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Magazine - Year 1973 - Version 2

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Language: HINDI
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मृत्यु का दिन विवाह जैसा आनन्ददायक

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First 14 16 Last
बीजारोपण वर्ष के कार्यक्रमों में चरणपीठाँ से लेकर शक्तिपीटों तक के कई स्तर के प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना को प्रमुखता दी गई हैं और उनमें प्राण भरने वाले लोक सेवियों के रूप में दृष्टिगोचर होने वाली शालीनता को ढूँढ़ निकालने के लिए प्राणपण से प्रयत्न करके दूसरे प्रयोजन को भी साथ-साथ लेकर ही चलना चाहिए। अश्वमेघ का खोया अश्व ढूँढ़ने के लिए सगर पुत्र ‘को या मरो’ का व्रत लेकर निकले थे। वानरों ने भी सीता को खोजे बिना वापिस न लौटने की प्रतिज्ञा की थी। गाँधीजी साबरमती आश्रम छोड़ते समय यह कहकर गए थे कि स्वतन्त्रता लाए बिना वे वापिस न लौटेंगे। इन सभी ने महंगा मूल्य चुकाकर सफलता पाई थी। फिर कोई कारण नहीं कि प्रज्ञा परिजन अपने ही समुदाय में से समय की आवश्यकता पूरी कर सकने वाले सृजन शिल्पी न निकाल सकें।

प्रज्ञा संस्थाओं के निर्माण में जन सहयोग तो अपेक्षित भी है और आवश्यक भी। पर यदि उसमें अड़चन दिखें तो सात हजार वाले संस्थान तो दो-चार व्यक्ति मिलकर भी बना सकते हैं। कितने ही ऐसे है जो इतनी राशि धर्म प्रयोजन में निकाल देने के उपरान्त भी अपने निर्वाह में कोई कमी अनुभव न करेंगे। एक वर्ष तक दो सौ रूपया मासिक देने वाले दो सौ ज्ञानघट रखकर भी यह छोटा निर्माण सहज सम्भव हो सकता है। उपाय हजार हैं। कमी केवल उदार आस्था जगाने भर की है कृपणता का दवाब हलका हो सके तो दरिद्रता की बाधा तो देखते-देखते हल हो सकता है। प्रज्ञापीठों की स्थापना के लिए उदारतापूर्वक सहयोग प्रस्तुत करने के साथ इन संस्थानों से चलने वाली गतिविधियों के निर्धारण भी करना और समझ लेना चाहिए।

प्रज्ञापीटों की दिनचर्या आस्था उत्पन्न करने वाली पूजा, आरती, भावना उभारने वाली सामूहिक प्रार्थना, दो-दो घण्टे के तीन वर्गो में चलने वाली प्रौढ़ शिक्षा, शाम को स्वास्थ्य संबधन उपक्रम, रात्रि को कथा प्रसंगो द्वारा व्यक्ति, परिवार, समाज में उत्कृष्टता भरने वाला लोक शिक्षण। संक्षेप में यही हैं प्रज्ञा संस्थाओं की कार्य पद्धति। समयानुसार परिस्थितियाँ में तालमेल बिठाते हुए वे रचनात्मक गतिविधियाँ भी अपनाई जायेगी जो जनमानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संबर्धन का उद्देश्य पूरा कर सकें।

प्रौढ़ शिक्षा, चल पुस्तकालय, वृक्षारोपण, शाक वाटिका, नारी जागरण, शिशु जागरण, शिशु कल्याण, सामूहिक श्रमदान, गृह उद्योग, सहकारी संस्थाएँ, स्वच्छता अभियान जेसे कितनी ही सृजनात्मक काम करने हैं। साथ ही सुधारात्मक अभियान के माध्यम से नशा निवारण शादियों के अपव्यय तथा दहेज की रोकथाम, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, मृतक भोज, जातिगत भेदभावन, चोरी, बेईमानी, अन्धविश्वास, दुर्व्यसन, आलस्य, प्रमाद जैसी विकृतियों से जूझने जैसी कितनी ही जुझारु प्रखरताएं उत्पन्न करनी हैं। प्रज्ञा संस्थान जैसे-जैसे सृदढ़ होते जायेंगे और लोकसेवियों को जन समर्थन जितना-जितना उपलब्ध होता लाएगा उसी अनुपात से इन निर्धारणों में उभार आता चला जाएगा।

जो कार्य बिना एक क्षण गंवाए तत्काल करने हैं उनमें दो प्रमुख है। एक जन-जन तक युग चेतना का आलोक पहुँचाना और दूसरा जन्म-दिवसोत्सवों के माध्यम से व्यक्तियों और परिवारों को झकझोर कर उन्हें प्रगतिशीलता की दिशा में तत्परतापूर्वक धकेलना। इन दोनों कार्यों को जहाँ जिस प्रकार जिस स्तर पर क्रियान्वित किया जा सकें वहाँ उसके लिए कोई न कोई उपाय खोज ही निकालना चाहिए।

युग निर्माण मिशन में ईसाइयों के सस्ते साहित्य की स्पर्धा में बिक सकने वाला युग साहित्य नगण्य अर्थ साधनों के सहारे विनिर्मित कर लिया है। इसमें युगान्तरीय चेतना की आभा भर दी गई है। इन्हें पुस्तकें नहीं, प्राणवान प्रेरणाएं ही कहना चाहिए। इन्हें घर-घर पहुँचाने, पढ़ानें, वापस लाने का प्रयास चलता तो पहले से ही रहा है पर उसे अब एक सुनिश्चित कार्य की अनिवार्य आवश्यकता मानकर बढ़ना चाहिए। जो पढ़े व अन्यों को भी पढ़ायें। जो पढ़ नहीं सकते उन्हें सुनाने का प्रबन्ध किया जाय। विचार क्रान्ति को व्यापक बनाने के लिए जितने भी उपाय उपचार हैं उन सबमें इस प्रक्रिया को मूर्धन्य मानकर चला जाय। उसे प्राथमिकता प्रदान की जाए।

नियमित जन संपर्क साधने का इससे अच्छा और सस्ता अन्य कोई उपाय हो नहीं सकता। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए युग निर्माण परिजनाँ का ज्ञानघट में दस पैसा जमा करने और उससे खरीदा गया युग साहित्य संपर्क क्षेत्र में पढ़ानें के लिए झोला पुस्तकायल चलाने के लिए कहा गया था। वह निर्धारण ज्यों-त्यों गतिशील होता भी रहा हैं, पर अब उसे सुव्यवस्थित रूप से समग्र तत्परता अपनाते हुए कार्यान्वित किया जाना चाहिए।

प्रज्ञापीठों में एक परिव्राजक विशुद्ध रूप से इसी प्रयोजन के लिए नियुक्त किया जाना है कि वह समीपवर्ती छै अन्य गाँवों में तथा एक दिन अपने गाँव में, कुल सात गाँवों में हर शिक्षित बाल-वृद्ध तक उसकी रुचि एवं आवश्यकता देखते हुए युग साहित्य पहुँचानें और पढ़ लेने पर वापिस लाने का क्रम चलता रहे। इसका दूहरा लाभ हैं। दृष्टिकोण परिवर्तन से विचार क्रान्ति का उद्देश्य तो पूरा होता ही है साथ ही हर सप्ताह एक बार अर्थात् वर्ष में 52 बार किसी के पास पूर्ण निस्वार्थ उद्देश्य लेकर पहुँचने का भी कुछ अर्थ होता है। जहाँ यह प्रक्रिया चलेगी वहाँ घनिष्ठता भी निश्चित रूप से उत्पन्न होगी। जो भी इस ज्ञान दान का लाभ लेगा- जो भी बादलों और वायु झोकों की तरह निरन्तर इस दिव्य अनुदन की उपयोगिता समझेगा- उसके पीछे सदाश्यता का जिसे भी भान होगा वह बदले में अनुगृहीत हुए बिना रह नहीं सकता। इस आधार पर बढ़ती हुई घनिष्ठता को निष्फल नहीं जाने देना चाहिए। साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह उत्पादन क्रम जिस उच्च उद्देश्य को लेकर आरम्भ किया गया है उसकी पूर्ति के लिए इस उभार के साथ-साथ ही प्रयत्नशीलता भी चलती रहे।

चल पुस्तकालय से जुड़ा हुआ अतिरिक्त काम है- जन्म दिवसोत्सवों का आयोजन। इन दोनों को एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न बनाया और परस्पर पूरक माना जाना चाहिए। युग-निर्माण मिशन की कार्य पद्धति में सद्भाव सम्पन्नों के जनम दिवसोत्सव मनाये जाने का बहुत महत्व हैं। इस प्रक्रिया को सरलतम और अत्यन्त आकर्षक इसलिए बनाया गया है कि उसका प्रचार प्रचलन व्यापक रूप में हो सकें।

जन्म दिवसोत्व प्रकारान्तर से पारिवारिक ज्ञानगोष्ठियाँ है जिनमें धर्म-परम्पराओं का-साँसकृतिक प्रचलनों का निर्वाह भी होता है और साथ ही ऐसा वातावरण भी बनता है जिससे उच्चस्तरीय प्रेरणाओं को जड़ जमाने अंकुरित एवं फलित होने का अवसर मिल सकें। कर्मकाण्ड संक्षिप्त-सा है। गायत्री परिवार के प्रायः सभी सदस्य इसके अभ्यस्त होते हैं। न जानने वाले उसे अत्यन्त सरलतापूर्वक सीख भी सकते हैं। इसके अतिरिक्त बड़ी बात है सहगान एवं कथा प्रवचन। मिशन के सुयोग्य कार्यकर्ता उसे थोड़ा-सा प्रशिक्षण प्राप्त करके सम्पन्न कर सकने में भली प्रकार समर्थ हो सकते हैं। इसी अवसर पर सहगान के उपरान्त कथा प्रवचन की परम्परा है। जो प्रवचन कर सकते हों वे व्यक्ति, परिवार और समाज में उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए जीवनचर्चा किस प्रकार बनानी चाहिए।-इस प्रसंग की किसी भी धारा पर प्रकाश डालें, जो उस परिवार या उपस्थित समुदाय के लिए उपयुक्त पड़नी हो। इतना न बन पड़े तो किसी धार्मिक कथा प्रसंग को ऐसी व्याख्या के साथ कहा जा सकता है जिसके माध्यम से उपस्थित लोगों को सोचने, ढलने और करने को प्रगतिशील दिशा-धारा उपलब्ध होती रहे। कथावाचकों की एक नई पीढ़ी भी युग-निर्माण मिशन ने विनिर्मित की है जो रामायण कथा से अपना प्रसंग आरम्भ करकें अन्यान्य प्राणवान प्रतिपादनों की आवश्यकता पूरी करती रह सके। भारतीय जन-मानस की वर्तमान स्थिति को देखते हुए इस प्रकार के कथा मिश्रित प्रवचन जितने सफल हो सकते हैं उतने सामान्य भाषणों के प्रभावी बन सकने की आशा नहीं हैं।

किसी जन्म दिन पर प्रातः या सायंकाल सुविधा के समय यह दो घण्टे का कार्यक्रम बड़ी सरलतापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। एक घण्टे का धामिक कर्मकाण्ड और एक घण्टे का सहगान-कथा प्रवचन। इतने थोड़े समय में मित्र, पड़ोसी भी और सम्बन्धियों का उपस्थित परिकर आर्कषक समारोह का आनन्द लेता रह सकता है और साथ ही ऐसी दिशा धारा भी पा सकता है जो व्यक्ति और समाज की वर्तमान परिस्थिति को उलटने तथा अभिनव सम्भावनाओं के लिए नितान्त आवश्यक है।

जन्म दिन मनाने वालों पर आर्थिक भार न पड़े इसलिए यादि कर्मकाण्ड परस्पर सहयोग से ही पूरे कर लिए जाते हैं और उनमें पूजा सामग्री का व्यय दो रूपये से आगे नहीं बढ़ने दिया जाता। इसी प्रकार आतिथ्य में सौंफ सुपाड़ी जैसे नितान्त सस्ते उपचारों को ही मान्या दी गई है। पेय में ठण्डा जल ही पर्याप्त माना गया है। यह प्रतिबन्ध इसलिए लगाये गये हैं कि गरीब-अमीर सबको समान रेय सम्मान के साथ इन आयोजनों को आतिथ्य के संयुक्त व्यय की अधिकतम सीमा पाँच रूपया कर दी गई है ताकि जनम दिवसोत्सव के आनन्द को देखते हुए उस निमित्त होने वाले व्यय को विपनन आर्थिक स्थिति वाले भी बिना किसी कठिनाई के खुशी-खुशी वहनकर सकें।

युगसंधि के बीजारोपण वर्ष में जन-मानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संबर्धन का लक्ष्य लेकर अनेकों विधि-निषेधपुरक कार्यक्रम बनाये गये हैं। इन्हें क्रियान्वित करने के लिए जिन प्राथमिक प्रयोजनों को अपनाया गया है उनमं उपरोक्त दोनों को प्रमुखता दी गई है और जहाँ भी सृजन चेता उभरे वहाँ सर्वप्रथम इन्हीं दो उपक्रमों का श्रीगणेश करने के लिए कहा गया है। यह चल पड़े तो समझना चाहिए कि बीज, पानी देने की दोनों व्यवस्थाएं बन पड़ने पर अच्छी फसल की, उज्ज्वल भविष्य की सुखद सम्भावना बन गई।

युग-साहित्य के माध्यम से चिन्तन को दिशा मिलती है और जन्म-दिवसोत्सव जैसे आयोजनों से उसे उत्साह बनकर उभरने का आधार मिलता है। सदुद्देश्य को लेकर एकत्रित हुए सद्भाव-सम्पन्नों की श्रद्धा एवं उल्लास भरे वातावरण में जो परोख्ज्ञ प्रेरणाएं दी जाती हैं वे निरर्थक नहीं जाती वरन् अन्तराल की गइराई तक प्रवेश करती और समयानुसार अपने चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करती हैं। इसलिए घर-घर युग-साहित्य पहुँचाने, वापिस लाने और जनम दिन मनाने का श्रीगणेश किया गया है कि इस अश्रद्धा के युग में दूसरों पर बिना किसी प्रकार का भार डाले सहज सेवा के सहारे उपेक्षा को भी समर्थन में बदला जा सकें। यह प्रक्रिया खर्चीली या झंझटभरी होती तो उसे जन-जन द्वारा अपनाया जा सकना सम्भव न बन सकता। फलतः घर-घर में युग-चेता को पहुँचानें और जन-जन को उससे प्रभावित करने का सुयोग ही न बनता।

करने का बहुत कुछ पड़ा हैं। पर सब कुछ एकबारगी तो नहीं हो जाता। विद्धत्ता के उच्च शिखर पर पहुँचे हुए लोग भी आरम्भ में प्राथमिक पाठशाला में ही प्रवेश लेते हैं और वर्णमाला एवं गिनती से अपनी पढ़ाई का श्रीगणेश करते हैं। युग सृजन के उच्चस्तरीय एवं भारी भरकम प्रयोजनों का ढ़ाँचा खड़ा करने के लिए जन-जन की भाव श्रद्धा एवं उदार साहसिकता उभारने की प्राथमिक आवश्यकता पूरी करनी होगी। क्रमिक गति से चलकर ही लम्बी मंजिल पार की जा सकती हैं।

“मन तेरी गति कितनी विचित्र है-कितनी रहस्य से भरी हुई है-कितनी दुर्भेद्य है! तू कितनी जल्द रंग बदलता है। इस कला में तू निपुण है। आतिशवाज की चर्खी को भी रंग बदलने में कुछ देर लगती है, पर तुझको रंग बदलने में उसका शताँश भी समय नहीं लगता।”

“दुखते फोड़ में कितना मवाद भरा है यह उस समय मालूम होता है, जब नश्तर लगाया जाता है। मन का विष उस समय मालूम होता है जब कोई उसे खोलकर हमारे सामने रख देता है।”

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