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Magazine - Year 1981 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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विनाश का नियम

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महर्षि पिप्पलाद शैशव काल में ही अपनी माता सुवर्मा से अपने पिता महर्षि दधीचि के दे त्याग की गाथा सुना करते थे। वे सुनते, देवराज इन्द्र और देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करके महर्षि दधीचि ने देह त्याग किया। उनकी अस्थियाँ लेकर विश्वकर्मा ने वज्र बनाया और उस वज्र से असुरों का संहार किया, उसी वज्र के प्रयोग से अजेय प्राय वृत्तासुर को इन्द्र मार पाने में समर्थ हुए तथा उन्हें स्वर्ग पर अपना अधिकार पुनः प्राप्त करने में सफलता मिली।

यह वृत्तान्त सुन-सुनकर पिप्पलाद का मन देवताओं के प्रति घृणा से भर गया। वे सोचते, देवता कितने स्वार्थी हैं? अपने स्वार्थ के लिए ही उन्होंने मेरे पिता से अस्थियाँ तक माँग लीं। देवगण कितने निर्लज्ज हैं? अपने स्वार्थ के लिए उन्हें मेरे पिता से उनकी अस्थियाँ माँगने में भी लज्जा नहीं आई। स्वार्थी व्यक्ति निर्लज्ज हो ही जाता है।

दीर्घकाल तक इस प्रकार का चिन्तन चलते रहने के कारण उनके अन्तस् में देवताओं के प्रति घृणा घनीभूत हो गई और घृणा के साथ देवगणों के प्रति आक्रोश, रोष भी उत्पन्न हुआ। उन्होंने संकल्प किया कि तप के द्वारा भगवान आशुतोष को प्रसन्न कर मैं उनसे देवताओं को ही नष्ट करने का वरदान मागूँगा।

इस संकल्प के साथ उन्होंने पवित्र नदी गौमती के तट पर बैठ कर तपस्या आरम्भ कर दी। शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा और अनेक प्रकार के तितिक्षा व्रतों का पालन करने से पिप्पलाद का शरीर तृणवत् कृश हो गया। उनकी तपश्चर्या से प्रसन्न हो कर भगवान आशुतोष प्रकट हुए और बोले-वत्स! तुम्हारी तपस्या सफल हुई। वर माँगो।

‘प्रलयंकर’ प्रभू से पिप्पलाद ने कहा, ‘यदि आप मुझ पर प्रसन्न ही हैं तो अपना रुद्र स्वरूप धारण कर समस्त देवगणों को नष्ट कर डालिए।’

भगवान आशुतोष ने कहा, ‘वत्स! मेरा रुद्र स्वरूप केवल देवताओं को ही भस्म नहीं करेगा। उससे तो सारा जगत नष्ट हो जायेगा। तुम पुनः विचार करो।’

पिप्पलाद ने अपने हृदय में विरूपाक्ष त्रिशूल कपालमाली और ‘अहि’ भूषण धारण किये भगवान शंकर के रुद्र स्वरूप का दर्शन किया। उस ज्वालामय, अति तेज, प्रचण्ड अग्नि के समान दाहकारक विनाश के अधिष्ठाता स्वरूप का अन्तःकरण में प्रादुर्भाव होते ही पिप्पलाद ने अनुभव किया कि व्यापक विनाश का आह्वान करते ही उनका स्वयं का रोम-रोम जला जा रहा है। उन्हें लगा कि वे कुछ ही क्षणों में चेतना हीन हो जाएंगे।

आर्तस्वर में पिप्पलाद ने भगवान शंकर को पुकारा और आँखें खोल दीं। अन्तःकरण में दिखाई देने वाली प्रचण्ड मूर्ति अदृश्य हो गई थी भगवान चन्द्र मंगलेश्वर अपने सौम्य स्वरूप में सम्मुख खड़े थे। पिप्पलाद ने कहा, ‘यह क्या भगवन्? यहाँ तो मैं स्वयं ही दग्ध हुआ जा रहा हूँ।’

‘तुमने ठीक अनुभव किया वत्स! सारा संसार जब नष्ट होगा तो तुम कैसे बच सकोगे?’ भगवान आशुतोष ने कहा, ‘विनाश का आरम्भ किसी एक ही स्थल से आरम्भ होता है किन्तु वहीं तक सीमित नहीं रहता। वहाँ से प्रारम्भ होकर वह व्यापक बनता जाता है और यह भी नियम है कि वह वहीं से प्रारम्भ होता है जहाँ से उसका आह्वान किया जाता है। तुम्हारे हाथ के देवता इन्द्र हैं, नेत्र के सूर्य, नासिका के अश्विनीकुमार और मन के चन्द्रमा, इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय तथा अंग के अधि-देवता हैं। उन अधिदेवताओं को नष्ट करने पर शरीर कैसे रहेगा? बेटा! इसे समझो कि किसी का भी अमंगल चाहने पर स्वयं पहले अपना अमंगल होता है।

इसके बाद भगवान शंकर ने उन्हें दधीचि के त्याग की गौरव गाथा सुनाई। जिसे सुनकर पिप्पलाद के जीवन की दिशा धारा बदल गई और वे विश्व मंगल के लिए तप करने लगे।

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