
साधना की सफलता की रहस्य– वृत्ति-शोधन
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महाराजा प्रियव्रत अपनी पचासवीं वर्षगाँठ पर राज−काज से संन्यास लेने तथा शेष को ईश्वर प्राप्ति के निमित्त कठोर साधनाओं में नियोजित करने का निश्चय कर चुके थे। वह घड़ी आयी। संन्यास दीक्षा सम्पन्न हुई। राज पुरोहित न संन्यास धर्म की गरिमा बतायी। राजकुमार आग्नीघ्र भी दीक्षा स्थली पर उपस्थित थे। जीवन को सर्वोच्च लक्ष्य है− ईश्वर प्राप्ति। इस उद्बोधन से राजकुमार के मन में हलचल मच गयी। ‘भोग−विलास’ से युक्त राजपाठ छोड़कर पिताश्री आत्मोत्थान का श्रेय मार्ग अपना रहे हैं। मुझे भी उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, आग्नीघ्र के मन में यह विचार आन्दोलित होने लगा।
विनीत स्वर में उन्होंने महाराज से निवेदन किया–”तात! सुख सम्पन्नता, राज्य वैभव का परित्याग करके आप जीवन−मुक्ति के लिए तप करने जा रहे हैं। फिर मेरे ही पैरों में राज्य वैभव का बन्धन क्यों डाल रहें हैं? मुझे भी अपना अनुगमन करने की आज्ञा दीजिए।” महाराजा प्रियव्रत एक कुशल शासक थे, पर सूक्ष्मदर्शी भी थे। उन्हें मालूम था कि वैराग्य के बीज राजकुमार में विद्यमान हैं पर वर्तमान दायित्वों की उपेक्षा करके एकाँगी साधना का अवलम्बन लेना हर दृष्टि से हानिकारक है। उन्होंने समझाया–” तुम्हारे लिए यही उचित है कि तुम अभी प्रजा की सेवा करते हुए अपनी वृत्तियों पर नियन्त्रण करो,योग और तप के लिए इन्द्रियों पर विजय पाना आवश्यक है। इसके अभाव में अपरिपक्व मनःस्थिति का साधक कभी भी साधना मार्ग से भटक सकता है। राज्य सुखों के बीच रहते हुए मैंने दीर्घकाल तक आत्म−संयम की साधना की है। इस वय में पहुँचने पर मैंने लोकोत्तर जीवन की साधना का साधना का निर्णय लिया है। तुम्हें भी गृहस्थ जीवन में कर्मयोगी की तरह रहते हुए आत्म−परिष्कार की साधना करनी चाहिए।” ऐसा कहकर महाराज प्रियव्रत ने राजकुमार का राज्याभिषेक किया और स्वयं संन्यास धर्म का निर्वाह करने के लिए चल पड़े।
उस क्षण आग्नीघ्र सो चुप हरे, पितृदेव का प्रतिवाद करना उचित नहीं जान पड़ा, पर उनके जाते ही एक रात्रि चुपके से उठकर मन्दयाचल पर्वत पर तप करने चल पड़े। राज्य सिंहासन और नव विवाहिता पत्नी को छोड़कर मन में वैराग्य की भावना थी और तप के प्रति निष्ठा भी, पर वह अपरिपक्व थी। युवावस्था में इन्द्रियों का आवेश दमित हो गया। दमन में भटकाव की पूरी−पूरी गुँजाइश होती है। आग्नीघ्र ने उग्र तपश्चर्या आरंभ की। ईश्वर चिन्तन एवं ध्यान में एकाग्रता प्रगाढ़ होने लगी।
एक दिन मन्दायाचल पर्वत की सौंदर्यमयी छटा कुछ अधिक ही लुभावनी लग रही थी, सघन तरुवरों पर फैली स्वर्णलताओं की हरीतिमा प्रभा, कोयल की कूक, मयूरों का नृत्य, कलहंसों का कूंजन, कमल पुष्प का हास और सुवास बिखेरता सौरभ कुछ ऐसी मादकता पैदा कर रहे थे कि आग्नीघ्र की एकाग्रता भंग हो गयी। चित्त व्यग्र एवं चपल हो उठा। दमित इन्द्रियावेश आज दूने वेग से उभर उठा। नेत्र खोला तो सौंदर्य की प्रतिमूर्ति कामाभिसिक्त बनाने वाली कामिनी सामने खड़ी परिहास कर रही थी। योग और तप का लक्ष्य भूल गया। दमित काम वासना अपने पूरे वेग से भड़क उठी। मन्त्रमुग्ध बने आग्नीघ्र आसन से उठकर कामनी के पीछे चल पड़े, बालकों की तरह प्रलाप करते। आगे−आगे वह सौंदर्य की प्रतिमूर्ति जा रही थी और पीछे से आग्नीघ्र कातर स्वर में उसे पुकार रह थे।
थोड़ी ही दूरी पर जाकर वह विलुप्त हो गयी। सामने मुस्कराते हुए खड़े थे महात्मा प्रियव्रत राजकुमार के पिताश्री यह परीक्षा उन्हीं के द्वारा करायी गयी थी। उन्होंने समझाया “तात! गृहस्थ जीवन में रहते हुए तथा राज्य के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए आत्म परिष्कार की साधना करो। इसी से तुम्हें जीवन लक्ष्य की प्राप्ति होगी।” राजकुमार को अपनी भूल ज्ञात हुई। तत्वदर्शी पिताश्री की आज्ञा शिरोधार्य करके वे कर्मयोग की साधना में जुट गये।