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Magazine - Year 1987 - Version 2

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सर्वव्यापी परमेश्वर की दिव्य सत्ता

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ईश्वर को पाने या दर्शन करने के लिए कहीं अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है; क्योंकि वह सर्वव्यापी है, घट-घट वासी भी। ऐसी दशा में उसे किसी एक रूप में अथवा एक स्थान से सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता है, जब वह निर्बंध हो तो उसे एक किसी स्थान विशेष में खोज निकालने की बात कैसे बने? कहीं एक स्थान में उसे कैसे खोजा और कैसे पाया जाए?

पवन सर्वत्र संव्याप्त है। उसका कोई रूप नहीं हो सकता। पत्ते हिलने, तिनके उड़ने से उसकी उपस्थिति का आभास पाया जा सकता है, पर किसी जीवधारी की आकृति में उसे बोलते, बात करते, छवि दिखाते या किसी सिंहासन पर विराजमान नहीं देखा जा सकता। ऐसा यदि बन पड़े तो उसकी स्थिति किसी जीवधारी जैसी हो जाएगी। तब उसे स्थानवासी कहा जाएगा, निराकार नहीं। जबकि दिव्य शक्तियाँ सूक्ष्म होती हैं। यहाँ तक कि शरीर में रहने वाला प्राण तक सूक्ष्म हैं, वह समग्र काया में विद्यमान है, पर किसी एक स्थान से उसे पाया-पकड़ा नहीं जा सकता। देखना-छूना तो और भी अधिक असंभव है। प्राण की शक्ति काम करती है, उसी से अंग-प्रत्यंग का संचालन-नियमन होता है। निकल जाने पर काया को मृतक घोषित कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में प्राणी के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। इतने पर भी कोई यह आग्रह नहीं करता कि जीवन का अधिष्ठाता प्राण हमें प्रत्यक्ष दीखे, तभी संतोष मिले। जो सर्वव्यापी होगा। वह एक स्थानीय नहीं हो सकता। जो एक स्थानवासी है, उसे सर्वव्यापी नहीं माना जा सकता।

व्यक्तियों के साथ मैत्री या उपेक्षा चल सकती है। उससे आग्रह-अनुरोध भी किए जा सकते हैं। कुछ देने-पाने का भी प्रसंग चल सकता है। व्यक्ति, व्यक्तियों से प्रभावित होते हैं, उन पर उपहार-मनुहार का प्रभाव पड़ता है। अवज्ञा-अवमानना करने पर वे रुष्ट भी हो जाते हैं। अपने-पराये का इस लोक-व्यवहार में भेदभाव भी चलता है। अपनों के साथ पक्षपात बरता जाता है और परायों के साथ शिष्टाचार भर बरता जाता है; किंतु शक्तियों का स्वभाव-व्यवहार ऐसा नहीं होता। वे एक नियम-अनुशासन में बँधी रहती हैं और जिनके भी संपर्क में आती हैं; उन्हें उन मर्यादाओं का पालन करते देऩाता चाहती हैं, जिनसे कि वे स्वयं आबद्ध हैं।

अग्नि तत्त्व है, संव्यापक। उसकी उपस्थिति ईंधन में स्पष्टतया देखी जा सकती है। जब तक ईंधन का अस्तित्व समाप्त हुआ कि अग्नि का प्रकट रूप भी अदृश्य हो जाता है। यों वातावरण में तापमान को देखते हुए यह अनुभव किया जा सकता है कि अग्नि की सत्ता अदृश्य रूप में सर्वत्र संव्याप्त है।

अग्नि के उपयोग के कुछ नियम है। उन्हीं के अनुसार उसे जलाया और अभीष्ट प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं कि अग्नि का कोई भक्त है, या विश्वासी। अग्निपूजक के यहाँ भी वह जलती है, विद्वेषी के यहाँ भी। उसका अनुग्रह प्राप्त करते रहने का केवल एक ही तरीका है कि अग्नि से संबंधित नियमों का पालन किया जाए। जो इसमें व्यतिक्रम करता है, वह जोखिम उठाता है। अग्नि हवन करने वालों और दीपक जलाने वाले की भी असावधानी को क्षमा नहीं करती। वह बाल-वृद्ध का, शिक्षित-अशिक्षित का भी अंतर नहीं करती। व्यक्तिगत रूप से किसी से मैत्री भी नहीं निबाहती। साथ ही निंदा-प्रशंसा के फेरे में पड़कर किसी के प्रतिकूल भी नहीं करती उसे अपने नियमों के परिपालन में ही भक्ति दीखती है। सतर्कता बरतने और नियमों को पालने वाले मित्र की वह समुचित सेवा-सहायता भी करती है; पर जो कोई निर्धारित मर्यादा में व्यतिरेक करता है, वह तत्काल दंड पाता है। उसका यह मनोरथ पूरा नहीं होता कि पूजा-अर्चा के बदले, उसके साथ रियायत बरई जाए। भूलों की दर गुजर की जाएगी। प्रमादी हवनकर्त्ता भी हाथ जला देते हैं। अप्रमादी अनगढ़ होने पर भी गड़रिया-लुहारों की तरह उसके सहारे अपने परिवार का निर्वाह करते रहते हैं।

व्यापक शक्तियाँ निराकार होती हैं। आकार धारण करते ही, उनकी व्यापकता समाप्त हो जाती हैं। गुरुत्वाकर्षण, तापमान, पवन, ईथर, आदि तत्व की सत्ता व्यापक तो है, पर न तो हम उन्हें देख सकते हैं और न पकड़ ही पाते हैं। इसके लिए प्रयत्न करना निरर्थक है।

पदार्थों की सहायता से हम अदृश्य शक्तियों की उपस्थिति का अनुभव कर सकते हैं। शीत को देखा नहीं जा सकता, पर बर्फ पड़ने पर उसकी विशेष उपस्थिति का भान आसानी से हो सकता है। भट्टी में दुहकते अंगारों से अग्नि की उपस्थिति का प्रत्यक्ष भान होता है। यह सापेक्ष है। तत्वों की उपस्थिति किन्हीं आधारों  के माध्यम से ही जान पड़ती है। अंधड़ में, तूफान में, पवन की विशेष गतिशीलता देखी जा सकती है। प्राणियों की चलती-फिरती काया ही उनके भीतर प्राण की उपस्थिति का भान कराती हैं। उसे पकड़ना या देखना अशक्य है।

प्रभुदर्शन को हम अपने भीतर भी देख सकते हैं और बाहर भी। वह सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों, सद्भावना और सत्कर्मों के रूप में दृष्टिगोचर हो सकता है। श्रद्धा, निष्ठा और प्रज्ञा के रूप में उसका परिचय मिल सकता है। आत्मसंयम और पुण्यपरमार्थ में उसकी बहुलता आँकी जा सकती है। पानी के गुण तो बूँद में भी वही रहते हैं; किंतु छोटी जगह में उसे स्वल्प और बड़े सरोवर में भी उसे अधिक मात्रा में विद्यमान देखा जा सकता है। पात्रता एवं पवित्रता के आधार पर कोई व्यक्ति अपने में ईश्वरतत्त्व की अधिक अवधारणा कर सकता है। दुष्ट और भ्रष्ट गीली लकड़ी की तरह धुँआ देते और बदबू फैलाते रहते है। यद्यपि अग्नि का अंश उनमें भी मौजूद रहता है, जिन्होंने अपने अंतराल को सुसंस्कारिता से भर लिया है, वे सरलतापूर्वक कपूर की तरह जलने और अपनी प्रभाव-परिधि में सुगंध फैलाने लगते हैं।

जिन्हें ईश्वरदर्शन की लगन है, उन्हें छवि विशेष के रूप में देख पाने की ललक छोड़नी चाहिए। उन्हें इस विश्व-विस्तार को देखकर, उसके कर्त्ता का अनुमान लगाना चाहिए। कुम्हार के बिना घड़े नहीं बनते, आभूषणों की संरचना स्वर्णकार ही करते हैं। इस प्रत्यक्ष जगत को देखकर उसके कर्त्ता का सुनिश्चित-सुनियोजित संसार की सुनिश्चित गतिविधियों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि यह अपने आप बन गया है। तिनके, पत्ते तक किसी व्यवस्था के अंतर्गत ही विनिर्मित होते हैं, यह व्यवस्थापक चेतना ही परब्रह्म या परमेश्वर है।

उसके साथ घनिष्ठता साबित करने, उसकी अनुकंपा का अधिकतम लाभ लेने का सीधा-सा तरीका है कि उनके अनुशासन को पालें और दायित्वों का निर्वाह करें। सदाशयता के रूप में अपने भीतर ईश्वर की अधिकाधिक अनुभूति की जा सकती है। दया, करुणा, मैत्री, सेवा, उदारता, संयम, सज्जनता आदि सद्गुणों के रूप में ईश्वर की उच्चस्तरीय रूप में ही अवधारणा होती है।

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