
असत्य सदा अकल्याणकारी होता है
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
विज्ञान ने मनुष्य को कितनी ही साधन सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं और उसे पहले की अपेक्षा समृद्ध सम्पन्न बनाया हैं। उसकी शक्ति बढ़ी है और सामर्थ्य भी। विकास की गवेषणा करते समय वर्तमान शताब्दी को विज्ञान का युग कहा जाता है। परन्तु इस विज्ञान का एक और पहलू भी है वह है वैज्ञानिक उपकरणों के उपयोग और उस आधार पर खड़ी की गई साधन सुविधाओं से उत्पन्न होने वाला प्रदूषण। यह प्रदूषण हवा, पानी और खाद्य वस्तुओं को विषाक्त कर किस प्रकार मानव-जीवन के लिए संकट उत्पन्न कर रहा है? अब इस दिशा में भी गम्भीरता से विचार किया जाने लगा है।
उदाहरण के लिए वायु को ही लें। वह मनुष्य ही नहीं संसार के समस्त जीवित प्राणियों और वृक्ष वनस्पतियों के लिए आवश्यक महत्व है। सम्भवतः इसी लिए प्रकृति ने समस्त पृथ्वी मण्डल को वायु से आच्छादित कर रखा है। एक सामान्य व्यक्ति दिन भर में लगभग 35 पौंड वायु का सेवन करता है। यह मात्रा सारे दिन में ग्रहण ये गये अन्न और जल से आठ गुना अधिक है। इसी से प्रतीत होता है कि मनुष्य जीवन में वायु का महत्व समस्त खाद्य वस्तुओं में कितना अधिक है? अन्न और जल के अभाव में तो मनुष्य फिर भी कुछ समय तक जीवित रह लेता है किन्तु वायु के बिना तो कुछ ही क्षणों में उसके प्राण घुटने लगते है।
इसके साथ ही यह भी एक सत्य है कि जीवित रहने के लिए केवल अन्न और जल का होना ही पर्याप्त नहीं हैं, उसे स्वस्थ बनाये रखने के लिए स्वच्छ और पौष्टिक भोजन चाहिए। वह न मिले तो भी कोई कठिनाई नहीं है, किन्तु कम से कम भोजन और पानी गन्दा तथा सड़ा हुआ तो नहीं ही होना चाहिए। गन्दा और सड़ा भोजन कर लेने से जी मिचलाने लगता है और तत्काल मृत्यु हो जाती है। भोजन में और तरह की त्रुटियाँ हो तो उसके विष शरीर में घुलते रहते हैं तथा कुछ समय बाद अपनी दूषित प्रतिक्रिया शारीरिक, मानसिक व्याधि के रूप में प्रकट करने लगते है। आठ गुना कम आवश्यक और सेवित दूषित अन्न के प्रदूषण की मात्रा में जब मनुष्य इतना प्रभावित हो सकता है, तब दूषित वायु मनुष्य के स्वास्थ्य पर कितना घातक दुष्प्रभाव डालती होगी? इनकी कल्पना नहीं की जा सकती।
विश्व के मूर्धन्य विचारक और मनीषी अब इस समस्या पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं और मान रहे कि औद्योगीकरण तथा आधुनिक सभ्यता द्वारा मशीनी ढाँचे में ढाली जा रही मनुष्य की जिन्दगी जिन अभिशापों से त्रस्त हुई है, वायु प्रदूषण उनमें एक है और सम्भवतः सबसे प्रमुख भी। अमेरिका की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा तथा राष्ट्रीय कैंसर संस्थान के निर्देशक कथन है कि इन दिनों जिस गति से वायु प्रदूषण हो रहा है यदि यही क्रम कुछ और वर्षों चलता रहा तो मनुष्य को मारने के लिए किसी बड़े युद्ध की अथवा आणविक अस्त्रों के उपयोग की आवश्यकता नहीं पड़ेगी वरन् वायु प्रदूषण ही इस काम को पूरा कर देगा।
वायु प्रदूषण के परिणाम कितने घातक हो सकते हैं? इस सम्बन्ध में आए दिनों चर्चाएँ तो चलाई जाती हैं किन्तु उसकी रोकथाम के लिए कोई बड़े प्रयास कम ही किये जाते है। अमेरिका में प्रति वर्ष 200 करोड़ टन दूषित तत्व वायु में मिलते रहते है। जर्मनी, फ्राँस, इटली, रूस, और ब्रिटेन भी इससे पीछे नहीं है। इन देशों में तथा विश्व के अन्य दूसरे देशों में उत्पन्न हो वाला प्रदूषण वायु को इतना विषाक्त बना रहा है, उसमें इतने प्रदूषण वायु को इतना विषाक्त बना रहा है, उसमें इतने विषैले तत्व घोल रहा है कि क्रम इसी प्रकार चलता रहा तो प्रदूषण के कारण पृथ्वी के भयंकर रूप से गर्म हो उठने की संभावना है और धुएँ के कारण प्राणियों के घुट-घुटकर मर जाने की आशंका है।
यह आशंका तो जब पूरी होगी तब होगी परन्तु इन दिनों वायु प्रदूषण जन जीवन पर अपना बुरा प्रभाव डालने से नहीं चूक रहा है। उन्नत, विकसित और आधुनिक देशों के महा नगरों की स्थिति देखी जाए तो प्रतीत होगा कि इस कारण वहाँ का जीवन आए दिन अस्त-व्यस्त होता रहता है। पिछले दिनों बी.बी.सी. के एक प्रसारण में बताया गया कि लन्दन की सड़कों पर नियुक्त ट्रैफिक पुलिस को अक्सर अपने चेहरे मास्क से ढकने पड़ते है। ऐसा इसलिए करना पड़ता है कि वहाँ की सड़कों पर दौड़ने वाले वाहन इतना धुँआ उगलते है कि कई बार दिन में ही धुँध छा जाती है। ट्रैफिक पुलिस के सिपाही यदि ऐसा न करें तो उनके लिए पाँच घण्टे खड़ा रह पाना मुश्किल हो जाय।
यही हाल जापान की राजधानी टोक्यो का है। वहाँ की सड़कों पर भी कई बार वाहनों की संख्या इतनी बढ़ जाती है कि धुएँ के कारण छाई हुई धुंध से बचने के लिए सरकारी तौर पर घोषणा करनी पड़ती है। पिछले वर्ष इस तरह की घोषणा 120 बार की गई ओर ट्रैफिक पुलिस को आधा आधा घण्टे बाद अपनी ड्यूटी छोड़कर चौराहों की बगल में आक्सीजन टंकियों से साँस लेने के लिए जाना पड़ा।
यह धुँआ आदमी को घुट-घुट कर मरने के लिए बाध्य करेगा तब करेगा किन्तु दुष्प्रभाव विभिन्न रूपों में जन-स्वास्थ्य से अभी ही खिलवाड़ करने लगे जापान में सौ व्यक्तियों पीछे एक व्यक्ति अनिवार्य रूप से ‘ब्राकाँइटिस’ का रोगी है। इसका कारण और कुछ नहीं धुँआ ही है, जिसे मोटरकारें, रेलगाडियों और कल कारखानों की चिमनियाँ निरन्तर उगलती रहती है बढ़ते हुए औद्योगीकरण के कारण कई मानसिक रोग, कैंसर, हृदय रोग तथा यक्ष्मा जैसे राजरोग भी बढ़े हैं। अमेरिका की राष्ट्रीय स्वास्थ्य अनुसंधान समिति के अनुसार इन रोगों की बाढ़ का एक बड़ा कारण हवा में घुला हुआ यह जहर है।
जर्मनी के उद्योग धन्धे प्रतिवर्ष 2 करोड़ टन विषाक्त द्रव्य हवा में उड़ाते हैं। इनमें कोयला ओर तेल जलाने से उत्पन्न हुई गैस तथा जमीन खोदकर इन पदार्थों को निकालते समय उड़ने वाली गैस प्रमुख है। अमेरिका से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘डाइव मैगजीन’ में बताया गया है कि एक कार साल भर इतना धुँआ उगल देती है कि उसके कार्बन डाई आक्साइड से ईसाइयों के प्रसिद्ध चर्च सेंट पाल का गुम्बद दो बार कार्बन मोनो आक्साइड से तीन कमरों वाला बंगला नौ बार तथा नाइट्रोजन से एक डबल डेकर बस दो बार भरी जा सकती है । एक कार द्वारा सात वर्ष में उगले गये धुएँ का यदि सीसा छान लिया जाय तो वह एक गोताखोर के सीने को ढकने के लिए बनाये जाने वाले बख्तर के लिए पर्याप्त होगा।
यह नाप तौल तो एक कार से उत्पन्न होने वाले विषाक्त तत्वों के बारे में है, जबकि इस समय विश्व भर में करोड़ों कारें हैं। अकेले ब्रिटेन में डेढ़ करोड़ कारें और मोटर गाड़ियाँ हैं। अमेरिका के सम्बन्ध में कहते हैं कि कारों का उत्पादन बच्चों से भी ज्यादा होता है। जितनी देर में वहाँ पाँच बच्चे पैदा होते उतनी देर में वहाँ सात कारें बन कर तैयार हो जाती है। वहाँ के प्रसिद्ध समाचार पत्र ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने लिखा है कि पिछले वर्ष केवल कार मोटरों द्वारा 360 लाख टन धुँआ वायुमण्डल में छोड़ा गया तो यह भी एक तथ्य है कि पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहन वायु प्रदूषण के लिए केवल तीस प्रतिशत ही जिम्मेदार हैं जबकि बाकी शतप्रतिशत वायु प्रदूषण ‘कल’ कारखानों और छोटी बड़ी फैक्ट्रियों द्वारा होता है।
इन स्रोतों से हवा में घुलने वाला विष मानव स्वास्थ्य पर तो प्रभाव डालता ही है अन्य जीव जन्तुओं को भी समान रूप से प्रभावित करता तथा प्राकृतिक स्रोतों को भी गन्दा ओर जहरीला बनाता है। अमेरिका तथा यूरोप के कतिपय देशों में इन दिनों पशु पक्षियों की प्रजनन क्षमता में भारी कमी आई है। लारेंड (मेरीलैंड) स्थित “ब्यूरो आफ स्पोर्ट फिशरीज एण्ड वाइल्ड लाइफ” संस्थान के दो वैज्ञानिक आर.डी.पोर्टर तथा एस.एन.वायत्रेयरने कुछ पक्षियों पर परीक्षण किए और पाया कि औद्योगिक महानगरों में तथा उनके आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले पक्षी अन्य स्थानों पर रहने वाले पक्षियों से कम अण्डे तो देते ही है, वे अपने अण्डे स्वयं ही नष्ट भी करने लगते हैं इसके अतिरिक्त इन पक्षियों के अण्डों को ऊपरी पर्त अपेक्षाकृत पतली पाई गई और वे तनिक से आघात के कारण यहाँ तक कि उन्हें साँस लेने के लिए बैठने वाली मादा द्वारा हिलने डुलने भर से टूटने लगे।
वृक्ष वनस्पति वायु प्रदूषण के संकट को कम करने में कुछ सहायक होते है किन्तु इन दिनों बढ़ती हुई आबादी के लिए भरण-पोषण के उपयुक्त अन्न पैदा करने के लिए कृषि योग्य जमीन की भी माँग भी तो बढ़ी है। कृषि के लिए बढ़ती हुई जमीन की माँग को पूरा करने के लिए जंगल सफाया करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचता। सो, वहीं उपाय अपनाया जा रहा है। और वायु प्रदूषण की भयावहता कम करने लिए रहे बचे उपाय भी नष्ट होते जा रहे है।
वायु प्रदूषण के कारण होने वाली रासायनिक प्रक्रियाएँ वायु दुर्घटनाओं, बीमारियों का ही कारण नहीं बनेगी वरन् उससे भूकम्प ज्वालामुखियों के विस्फोट तथा समुद्र में तूफान जैसी प्राकृतिक विपत्तियाँ भी कहर ढायेंगी। गर्भस्थ शिशु पर तो इस प्रदूषण का प्रभाव अभी से पड़ने लगा है। अमेरिका के महानगरों में कुछ तथा टेढ़े-मेढ़े बच्चों की जन्म दर पिछले वर्षों से निरन्तर बढ़ती जा रही है। कुछ ही दिनों में वायु में घुले जहर से प्रभावित होकर खर-दूषण त्रिशिरा और मारीच जैसी कुबड़ी भयंकर विचित्र संतानें उत्पन्न होने लगें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। वायु प्रदूषण मनुष्य जीवन को अनेक पहलुओं से दबोचता बढ़ रहा है और उसके कारण मनुष्य जीवन का अन्त बहुत ही निकट दिखाई देने लगा है। उससे कैसे बचा जाए? अब इस प्रश्न को उपेक्षित नहीं किया जा सकता।