगोत्री गार्टर सर्पों से भी काम चला लेता है। स्नेक स्टार्स का भी यही हाल हैं। वे दूसरे जीवों को तभी खाते हैं जब अपनी जाति वालों की उपलब्धि सर्वथा असंभव हो जाय।

सर्पिणी प्रजनन के बाद क्षुधातुर होती है। अण्डे देते समय उसमें जो क्षणिक मातृत्व उदय होता है। वह ज्यादा समय ठहरता नहीं। जैसे ही बच्चे निकलते हैं वैसे ही उसके मुँह में पानी भर आता है। वात्सल्य और क्षुधा निवृत्ति में से उसे दूसरे का चयन करना भला लगता है और भी सँपोला उसकी नजर में आ जाय उसी को निगल जाती है। जो इधर उधर खिसक जायें वे ही भाग्यशाली जीवित बचते हैं।

क्रोधी, दुष्ट और क्रूर प्रकृति बाहर वालों को ही हानि पहुँचाती हो सो बात नहीं, उसकी प्रतिक्रिया स्वजनों कुटुम्बियों, आत्मीयों के लिए भी कम घातक नहीं होती। मोटे तौर से यह समझा जाता है कि दुष्ट मनुष्य बाहर के लोगों पर आक्रमण करके उनका अहित करके जो कमाते हैं, उससे अपने परिवार को लाभ पहुँचाते हैं पर वास्तविकता इससे भिन्न है। दुष्टता की कमाई, स्वजनों को तत्काल कुछ विलास सामग्री भले ही जुटा दे पर अन्ततः उनमें भी इतने दुर्गुण मनोविकार भर देती है कि वे बिना परिश्रम प्राप्त हुए वैभव से मिलने वाले क्षणिक सुख का मूल्य भविष्य में अत्यन्त दुःखद परिणाम भोगते हुए चुकाते हैं। समय पड़ने पर वे अपने आश्रितों और आत्मीयों के लिए भी विषधर जैसा दंशन करने में नहीं चूकते। तनिक-तनिक से कारणों अथवा संदेहों की आड़ में लोग अपने स्त्री बच्चों तक की हत्या कर देते हैं। दूसरों के साथ प्रेमालाप को सहन न कर सकने की ईर्ष्या के आवेश में कितने ही नर पिशाच अपनी पत्नी की समस्त सेवा सहायता को भुला कर उसके रक्त पिपासु बन जाते हैं। ऐसे समाचार आये दिन पढ़ने को मिलते रहते हैं। तथाकथित देवताओं से अमुक सुख सुविधा का वरदान मिलने के प्रलोभन में निरीह पशु पक्षियों का ही नहीं अपने या पड़ोसी के बच्चों की बलि चढ़ाने वाले दुरात्माओं की संख्या भी कम नहीं है। दुष्टता तो एक अग्नि है जो दूरवर्ती और निकटवर्ती का भेद भाव किये बिना सर्वतोमुखी अहित ही करती है। सर्प में पायी जाने वाली यह दुष्टता उसे मृत्युदूत, घृणित, शैतान आदि के रूप में सर्वत्र निन्दनीय ठहराती है। उसकी आतंक वादी प्रकृति से लोग डरते तो हैं पर साथ ही उसका मुँह कुचलने में भी नहीं चूकते।

भारत में पाये जाने वाले विषधरों में कोबरा, किरात, कोरल, वाइपर, कोडर, करायत, वफई, राजनाग, रसेल प्रमुख हैं। इनका पूरा दंश लग जाय तो 10 मिनट से लेकर 2 घण्टे की अवधि में मनुष्य दम तोड़ देता है। अजगरों की लम्बाई 35 फीट तक पाई जाती है उनका वजन तीन मन तक देखा गया है। हिरन, सुअर, सियार, जंगली भैंसा जैसे जानवरों का वह अपनी कुण्डली में ऐसे जकड़ता है कि उनकी हड्डी पसली चूर-चूर हो जाती है, इसके बाद वह अपनी शिकार को प्रायः समूची ही निगलता है और पचने तक आराम से पड़ा सुस्ताता रहता है। शेर के साथ मल्लयुद्ध में कभी-कभी अजगर के हाथ ऐसी पकड़ आ जाती है कि शेर का चूरा करके उसे पूरी तरह निगल जाय।

इतनी सामर्थ्य का उपयोग यदि कोई प्राणी रचनात्मक दिशा में कर सके तो उसकी उपयोगिता बैल या घोड़े से कई गुनी अधिक सिद्ध हो सकती है। पर यदि उसका उपयोग घातक प्रयोजनों के लिए किया जाय तो इससे अजगर की तरह अशान्ति ही उत्पन्न की जा सकती है।

संसार में प्रायः 2500 जाति के सर्प पाये जाते हैं। भारत में इनकी 400 जातियाँ ही देखने में आई हैं। इनमें से 80 प्रकार के ही विषधर होते हैं। हर वर्ष भारत में प्रायः डेढ़ लाख मनुष्यों को साँप काटते हैं पर उनमें से 10 प्रतिशत की ही मृत्यु होती है क्योंकि काटने वाले सभी सर्प अधिक विषैले नहीं होते।

कुछ की दुष्टता से उस वर्ग के अन्य निर्दोषों को भी कलंकित होना पड़ता है। समस्त सर्प विषधर और दुष्ट प्रकृति के न होने पर भी बेचारे अकारण घृणास्पद समझे जाते हैं और लोग उनका भी जीवन दुर्लभ कर देते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मनुष्य समाज में यह प्रथा प्रचलित है कि हर वर्ग अपने समाज के लोगों को दुष्प्रवृत्तियों से रोकने बचाने के हर सम्भव प्रयत्न करे। समझाने बुझाने से न सुधरे तो उसे बहिष्कृत एवं दण्डित करके कड़े कदम भी उठाये। राजसत्ता और समाज संगठन द्वारा ऐसा किया भी जाता है। इसी कारण मानव समाज की बहुत कुछ दुष्टताएँ नियन्त्रण में रहती है। सर्पों को भी यदि यह सहज बुद्धि होती तो सम्भवतः वे भी क्रोधी और दुष्ट सर्पों को बहिष्कृत एवं दण्डित करने में न चूकते।

सर्प का विष उसकी पैराटाइड ग्रन्थि से निकलता है। उसकी संरचना प्रोटियोलाइटिक, एजाइम, फास्फेटाइडेज और न्यूरोटा निक्स से होती है।

सर्प विष के बारे में यह कथन सत्य है कि काटे हुए स्थान का रक्त मुँह से चूसा जा सकता है। और उससे रोगी को विष मुक्त किया जा सकता है पर यह बात तभी सही होगी जो चूसने वाले के मुँह में किसी प्रकार का छोटा बड़ा जख्म न हो। सपेरे साँप को मार कर खा जाते हैं यह भी सत्य है। साँप का विष बिना किसी हानि के पचाया जा सकता है। वह घातक तभी होता है जब रक्त में सीधा जा मिलता है।

सर्प विष रक्त में मिल कर ही ‘हिमोलिसस’ नामक पदार्थ उत्पन्न करता है। रक्त कोशिकाएँ फट जाती है, आमाशय और गुर्दे में रक्त जमा होना प्रारम्भ हो जाता है। त्वचा ठंडी पड़ जाती है। हाथ पैर जीभ आदि सुन्न होते-होते मस्तिष्क अपना काम करना बंद कर देता है और बेहोशी के बाद दिल धड़कना बंद हो जाता है।

हाँगकाँग पर में सर्प का पित्ताशय बड़े चाव से खाया जाता है। ब्रह्मा में एक बार अन्वेषी चिडविन का दल जंगलों में फँस गया तो उसने अजगर खाकर अपना काम कई सप्ताह तक चलाया। अमेरिका में गार्टर साँप का माँस डिब्बों में बन्द बिकता है।

संसार में फैली हुई दुष्प्रवृत्तियाँ अपने लिए सर्प विष की तरह तभी घातक बनती हैं जब वे अपने रक्त में-जीवन क्रम में मिलने घुलने लगें। यदि उन्हें आत्मसात् न किया जाय तो विकृतियाँ कितनी ही भयंकर क्यों न हो किसी का कुछ अहित नहीं कर सकतीं। सर्प विष को सीधा रक्त में न मिलने देने की सावधानी रखने वाले कालकूट के साथ अठखेलियाँ करते रहते हैं और उसके दुष्प्रभाव से सहज ही बचे रहते हैं।

इतना ही नहीं बुद्धिमान लोग तो सर्प विष जैसे भयंकर पदार्थ से भी लाभ उठा लेते हैं। उससे सम्पदा उपार्जन करते हैं और सदुपयोग करके उस विष को अमृत में बदलते हैं। सर्प विष से भयानक रोगों का शमन करने वाली औषधियाँ बनती हैं और उसका संग्रह करने वाले सम्पन्न एवं यशस्वी बनते हैं।

भारत में हाफकिन इंस्टीट्यूट बम्बई, सर्प शोध-कार्य में प्रवृत्त है, साथ ही सर्प विष संग्रह करके उन्हें विदेशों में चिकित्सा अनुसंधानों के लिए भेजता है और दुर्लभ विदेशी मुद्रा कमाता है। सर्प विष सोने की अपेक्षा पन्द्रह गुने अधिक मूल्य का होता है। पाले हुए सर्पों में से नाग एक बार में 200 मिलीग्राम, काँडर 150 मिली ग्राम करायत 26 मिली ग्राम और अफई 6 मिली ग्राम विष देता है।

दुष्टता को परिष्कृत करके उसे सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त कर सकना एक महत्त्वपूर्ण कला है। सपेरे विषैले साँप पकड़ने का धन्धा करते हैं, इससे वे अनेकों को भययुक्त करते हैं साथ ही बीन बजा कर उन्हें लहराने का खेल दिखा कर दर्शकों का मनोरंजन एवं अपने लिए आजीविका उपार्जन करते हैं। शेष शैयाशायी विष्णु और सर्पालंकार धारी शंकर के चित्र इसी प्रयोग की सफलता का संकेत करते हैं। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अम्बपाली, अजामिल, विल्वमंगल, अशोक आदि के पूर्व पक्षी दुष्टजन उत्तर भाग में कितने श्रेष्ठ बन सके, इस तथ्य पर दृष्टिपात किया जाय तो यह स्वीकार किया जाएगा कि उच्चस्तरीय सद्भावनाएँ बुरों को भी भला बना सकती हैं। इस तथ्य को स्मृति पलट पर बनाये रखने के लिए हिन्दू धर्म में एकाध त्योहार सर्प पूजा का भी है।

श्रावण शुक्ल पंचमी को हर साल नाग पंचमी का त्यौहार आता है उस दिन जगह-जगह सपेरे अपने साँप पिटारे लेकर पहुँचते हैं, सर्प का दर्शन कराते हैं, धर्म भीरु लोग उन्हें दूध पिलाते हैं और सपेरों को दान दक्षिण देते हैं।

महाराष्ट्र के साँगली नगर में कोई 70 मील दूर शिराला गाँव में बसन्त पंचमी पर होने वाली सर्प पूजा अद्भुत है। वहाँ दूर गाँवों के लोग इकट्ठे होते हैं और सर्प नृत्य का आनन्द मनाते हैं। सपेरे तथा दूसरे लोग अपने पकड़े सर्पों को लेकर पहुँचते हैं। गाते बजाते हैं। सर्प, फन फैलाकर उनके साथ-साथ नृत्य करते हैं। कहते है कि बाबा गोरख नाथ ने यह आशीर्वाद दिया था कि इन 32 गाँवों में सर्प किसी को नहीं काटेंगे और न इन गाँवों के लोग उन्हें मारेंगे। आश्चर्य है कि यह लोकोक्ति सही भी होती चली आती है। पूना से इस्लाम पुर तक पक्की सड़क जाती है। इसके बाद शिराला तक 10 मील पैदल चलना पड़ता है।

इस प्रकार के उदाहरण बताते हैं कि एक पक्षीय सद्भावना भी दूसरे पक्ष की दुष्टता को ऋजुः एवं मृदुल बनाने में बहुत हद तक सफल हो सकती है।

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