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Magazine - Year 1973 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सम्प्रदाय और राजनीति का स्थान अध्यात्म और विज्ञान को मिलेगा

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नवरात्रि की अनुष्ठान साधना का अत्यधिक महत्व माना गया है। इसमें पूजा अर्चा की निर्धारित विधि व्यवस्था का अपना महत्व हैं और ऋतु सन्धि के अवसर पर इस बेला की समयपरक विशेषता है। इतने पर भी इस रहस्य को भली प्रकार हृदयंगम किया जाना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के साथ जुड़ी रहने वाली सिद्धियों की दृष्टि से इन अनुष्ठानों का मर्म उस अवसर पर पालन किये जाने वाले अनुबन्ध, अनुशासनों के साथ जुड़ा हुआ है। वे नियम सामान्य व्यवहार में कुछ कठिन तो पड़ते हैं, पर ऐसे नहीं है जिन्हें सच्ची इच्छा के रहते व्यस्त समझे जाने वाले व्यक्ति भी पालन न कर सकें। समझे जाने योग्य तयि यह है कि इन अनुशासनों का इन दिनों अभ्यास करने के उपरान्त जीवन दर्शन में स्थायी रूप से सम्मिलित करने की जो प्रेरणा है उसी को अपनाने पर प्रगति एवं सिऋि का समस्त आधार केन्द्रीभूत हैं।

नवरात्रि साधना को प्रखर बनाने और साधक की निष्ठा परिपक्व करने के लिए अनुष्ठानों में जो अनुबन्ध रखे गये हैं। उन्हें व्रत कहते हैं। नवरात्रि में उपवास, ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, चर्मत्याग, स्वयंसेवा जैसे कुछ नियम पालन की परम्परा इसी दृष्टि से शास्त्रकारों ने बनाई है कि उपासना में अधिक प्रखरता का वह समावेश हो सकें जो सुविधा, सरलता के वातावरण में उपलब्ध नहीं होता।

स्वयं हजामत बनाने, स्वयं कपड़े धोने जैसे काम तो सहज पूरे होते रहते हैं। कठिनाई भेजन के सम्बन्ध में रहती है, स्वयं पकाना कठिन है। बिना पकाई हुई वस्तओं या फलहार उपवास को महत्व इसी दृष्टि से मिला है, पर सरलता की दृष्टि से छूट इतनी भी रखी गई है कि एक लगावन और एक सब्जी, दाल जैसा ठोस वस्तु का आहार में उपयोग करना भी बाल उपवास मान लिया जाए। शाकं-रोटी या दाल-रोटी जैसी दो वस्तुओं पर ही नवरात्रि काट ली जाए तो इतना व्रतबन्ध भी उद्देश्य की पूर्ति में सहायक और कामचजाऊ सन्तोषजनक माना जाता है। इस तर्क के अनुसार शरीर सेवा से स्वावलम्बी होने से यह सुविधा मिल सकती है कि जिनकी शरीर सेवा स्वयं भी करते रहते हैं उनका श्रम बदले में स्वीकार कर लिया जाता है। माता, पिता, पत्नी एवं सन्तान की गणना ऐसे ही समुदाय में की जा सकती है, असतु इस सन्दभ्र में यदि दूट की बात सोचनी हो तो उनकी सेवा स्वीकारते हुए नवरात्रि में उनके बने भोजन को लेते रहा जा सकता है। कड़ाई इतनी तो बरती ही जानी चाहिए कि बाजार से वह आहार न खरीदा जाए जिस में दूसरों का कुससंकारी श्रम लगा हो।

यहाँ स्मरणीय इतना ही है कि अनुबन्ध आदर्शो परिपालन का स्मरण दिलाने और उस सम्बन्ध में अधिक सतर्क करने की दृष्टि से ही बने या लगे हैं। उन्हें आँखें बन्द करें पालन करने में तो सामाजिक व्यक्तियों की जीवनचर्या ही कठिन हो जायेगी। रेल, मोटर आदि की सवारी तक कठिन हो जायेगी। कमरे में झाडू लगाने से लेकर डाक प्राप्त करने जैसे काम भी स्वयं करने की बात सोचने में गतिरोध उत्पन्न हो जायेगा और दैनिक क्रिया कृत्यों का चलना ही सम्भव न रहेगा। उनकी बात अलग है जो एकान्त में एकाकी रहते हैं और अपना निर्वाह अपने बलबूत स्वतः ही कर लेते हैं। जहाँ तक जिसके लिए जितने अनुबन्धों का पालन कर समना सम्भव हो व उसमें कड़ाई बरतें इसमें सर्तकता और ईमानदारी बरतने से काम चल जाता है।

भूमिशयन से तात्पर्य कोमलता के स्थान पर कठोरता अपनाना है। यह प्रयोजन पंलग छोडद्यकर लकड़ी के तख्त से भी चल सकता है। इसके विपरीत यदि धरती पर फोम के मोटे गदेले डालकर सोया जाये तो वे पलंग से भी अधिक कोमल हो सकते हैं। ऐसी दशा में मूल प्रयोजन की पूर्ति कहाँ हुई ? बात चिन्ह पूजा से नहीं तपश्चर्या में सन्निहित आदर्शो के लिए कप्ट सहन में प्रसन्नता अनुभव करने की मनःस्थिति निर्माण करने से बनती है।

चमड़े के उपयोग से न केवल नवरात्रि में वरन् अन्य समय में भी कमी करने या बचने की आवश्यकता है। क्योंकि इन दिनों निन्यान्वे प्रतिशत चमड़ा पशु बध से ही उपलब्ध होता है। जिन्हें माँसाहार से परहेज है उन्हें वर्तमान परिस्थितियों में चमड़े का उपयोग भी बन्द करना चाहिए। इस दृष्टि से उस रेशम का उपयोग भी अग्राह्म ठहरता है जिसमें कीड़ों को जीवित ही उबाल कर रेशा उपलब्ध किया जाता है। कस्तूरी का यों प्रचलन हैं नहीं, पर उस स्तर की अन्य वस्तुएँ जो प्राणियों के वध करने से उपलब्ध होती हैं। साधना की मनःस्थिति बनाने में बाधा उत्पन्न होती हैं। मृगचर्म, व्याघ्रचर्म, अपनी मौत मरने वालों से प्राप्त होते थे तब पवित्र रहे होंगे। आज तो कहीं भी वैसा चमड़ा उपलब्ध नहीं होता। अतएव प्राचीन काल में मृगचर्म, व्याघ्रचर्म आदि के आसनों को जो मान्यता मिली थी आज की परिस्थिति में वह पूर्णतया समाप्त हो जाती हैं। चर्म त्याग की चिन्ह पूजा तो ऐसे भी हो सकती हैं कि नौ दिन रबड़ की चप्पल पहन कर काट लिये जाएँ, पर नवरात्रि उपासना तत्वज्ञान में सन्निहित संकेत सभी ऐसे हैं जिन्हें साधना अवधि में प्रयुक्त करने के बहाने अभ्यास में उतारा जाए और उसका निर्वाह भविष्य में भी यथासम्भव करते रहा जाए। ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की अध्यात्म मान्यता का प्राणि वध से उपलब्ध साधनों का उपयोग करने से बढ़ती नहीं वरन् घटती और बुझती ही चली जाती हैं। अस्तु नवरात्रि में चर्मत्याग की लकीर पीट लेने से ही नहीं प्राणियों के प्रति करुणा बरतने, यहाँ तक कि अत्यधिक भार से लदे घायल पशुओं के श्रम का उपयोग करते समय भी उसी करुणा को अपना कर कुछ निर्णय करना होगा। प्रकारान्तर से नवरात्रि में चर्मत्या के पीछे अहिसाँ वृत्ति के विकास का तत्वज्ञान जुड़ा हुआ समझा जाना चाहिए।

नवरात्रि अनुष्ठानों में उपवास का नियम हैं। कठिन उपवास मात्र जल पर चलते हैं।, उसमें नीबू, गुड़ आदि का उपयोग हो सकता है, पर इसमें आने वाली दुर्बलता जिन्हें सहन नहीं वे दूध, दही, फल, शाक आदि अन्नाहार से रहित वस्तुओं को भी प्रयुक्त करते रह सकते हैं। एक समय ही भोजन करना उपवास की परिधि में आता है यहाँ तक कि दोनों समय रोटी शाक जैसी दो वस्तुओं का जोड़ा दोनों समय लेते रहने वाले भी हलके उपवासकर्ता गिने जाते हैं। बालकों, बीमारों, वृद्धों, गर्भवतियों को प्रायः ऐसे ही सरल उपवास कर लेने का परामर्श दिया जाता है। क्षुधाजन्य विक्षुब्धता के बढ़ जाने पर तो अनुष्ठान काल के लए आवश्यक शान्त मनःस्थिति में ही व्यतिरेक खड़ा हो जाता है।

उपवास का तत्वज्ञान आहार शुद्धि से सम्बन्धित है, “जैसा खाये अन्न वैसा बने मन” वाली बात आध्यात्मिक प्रगति के लिए विशेष रूप से आवश्यक समझी गई हैं। इसके लिए न केवल फल, शाक, दूध जैसे सुपाच्य पदार्थों को प्रमुखता देनी होगी, वरन् मात्र चटोरेपन की पूर्ति करने वाली मसाले तथा खटाई, मिठाई, चिकनाइ्र की भरमार से भी परहेज करना होगा। यही कारण है कि उपवासों से भी परहेज करना होगा। यही कारण हैं कि उपवासों की एक धारा, ‘अस्वाद व्रत’ भी हैं।

साधक सात्विक आहार करें और चटोरेपन के कारण अधिक खा जाने वाली आदत से बचें, यह शरीरगत उपवास हुआ। मनोगत यह है कि आहार को प्रसाद एवं औषधि की तरह श्रद्धा भावना से ग्रहण किय जाए और उसकी अधिक मात्रा से अधिक बल मिलने वालों की प्रचलित मान्यता से पीछो छुड़ाया जाए। वस्तुतः आम आदमी जितना खाता है उससे आधे में उसका शारीरिक एवं मानसिक परिपोषण भली प्रकार हो सकता है। एक तत्व ज्ञानी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “आधा भोजन हम खाते हैं और शेष आधा हमें खाता रहता है।” लुकमान कहते थे कि-”हम रोटी नहीं खाते-रोटी हमें खाती है।” इन उक्तियों में संकेत इतना ही है कि शारीरिक और मानसिक स्वस्थ्य का महत्व समझने वालों को सर्वभक्षी नहीं स्वल्पाहारी होना चाहिए। नवरात्रि उपवास में इस आदर्श को जीवन भर अपनाने का संकेत हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से पौष्टिक एवं सात्विक आहार वह है जो ईमानदारी और मेहनत के साथ कमाया गया है। उपवास का अपना तत्वज्ञान है। उसमें सात्विक खाँद्यों का कम मात्रा में लेना ही नहीं, न्यायोपार्जित होने की बात भी सम्मिलित है। इतना ही नहीं उसी सिलसिले में एक और बात भी आती है कि इस प्रकार आत्म संयम बरतने से जा बचत होती है उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में होना चाहिए न कि संचय करके अमीर बनने में। यहीं कारण हैं कि जहाँ नवरात्रि अनुष्ठानों मं उपवास करकें जो कुछ बचाया जाता है उसे पूर्णाहुति के अन्तिम दिन ब्रह्मभोज में खर्च कर दिया जाता है। ब्रह्मभोज अर्थात् सत्कर्मो का परिपोषण। प्राचीन काल में एक वर्ग ही इस प्रयोजन में रहता था, अस्तु उसका निर्वाह एवं अपनाई हुई प्रवृत्तियों का व्यवस्थाक्रम मिलाकर जो आवश्यकता बनती हैं उसकी पूर्ति को ब्रह्मभोज कहा जाता था। इस प्रयोजन के लिए दी गई राशि को दान या दक्षिणा भी कहा जाता था। नवरात्रि अनुष्ठान की पूर्णता यज्ञायोजन तथा ब्रह्मभोज के साथ सम्पन्न होती है। इसका कारण तलाश करने पर उपवास का रहस्य विज्ञान और विस्तार समझ में आता है।

नवरात्रि को ब्रह्मचर्य प्रतिबन्ध के साथ-साथ कुमारिका पूजन की भी एक प्रक्रिया है। कुमारिकाएँ किशोरियाँ होती है। देवियों की वय भी यही है। इसका तात्पर्य यह हुआ है कि यौबन का उभार खिलते हुए फूल भर की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। उसे मरोड़ने की नहीं सींचने की भावना उमड़नी चाहिए। सींचने, सँजोनें का तात्पर्य है उसकी गरिमा में अभिवृद्धि। बालकाँ की सुन्दरता देखकर सहज प्रसन्नता होती और वात्सल्य अनुदान देने को जी करता है। यौवन को भ्ी इसी दृष्टि से देखा जाए उसे निगलने की अजगर जैसी कुत्सा न उठे इसी का नाम आध्यात्यिक ब्रह्मचर्य है नवरात्रि की व्रतशीलता में रतिकर्म से विरत रहने क अनुबन्ध है। पर ब्रह्मचर्य का स्थूल एवं प्रारम्भिक निर्वाह है। इसे विकसित करने का प्रयास आजीवन चलते रहने में ही उसकी परिपक्वता बनती है।

नर और नारी के मध्य भाई-बहित का-पिता-पुत्री का-माता सन्तान का रिश्ता चले और यदि वे दाम्पत्य सूत्र में बँधते हैं तो परम्पर धर्म-पत्नी और धर्म-पति बनाकर उच्चस्तरीय आत्मीयता एवं सहकारिता का प्रमाणा प्रस्तुत करें। यही हैं ब्रह्मचर्य का तत्व ज्ञान।

नवरात्रि की साधना पर्व पर विश्ष रूप से प्रयुक्त करने और अनुबन्ध से अपनी जीवनचर्या को जोड़े रहने का वास्तविक उद्देश्य यह है कि थोड़े दिन बन्धन में बँधकर की गई साधना पीछे सामान्य दिनचर्या में उतरे और स्वभाव व्यवहार का अंग बनकर रहें। पूजा अर्चा की उपासना और उसके साथ सम्मिलित रहने वाले आदर्शवादी अनुबन्धों को साधना कहते हैं। उपासना को बीज और साधना को खाद, पानी की उपमा दी जाती है ओर कहा जाता है कि फसल का फलित होना इस समन्वय पर ही निर्भर है।

नवरात्रि अनुष्ठानों की एक विशेषता नियमितता के अनुशासन का कठोर परिपालन भी है। हर दिन सत्ताईस मालाएँ या ढ़ाई घण्टे का जप ही सम्पन्न होना चाहिए। प्रायः साँय की आरती प्रार्थना में नागा नहीं होनी चाहिए। आहार-विहार के लिए निर्धारित अनुबन्धों का परिपालन संकल्पपूर्वक चलना चाहिए। 240, आहुतियों की व्यवस्था बननी चाहिए। ब्रह्मभोज के रूप में परमार्थ प्रयोजन के लिए उदार अनुदान जुटना ही चाहिए। इस प्रकार के अनुशासनों का नियमितता और निष्ठापूर्वक पालन करने से ही अनुष्ठान का उद्देश्य पूरा होता है। अनियमिता और स्वेच्छाचार बरतने की गन्दी चाल अपना कर साधना की चमत्कारी परिणिति का लाभ ले सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता।

अनगढ़ और उच्छृलंगल जीवनयापन पशु स्तर का गिना जाता है उसे उच्चस्तरीय, आध्यात्मिक, देवी बनाने के लिए संयम बरतने, मर्यादा पालने एवं आदर्शवादिता अपनाने के लिए साहसिकता का परिचय देना होता है। इन्हीं तथ्यों को नवरात्रि अनुष्ठानों के साथ जुड़े हुए अनुबन्धों का सार संक्षेप समझा जाना चाहिए। मनुष्य मं देवत्व का उदय उद्भव करने की वात देखने में सामान्य किन्तु परिणाम की दृष्टि से उसे महान् सम्भावनाओं से परिपूर्ण माना जा सकता है।

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