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Magazine - Year 1979 - July 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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अन्तः प्रकाश का दर्शन-आन्तरिक शुद्धि से

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First 5 7 Last
बुद्धिवादियों ने कुछ दिनों पूर्व तक यह घोषित किया था कि-’विचार अपने साम्राज्य का स्वयं शासक है, उसे किसी भी बाहरी सहायता की आवश्यकता नहीं।’ इस तथ्य को वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया तथा उसमें एक कड़ी और जोड़ते हुए कहा कि ‘प्रकृति ही हमारी सच्ची अध्यापिका है।’ परिणाम यह निकला कि प्रकृति गत प्रेरणाओं को ही मार्गदर्शक माना गया विचार शक्ति भी उसी के इर्द-गिर्द घूमती रही। प्रकृति को ही शिक्षक मान लिया गया तथा विचारों का ताना-बाना उस शिक्षक के आदेशों के पालन करने में नियोजित हो गया। परिणाम यह हुआ मन को खुली छूट मिली। बुद्धि शरीर की आवश्यकता एवं स्वार्थों को ही सिद्ध करने में लग गयी। अन्तःकरण में उठने वाली प्रेरणाओं, भावनाओं को बुद्धि दबाती हुई निरंकुश होती चली गई।

उस समय से लेकर अब तक संसार के ज्ञान में बहुत वृद्धि हुई है। मनोविज्ञान के नये-नये क्षेत्र ढूँढ़ निकाले गये, चेतना की रहस्यमय परतों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या हुई। अब नवीन युग के विज्ञान वेत्ता बुद्धिबल की अपेक्षा उन तत्वों को ढूँढ़ने में अधिक प्रयत्नशील हैं जो मनुष्य के मानवोचित गुणों को उभारते, बढ़ाते हों। एक मनुष्य को दूसरे के नजदीक लाने तथा परस्पर मिलाने का प्रयत्न करते हों। बुद्धिवाद अब अपने सीमित दायरे से निकलकर उन क्षेत्रों में बढ़ रहा है जो मनुष्य की चेतना का विकास करते हैं।

अब यह बात स्वीकार की जाने लगी है कि शरीर एक चलता-फिरता यन्त्र नहीं वरन् एक ऐसी चेतना का अंश है जिसका सम्बन्ध विश्व चेतना के साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है।

महर्षि पतंजलि कहते हैं कि मनोवृत्तियों का विरोध न होने से ही मनुष्य शरीर का गुलाम बन जाता है और कुसंस्कारों के वशीभूत हुआ इधर-उधर मारा-फिरता है। किन्तु यदि वृत्तियों का परिमार्जन किया जाय तो उसे अपने स्वरूप का वास्तविक ज्ञान हो जाता है। अलग-अलग दीखते हुए भी आत्मा मन, इन्द्रियों का आपस में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। यदि मन इन्द्रियों की आवश्यकता की पूर्ति में लिप्त है तो आत्मा इन्द्रियों का दास बन जाता है। किन्तु यदि मन को आत्मा की ओर मोड़ दिया जाय तो इन्द्रियाँ बाह्य जगत से छूटकर चेतन शक्ति की सहायता करने लगती हैं। मनःशक्ति पर ही शरीर का सारा कारोबार अवलम्बित है। न केवल शरीर संचालन वरन् जीवन लक्ष्य की प्राप्ति भी इसके योगदान पर निर्भर है।

मन की शक्ति असीम है, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। प्रश्न यह है कि मन को निकृष्ट कार्यों से हटाने तथा सद्मार्ग पर लाने के लिए क्या कोई शरीर में ऐसा साधन है जो अन्तःज्योति को देखने में सहयोग कर सके? उत्तर में कहा जा सकता है कि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के साथ ही मनुष्य शरीर में एक छठी इन्द्रिय भी कार्य करती है। जो अच्छे, बुरे का परिचय परिष्कृत अन्तःप्रेरणा के रूप में सदा देती रहती है। उसकी प्रेरणाओं का अनुमान प्रत्येक श्रेष्ठ अथवा निकृष्ट कार्य करते समय लगाया जा सकता है। जिसका आभास अच्छे कार्यों में प्रसन्नता सन्तोष आदि के रूप में, तथा बुरे कार्यों में घृणा, आत्म प्रताड़ना, क्षोभ के रूप में, अनुभव होता है। आध्यात्मिक भाषा में विभिन्न धर्म सम्प्रदायों में उस छठी इन्द्रिय को आत्मा, सोल, जमीर, आदि नामों से पुकारते है। कुछ लोग उसे ईश्वरीय आवाज तथा कुछ अन्तःज्ञान कहते हैं। प्रत्येक कार्य में हमें-इस अन्दर बैठे परमात्मा द्वारा सामयिक चेतावनी मितली रहती है।

जैसे-जैसे अन्तर से उठने वाली प्रेरणाओं को ग्रहण करके भौतिक इन्द्रियों एवं मनोवृत्तियों को परिष्कृत करते हैं तथा जीवन को पवित्र बनाते जाते हैं, वैसे-वैसे अन्तरात्मा की आवाज स्पष्ट होने लगती है और जब डस आवाज की प्रेरणाओं के अनुरूप आचरण करने लगते हैं तो उसकी ध्वनि और भी प्रखर हो जाती है। तब यह ध्वनि इस प्रकार सुनायी देने लगती है जैसे कोई शिक्षक सामने बैठे स्पष्ट निर्देश विद्यार्थी को दे रहा हो। एक समय ऐसी स्थिति भी आती है जब उसकी आवाज बिल्कुल निर्दोष सुनायी पड़ती है।

कहते हैं कि भगवान बुद्ध का ‘भद्रक’ नाम का शिष्य उनके पास आत्म ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से पहुँचा। भगवान बुद्ध ने उसे समझाते हुए कहा कि प्रकाश का पुंज उसके अंदर है। बाह्य मलीनताओं के कारण उसका प्रकाश बदली के सूर्य के समान दृष्टिगोचर नहीं होता है। उनका अभिप्राय इसी अन्तरात्मा से ही था जो पग-पग पर अन्तःप्रेरणाओं के प्रकाश में अच्छे-बुरे का आभास कराती रहती है। ‘भद्रक’ इस रहस्य को जानकर आत्म-परिष्कार की साधना में निरत हो गया।

घर की खिड़की के शीशे गन्दे तथा धुँधले हों तो बाहर की वस्तुएँ साफ नहीं दिखायी पड़तीं। इस तथ्य से हर कोई अवगत है। उसी प्रकार आन्तरिक पवित्रता के अभाव में अन्तःप्रकाश को देख पाना सम्भव नहीं है। सत्यज्ञान की प्राप्ति की इच्छा रखने वालों को आभ्यन्तर की पवित्रता अति आवश्यक है। धर्म-शास्त्र, आप्त वचन मार्ग-दर्शन कर तो सकते हैं किन्तु ज्ञान के स्रोत अपने अन्दर हैं। जो जीवन को पवित्र बनाये बिना मिल सकना असम्भव है।

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July 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
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