• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • धर्म धारण का संशोधन एवं श्रद्धातत्व का अभिवर्धन
    • इस युग की मूलभूत आवश्यकता
    • Quotation
    • प्रतीकोपासना एवं ध्यान प्रक्रिया की पृष्ठभूमि
    • साधना- उपचार और अन्तर्मुखी दर्शन
    • Quotation
    • कुण्डलिनी योग−प्रारम्भिक स्वरूप एवं प्रयोग
    • सिद्धि सामर्थ्य से भरपूर शरीर का चक्र संस्थान
    • Quotation
    • उपासना की फलश्रुति–परिष्कृत एवं विभूति सम्पन्न व्यक्तित्व
    • आत्मिक पुरुषार्थ हेतु समर्थ अवलम्बन की अनिवार्यता
    • उच्चस्तरीय साधना के सहयोगी उपक्रमआसन, मुद्रा, बँध
    • प्राणाकर्षण प्राणायाम से संकल्प बल का अभिवर्धन
    • शरीर का परिशोधन परिमार्जन
    • सूर्य वेधन प्राणायाम से सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों का जागरण
    • काम बीज का उन्नयन−ज्ञान बीज में परिवर्तन
    • शारीरिक −मानसिक विश्रान्ति की प्रक्रिया शिथिलीकरण
    • Quotation
    • शांतिकुंज की अभिनव सत्र−व्यवस्था
    • अपनों से अपनी बात - क्या काफिला बिछड़ ही जायगा?
    • मलाई को तैर कर ऊपर आने का आमन्त्रण
    • साधना की सफलता की रहस्य– वृत्ति-शोधन
    • अज्ञान का निराकरण
    • अज्ञान का निराकरण (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • धर्म धारण का संशोधन एवं श्रद्धातत्व का अभिवर्धन
    • इस युग की मूलभूत आवश्यकता
    • Quotation
    • प्रतीकोपासना एवं ध्यान प्रक्रिया की पृष्ठभूमि
    • साधना- उपचार और अन्तर्मुखी दर्शन
    • Quotation
    • कुण्डलिनी योग−प्रारम्भिक स्वरूप एवं प्रयोग
    • सिद्धि सामर्थ्य से भरपूर शरीर का चक्र संस्थान
    • Quotation
    • उपासना की फलश्रुति–परिष्कृत एवं विभूति सम्पन्न व्यक्तित्व
    • आत्मिक पुरुषार्थ हेतु समर्थ अवलम्बन की अनिवार्यता
    • उच्चस्तरीय साधना के सहयोगी उपक्रमआसन, मुद्रा, बँध
    • प्राणाकर्षण प्राणायाम से संकल्प बल का अभिवर्धन
    • शरीर का परिशोधन परिमार्जन
    • सूर्य वेधन प्राणायाम से सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों का जागरण
    • काम बीज का उन्नयन−ज्ञान बीज में परिवर्तन
    • शारीरिक −मानसिक विश्रान्ति की प्रक्रिया शिथिलीकरण
    • Quotation
    • शांतिकुंज की अभिनव सत्र−व्यवस्था
    • अपनों से अपनी बात - क्या काफिला बिछड़ ही जायगा?
    • मलाई को तैर कर ऊपर आने का आमन्त्रण
    • साधना की सफलता की रहस्य– वृत्ति-शोधन
    • अज्ञान का निराकरण
    • अज्ञान का निराकरण (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1982 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


साधना- उपचार और अन्तर्मुखी दर्शन

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 4 6 Last
आयुर्वेदीय कल्प का विवरण पढ़ते हैं तो ज्ञात होता है कि वमन, विरेचन, स्वेदन, नस्य, धूम्रपान, स्नेहन आदि के माध्यम से संचित मलों को बाहर निष्कासित किया जाता है। इस शरीर शुद्धि, परिशोधन के उपरान्त शरीर गत मलीनताओं का भार हल्का होता है तथा नये उपचार की पृष्ठभूमि बनती है। यदि यह न किया गया तो उपचार का लाभ शरीर को मिलने के स्थान पर जलती आग में पड़े ईंधन की भस्म हाथ लगने के अतिरिक्त और कुछ पल्ले पड़ता नहीं। खाई पर कर ही पार जाया जा सकता है, अन्यथा सारे प्रयास पुरुषार्थ इस खन्दन को पार करने में लगी शक्ति के माध्यम से समाप्त हो जायेंगे।

ठीक यही सिद्धान्त आध्यात्मिक काया-कल्प पर भी लागू होता है। यह भी एक प्रकार की चेतनात्मक कायाकल्प चिकित्सा हैं। पंच तत्वों को काय-कलेवर में बैठा जीवन जिन मलीनताओं से, संचित मलों से आच्छादित है, उनसे छुटकारा पाये बिना उसे नवीन चोला पहनाया नहीं जा सकता। इस चिकित्सा उपचार में प्रारम्भ में दो काम करने होते हैं। एक तो अपनी चिन्ताओं, समस्याओं, कठिनाइयों, आकाँक्षाओं, अभिलाषाओं को विस्तारपूर्वक लिख कर मार्गदर्शक के सम्मुख प्रस्तुत कर देना होता है ताकि उन्हीं बातों को बताने, पूछने का ताना-बाना न बुनते रहकर जो कहना है, वह एक बार में ही कह लिया जाय। इससे भौतिक प्रयोजनों–साँसारिक गतिविधि प्रधान हलचलों से मन विरत होकर हल्का होता, अन्तर्मुखी बनता है। तब मूल उद्देश्य का तारतम्य बिठा पाना सम्भव हो पाता है।

दूसरी बात वह उगलनी होती है जिसमें अपने क्रियमाण दुष्कर्मों का उल्लेख होता है। पूर्व जन्म के संचित कर्मों की तो अपने को कोई जानकारी है भी नहीं। पर इस शरीर से इसी जन्म में जो दुष्कृत्य हुए हैं, उनका सही अर्थों में प्रायश्चित बिना वमन किये सम्भव नहीं। यही वे अवरोध हैं, जो साधना को सफल नहीं होने देते। न ही कष्ट कठिनाइयों से छूटने के लिये अपने प्रयासों को कारगर होने देते हैं।

यह एक सुविदित तथ्य है कि सृष्टा की कर्म व्यवस्था सुनिश्चित है। वह स्वसंचालित पद्धति से क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न करती रहती है। पाप कृत्यों से कुसंस्कार बढ़ते हैं। कुसंस्कारों से स्वभाव में उद्दण्डता आती है। उद्धत स्वभाव से आचरण बनते हैं। उनके फलस्वरूप भीतर से रोक शोक उभरते हैं और बाहर से असहयोग, तिरस्कार एवं रोष-उभरते की प्रताड़नाएँ बरसती रहती हैं। फलतः समस्याएँ उलझती, कठिनाइयाँ पनपती और विपत्तियाँ बरसती रहती हैं। यही है पाप कर्मों की स्वसंचालित दण्ड व्यवस्था जो अपने लिए स्वयं ही यमदूत उत्पन्न करती है और नशा पीकर नाली में गिरने, अभक्ष्य खाकर वमन करने, फाँसी लगाकर बेमौत मरने की तरह किये हुए दुष्कृत्यों का प्रकारान्तर से दण्ड प्रस्तुत करती रहती है। इस जंजाल की जकड़न में ऊँचा उठते और आगे बढ़ने की बात बुद्धिमत्ता है। आँख में पड़े हुए तिनके को और पैर में धँसे काँटे को निकाल फेंक देना ही विवेकशीलता का चिन्ह है। पके फोड़े का मवाद जितनी जल्दी निकल जाय, उतनी ही सुविधा रहेगी। संचित क्रियमापा पापों को लादे न रहकर उनका प्रायश्चित कर लेना भी एक आवश्यक कृत्य है। अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले इस भार को उतारते और हल्के-फुल्के प्रगति पथ पर अग्रसर होने की दूरदर्शिता अपनाते हैं।

इसके लिये आवश्यक है कि अपनी स्मृति के सभी दुष्कृत्यों को विस्तार पूर्वक घटनाक्रमों तथा उनके साथ जुड़ी हुई परिस्थितियों के साथ मौखिक या लिखित रूप से मार्गदर्शक की जानकारी में लाते हैं। आधार पर पाप कर्मों के भारी हल्के होने का और तद्नुरूप परिशोधन, प्रायश्चित की विधि−व्यवस्था का निर्धारण बन पड़ता है।

यही आध्यात्मिक वमन विरेचन है, जिससे मानसिक सफाई का कार्य सम्भव हो पाता है।अपनी ओर से बात पूरी कर लेने पर दूसरे पक्ष का ही काम शेष रह जाता है। क्या उपाय करना है। क्या हल निकलना है इसके लिये प्रतीक्षा भी की जा सकती है। अपना पक्ष प्रस्तुत कर देने के उपरान्त साधक की मनःस्थिति ऐसी बन जाती है कि कठोर तितिक्षा साधनाओं के मूलभूत उद्देश्य अन्तर्मुखी होकर आत्मशोधन से लेकर आत्म−साक्षात्कार तक की लम्बी प्रक्रिया में तन्मयता एवं तत्परतापूर्वक जुटा जा सके।

इस प्रकार की कठोर साधनाएँ घर से बाहर अन्यत्र जाकर किसी तीर्थ की पवित्र भूमि में, शहरी कोलाहल से दूर,मर्यादाओं की व्रतशीलता में अपने आपको बाँध कर ही सही रीति से सम्पन्न हो पाती हैं। अन्यथा उलझे वातावरण में, अनमने मन से−उद्विग्न चित्त से, खीजते खीजते किसी प्रकार निभ कर लेने से कोई भी साधना उपक्रम सही प्रकार निभ नहीं पाता। कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनमें चिकित्सक के लिखित परामर्श और घर पर दावा भर लेते रहने से ही काम चल जाता है। परन्तु कुछ असाध्य व्याधियाँ ऐसी होती हैं कि अस्पताल में ‘इनडोर चिकित्सा’ करनी ही पड़ती है। लिये आवश्यक उपकरण, साधन तथा हर योग्यता के डॉक्टर, सर्जन, सहायक, परिचारिकाएँ हर समय उपलब्ध नहीं हो सकते। ये सुविधाएँ मात्र अस्पतालों में ही होती हैं। अस्तु बड़े उद्देश्यों की पूर्ति के लिये तद्नुरूप ही व्यवस्था बनानी चाहिए। साधना स्थल की परिस्थिति एवं साधक की मनःस्थिति दोनों ही सुविधाएँ समुचित स्तर की रहने पर ही साँसारिक एवं आध्यात्मिक प्रयोजनों की पूर्णता सधती है।

कल्पवास में जो अनुबन्ध साधक पर लगाया जाता है उसके मूल में उद्देश्य एक ही है कि साधकों की मानसिक परिधि भी मर्यादित सीमा मर्यादा में ही केंद्रित रहे। बन्दर की तरह इधर−उधर उछलकूद न मचाये। योगीराज अरविंद ने विशिष्ट तप पुरुषार्थ हेतु इसी प्रकार का कुटी प्रवेश किया था। निजी साधना के क्षेत्र में भी ऐसे कितने ही तपस्वी होते हैं जो जीवन को निर्धारित परिधि में ही केंद्रीभूत रखते हैं, न शरीर को इधर उधर मचकने भटकने देते हैं एवं न मन को आवारागर्दी में भटकने देते है। उच्चस्तरीय साधनाओं में यही नीति अपनानी चाहिए। साधक को अंतर्जगत में ही शरीर एवं मन को सीमाबद्ध कर गुफा प्रवेश की समाधि साधना जैसा स्तर अपनी साधनावधि में बनाकर उसे निष्ठापूर्वक निभाना चाहिए।

आत्मसाक्षात्कार −आत्मदर्शन −आत्मबोध आदि की अध्यात्म शास्त्रों में भावभरी चर्चा है। भगवान बुद्ध को जिस वट वृक्ष के नीचे आत्मबोध हुआ था, उसे बोधि वृक्ष नाम दिया गया− देव तुल्य पूजा गया। उसकी टहनियाँ काटकर संसार भर के बौद्ध धर्मानुयायी ले गये और अपने−अपने यहाँ उसकी स्थापना करके वैसी ही देवात्मा बोधि वृक्ष उगाये। यहाँ चर्चा वृक्ष विशेष की नहीं हो रही है वरन् कहा जा रहा है कि आत्मबोध आत्मदर्शन ही उच्चस्तरीय देव वरदान है। जिसे उसकी उपलब्धियां जिस अनुपात में ही गयी, समझना चाहिए कि वह उतना ही बड़ा श्रेयाधिकारी वन गया।

सभी देव मानवों की अन्तः स्थिति यही रही हैं कि उनने अपने को जाना−समझा है और आत्म गौरव को प्रमुखता देकर तदनुरूप जीवनचर्या का निर्धारण किया है। इतने भर से आगे की सारी बात बन जाती है। सही दिशा में प्रवाह चल पड़े तो अन्ततः उसकी समाप्ति समुद्र मिलन के रूप में ही होगी। जिन भव−बंधनों को समस्त संकटों का, पतन−पराभवों का आधारभूत कारण माना जाता है वे और कुछ नहीं, मात्र आत्म विस्मृति के रूप में−निकृष्ट दृष्टिकोण के रूप में अन्तराल चर चढ़े हुए कषाय−कल्मष भर हैं।

अपने आप को विस्मृत कर देने के उपरान्त तो मात्र भटकाव ही भटकाव शेष रह जाता है। कस्तूरी मृग की निराशा और मृग तृष्णा की थकान की कथा प्रसंगों में बार−बार चर्चा होती रहती है। सियारों के झुण्ड में पले सिंह−शावक का जल में परछाई देखकर आत्मबोध होने और पिछला स्वभाव तत्काल बदल देने वाले दृष्टान्त सभी ने सुने हैं। इन उदाहरणों में उपनिषद्कार का वही उद्बोधन झाँकता है जिसमें–”आत्मा काऽरे ज्ञातव्यं ” आदि की हंकार है। गीताकार ने भी इसी आशय का मन्तव्य देते हुए कहा है–”उद्धरेत् आत्मनात्मान।” यह आत्मदर्शन ही प्रकारान्तर से ईश्वरदर्शन है। इसी उपलब्धि को जीवन्मुक्ति कहा गया है। जीवनलक्ष्य का चरम बिन्दु यहीं पहुँचने पर समाप्त होता है।

‘आत्मदर्शन’ शब्द रहस्यवादिता के भ्रम−जंजाल में फँसकर कुछ ऐसा बन गया है मानों किसी जादूई दृश्य को देखने और आश्चर्य चकित रह जाने जैसी कौतुक भरी स्थिति परिस्थिति की चर्चा की जा रही हो। ऐसा प्रतीत होता है आत्मा कोई अद्भुत आकृति की अन्तरिक्षवासिनी देवी होगी जो बिजली कौंधने की तरह साधक को अपनी छवि दिखाकर–वरदानों का पिटारा उस पर उड़ेलकर फिर आकाश में विलुप्त हो जाती होगी। इन बाल कल्पनाओं के लिए तो कोई क्या कहे? पर जिन्हें तत्वदर्शन समझने का–ब्रह्मविद्या के प्रतिपादनों में प्रवेश करने का अवसर मिला है−जो बौद्धिक दृष्टि से परिपक्व माने जा सकते हैं, उन्हें इस तथ्य को समझने में कहीं कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए कि अदृश्य आत्मा का दृश्यमान स्वरूप ही ‘जीवन’ है। उसी को आत्मसत्ता के रूप में−व्यक्तित्व की समग्रता के रूप में देखा−समझा जा सकता है। निराकार आत्मा का सही साकार रूप जीवन द व ही है। आत्मदेव की तुलना वेदान्त ग्रन्थों में कल्प वृक्ष से की गयी है और कहा गया है कि उसकी आराधना करने वाले की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होकर रहती हैं। इसी आत्मदेव को ‘आयमात्मा ब्रह्म−सच्चिदानन्दोऽहम्’ कहकर उसी की उपासना करने का निर्देश दिया गया है। प्रज्ञानं ब्रह्म, “तत्वमसि, शिवोऽहम्” जैसे सूत्र संकेतों में इसी तथ्य का प्रतिपादन है कि अपना परिष्कृत आपा ही सुविकसित, सुसंस्कृत स्थिति में पहुँचने पर परब्रह्म की−परमात्मा की–भूमिका निभाने लगता है। नर−पिशाच, नर−पशु, नर−कीटक की स्थिति तो तभी तक रहती है जब तक अपने आपे का बोध नहीं होता।

दुनियादारी पर छाई रहने वाली दुर्बुद्धिजन्य दुर्गति से उबारने में वेदान्त की शिक्षा ही समर्थ नौका का काम देती है। तत्त्व−दर्शन को अपनाने से आत्मबोध उभरता है। अपनी स्थिति का सही ज्ञान होता है। लगता है कि अज्ञान आच्छादन से छुटकारा पाना ही परम पुरुषार्थ है। यही जीवन लक्ष्य भी है। आत्मबोध को अध्यात्म दर्शन में परम पुरुषार्थ कहा गया है। यही चरम सौभाग्य है। इसी एक साधन के सधने से असंख्यों विपत्तियों से छुटकारा मिलता है और समस्त सिद्धियों का द्वार खुलता है। ब्रह्मविद्या की उपनिषद् चर्चा में अनेकानेक तर्कों, तथ्यों व मार्ग−उपचारों के माध्यम से श्रेयार्थी को एक ही शिक्षा−एक ही प्रेरणा दी गयी है कि वह माया−बन्धनों से मुक्त होने का प्रयत्न करे। ‘माया’ अर्थात् अपने को शरीर मानने की, उसे ही वासना तृष्णा से पोसने की ललक−लिप्सा। इस नरक दलदल से उबरने−उछलने की साहसिकता, दूरदर्शिता उभारने के लिये ही कई प्रकार के योगाभ्यास–तप साधन किये जाते हैं। स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन−मनन के चारों प्रयोग उपचार इसी एक आवश्यकता की पूर्ति में नियोजित किये जाते हैं।

वेदान्त चिन्तन का समुद्र−मन्थन साधना अवधि में चलते रहने पर जिस सर्वोपरि उपहार अनुदान की उपलब्धि होती है उसे ‘अमृत’ कहते हैं। अमृत अर्थात् आत्मबोध। आत्मबोध अर्थात् जीवन सम्पदा की उच्चस्तरीय ईश्वरीय अनुदान के रूप में मान्यता। इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग कैसे बन पड़े इसी चिंतन, मन्थन और निर्धारण को ब्रह्मविद्या का सार तत्व समझना चाहिये। इसी से आध्यात्मिक काया−कल्प रूपी सिद्धि अनुदान की प्राप्ति होती है।

First 4 6 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • धर्म धारण का संशोधन एवं श्रद्धातत्व का अभिवर्धन
  • इस युग की मूलभूत आवश्यकता
  • Quotation
  • प्रतीकोपासना एवं ध्यान प्रक्रिया की पृष्ठभूमि
  • साधना- उपचार और अन्तर्मुखी दर्शन
  • Quotation
  • कुण्डलिनी योग−प्रारम्भिक स्वरूप एवं प्रयोग
  • सिद्धि सामर्थ्य से भरपूर शरीर का चक्र संस्थान
  • Quotation
  • उपासना की फलश्रुति–परिष्कृत एवं विभूति सम्पन्न व्यक्तित्व
  • आत्मिक पुरुषार्थ हेतु समर्थ अवलम्बन की अनिवार्यता
  • उच्चस्तरीय साधना के सहयोगी उपक्रमआसन, मुद्रा, बँध
  • प्राणाकर्षण प्राणायाम से संकल्प बल का अभिवर्धन
  • शरीर का परिशोधन परिमार्जन
  • सूर्य वेधन प्राणायाम से सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों का जागरण
  • काम बीज का उन्नयन−ज्ञान बीज में परिवर्तन
  • शारीरिक −मानसिक विश्रान्ति की प्रक्रिया शिथिलीकरण
  • Quotation
  • शांतिकुंज की अभिनव सत्र−व्यवस्था
  • अपनों से अपनी बात - क्या काफिला बिछड़ ही जायगा?
  • मलाई को तैर कर ऊपर आने का आमन्त्रण
  • साधना की सफलता की रहस्य– वृत्ति-शोधन
  • अज्ञान का निराकरण
  • अज्ञान का निराकरण (kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj