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Magazine - Year 1987 - Version 2

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चित्त की वृत्तियों को रोकिए

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मच्छर, हिरन, बन्दर, मोर, कबूतर, मछली, मेंढक जैसे प्राणी निरन्तर बेसिलसिले की दौड़-धूम करते रहते हैं। इनके पीछे भोजन तलाशने का उद्देश्य ही दिख पड़ता है। अन्यथा अनियोजित इस भाग-दौड़ से उन्हें थकान ही आती होगी। इस बिरादरी में एक और भी है जो सशक्त विचार सत्त के नाम से जानी जाती है, पर उसका कार्य रहता है अस्त−व्यस्त, अव्यवस्थित। उस सत्ता का नाम है- मन। रात्रि के समय बेसिर पैर के सपने देखता है। दिन में उसे दिवास्वप्न देखने की सूझती है।

मन की कल्पनाओं का उद्देश्य मोटे अर्थों में स्वार्थ सिद्धि या इच्छाओं में काल्पनिक रमण करना हो सकता है, पर इतने भर से बनता क्या है? संकल्पों की सिद्धि तो हो सकती है, क्योंकि उनके साथ प्रचण्ड पुरुषार्थ जो जुड़ा होता है। पर कोरी कल्पनाएँ तो मन की जल्पना मात्र हैं। सपने सार्थक नहीं होते। दिवास्वप्नों के सार्थक होने का भी कोई आधार नहीं। शेखचिल्ली की कथा प्रसिद्ध है, जो परिस्थिति, समय, सम्भावना आदि का अनुमान लगाये बिना ही मजूरी करते-करते मिनटों में भरे-पूरे परिवार का धनी मानी स्वामी बनना चाहता था। उस कल्पना से उसे पिटाई भर सहनी पड़ी कपड़े गन्दे हो गये और बदनाम हुआ। कल्पना की अनगढ़ उड़ाने उड़ते रहने वालों को भी शेख-चिल्ली की उपमा दी जा सकती है। इतने पर भी एक कमी रह जाती है, वह यह कि शेख-चिल्ली के सामने एक उद्देश्य एवं कार्यक्रम था। भले ही उसमें व्यावहारिकता का पुट न रहा हो, पर ढाँचा तो उसने किसी आधार को अपना कर खड़ा किया था। पर अपने मन के सामने ऐसा भी कुछ नहीं होता। भूतकाल की घटनाएँ, बचपन की स्मृतियाँ भविष्य में आकाँक्षित मनोकामनाओं का ऐसा जमघट मस्तिष्क पर छाया रहता है जिसका विश्लेषण करने पर हँसी आती है और यह कहने में संकोच होता है कि जिस मस्तिष्क में से यह फुलझड़ियाँ छूटती हैं वह वास्तविकता नाम की किसी वस्तु से परिचित भी है या नहीं।

पक्षी उड़ते हैं- हिरन दौड़ते हैं तो उस क्रिया में उन्हें शक्ति खर्च करनी पड़ती है। विचारों के सम्बन्ध में भी यही बात है, वे काम के हो या बेकाम के। उनके उठने और दौड़ने में मस्तिष्क की बहुमूल्य शक्ति खर्च होती है। उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध न हो तो आकाँक्षाओं के अपूर्ण रहने पर उलटे खीज ही आती है। मनः क्षेत्र का संचित भण्डार चुकता है और आदत पड़ जाने पर मनुष्य अचिन्त्य चिंतन के जाल में फँस जाता है। वैसी ही आदत बन जाती है। कल्पना लोक में उड़ते रहने की स्थिति नशेबाजी जैसी हो जाती है, जिन्हें वास्तविकता एवं हानि-लाभ का निष्कर्ष निकाल सकने तक की क्षमता से वंचित रह जाना पड़ता है।

विचार शक्ति का महत्व समझने वाले विज्ञजन अनुभव करते हैं कि कल्पना शक्ति को बेसिर पैर की उड़ानों में उड़ते रहने की छूट नहीं मिलनी चाहिए। इससे उस शक्ति का अपव्यय होता है, जिसे एकाग्र करके किसी सुनियोजित काम में लगाया जाए तो उसका उत्साहवर्धक, आशाजनक सत्परिणाम निकल सकता है।

एकाग्रता की उपयोगिता और क्षमता से सभी परिचित हैं। साहित्यकार, कलाकार, वैज्ञानिक, अभिनेता, शिल्पी, व्यापारी अपनी कल्पना शक्ति को एकाग्र करके उसे अभीष्ट प्रयोजनों में लगाते हैं। योजनाबद्ध रूप से सम्भावनाओं का विवेचन, विश्लेषण करते हैं और आवश्यक काट-छाँट के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, किसी निर्धारण को अपनाते हैं। प्रायः सभी बुद्धिजीवियों को यही करना पड़ता है। आर्चीटेक्ट इमारतों के नक्शे बनाते हैं। वकील मुकदमें के चढ़ाव उतारों को समझते हैं। व्यापारी कारखाना लगाने से पूर्व उसके संचालन में पड़ने वाली सभी आवश्यकताओं का लेखा-जोखा लेते हैं। वैज्ञानिकों, आविष्कारकों को तो अपने विषय में खाने-सोने की सुध बुध तक छोड़कर तन्मय हो जाना पड़ता है। साहित्यकार अपनी रचनाओं का पूर्व ढाँचा खड़ा करते हैं। यहाँ तक कि नट और सरकस दिखाने वाले तक एकाग्रता के आधार पर ही सफल प्रदर्शन कर पाते हैं।

एकाग्रता की शक्ति असाधारण है। भाप चूल्हों से तेजी से बड़ी मात्रा में उड़ती रहती है, पर उसका थोड़ा अंश यदि किसी इंजन में सुनियोजित ढंग से भर दिया जाए तो उसके उपयोग से रेलगाड़ी दौड़ने लगती है। प्रेशर कुकर खाना पकाने लगते हैं। सूर्य की किरणें सर्वत्र बिखरी रहती हैं। उनमें गर्मी रोशनी भर मिलती है पर यदि थोड़े क्षेत्र की धूप को भी एकत्रित किया जा सके तो आतिशी शीशे के केन्द्र बिन्दु पर चिनगारियाँ उड़ने लगती हैं और उसके सहारे भयंकर अग्निकाण्ड तक हो सकते हैं। और चूल्हे सौर हीटरों आदि का प्रचलन बढ़ता जाता है। इन लाभदायक प्रयोगों में इतना भर ही होता है कि बिखराव को एकत्रीकरण के बंधन में बाँधा जाता है। तिनके मिलकर मजबूत रस्सा बनाते हैं। धागे मिलकर कपड़ा बुनते हैं। यह एकीकरण का ही चमत्कार है। विचारों का बिखराव रोका जा सके और उन्हें दिशा विशेष में लगाया जाए तो वही लाभ मिलता है, जो वर्षा के फसल गलाने वाले पानी को नालियों द्वारा निकाल कर एक बड़े तालाब में जमा कर उसे समय-समय पर काम में लिया जाता है।

द्रौपदी स्वयंवर की कथा प्रसिद्ध है। मत्स्य बेध करने वाले को विजेता घोषित किया जाना था। अनेकों युवक आये और असफल होते गये। अर्जुन था जिसे एकाग्रता सिद्ध थी। गुरु के पूछने पर उसने बताया कि उसे मछली की आँख देखने के अतिरिक्त उसके शरीर का और कोई अंश दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी अभ्यास के आधार पर उसने लक्ष्य बेधा और द्रौपदी की विजय माला पहनने का सौभाग्य प्राप्त किया।

बैंकों के कैशियर, फर्मों के मुनीम लम्बा हिसाब जमाते हैं और काम तब बन्द करते हैं जब मिलान ठीक बैठ जाता है। यदि एकाग्रता न हो तो हिसाब में बार-बार भूल पड़े ढेरों समय खराब हो और अयोग्यता साबित हो। यही बात प्रत्येक काम की सफलता का आधार बनती है। बया पक्षी इतना सुन्दर घोंसला अपनी दत्त चित्त होकर काम करने की प्रकृति के कारण ही बना पाता है।

योग विद्या के महत्व और महात्म्य के बारे में बहुत लोग कुछ जानते हैं। उसके आश्चर्यजनक प्रभावों पर विश्वास करते हैं। प्रत्यक्ष देखते भी हैं। इस साधना का मूलभूत सिद्धान्त चित्त की एकाग्रता ही है। पातंजलि के योगदर्शन का प्रथम सूत्र है “योगश्चित्तवृति निरोध” अर्थात् चित्त की वृत्तियों को रोक लेना ही योग है। इस कथन का प्रथम अभिप्राय एकाग्रता साधने के लिए साधक को तत्पर करना है। दूसरा प्रयोजन यह है कि मन बहिर्मुखी आकर्षणों में लुभाता रहता है, उसे रोक कर अन्तर्मुखी किया जाए। गुण कर्म स्वभाव में समाविष्ट दुष्प्रवृत्तियों का कड़ाई के साथ अवरोध किया जाए। यही है मानसिक परिष्कार, जिसके आधार पर बिखराव केन्द्रीभूत होता है और अपनी तीक्ष्ण धार से कठोर दिखने वाली वस्तुओं में भी लेसर किरण की तरह छेद कर देता है। एकाग्रतापूर्वक छोड़ी गई गोली निशाने पर अचूक रूप से बैठती है। अन्यथा वह इधर-उधर लहराती हुई कहीं से कहीं जा पहुंचती है।

मन को रोकना एक बहुत बड़ा पुरुषार्थ माना गया है। गीता में इसे वायु रोकने के समान कठिन माना गया है, तो भी वह प्रयत्न साध्य है, असम्भव नहीं। भौतिक जीवन की प्रगति और आत्मिक जीवन की सदगति दोनों ही इस बात पर निर्भर है कि व्यक्ति कितनी एकाग्रता साध सका। तत्परता ओर तन्मयता का अपने कामों में कितना नियोजन कर सका।

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Language: HINDI
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