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Magazine - Year 1989 - Version 2

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प्रसुप्ति का महान जागरण में प्रत्यावर्तन

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First 9 11 Last
प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाली शक्तियों और विशेषताओं में मनुष्य जीवन में दो को ही प्रधानता मिलती रहती है। एक शारीरिक बलिष्ठता, दूसरी मानसिक प्रखरता। इन्हीं दोनों के बल पर धन, यश, गौरव, सफलता, सहयोग आदि के अनेकानेक साधन बन पड़ते हैं। व्यक्ति दुर्बल और बीमार हो तो अपनी उभय पक्षीय विशेषताएँ तो खो ही बैठता है, साथ ही संबंधियों को सेवा, सहायता में जुटाये रहता है। उन्हें भी कोई उपयोगी काम नहीं करने देता। अनावश्यक अपव्यय भी होता है। स्वयं भी हैरान होता है, औरों को भी हैरान करता है।

कहा जा सकता है कि बीमारियाँ मनुष्य जान-बुझ कर तो बुलाता नहीं। वे तो न जाने कहाँ से दैवी विपत्ति की तरह आ धमकती हैं। हो यह भी सकता है, पर ऐसी दुर्घटनाएँ कभी यदा-कदा ही होती है और उसके लिए चिकित्सक और चिकित्सालय जरूरत से ज्यादा संख्या में विद्यमान हैं। आवश्यकता मात्र इस बात की है कि व्यक्ति को संयमशील, सुव्यवस्थित, चुस्त-दुरुस्त भर बने रहने के लिए प्यार से धमका कर उज्ज्वल भविष्य की संभावना बताते हुए और स्वेच्छाचार बरतने पर अपने को दीन-दयनीय बन जाने की विभीषिका को विस्तारपूर्वक समझाया और गले उतारा जाय।

इस संदर्भ में कठिनाई एक ही है कि मनुष्य वस्तुस्थिति समझते हुए भी अपनी आदतों से लाचार है। विशेषतया बुरी आदतें ऐसी हठीली होती हैं कि वे समझदारी के अनुरोधों को सदा अँगूठा दिखाती रहती हैं। चाहने पर भी मनुष्य कुटेवों से पीछा छुड़ाने में अपने को असमर्थ पाता है। नशेबाजी इसका बहुत मोटा उदाहरण है। जरा बारीकी में उतरा जाय तो जीभ का चटोरापन, समय की अंधी बरबादी कर देने वाला आलस, कामुक विचारों से अकारण मानसिक शक्ति का धुआँ बखेरते रहना, कटु भाषण, अहंकार का प्रदर्शन और कार्य पद्धति में अस्तव्यस्तता का भरा रहना, ऐसी स्व-उपार्जित विपत्तियाँ है, जो आदमी को हर दृष्टि से बरबाद एवं चौपट करती हैं। यद्यपि उन्हें साधारण मानवी स्वभाव कहकर टाल दिया जाता हैं।

धीमी आत्महत्या कही जा सकने वाली इन स्वनिर्मित विपत्तियों से लोग छूटते क्यों नहीं? उन्हें छोड़ते का प्रयत्न क्यों नहीं करते? करते हैं तो सफल क्यों नहीं होते? हार क्यों मान लेते हैं? इस व्यापक समस्या का समाधान खोजना किसी बड़े महत्वपूर्ण वैज्ञानिक आविष्कार से कम वजनदार नहीं है। कारण कि कुछेक को छोड़कर अधिकाँश व्यक्ति अपने क्षमता भण्डार में अनजाने ही आग लगाते रहते हैं और दीन-हीन, उपेक्षित, तिरष्कृत होकर किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करते हैं। कुछ ऐसा नहीं कर पाते हैं, जिससे जीवन लीला समाप्त करने पर लम्बे समय तक जीवित रहने के संबंध में ऐसा कुछ कह सकें कि उसने जन समुदाय से अधिक बढ़कर और कुछ किया? कोल्हू में बैल की तरह पिसते-पीसते रहने के सिवाय ऐसा कुछ किया जिस पर सिर उठाकर संतोष व्यक्त कर सकें या उपलब्धियों का विवरण गिना सकें।

मनुष्य अपने को सुधार पाये और ऊँचा उठा पाये, वस्तुतः यह कुछ कठिन नहीं है। क्योंकि जब शरीर के अन्य अंगों को इच्छानुसार चलाते रहने का क्रम निरन्तर बना रहता है तो कोई कारण नहीं कि मन के उचक्केपन पर लगाम खींचने और ऐड़ लगाने पर सीधी राह चलने के लिए बाधित न किया जा सके। पर गाड़ी यहाँ आकर रुक जाती है कि ऐसी ऐड़ लगाये कौन? प्रचण्ड संकल्प शक्ति का परिचय दे कौन? मनोबल जगाने और प्राणाग्नि प्रज्ज्वलित करने का इकहरा तक कोई सीखता-सिखाता नहीं। वातावरण में भी ऐसा प्रचलन दीख नहीं पड़ता जिसमें आदर्शवादिता की पक्षधर हिम्मत को काम करते हुए देखा जा सके। संसार भर में वस्तुतः यह ही परिद्य ऐसा है जिसकी शाखा-उपशाखाओं के रूप में अनेकानेक दुर्गुणों का विषाणुओं से भी बढ़कर उत्पादन हुआ है। यदि सौ योजनाओं में से संयम और योजनाबद्ध कार्य करना की प्रतिभा को किसी प्रकार जीवित किया जा सके तो समझना चाहिए कि हमें जीवित मुर्दों को नव जीवन से भरा पूरा बना देने वाली संजीवनी बूटी हाथ लग गई।

इक्कीसवीं सदी का, नवयुग का, उज्ज्वल भविष्य का,, सतयुग का सरंजाम जुटाने के लिए प्राथमिक आवश्यकता यह पूरी करनी होगी कि मनुष्य में उस साहस और शौर्य-पराक्रम को जगाया जो अपने समुदाय के और वातावरण पर कब्जा जमाये बैठे अनौचित्य के साथ लड़ने के लिए सीना तान कर, कमर कस कर खड़ा हो सके। बात सरल है। जब जानवरों से लेकर अनेकानेक मनुष्यों को इच्छानुसार चलने के लिए विवश करने पर जोर लगाया जा सकता है तो अपने आपको सही रास्ते पर चलने के लिए ललकारा समझाया क्यों न जा सके जब डंडे के जोर से अनेक टेढों को सीधा किया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि असंख्य परिस्थितियों की अपनी प्रवृत्ति को सही समुचित बनाने के लिए समुन्नत न बनाया जा सकें। पर इस असमंजस को क्या कहा जाय, जिसके कारण लोग अपने को समुन्नत बनाने की अपेक्षा दूसरे हर एक को सुधारने और वशवर्ती बनाने के लिए फटा बाँस पटकने में बहादुरी जताते हुए हर कहीं देखे जाते हैं। यह बात भूल ही जाते हैं कि जो अपने को मनस्वी बनाने में सफल नहीं हो सका वह प्रगति की अनेकानेक कल्पना-जल्पना करते रहने में बेवकूफ शेखचिल्ली का उदाहरण बनने और उपहास का पात्र बनने के अतिरिक्त और कुछ नहीं बन सकता।

मनोबल मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त ऐसा शब्द बेधी बाण है जिसका निशाना कभी चूकता ही नहीं। जो लक्ष्य को बेधे बिना किसी भी व्यवधान से टकरा कर हार मानने का नाम लेता ही नहीं। इसी को अध्यात्म-भाषा में ‘प्राणाग्नि’ कहते हैं और इतनी महिमा बखानते हैं कि उसे पाने वाले सच्चे अर्थों में ईश्वर का राजकुमार कहला सकें और हर क्षेत्र में तिल से ताड़, राई से पर्वत बनाकर खड़ा कर सकें। वस्तुतः ईश्वर प्रदत्त यही एक विभूति ऐसी है जिसे कल्पवृक्ष का अलंकारिक नाम देकर भी यह कहा जा सकता है कि उसमें समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति हो सकती है। वह जिसके पास है उसे पारसमणि का अधिष्ठाता कहा जा सकता है। वह जिनके पास है, वे अमृत पीने वालों की तरह मरने के उपरान्त भी युग युगान्तरों तक जीवित रहते हैं।

शरीर बल, जिसमें सौंदर्य और आकर्षण भी सम्मिलित है, प्रत्यक्ष विभूतियों में से एक है। दूसरी है बुद्धि, वैभव, जिसके सहारे संसार की अनेकानेक सम्पदाएँ-सफलताएँ हस्तगत हुई हैं। दोनों को भौतिक जीवन की ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ भी कहा जा सकता है पर उन्हें प्राप्त करने के लिए लोग पौष्टिक आहार और स्कूली पढ़ाई को ही सब कुछ मानते रहते हैं। जबकि वे लँगड़े की बैसाखी की तरह मात्र ऐसा सहारा है जो थोड़ी सहायता भर करती है। अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति करने में दिखावटी सहायता ही रहती है, कोई ठोस प्रयोजन पूरा नहीं कर पाती। ठोस काम तो प्राणाग्नि के सहारे ही बनता है। संकल्प शक्ति, इच्छाशक्ति, मनस्विता आदि इसी को माना जाता है। उसी के सहारे गूँगे को वाचाल और पंगु को गिरि शिखर पर चढ़ दौड़ने की सफलता मिली है। जिसके पास मनोबल है उसके पास और कुछ भी न हो तो भी चुम्बक की तरह अनायास ही बहुत कुछ खिंचता चला आता है।

कालिदास करी जन्मजात मूर्खता से सभी परिचित हैं। मानसिक स्तर को देखते हुए कोई आशा नहीं करता था कि यह कभी शिक्षित तो क्या साक्षर भी बन सकेगा या नहीं। पर विवाह के बाद पत्नी द्वारा धिक्कारे जाने पर उसके अन्तराल में इतनी करारी चोट लगी की प्रसुप्त प्राणाग्नि तिलमिला गई और उसने जहाँ पढ़ना आरंभ किया तो महाकवि के नाम से विश्व-विख्यात बन कर ही रहा। वरदराज विद्यार्थी काल में “बैल” कह कर साथियों द्वारा चिढ़ाया जाता था। पर विद्यालय छोड़कर घर लौटते समय जब उसने एक कुएँ की जगत पर रस्सी की रगड़ पड़ने से निशान पड़े हुए देखे तो सोचा कि मोटी बुद्धि पर रगड़ डाली जाय तो मेरा भोंदूपन विद्वता में क्यों नहीं बदल सकता? सच्ची इच्छा जागी तो वह स्कूल वापस लौट गया और ऐसी लगन से पढ़ा कि अन्ततः वरदराजाचार्य के नाम से मूर्धन्य विद्वानों में गिना गया।

अब्राहम लिंकन रोटी की दुकान पर छोटी नौकरी करते थे पर प्रतिभा की आराधना-कामना मन ही मन करते रहने पर वे सीढ़ी दर सीढ़ी पार करते हुए वहाँ जा पहुँचे जहाँ उन्हें अमेरिका के राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद तक जा पहुँचना था। साथी मल्लाह कोलम्बस की इतनी असंभव लगने वाली योजनाओं में सहभागी बनने पर अत्यंत क्रुद्ध थे और उसे मारकर समुद्र में फेंक देने की योजना बना रहे थे। पर कोलम्बस के मनोबल के सामने उन्हें झुकना ही पड़ा और इतनी दूर आगे भी चलने के लिए तैयार हो गये जहाँ स्वर्ण खदान समझे जाने वाले अमेरिका पहुँचने का लक्ष्य प्राप्त हो गया। मनोबल इतनी प्रचंड शक्ति है जिसके सामने वह संभव हो जाता है जिसे प्राप्त करने के लिए लोग कल्पना तक नहीं करते थे। वैज्ञानिक आविष्कारों का इतिहास ऐसा ही है। उन सभी उपलब्धियों के पीछे एक ही उपक्रम काम करता रहा है कि अन्वेषकों ने अपनी समूची तत्परता, तन्मयता एक केन्द्रीभूत कर ली और उस नई सामर्थ्य से प्रकृति में अनादि काल से छिपे रहस्यों में से एक के बाद एक दूसरा प्रकट होता चला गया।

देखा जाता है कि क्रोध के आदेश में व्यक्ति इतना आक्रामक हो जाता है जितना बल उसकी सामान्य स्थिति में कभी भी देखने को नहीं मिलता। प्राण जाने की आशंका उत्पन्न होने पर व्यक्ति सिर पर पाँव रख कर भागता है और दौड़ने में कीर्तिमान स्थापित करने वालों को पीछे छोड़ देता है। यह असाधारण शक्ति एकाएक कहाँ से प्रकट हो जाती है? उसका एक ही उत्तर है कि यह आन्तरिक शिथिलता का कारणवश उत्तेजित होने का ही प्रतिफल है। इसका अर्थ यही हो सकता है कि अन्तरंग में विद्यमान शक्ति भंडार का समय आने पर पूरे उपयोग का मार्ग खुल जाना। अनेक उद्देश्यों में असाधारण रूप से सफल होने वाले व्यक्तियों ने अपना महत्व समझा और उसे सुनियोजित करके इस प्रकार स्वयं को काम में लगाया कि वे प्रभाव क्षमता का समुचित परिचय दे सकने में सफल हुए।

सुर्य की किरणें छोटे से आतिशी शीशे के माध्यम से एक छोटे बिन्दु प केन्द्रित करते ही आग प्रकट हो जाती है। मात्र भक से जलने में समर्थ बारूद को जब कारतूस में सीमाबद्ध करके निशाना साधकर चलाया जाता है तो वह दूरवर्ती कठोर लक्ष्य को भी बेधती हुई आरपार निकल जाती है।

इण्डोनेशिया के एक प्रौढ़ ने अपनी पत्नी को तलाक देकर दूसरा विवाह करने की ठानी। उसका बारह वर्ष का बच्चा इसे सहन न कर सका। पिता की हविस और माता की दुर्गति का अनुमान लगा कर वह आपे से बाहर हो गया। उसने बैठे हुए प्रौढ़ बाप पर इतने कस कर दो घूँसे जमाये कि वह उन्हें सहन नहीं कर सका और देखते-देखते दम तोड़ दिया। निहत्थे लोग शेरों और खूँख्वार जानवरों को पछाड़ने का कीर्तिमान स्थापित करते रहे हैं। अन्धी, गूँगी और बहरी-एक प्रकार से सर्वथा अपंग महिला हेलन कीलर ने अपनी विद्वता को चरम सीमा पर पहुँचा दिया। संसार के अठारह विश्वविद्यालयों ने उसे डाक्टरेट की मानद उपाधि दी। अंधे की ब्रेललिपि की मूल आविष्कारक उसी को मानते हैं। मानवी प्रतिभा की ध्वजा उड़ाते हुए वह विश्व के कोने-कोने में घूमी और प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह अपना परिचय इस प्रकार प्रस्तुत करती रही कि मनुष्य की जीवट ही सब कुछ हैं। साधन तो क्या यदि शरीर भी अपंग हो तो भी कुछ बनता बिगड़ता नहीं। मलेशिया की एक गठिया ग्रस्त महिला चलने-फिरने में लाचार थी। मल-मूत्र त्याग जैसी शारीरिक क्रियाएँ भी उसे विवशता की स्थिति में चारपाई पर ही करनी पड़ती थीं। पर जब एक दिन घर में भयंकर आग लगी तो वह प्राण बचाने को इस प्रकार दौड़ी कि उसने सुरक्षित स्थान पर ही पहुँच कर दम लिया। लोग चकित थे कि इतने लम्बे समय से अपंग की स्थिति में पड़ी हुई महिला ऐसा दुस्साहस कर सकने में किस प्रकार सफल हो सकी?

मनोबल के चमत्कारों की कथा-गाथा प्राचीन पौराणिक मिथक और आधुनिकतम शोध-कर्ता समान रूप से प्रतिपादित करते रहे हैं। दोनों ने ही उसकी असामान्य शक्ति को एक प्रकार से मान्यता दी है। विश्व विख्यात विज्ञान वेत्ताओं में मूर्धन्य अलबर्ट आइन्स्टीन बचपन में मूढ़मति थे। स्कूल के बच्चों में सबसे अधिक फिसड्डी। उनके मास्टर ने एक दिन बालकों के अभिभावकों से कहा-इसे स्कूल से उठा ले जाइये। यह गधा पढ़ने में कभी भी सफल न हो सकेगा। अभिभावक सिर पीटते हुए बच्चे को घर वापस ले गये और दुर्भाग्य पर रोना रोते हुए अक्सर कहा करते थे कि ऐसी संतान पैदा करने की अपेक्षा तो हम लोगों ने एक पिल्ला पाल लिया होता तो अच्छा रहता। बच्चा बात को समझ रहा था। उसने अन्तर को जगाया और क्रिया-कलाप को व्यवस्थित किया। प्रगति दौड़ती चली गई और समय आया कि वही वज्रमूर्ख एक दिन नोबुल पुरस्कार विजेता, अणु-शक्ति के आविष्कारक, सापेक्षवाद के प्रणेता आदि नामों से प्रख्यात हुआ और अपनी बिरादरी में सर्वोच्च पद तक जा पहुँचा।

यह कोई जादू-चमत्कार नहीं है, न दैवी-देवताओं का वरदान, न भाग्यवाद और न संयोग-अपवाद। कोई भी व्यक्ति यदि अपनी पर उतर आये और निजी जीवन में व्यस्तता-तन्मयता और व्यवहार क्षेत्र में दूरदर्शिता पर आधारित व्यावहारिक बुद्धि अपना ले तो किसी को भी ऐसे ही उत्कर्ष का श्रेय अपने क्षेत्र में निश्चित रूप से मिल सकता है। कुँभकरण के बारे में जनश्रुति है कि वर्ष भर सोता रहता था। एक दिन जागता था उस दिन असीम भोजन कर उतने से हैरत में डालने वाले पुरुषार्थ कर दिखाता था। उसका आकार भी सामान्य जनों की अपेक्षा अनेक गुना बड़ा था। क्या वस्तुतः ऐसा कोई व्यक्ति रहा होगा, इसे तथ्यान्वेषी लोग स्वीकार नहीं कर सकते, पर अलंकारिक रूप से इस कथन में समाहित तथ्य सोलहों आने सच हैं। सामान्य जन लुहार की धौंकनी की तरह साँस लेते हैं और किसी तरह जीवन काटते रहते हैं। उनकी इच्छाएं, मान्यताएँ, क्रियाएँ-कामुकता और अर्ध लोलुपता के इर्द-गिर्द मँडराती रहती हैं और उसी अपने बुने मकड़ जाल में उलझाते-सुलझाते अपनी जीवन चर्या को समाप्त कर लेते हैं। इनके व्यक्तित्व की मक्खी-मच्छरों, कीड़े-मकोड़ों से बढ़कर तुलना नहीं की जा सकती। पर जाग्रत आत्माएँ ऐसी होती हैं जो अपने साहस और सुनियोजन, के बल पर इतना कुछ कर गुजरती हैं कि सामान्यजन उसे भाग्योदय जैसे नाम देकर अपनी हीनता पर पर्दा डालते रहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि असीम शक्ति का भाण्डागार मनुष्य अपने प्रसुप्त से जग पड़ने और उपलब्ध साधनों के श्रेष्ठतम सदुपयोग के लिए कटिबद्ध हो जाय तो उस स्तर का हर व्यक्ति अपने कार्य क्षेत्र में कुँभकरण के अलंकारिक वर्णन को सही सिद्ध कर सकता है।

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