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Magazine - Year 1973 - Version 2

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रक्त परिवर्तन ही नहीं-भाव परिवर्तन भी

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First 7 9 Last
परमात्मा ने मनुष्य को सभी सामर्थ्यों और सर्वतोमुखी प्रगति की सम्भावनाओं से विभूषित कर इस पृथ्वी पर भेजा है। यदि अपने ही भीतर सन्निहित इन शक्तियों और सम्भावनाओं के स्रोतों को पहचान लिया जाये तथा उन्हें विकसित करने के लिए कटिबद्ध हुआ जाये तो कोई कारण नहीं कि परमात्मा का सबसे बड़ा पुत्र, ईश्वरीय अंश, राजकुमार आत्मा इसी दीन-हीन अवस्था में पड़ा रहे, इसके विपरीत जो लोग प्रगति और उन्नति के आधार बाहर तलाशते हैं, आगे बढ़ने और उन्नति करने के लिए दूसरों पर निर्भर करते हैं उन्हें यथास्थिति में ही पड़े रहना पड़ता है। किसी की सहायता और अनुदान उसका थोड़ा बहुत भला कर दे, सामयिक लाभ भले ही पहुँचा दें, परन्तु उससे बात बनती नहीं है वह सहायता अनुदान तो सामयिक उपचार ही सिद्ध हैं। इसीलिए कहा गया है कि ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते है। इस कथन का आशय यही है कि जो परमात्मा के दिये हुए अनुदानों, मानवी व्यक्तित्व में सन्निहित विशेषताओं को पहचानने में समर्थ होते है, उन्हें जागृत कर पाते है वही किसी दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति कर पाते है। क्योंकि परमात्मा ने उन्नति और प्रगति की समस्त संभावनाएँ प्रत्येक व्यक्ति को उसे निजी उपयोग हेतु ही दे रखी है, उसे इतना सामर्थ्यवान भी बनाया है कि वह प्रगति क्रम में आने वाले अवरोधों से जूझते हुए निरन्तर उन्नति करता रह सके।

उदाहरण के लिए परमात्मा ने मनुष्य ही इस नश्वर और मिट्टी का पुतला कही जाने वाली काया को ही इतना सशक्त और मजबूत बनाया है कि वह बुरी से बुरी परिस्थितियों में भी अपना सन्तुलन बनाये रह सकती है और दीर्घकाल तक कार्य करती रह सकती है। आये दिनों इस तरह की घटनाएँ सामने आती रहती है। जिनसे यह तथ्य सिद्ध होता है। पिछले दिनों अमेरिका का एक हवाई जहाज समुद्र पर उड़ते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो गया। किसी मशीनी खराबी के कारण विमान में आग लग गई और वह समुद्र में गिर पड़ा। किसी प्रकार प्राण रक्षा न होते देखकर उसका पायलट जहाज के समुद्र में गिरने से पहले ही कूद पड़ा और जिस जगह जहाज का मलबा गिर रहा था वहाँ से दूर हटकर पानी में कूदा। दुर्घटनाग्रस्त जलते हुए वायुयान से कूदने के कारण उसे चोट तो बहुत आई फिर भी वह तैरता रहा और लगातार घण्टे तक तैरता हुआ बहुत बुरी तरह थकने के बाद किनारे तक पहुँचा। बुखार, निमोनिया, भूख, थकान, दर्द, चोट और बदहवासी के कारण उसकी बड़ी बुरी हालत हो गई थी और इसी हालत में उसे अस्पताल पहुँचाया गया। पायलट की स्थिति इतनी गम्भीर थी कि डाक्टर उसके अब तक बचे रहने पर आश्चर्य करते रहे। बचने की कोई सम्भावनायें न रहने के बावजूद भी वह पायलट अपनी जीवनी शक्ति के सहारे धीरे-धीरे अच्छा होता चला गया।

पोर्टलैण्ड में एक आठ वर्षीय बालक के साथ इन प्रकार की दुर्घटना घटी कि उसका बच पाना असम्भव ही लग रहा था। हुआ यह कि वह किसी प्रकार एक सड़क कूटने वाले तीन टन भारी इंजिन के नीचे आ गया। किसी को उसके बचने की आशा नहीं थी, पर उसकी जीवनी शक्ति ने काम किया और वह एक वर्ष अस्पताल में रहकर अच्छा हो गया। उसके पैर भले ही चलने लायक न हो सके पर उसकी जीवन रक्षा तो हो ही गई। न्यूयार्क की पन्द्रह मील ऊँची इमारत से एक बार दो वर्ष का बालक गिर पड़ा। इतनी ऊँचाई से गिरने के कारण हड्डियाँ बुरी तरह टूट जाने के बाद भी वह जीवित बचा रहा।

इस प्रकार की ढ़ेरों दुर्घटनायें जिनके शिकार होने वाले का जीवन बच पाना किसी भी स्थिति में असम्भव लग रहा था किन्तु मानवी काया में विद्यमान जीवनी शक्ति ने जोर मारा और लोग देखते ही देखते मृत्यु के जाल में से निकल कर बाहर आ गये। परमात्मा ने जीवन को निश्चित ही इस योग्य बनाया है कि वह कठिन से कठिन और प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आत्म-रक्षा कर सके। परमात्मा ने मनुष्य की काया को यों ही नहीं बनाया है। उसने मानवीय व्यक्तित्व में तो प्रगति और उन्नति की तमाम सम्भावनायें भर ही दी है, उनके शरीर को भी इतनी विशेषताओं में परिपूरित बनाया है कि उसके समान विशेषताओं से भरा-पूरा कोई यन्त्र अभी तक नहीं बनाया जा सका है जो सभी परिस्थितियों में अपने आपको अनुकूल बना सके।

कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय में भौतिकी विभाग के प्राध्यापक डाॅ. क्रेग टेलर ने स्वयं अपने ऊपर प्रयोग कर के यह सिद्ध किया है कि संसार के सबसे अधिक गरम क्षेत्र में रहकर भी औसत स्वास्थ्य वाला व्यक्ति हफ्तों तक आसानी से जीवित रह सकता है। यदि स्नायु संस्थान अपेक्षाकृत अधिक समर्थ हो तो यह अवधि महीनों तक की हो सकती है। उल्लेखनीय है कि साधारणतया अत्यधिक गर्मी वाले क्षेत्रों में अधिक से अधिक चौबीस घण्टे तक जीवित रह सकने की मान्यता प्रचलित है। डाॅ. टेलर ने अपने प्रयोगों द्वारा 220 डिग्री तक की गर्मी देर तक सहन करके दिखाई और वे 250 डिग्री का तापमान भी 15 मिनट तक सहन करने में सफल रहे। स्मरणीय है कि 100 डिग्री गर्मी में पानी भाप बन कर गायब होने लगती है।

मनुष्य कितनी गर्मी सह सकता है इसके साथ ही यह प्रश्न भी उठता है कि वह अधिक से अधिक कितना शीत सह सकता है मेजर डोनल्ड ने इस सम्बन्ध में कई परीक्षण किये और बताया कि शरीर में शीत सहने की कोई अन्तिम सीमा नहीं है। उन्होंने बर्फीले पानी की शीत को घण्टों तक सहन करके दिखाया और यह भी प्रमाणित किया कि यदि किसी व्यक्ति ने शीत रक्षक सूट पहन रखा हो तो शीत से मृत्यु नहीं हो सकती। कहा जा सकता है मेजर डोनमन्ड ने पहले से ही इस तरह की व्यवस्था कर रखी होगी ओर यह अति रंजित प्रतिपादन किया हो। किन्तु किसी आकस्मिक दुर्घटना में भी मनुष्य के बच जाने की सम्भावना को क्या कहेंगे? द्वितीय महायुद्ध के दौरान ऐसी ही एक घटना घटी। इंग्लैण्ड का एक विमान चालक इस युद्ध के दौरान विपत्ति में फँस गया। उसके साथ दो और साथी भी थे। इन तीनों को भयंकर शीत वाले बर्फीले प्रदेश में भूखे प्यासे दम दिन गुजारना पड़े। इन लोगों के पास कपड़े भी गरम नहीं थे। बर्फीले हवाओं, तूफानों और आँधियों का सामना करते हुए ये तीनों व्यक्ति करीब दो सप्ताह की प्राणान्तक यात्रा करते हुए उस प्रदेश की सीमा ने बाहर बच सकने की स्थिति में पहुँचे।

बुखार के समय शरीर का तापमान अधिक बढ़ने लगता है तो डाॅक्टर लोग सिर पर बर्फ रखने की सलाह देते है ताकि बढ़ा हुआ तापमान कम हो सके। किन्तु इस प्रतिपादन को पिछले दिनों ब्रुकलिस (अमेरिका) की नर्स ने झुठला दिया जिसने 110 डिग्री बुखार को कई दिनों तक सहा। न केवल सहन किया वरन् बुखार से लड़ाई भी लड़ी ओर आखिर वह अच्छी हो गई। डाॅक्टर कह चुके थे कि इसका बचना सम्भव नहीं है। जब उसका बुखार ठीक होने लगा तो डाॅक्टर कहने लगे कि इतनी अधिक गर्मी सहने के कारण उसका दिमाग जरूर विक्षिप्त हो जाएगा। पर नर्स ने न तो मृत्यु को ही पास फटकने दिया और न ही अपना मानसिक सन्तुलन खोया।

आहार मनुष्य को जीवित रखने वाला प्रमुख साधन माना जाता है। दस बारह दिनों तक तो कोई व्यक्ति निराहार रह भी सकता है, पर इससे अधिक समय तक भूखे रहने पर स्वास्थ्य लड़खड़ाने सा लगता है। ज्यों-ज्यों अधिक दिन तक भूख का सामना करना पड़ता है, त्यों-त्यों स्वास्थ्य लड़खड़ाने लगता है ओर कुछ ही समय में जीवन संकट उत्पन्न हो जाता है। किन्तु आयरिश स्वाधीनता युद्ध के उद्घाता टेटेन्स मेकस्विनी ने जेल में अनशन किया और 128 दिन तक निराहार रहकर मौत से जूझते रहे तथा अन्ततः विजयी हुए। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सेनानी यतीन्द्रनाथ दास बिना भोजन किये दिन तक निराहार रहकर मौत से लड़ते रहे।

आपरेशन के समय कितने ही लोगों का एक-एक फेफड़ा, एक गुर्दा, जिगर का एक भाग और आँतों का एक हिस्सा काट कर अलग कर दिया जाता हैं इतने पर भी उनका जीवन क्रम आसानी से चलता रहता है। सामान्य स्थिति में मनुष्य शरीर का 36.6 तापक्रम डिग्री सेंटीग्रेड होता है। खून में शकर की मात्रा 0.1 होती है। रक्तचाप साधारण स्थिति में 100 से 140 मिली मीटर मरकरी काॅलम होता है। यह तापमान शरीर के भीतरी अवयवों का ही होता है। ठण्ड के दिनों में हाथ-पैरों का ताप तो डिग्री से भी कम रहता है फिर सारा कार्य यथावत् चलता रहता है, पर इससे अधिक भीतरी गर्मी नहीं गिरनी चाहिए और वह 45 से आग भी नहीं बढ़नी चाहिए अन्यथा जीवन संकट के भीतर ही हीटर और कूलर जैसी व्यवस्था है। शरीर का सचेतन नाड़ी संस्थान तापमान को सन्तुलित रखने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। मासपेशियाँ इससे ऊष्मा उत्पन्न करने कार्य करती है। उन्हीं से ऊष्मा बनती पकती और बढ़ती है। इनके अतिरिक्त हृदय, फुफ्फुस, वृक्क, यकृत आँतें आदि अंग भी एक प्रकार से भट्टी की तरह जलते और गर्मी पैदा करते है।

शरीर दिन-रात में 160 से 180 लाख कैलोरी ऊष्मा नित्य बाहर फेंकने का क्रम चलाता है। बिजली के हीटर भी प्रायः इतना ही ताप उत्पन्न करते है। जब कभी गर्मी कम पड़ती है, तो ठण्ड लगने लगती है। दाँत किटकिटाते हैं, अंग काँपते है। यह अतिरिक्त क्रिया-कलाप प्रकृति द्वारा अतिरिक्त गर्मी उत्पन्न करने के लिए घर्षणात्मक हलचल उत्पन्न करने के लिए आरम्भ किए जाते है।

रक्त भी शरीर में एक अच्छे ऊष्मा वाहक का काम करता है। ताप को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने के लिए रक्त संचार पद्धति की द्रुतगामिता ही अभीष्ट प्रयोजन पूरा करती है। यह रक्त यदि दौड़ता न हो तो गर्मी जहाँ बनी है वही बनी रहती है। ताप उत्पन्न करने वाले अवयव जलने लगते है और शेष ही शीत निवारण कठिन पड़ता है। रक्त दौड़ने का ही काम नहीं करता वरन् वह स्वयं गर्मी भी पैदा करता ओर गरम तो रहता हैं उसकी यह विशेषता हीटर और कूलर दोनों के प्रयोजन पूरे करती है। जब देह की गर्मी लगती है तो रक्त की दौड़ शरीर से गर्मी को बाहर फेंकने लगती है और जब ठंड प्रतीत होती है तो वह गर्मी शरीर के भीतर संचित रह कर अंशों को गरम करती है। इस प्रकार शीत ऋतु में ताप संचय का क्रम चलता है और अपना रक्त ही आवश्यक गर्मी की व्यवस्था बना देता है।

शरीर को भले ही मिट्टी का पुतला या नश्वर खिलौना कहा जाय पर वस्तुतः यह परमात्मा की या प्रकृति की ऐसी अनुपम कलाकृति है जिसकी तुलना में सृष्टि की और कोई वस्तु नहीं ठहरती उसकी रचना ऐसी है कि साधारण बीमारियाँ अथवा दुर्घटनायें कोई विशेष अनर्थ नहीं कर सकती। शरीर की यह तितिक्षा भक्ति अपने भीतर इतनी अधिक मात्रा में सँजोकर रखी हुई है कि मृत्यु जैसा संकट उपस्थिति होने पर भी जीवन की आशा की जा सकती है कहा जा सकता है कि मनुष्य की विपत्तियों और संकटों से कोई विशेष हानि नहीं पहुँचती है तो अपने ही मन के द्वारा बुने हुए जाल जंजालों बुज़दिली और साहस की दुर्बलताओं से। इसीलिए कहा गया है कि परमात्मा ने मनुष्य को अमित सामर्थ्य और अद्भुत सम्भावनाओं से भरपूर बनाया है इस तथ्य को समझने वाले विचारशील लोग प्रगति के साधन बाहर नहीं ढूँढ़ते वरन् भीतर खोजने है। अपने दोष दुर्गुण सुधारते है अस्त व्यस्त स्वभाव एवं कार्यक्रम क्रिया पद्धति को ठीक करते है तथा अभीष्ट दिशा में बढ़ चलने का पथ सहज ही प्रशस्त करते चलते है। अभ्युदय, अभ्युत्थान की समस्त सम्भावनायें मनुष्य के अपने भीतर ही विद्यमान है, जिसने इस तथ्य की वास्तविकता समझ ली स्वीकार कर ली वह अपने को सम्भाल सुधार कर अबोध गति से आगे बढ़ता चलता है।

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