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Magazine - Year 1989 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जीवनी शक्ति एवं उसकी दृश्य चमत्कृतियाँ

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मोटर का ढाँचा लोहे का बना होता है। उसके पहियों में रबड़, सीटों में रेगजीन, खिड़कियों में कब्जे आदि होते हैं। यह बात सही होते हुए भी उसका दौड़ना, मुड़ना, पीछे हटना आदि उस अग्नि पर निर्भर रहता है जो पेट्रोल, बैटरी, डायनेमो आदि के माध्यम से बनती है। उसकी भागदौड़ में भी बड़ी निमित्त कारण बनती है। पेट्रोल चुक जाय, बैटरी फ्यूज हो जाय तो समझना चाहिए कि वह आकार में ज्यों की त्यों होते हुए भी हरकत में नहीं आ सकेगी।

शरीर संरचना भी मोटर सदृश ही है। देखने में वह हाड़-माँस, रक्त, त्वचा आदि का बना होता है पर उसकी बाहरी और भीतरी हलचलें एक प्राणविद्युत पर निर्भर रहती हैं। प्राण के तिरोहित हो जाने पर अच्छा खासा मोटा-तगड़ा शरीर भी देखते देखते निर्जीव हो जाता है। धड़कने बन्द हो जाने पर तो मृत्यु तत्काल हो जाती है और कुछ समय पहले तक जो शरीर प्रबल पुरुषार्थ दिखा रहा था, वह सर्वथा निर्जीव हो जाता है। उसकी अंत्येष्टि न की जाय तो वह अपने आप सड़ने और नष्ट होने का उपक्रम अपना लेता है। जो श्वास, गिद्ध, चील, श्रृंगाल, सर्वथा दूर रहते थे, वे गंध पाते ही दौड़ पड़ते हैं और लाश को तेजी से उदरस्थ कर जाते हैं।

शरीर की स्थिति भी ऐसी है। बाहर से उसके हाथ-पैर आँख-कान-नाक आदि काम करते दिखाई पड़ते हैं, पर वस्तुतः जीवन आन्तरिक ऊर्जा पर निर्भर रहना है। यह अदृश्य ऊर्जा जीवन, जीवनीशक्ति, चेतना, प्राणविद्युत आदि नामों से जानी जाती है। वही जीवन संचालिका और विभिन्न हलचलों की अधिष्ठात्री है। स्वास्थ संतुलन और पुरुषार्थ पराक्रम पर निर्भर रहते हैं। जीवनीशक्ति बढ़ी−चढ़ी हो तो व्यक्ति एक से एक बढ़कर पराक्रम दिखापाते हैं और यदि उसमें दुर्बलता न्यूनता अथवा विकृत बढ़ने लगे तो शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोग भी धर दबोचते हैं।

चिकित्सक रोग निवारण या दुर्बलता शमन के लिए अपने अपने ढंग से निवारण और उपचार करते हैं। वैद्य वात, पित्त, कफ का असंतुलन कहते हैं। हकीम उसकी जड़ आदी-बादी खदी प्रकृति के नाम से कहते हैं। होम्योपैथी में अमुक विषों की न्यूनता कारण है। बायोकेमिक में अमुक लवणों की कमी को प्रधान कारण माना जाता है। क्रोमोपैथी में रगों का असंतुलन कारण है। एलोपैथी वाले जीवाणु-विषाणु का आक्रमण बताते हैं। अनुभव की दुहाई देने वाले अनगढ़ उपचारों का तो कहना ही क्या?

पुराने जमाने में बुखार, खाँसी, दस्त आदि सीमित रोग थे पर अब तो उनका वर्गीकरण बढ़ी चढ़ी रोग तालिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। उनकी विभीषिका भी बढ़ी चढ़ी है। दमा, अल्सर, मधुमेह, रक्तचाप, हार्ट अटैक से लेकर एड्स और कैंसर जैसे भयानक रोगों का ज्वार ही बढ़ता जाता है। भाटा उठने और उतार दीख पड़ने की प्रतीक्षा निराशा बन कर रह जाती है। कब्ज, जुकाम, अनिद्रा जैसे रोगों का तो कहना ही क्या? वे तो एक नये फैशन के रूप में एक से अनेकों पर अपना आधिपत्य जमाते देखे जाते हैं। उपचारकर्ता अपनी पराजय की झेंप मिटाने और बढ़-चढ़ कर प्रशंसा करके रोजगार चलाने के लिए बचाव का कुछ तो लबादा ओढ़ते रहते हैं, पर सच्चाई अपनी जगह पर अड़ी रहकर पूछती है कि चिकित्सा तंत्र जब तूफानी गति से बढ़ रहा है तो सर्व साधारण को आरोग्य रक्षा का आश्वासन क्यों नहीं मिलता?

इस असमंजस के निवारण के लिए तनिक अधिक गहराई में उतरने की आवश्यकता है। खोजों का अन्तिम निष्कर्ष आज या कल एक ही निकलने वाला है कि मनुष्य की जीवनी शक्ति बेतरह घट रही है। इस दुर्बलता को भाँपकर बाहर से हवा में निरन्तर उड़ते रहने वाले और स्थान के चप्पे चप्पे में विद्यमान वायरस-बैक्टीरिया सफलतापूर्वक किसी भी मार्ग से शरीर में शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। निरोधक शक्ति की दुर्बलताओं पर आसानी से टिकने की जगह खोज लेते हैं और उपयुक्त आहार पाकर बिना अवरोध का सामना किये तेजी से वंशवृद्धि करते रहते हैं। इसी स्थिति को बीमारियों के नाम से जाना जाता है और उनके चित्र−विचित्र नाम दे दिये जाते हैं।

बाहर से विषाणुओं का आक्रमण हो तो भीतर की अशुद्धियां ही सहज बनकर विषाक्तता का उत्पादन करती रहती हैं और वे भी लगभग वैसी ही भयंकर बन जाती हैं जैसी कि तथा कथित आक्रमणकारी विषाणुओं की फौज। भीतर की तोड़−फोड़ और बाहरी आक्रमण का दुहरा दबाव प्रायः कमजोर फौजें सहन नहीं कर पातीं और हथियार डालकर पराजय को स्वीकार कर लेती हैं।

भीतरी जीवनीशक्ति की दुर्बलता, घटोत्तरी एवं विकृत को यदि दुर्बलता और रुग्णता का प्रमुख कारण ठहराया जाय तो यह उचित निदान होगा। इन दिनों यही उपक्रम चल रहा है और आरोग्य की दृष्टि से लोग दिन-दिन दुर्बल बनते जाते हैं। अस्वस्थता आज की सबसे बड़ी समस्या है। उसी के कारण पुरुषार्थ करके प्रगति के सत्परिणाम उपलब्ध कर सकना कठिन पड़ता है। दर्द, सूजन, ताप, विस्फोट आदि की व्यथा-वेदना अलग से बेचैन किये रहती है। हितैषियों-परिचायकों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है, पैसा खर्च होता है और उत्पन्न गंदगी की छूत समीपवर्ती लोगों से लेकर दूरवर्तियों तक जा पहुंचने का खतरा रहता है। जो स्वयं सहायता का आकाँक्षी है, परन्तु जब स्वावलम्बन तक सँजो नहीं पाता, प्रगति कैसे करेगा? पुरुषार्थ कैसे दिखा पायेगा? दूसरों की सहायता करने की स्थिति तो विवशता में थोड़ी बहुत ही बन पाती है। यह स्थिति बहुत दयनीय है। रोगी को अपराधी न कहा जाय तो कम से कम अभागा तो कहा ही जाएगा जो जीवन के वास्तविक लाभ प्रगतिशीलता से प्रायः वंचित ही बना रहता है। स्थिति चिंता जनक है, विशेषतया जब लोगों में से अधिकाँश तीव्र या मंद शारीरिक रोगों से घिरे पाये जाते हैं। मानसिक रोगों की अपनी दुनिया है जो न तो पकड़ में आती है न समझ में। सनकी, दुर्गुणी अव्यवस्थित और अनाचारी प्रायः मानसिक रोगी ही होते हैं। उन पर चित्र−विचित्र आवेश चढ़े रहते हैं और ऐसे कृत्य करते हैं, जिन्हें अवाँछनीय ही नहीं, अमानवीय भी कहा जा सके। उनका त्रास विशेष रूप से स्वजन संबंधियों और निकटवर्तियों को भुगतना पड़ता हैं दूरवर्ती तो तभी नाक-भौं सिकोड़ते हैं जब उनके असली स्वरूप की थोड़ी बहुत झलक झोंकी मिलती है। ऐसे लोग समाज के लिए ही भार बने रहते हैं। उनसे सार्वजनिक प्रगति की सहायता करने की तो आशा ही क्या की जाय? जबकि वे स्वयं ही खोखले होने के कारण अपने और दूसरों के लिए चिन्ता का विषय बने रहते हैं।

शरीर क्षेत्र में संव्याप्त अनेक विग्रहों और संकटों के कारण तो अनेकों गिनाए जा सकते हैं पर वास्तविकता यह है कि जन साधारण के शरीर और व्यक्तित्व में जीवनीशक्ति की मात्रा बेहिसाब घटती चली जा रही हैं। दरिद्रता अन्य क्षेत्रों में भी पाई जाती है, पर वह ऐसी है जिसे किसी प्रकार सहा और रहते हुए भी किसी हद तक काम चलाया जा सकता है। पर जीवट की कमी तो ऐसी है जिसके कारण मनुष्य जीवित रहते हुए भी एक प्रकार से पूर्ण मृतक तो नहीं, पर अर्धमृतक जैसा तो निश्चित रूप से बनकर रहता है। शरीर देखने में सही होते हुए भी निर्जीव, निस्तेज, मस्तिष्क शिक्षित होते हु भी कठिनाइयों से उबरने में असमर्थ और प्रगति की इच्छा-चेष्टा करते हुए भी असफल। इसके पीछे एक ही व्यवधान काम करता है कि उस ऊर्जा का अनुपात और तर घटा हुआ रहता है जो प्रसन्नता, प्रफुल्लता समर्थता और सफलता की जन्मदात्री है। शरीर की कमजोरी, बीमारी, निराशा, उद्विग्नता के प्रत्यक्ष कारण जो भी हों, पर वास्तविकता यह है कि जीवट घट जाने की ही यह समस्त परिणतियाँ हैं। जब तक मूल कारण को समझा और निरस्त नहीं किया जाएगा तब तक शरीर क्षेत्र की दुर्बलता रुग्णता से लेकर मानसिक खिन्नता और विपन्नता से छुटकारा पाया जा सकना संभव न हो सकेगा। थोड़ी देर के लिए उन्हें दाब-ढँक लिया जाय और गम गलत कर लिया जाय, यह दूसरी बात है।

जीवन शरीर और मन तक ही सीमित नहीं है। उसमें पग-पग पर अवरोधों से जूझना भी पड़ सकता है और अपने ढंग से अपनी प्रगति के लिए रास्ता भी खुद ही बनाना पड़ता है। इसके लिए अभीष्ट शक्ति सामर्थ्य न हो तो कुछ करते-धरते बन नहीं पड़ता। किंकर्तव्य-विमूढ-हतप्रभ की तरह ज्यों का त्यों रह जाना पड़ता है। साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती रहती है। अनाज खाने और आटा नीचे निकाल देने का ढर्रा तो चक्की भी घुमाती रहती है। कोल्हू का बैल भी किसी प्रकार पिलने और पेलने में लगा रहता है। भूत पलीत मरघट में एकाकी रहकर डरने और डराने का जंजाल बुनते रहते हैं। पर यह सब मनुष्य जैसे असाधारण शक्ति सम्पन्न सृष्टि का मुकुटमणि कहलाने वाले को शोभा नहीं देता। उसे ऐसा कुछ करना चाहिए जिसके साथ उठने और उठाने की, बढ़ने और बढ़ाने की प्रक्रिया जुड़ी हुई हो। उसे अनुकरणीय और अभिनन्दनीय होने का सुयोग-सौभाग्य और सम्मान मिल सके। पर ऐसी प्रगतिशीलता किसी भी क्षेत्र में मिल तभी सकती है जब आन्तरिक ऊर्जा साथ दे। जीवट की परिणति ओजस् तेजस् और वर्चस् में विकसित हो सकने की व्यवस्था बन पड़े।

चर्चा शरीरचर्या से आरंभ हुई थी। उस पर विचार करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि स्वस्थता के लिए आहार आवश्यक तो है पर पर्याप्त नहीं। सफाई निद्रा, आच्छादन, सुविधा साधन उपयोगी तो हैं पर मात्र उन्हीं के बलबूते किसी का स्वस्थ रह सकना संभव नहीं।

मानवी सत्ता के तीन पक्ष हैं-शरीर मस्तिष्क और अंतःकरण। इन्हीं को स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर भी कहते हैं। इनमें काम करने वाली जीवट को ही प्राणाग्नि, “लोगौस” बायो इलेक्ट्रीसिटी, जीवनीशक्ति, विद्युतचेतना आदि नामों से जाना जाता है। यही क्रमशः ओजस् तेजस् और वर्चस् हैं। इनका सामान्य संतुलन आरोग्य के नाम से जाना जाता है। व्यक्तित्व या प्रतिभा यही है। उसे सही स्थिति में रखे रहना ही स्वास्थ्य रक्षा, समर्थता, बलिष्ठता, विशिष्टता आदि नामों से जाना जाता है। इसे गिरा देना संभाले रहना एवं प्रखर बनाना पूर्णतया मनुष्य के अपने हाथ में है, जबकि प्रतीत यह होता है कि यह भाग्यवश किसी को गई-गुजरी दशा में उपलब्ध होती है और किसी पर वरदान रूप में अदृश्य लोक से बरसती है।

आरोग्य का उद्गम यही है। नस नाड़ियों में, माँसपेशियों में, जीवकोषों में इसी का प्रभाव काम करता देखा जाता है। रोग निरोधक शक्ति यही है। इसी को टॉनिक के समतुल्य बलवर्धक स्थिति में देखा जाता है। मस्तिष्क में बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, सूक्ष्म-निरीक्षण क्षमता इसी के चमत्कार हैं। विशिष्टों, साहसियों, वैज्ञानिकों, कलाकारों एवं विशिष्टजनों में इसी की विशिष्टता काम करती देखी जाती है। अंतःकरण में भाव संवेदनाओं के रूप में इसी को देखा जाता है। करुणा, सहिष्णुता और आदर्शवादी सराहनीय कृत्यों में इसी की गरिमा का परिचय मिलता है। यह कम मात्रा में हो तो समझना चाहिए कि व्यक्ति आये दिन बीमार पड़ेगा और अनेक नामों वाली अशक्तता रुग्णता से घिरा हुआ अपनी स्थिति निर्बल, दुर्बल, पीड़ित एवं आधि−व्याधियों से घिरी स्थिति में अनुभव करता हुआ कराहता रहेगा। मस्तिष्क में इसका अनुपात कम हो तो उसे अस्तव्यस्त, अनगढ़, असभ्य, अर्थ विक्षिप्त, सनकी स्तर का समझा जायगा। औंधी स्वभाव के कारण गलतियों, गलत फहमियों का शिकार बना रहेगा। ऐसा कुछ करते कहते देखा जाएगा जो सभ्यजनों को शोभा नहीं देता। अन्तःकरण की दृष्टि से हेय स्तर वाले निष्ठुर, निर्मम नीरस, स्वार्थी और पतित स्तर के आचरण करते और उपहास-अपमान को लालायित रहते हैं। जिनके पास यह सम्पदा जितनी कम है, उन्हें ही वस्तुतः दीन-हीन, पिछड़ा, दरिद्री एवं अभाव -ग्रस्त माना जाता है। क्षमता को विकृत कर लेने वालों को भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण में संलग्न देखा जाता है। इन सबका कारण वस्तुओं के अभाव, परिस्थितिकी विग्रह आदि को समझा जाता है। पर देखा गया है कि आतंक पर उतारू लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक विषमताओं का सामना करने वाले अपनी सहिष्णुता और समझदारी के माध्यम से कई गुनी बड़ी चढ़ी विपन्नताओं को भी अपने ढंग से सुलझा लेने या सहलेने में सफल हो जाते है ईंधन न डालने पर आग के स्वयं बुझ जाने का सिद्धान्त सरलतापूर्वक सम्पन्न कर लेते हैं।

प्राथमिक और प्रथम कठिनाई रुग्णता और दुर्बलता को समझा जाता है। स्वास्थ्य इन्हीं दो कारणों से गड़-बड़ाने की बात सोची जाती है। रोगों के विषाणुओं का प्रभाव समझ कर उनके प्रतिकार हेतु मारक औषधियाँ सेवन की जाती हैं। इससे तात्कालिक लाभ भले ही दीखता हो पर प्रतिरोधक शक्ति क्षीण होती है और आक्रमण से जूझने वाले रक्त के स्वस्थ प्रहरी भी आहत होते हैं। फलतः तात्कालिक लाभ थोड़ और स्थायी हानि का अनुपात अधिक रहता है। मारक चिकित्सा अन्ततः महँगी पड़ती है। यही बात दुर्बलता निवारण के निमित्त लिये गये टॉनिकों के संबंध में भी है। पाचन क्रिया के दुर्बल रहने पर न तो वह गरिष्ठ आहार पचता है, जो शक्तिदायी माना जाता है और न वे औषधियाँ ही चिरस्थाई लाभ देती हैं जिन्हें बलवर्धक माना जाता है। वे नशा पीने जैसी क्षणिक उत्तेजना देकर कुछ ही समय में और भी अधिक थकान का कारण बनती हैं। यदि ऐसा न होता तो साधन सम्पन्न लोग महँगी से महँगी आरोग्यवर्धक वस्तुएँ लेकर पहलवानों जैसे बलिष्ठ बने रहते, सदा निरोग रहे होते और दीर्घ जीवन जीते, पर ऐसा होता कहाँ है? इसलिए इस भ्रान्ति को निरर्थक ही समझा जा सकता है जिसमें आरोग्य लाभ के लिए चित्र विचित्र आहारों की सूची थमाई और संजीवनी बूटी कहकर भड़कीले लेबिलों वाली औषधियां उदरस्थ कराई जाती हैं।

वास्तविकता यह है कि शरीर के कण-कण में, नस-नाड़ियों में माँसपेशियों और जीवकोषों के माध्यम से कण-कण तक पहुँचने वाली प्राण विद्युत की प्रचुरता ही वह आधार है जो साधन हीनों को भी निरोध और बलिष्ठ बनाये रहती है। जीवट इसी अमृतधूरि को कहते हैं। वही जीवनी-शक्ति के रूप में सर्वांगीण पोषण प्रदान करती है और मनुष्य को वैसा रखती है जैसा कि उस उत्साह भरी स्थिति में बने रहना चाहिए।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हम प्रत्यक्ष कलेवर भर को देखते हैं और उसके पीछे काम करने वाली अदृश्य सामर्थ्य का न मूल्याँकन कर पाते हैं और न महत्व ही समझते हैं। माँसपेशियों की पुष्टाई देखी जाती है पर यह भुला दिया जाता है कि वह बिजली ही शक्ति पुँज है जो अनेक उपकरणों को चलाती और जलाती है। बिजली की धारा न बह रही हो तो बल्ब, पंखे, हीटर कूलर आदि कितने ही सुन्दर या महँगे हों, वे अपना कार्य ठीक प्रकार नहीं कर सकते। इसी प्रकार जीवट के, जीवनीशक्ति के कम पड़ने पर शरीर, मन, अन्तःकरण सभी गड़बड़ा जाते हैं। विशेषतया स्वास्थ्य तो चौपट ही हो जाता है जैसा कि आजकल सर्वत्र दीख पड़ता है।

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