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Magazine - Year 1991 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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विशिष्ट क्षमताओं हेतु (Kahani)

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First 27 29 Last
दीन बन्धु एन्ड्रूज टहलने निकले तो मार्ग में उन्हें एक नवयुवक मिला। उन्हें रोक कर बोला- “क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन करा सकते हैं या आप लोगों का ईश्वर एक कल्पना ही है। पहले तो वे प्रश्न कर्ता की ओर बड़ी देर तक देखते रहे किन्तु उसकी अल्पज्ञता और जिज्ञासा को देखकर उत्तर देने के लिए बाध्य होना पड़ा। उन्होंने नवयुवक से कहा ठीक है। कल मिलना। तुम्हें ईश्वर के दर्शन अवश्य करायेंगे।

नियत समय पर आकर युवक उसी स्थान पर बैठ गया। दीन बन्धु आये और युवक से बोले चलो मित्र तुम्हें परमात्मा के दर्शन करायें और वे उसे लेकर अछूतों की बस्ती में गये और एक हरिजन की झोपड़ी पर जाकर खड़े हो गये। झोंपड़ी के भीतर एक किशोर बालक टीबी से पीड़ित पड़ा था। बूढ़ा बाप उसकी सेवा में लगा था। उन्होंने इशारा किया देखो यही भगवान है जो अशक्त असहाय को सहारा देकर आशा के दीप को टिमटिमाने का अवसर दे रहा है।

निस्संदेह ईश्वर प्राप्ति के-उनके दर्शन के अनेक मार्ग हैं। यह मनुष्य की अल्पज्ञता है जो यह मानता है कि वह जो जानता है उतना ही सत्य है।

वाचालता पाण्डित्य की कसौटी नहीं है, वरन् गहन गंभीर मौन ही मनुष्य के पंडित, ज्ञानी होने का प्रमाण है।

मौन ही मनुष्य की विपत्ति का सच्चा साथी है, जो अनेक कठिनाइयों से उसे बचा लेता है। अतः सप्ताह में कुछ घण्टे मौन व्रत रखना एवं दैनिक जीवन में हिल-मिल भाषण का अभ्यास डालना ही सब प्रकार से श्रेयस्कर है।

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विशिष्ट क्षमताओं हेतु अन्तः परिशोधन अनिवार्य

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“राष्ट्रीय पूर्वाभास विभाग।” यह अतीन्द्रिय क्षमता संबंधी न्यूयार्क, अमेरिका में शोधशाला का वह प्रभाग है, जिसमें घटना से पूर्व उसका सही-सही आभास कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इस पर अनुसंधान कार्य चल रहा है। संस्था के संस्थापक एवं निदेशक डब्ल्यू ई. कॉक्स ने इसी संदर्भ में अपनी एक आत्मकथा लिखी है। इसके “प्रिकॉगनीशन बिफोर इन्सिडेन्स” अर्थात् घटना से पूर्व पूर्वाभास नामक अध्याय में ऐसी ढेरों घटनाओं का वर्णन है, जिनकी उन्हें घटना से पूर्व ही जानकारी मिल जाती थी।

ऐसी बात नहीं कि वे कोई अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न व्यक्ति हों। थे तो वे सामान्य व्यक्ति ही, फिर घटनाओं का पूर्वाभास कैसे हो जाता था? इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि कुछ अनहोनी होने से पहले ही उन्हें स्वतः इसकी अन्तःप्रेरणा हो जाती थी। यह प्रश्न किये जाने पर ही क्या हर कोई इस प्रकार की अन्तःप्रेरणा प्राप्त कर सकता है? सकारात्मक उत्तर देते हुए भी लिखते हैं कि अवश्य ही ऐसा संभव है, पर इसके लिए जीवनकाल में, चिन्तन चेतना और भावना में तनिक परिवर्तन करने, उन्हें उच्चस्तरीय बनाने की आवश्यकता है। ऐसा बन पड़ने पर यह संभव है अपने दीर्घ अनुभव के आधार पर वे लिखते हैं।

इस निष्कर्ष पर वे इसलिए पहुंचे हैं क्योंकि वे स्वयं एक सन्त-सज्जन पुरुष हैं। अपनी आत्मकथा में इस आशय का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उत्तरार्ध जीवन में उन्होंने किसी व्यक्ति को कोई हानि पहुँचायी हो, यह बात तो दूर, उनने ऐसा विचार भी किया हो, अथवा कभी कटु वाणी का प्रयोग किया हो, ऐसा कोई प्रसंग किसी को स्मरण नहीं है। अपनी पुस्तक “माइ लाइफ एण्ड दि ग्रेस ऑफ प्रोविडेंस” में जीवन की एक आरंभिक घटना का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि जब एक ट्रेन दुर्घटना का शुरू में मुझे पूर्वाभास हुआ, तो मैंने इसे मन का भ्रम मात्र माना, पर कुछ दिन बाद जब वह दुर्घटना सचमुच घटित हुई तभी मुझे अपनी मनःशक्ति पर विश्वास हो सका।

वे कहते हैं कि इस घटना के बहुत दिनों तक सब कुछ सामान्य रहा। पूर्वाभास अथवा अन्तः प्रेरणा जैसी कोई विशेष घटना नहीं घटी। इसका आत्मविश्लेषण करते हुए वे लिखते हैं कि संभवतः ऐसा उनकी तामसिकता की ओर रुझान के कारण हुआ हो, क्योंकि इन्हीं दिनों कॉक्स अपने एक मित्र की बुरी संगत में पड़ गये थे। शराब और माँस भोजन के अभिन्न अंग बन गये थे और देर रात तक क्लबों में समय बिताना एवं महिलाओं के साथ नृत्य करना यही उनका नित्य का कार्यक्रम था।

एक दिन उनके एक परिचित ने उनकी यह दुर्दशा देख कर कहा “कॉक्स! तुम कहाँ थे और कहाँ पहुँच गये। क्या तुम्हारे दिवंगत माता-पिता को तुम्हारी यह दशा देख कर कष्ट नहीं पहुँच रहा होगा?”

वे लिखते हैं “यह वाक्य क्या थे, दिन-रात मेरे मर्म को काँटे की तरह चुभते रहते थे और मैं छटपटाता रहता था अपनी बुराइयों से त्राण पाने के लिए। बड़ी मुश्किल से धीरे-धीरे कर मैं अपनी बुराइयों से छुटकारा पा सका। जब पूर्णरूपेण मैंने उन पर विजय प्राप्त कर ली, उच्च जीवन की ओर अग्रसर हुआ, तो मुझे इतनी खुशी हुई, जितनी शायद नेपोलियन को आल्पस विजय पर भी न हुई हो। इसी के बाद से मेरी खोयी क्षमता पुनः प्राप्त हो गई और फिर मुझे घटनाओं का नियमित रूप से पूर्वाभास होने लगा।”

यह कॉक्स की आत्मकथा पुस्तक से उद्धृत कुछ अंश हैं, जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि यदि आत्मशोधन कर अपनी भाव संवेदनाओं को परिष्कृत और उच्चस्तरीय बना लें, तो वह भी पूर्वाभास की क्षमता को अर्जित कर सकता है इसमें जरा भी संदेह नहीं है।

----***----

मधु-संचय

धर्म ध्वजा का अभिनंदन

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ओ धर्म की पताका! फहरो धरा-गगन में।

उड़ती हो गन्ध भीनी, ज्यों दूर तक चमन में॥

तू प्राण विश्व का है, अभियान विश्व का है,

उज्ज्वल भविष्य का तू, अनुमान विश्व का है,

उल्लास मिल सकेगा, तेरे ही अनुकरण में।

उड़ती हो गन्ध भीनी, ज्यों दूर तक चमन में॥

फैला जहर हवा में, धरती पे, आसमाँ में,

आशा बची है केवल, इस धर्म की ध्वजा में,

तम का मरण छिपा है, ज्यों भोर की किरण में।

उड़ती हो गन्ध भीनी, ज्यों दूर तक चमन में॥

कल्मष न कल मिलेगा, मानव सरल मिलेगा,

टूटेगा भ्रम जनम का, कर्मों का फल मिलेगा,

लहरा के भाव भर दो, तुम यह हरेक मन में।

उड़ती हो गन्ध भीनी, ज्यों दूर तक चमन में॥

आलस्य रह न पाए, अन्याय सह न पाए,

पाखण्ड-दम्भ-शोषण, भू पर जगह न पाए,

समता रहे सभी में, औरों में और स्वजन में।

उड़ती हो गन्ध भीनी, ज्यों दूर तक चमन में॥

नारी सुवंद्य होवे, पावन सुगन्ध होवे,

संकीर्ण सरहदों में, वह अब न बन्द होवे,

हर पंथ पर प्रगति के, हो प्रेरणा नयन में।

उड़ती हो गन्ध भीनी, ज्यों दूर तक चमन में॥

युवा शक्ति जाग जाए, हर व्यक्ति जाग जाए,

सद्वृत्ति के लिए फिर, अनुरक्ति जाग जाए,

फैले उदारता फिर, प्रत्येक आचरण में।

उड़ती हो गन्ध भीनी, ज्यों दूर तक चमन में॥

नव चेतना जागेगी, संवेदना जागेगी,

कल्याण को सभी के, भागीरथी बहेगी,

डूबेगी फिर कोई, असहाय अश्रु-कण में।

उड़ती हो गन्ध भीनी, ज्यों दूर तक चमन में॥

ओ धर्म की पताका फहरो धारा-गगन में॥

-शचीन्द्र भटनागर

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प्रार्थना याचना नहीं, ईश्वर आराधना है।

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भगवद् करुणा को जिस माध्यम से क्रियाशील बनाया जाता है, वह प्रार्थना है, पर प्रार्थना में न तो भिखमंगेपन का भाव होना चाहिए, न आलस-अकर्मण्यता का। वह तो अरण्य-रोदन की वह पुकार है, जिसमें प्रार्थी बिल्कुल अकेला-असहाय महसूस करने लगता और किंकर्त्तव्यविमूढ़ बन जाता है। यह ठीक है कि सारी सृष्टि परम पिता की बनायी हुई है, हम उसकी सन्तान हैं और संतान पर जब विपत्ति आती है, तो वह पिता को ही याद करता है, इसमें अनुचित-अनुपयुक्त जैसी कोई बात भी नहीं है, पर आज उसका जो स्वरूप है, वह अनुचित अवश्य है। बालक जब छोटा होता है, अबोध-अशक्त होता है, तब तक पिता उसका अपनी ओर से विशेष ध्यान रखता है, किन्तु जैसे-जैसे समर्थता और यौवन की ओर बढ़ता है, वह धीरे-धीरे हाथ खींचने लगता है और जब पूर्ण वयस्क बन जाता है, तो उसे अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए छोड़ देता है। यह आवश्यक है और अभीष्ट भी। यदि पिता ऐसा न करे तो दैनिक जीवन में आने वाली झंझटों, समस्याओं का समाधान करने की हिम्मत न तो वह जुटा सकेगा, न उन्हें सुलझाने में उसकी विवेक-बुद्धि ही काम कर सकेगी। जीवन के संग्राम से जूझते हुए ही मनुष्य ठोस, मजबूत और ऐसे रूप में विकसित हो पाता है, जिसमें वह धैर्यपूर्वक उसका सामना करते हुए अपनी स्वतंत्रता, विवेक-बुद्धि का सही-सही इस्तेमाल कर सके, पर ऐसी बात भी नहीं कि नौका मझधार में फँस जाने पर पिता किनारे खड़ा-खड़ा तमाशा देखता रहे। सहायक की याचना पर वह उसे संकट से उबार भी लेता है। प्रार्थना की पुकार ऐसे ही अवसरों पर होती है और तब सहायता के लिए भगवान भी दौड़े चले आते हैं।

किन्तु यदि हर छोटी-छोटी बात पर किसी व्यक्ति से बार-बार सहायता की याचना की जाय, तो वह याचक सहायक की दृष्टिं में गिर जाता है और उपेक्षणीय साबित होता है। भगवान के दरबार में भी यही नियम लागू होता है। आज हम प्रार्थी कम याचक अधिक हो गये हैं। हमारी प्रार्थना, प्रार्थना न होकर याचना बन गई है। हम बात बात पर भगवान के आगे गिड़गिड़ाते हैं, हाथ फैलाते हैं। कोई नौकरी के लिए मनुहार करता है, कोई बीमारी से त्राण पाने के लिए तो कोई उससे रुपये-पैसे एवं ऐसे ही बे सिर पैर की मनोकामना-शान्ति की, विनती करता है। यह तो हम दैनिक जीवन में भी देखते हैं कि श्रमिक वर्ग जब उचित-अनुचित का विचार किये बिना हर किसी माँग पर जोर देने लगता है, तो मालिक उसकी उपेक्षा कर देता है। यह अनुचित भी नहीं है, क्योंकि जो उसका हक बनता ही नहीं, उसे कोई क्यों स्वीकारेगा? पर यह भी नहीं है कि मालिक श्रमिक के अधिकार-क्षेत्र में आने वाली माँग को नकार दे।

हम प्रार्थना तो करें पर भिखारी न बने, हम याचना तो करें, पर साथ ही उचित-अनुचित का ध्यान भी रखें। जहाँ हमारी बुद्धि, जहाँ हमारा परिश्रम-प्रयास सब कुछ निष्फल-निरर्थक साबित होता हो, विवेक काम नहीं करता, चहुँ ओर अंधकार ही अंधकार दिखाई देता हो, वहीं हमें परम पिता के आगे हाथ पसारने का, कुछ माँगने का अधिकार है, अन्य अवसरों पर तो हमारी प्रार्थना स्वार्थ रहित ही होनी चाहिए। हम भगवान से सन्मार्ग की सद्बुद्धि की, श्रद्धा की, भक्ति की, सहिष्णुता की प्रार्थना स्वयं अपने लिए और दूसरों के लिए करें। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि देह यष्टि को सुन्दर, स्वस्थ, सबल और सशक्त बनाये रखने के लिए जिस प्रकार स्थूल आहार की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार आत्मिक विकास के लिए भगवद्-स्मरण अथवा प्रार्थना की जरूरत पड़ती है। वह हमारी आत्मा का आहार है। हम जिसके उपहार हैं, यदि उसका ही कृतज्ञता-ज्ञापन न करें तो इससे बड़ी कृतघ्नता और क्या हो सकती है वे प्रायः कहा करते थे।

इस संदर्भ में यहाँ उनके एक संस्मरण का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। एक बार वे खादी प्रचार हेतु आन्ध्र प्रदेश के चिकाकोल स्थान की यात्रा पर थे। कई दिनों के उपरान्त जब वे उक्त स्थान पर पहुँचे, तो रात हो चुकी थी। थक भी काफी गये थे, अतः उपस्थित लोगों से औपचारिक मिलन के बाद वे सोने चले गये। बिस्तर में लेटते ही नींद आ गई। वे कब सो गये कुछ पता ही न चला। दो बजे रात जब उनकी नींद खुली, तब प्रार्थना की विस्मृति का भान हुआ। वे पश्चाताप करने लगे। भगवान से बार-बार क्षमा माँगने लगे कि जिसकी परम कृपा के कारण श्वास-प्रश्वास चल रही है, शरीर जीवित है, जीवन का सदुपयोग बन पड़ रहा है, उसे ही भुला दिया, विस्मृत कर दिया। हे प्रभो! माफ करना। अब आगे ऐसी गलती न हो, इससे बचाना! वे लिखते हैं कि उस रात फिर उन्हें नींद न आयी, जागते हुए बीत गई।

स्पष्ट है वे प्रार्थना को जीवन की नित्य नैमित्तिक क्रिया मानते हैं। रवीन्द्र नाथ ठाकुर इस संबंध में एक स्थान पर लिखते हैं कि “हे भगवान! विपत्ति से मेरी रक्षा करो, यह मेरी प्रार्थना नहीं है और न मैं तुम से व्यथित चित्त की शान्ति-साँत्वना की भिक्षा माँगता हूँ। पर इतना अवश्य करना कि मैं दुःखों को जीत सकूँ। यदि मुझे कोई सहायक न मिले तो कोई बात नहीं, पर हे सर्वेश्वर मेरा अपना आत्मबल न टूटे, इसका ध्यान रखना। मेरे इर्द-गिर्द, विनाश और वंचना का भीषण नर्तन चलता रहे, फिर भी मैं हार न मानूँ, तुम्हें याद कर लक्ष्य की ओर बढ़ता रहूँ-इतनी भक्ति देना।”

प्रार्थना ऐसी होनी चाहिए। यही सही श्रेणी में आती भी है। शेष तो सब याचना है, क्षुद्र स्वार्थ है, जिनकी पूर्ति तो हम अपने बलबूते भी परिश्रम और पुरुषार्थ के सहारे कर सकते हैं, फिर इनके लिए परमसत्ता के आगे गिड़गिड़ाना कैसा! और यदि कोई ऐसा करता भी है, तो भगवान उसे सुनेगा ही क्यों? क्योंकि इस हेतु तो उसे इतनी सामर्थ्य और विवेक बुद्धि दी है कि उसके आगे इन तुच्छ कारणों के लिए हाथ फैलाने की आवश्यकता ही न पड़े। मनुष्य स्वयं ही उन्हें हल कर सकता है, अन्यथा उसकी सर्वोपरि कृति का अर्थ ही क्या रह जायेगा, जब वह भी हर छोटी-छोटी बात के लिए स्रष्टा का मुँह तके। फिर उसकी और असमर्थ-अशक्त कहे जाने वाले मानवेत्तर प्राणियों में अन्तर ही क्या रह जायेगा। भगवान ने उसे इतनी विकसित बुद्धि, हाथ-पैर एवं समर्थ अंग-अवयव इसीलिए तो दिये हैं कि वह जटिलताओं का धैर्यपूर्वक सामना कर सके। फिर भी यदि कोई इतनी जटिल परिस्थिति सामने आ ही जाय कि सिवाय भगवद् सत्ता की सहायता के अन्य कोई विकल्प ही न रहे, उस पर भी हाथ पर हाथ धर कर भाग्य और भगवान के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए। भाग्य सिर्फ पुरुषार्थियों का साथ देता है और भगवान के बारे में यह सूक्ति प्रसिद्ध है कि ईश्वर केवल उन्हीं की सहायता करते हैं, जो अपनी सहायता आप करने के लिए तत्पर होते हैं। निकम्मे और निठल्लों से तो वे भी घृणा करते हैं, फिर चाहे वह कितनी ही मनुहार क्यों न करे।

कथा है कि एक गाड़ीवान एक बार एक गाँव से होकर गुजर रहा था। सामने ही दलदल था। गाड़ी वहाँ फँस गई। गाड़ीवान हनुमान भक्त था। वह जोर-जोर से हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। सोचा कि शायद हनुमान जी की कृपा हो जाय और गाड़ी कीचड़ से निकल जाय। वह बार-बार चालीसा दुहरा रहा था, एक बार दो बार-तीन बार, पर प्रतिफल कुछ निकल नहीं पा रहा था। सामने ही एक समझदार उसका यह कौतुक देख रहा था। उसने उसका असमंजस समझा और कहा “मूर्ख! हनुमान जी तो विशाल पर्वत को उखाड़ लाये थे, समुद्र फलाँगे थे, तो तेरी छोटी सी गाड़ी नहीं निकाल पायेंगे। उतर और धक्का लगा। देख तेरी गाड़ी निकलती है या नहीं।” उसने वैसा ही किया और गाड़ी दलदल से बाहर निकल आयी।

प्रस्तुत प्रसंग में हनुमान जी ने गाड़ीवान की सहायता की या नहीं, यह तो सही-सही नहीं कहा जा सकता, पर उस सच्चाई के यह काफी करीब है, जिसमें कहा गया है कि भगवान सिर्फ पुरुषार्थियों की ही पुकार सुनते और सहायता करते हैं। वर्तमान समय के व्यक्ति की मनःस्थिति से तो यह प्रसंग करते हैं, मेल खाता है। हम आज प्रार्थना तो करते हैं, पर साथ ही निष्क्रिय बने रहते हैं। क्रिया की सफलता के लिए स्वयं अपनी ओर से कोई परिश्रम करना नहीं चाहते, सोचते हैं कि सब कुछ भगवान ही करेंगे। और जब ऐसे लोगों की प्रार्थना निष्फल हो जाती है, तो नीत्से के शब्दों में उद्घोष करते हैं कि ईश्वर मर गया। संभवतः ऐसे ही अकर्मण्यों को देखते हुए विवेकानन्द ने कहा होगा कि प्रार्थना के विभिन्न प्रकारों में सर्वश्रेष्ठ वह है, जो होंठ की बजाय हाथ से की जाती है (विवेकानन्द साहित्य भाग 10, पृ. 291)। इसी का समर्थन करते हुए जार्ज मेरेडिथ अपने ग्रन्थ “दि आर्डील ऑफ रिचर्ड फेवेरल” (अध्याय 12) में लिखते हैं कि जो प्रार्थना से श्रेष्ठतर मनुष्य बन जाता है, समझना चाहिए कि उसे उसका फल मिल गया। यहाँ के समन्वय की ओर ही इशारा करते हैं कि हम कार्य में संलग्न भी रहें और ईश्वर से अपनी सफलता की, उपादेयता की, सदाशयता की कामना भी करते रहें।

प्रार्थना की चमत्कारी सामर्थ्य “यूनिटि” पत्रिका के अक्टूबर 90 अंक में एक मर्मस्पर्शी लेख प्रकाशित हुआ है। इसमें अन्यान्य प्रसंगों के अतिरिक्त प्रार्थना की वैज्ञानिकता पर भी प्रकाश डाला गया है। डॉ. लैरी डाँसी लिखते हैं कि प्रार्थना एक ऐसा अस्त्र है जिसकी परिणति प्रमाणित कर प्रयोगशाला में भगवान तक को सिद्ध कर दिखाया जा सकता है। सेनफ्रांसिस्को की यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया मेडीकल स्कूल की कार्डियालाजी फैकल्टी के अध्यक्ष डॉ. रेण्डॉल्फ बर्ड का हवाला देते हुए वे लिखते हैं कि चार सौ हृदय रोगियों में से आधों के लिए प्रार्थना का स्वरूप बनाया गया व आधों को कण्ट्रोल के रूप में देखा गया। पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका की विभिन्न धर्म संसदों के प्रतिनिधियों ने स्थान स्थान पर इनके स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना की। दो माह के बाद देखा गया कि जिस समूह के लिए प्रार्थना की गयी थी, वे जल्दी ठीक होते चले गए, उन्हें तीव्र एलोपैथिक दवाओं की जरूरत कम पड़ी, श्वास धारण करने की उनकी क्षमता बढ़ी तथा ई सी जी में परिवर्तन तेजी से होते चले गए। यह शोध लेख बाद में सदर्न मेडीकल जनरल के जुलाई 1988 के अंक में छपा। इसने कई चिकित्सकों का ध्यान प्रार्थना की शक्ति की ओर मोड़ा।

प्रार्थना तब और प्रभावशाली बन जाती है जब जिसके लिए प्रार्थना की जा रही है, उसे यह ज्ञात हो जाता है कि उसका हितैषी कोई उसके लिए, उसको स्वस्थ समुन्नत बनाने के लिए परमसत्ता से मदद माँग रहा है। ऊपर वाले अध्ययन में तो वैज्ञानिकता लाने के लिए रोगियों को बताया भी नहीं गया था व इतने बड़े व्यापक परिवर्तन फिजियोलॉजी में देखे गए। प्रार्थना की रोग हर क्षमता निश्चित ही विज्ञान सम्मत है व अपनाए जाने योग्य भी।

प्रार्थना न तो याचना है, न अकर्मण्यता से भरा कर्मकाण्ड। इसमें सन्मार्ग की, सद्बुद्धि की दूसरों के कल्याण की, सौहार्द-प्रेम भावना के विस्तार की भावना निहित हो तो निश्चित ही यह फलदायी होती है। कर्तव्य परायणता अपनी जगह अनिवार्य है किन्तु निष्काम भाव से प्रभु से सही मार्ग पर चलने की अनुकम्पा बरसाने की प्रार्थना तो दैनन्दिन जीवन का एक अंग होना चाहिए। परिणाम भी उसके उतने ही चमत्कृतियों से भरे पूरे होते हैं।

पारसी धर्म के संस्थापक जरस्थुस्त्र धनी पिता के पुत्र थे। पिता ने अपनी संचित सम्पदा सभी लड़कों में बाँटनी चाही।

जरस्थुस्त्र ने अपना हिस्सा लेने से इन्कार कर दिया और कहा वह भाइयों को ही दे दे। वे धर्म प्रचार करेंगे। जब पिता ने बहुत आग्रह किया तो उनने उनका कमरबन्द ले लिया और कहा आप जिस प्रकार कमर कस कर रहे वैसा ही मैं बन सकूँ इसकी स्मृति में यह मार्ग कर रहा हूँ।

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विधाता का ऐसा मजाक न उड़ाएँ

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बड़प्पन की महत्वाकाँक्षा मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अधिकाँश कार्य वह इसी से प्रेरित होकर यश और नाम हेतु करता है, जबकि होना यह चाहिए कि वह कर्तव्य के लिए कार्य करे, समाज निर्माण के लिए, समाज कल्याण के लिए काम करे, तभी सही अर्थों में उसका नाम अमर और काम सराहनीय कहा जा सकता है। किन्तु लोकेषणा का भूत आज लोगों पर इस कदर सवार है कि भला-बुरा, उपयोगी-अनुपयोगी का तनिक भी विचार किये बिना, जिससे उनके नाम का विज्ञापन होता हो, वही कार्य करने लग जाते है।

ऐसा ही एक व्यक्ति है फ्राँस का मिशेल लानीतो। आज-कल इसके कारनामों की धूम न सिर्फ फ्रांस में वरन् विश्व भर में मची हुई है और “जहाज निगलने वाले दैत्य” के उपनाम से प्रायः इसे पुकारा जाने लगा है। जब इसकी उम्र नौ वर्ष की थी, तभी से अजीबोगरीब अखाद्य वस्तुएँ खाने को इसकी लत पड़ गई। वह कीलें, छुरियाँ, काँच सभी देखते-देखते निगलने लगा। इन्हें देखते ही इसके मुँह में पानी आने लगता था। माता-पिता की आँख बचा कर घर में जब भी कोई धात्विक वस्तु, काँच, लकड़ी दिखाई पड़ती, तुरन्त पेट के अन्दर। माता पिता अपने पुत्र की इस विचित्र आदत से परेशान होकर उसके डाक्टरी परीक्षण के लिए एक विशेषज्ञ के पास ले गये, यह सोच कर कि शायद कोई उपाय उपचार निकल आये और इसके कारण उसका जीवन संकट में पड़ने से बच जाये, किन्तु वहाँ तो तथ्य ही कुछ और निकला। पता चला कि उसके पेट में तो धातु-काँच जैसी कोई चीज ही नहीं है। बाद में गहन परीक्षण से यह ज्ञात हुआ कि उसमें प्रतिदिन एक किलो से भी अधिक धातु पचाने की अद्भुत क्षमता है। अभी उसकी 40 वर्ष की आयु है, और इस उम्र तक में वह अनेकों तश्तरियाँ, फावड़े, खुरपी, बोतलें, ब्लेड पूरी की पूरी अनेक साइकिलें, कूड़ादान, ताबूत उदरस्थ कर चुका है। सन् 1978 में उसने टू-सीटर एक छोटा हवाई जहाज खाना शुरू किया तो दो वर्ष के भीतर-भीतर उसे पूरी तरह समाप्त कर दिया।

इस संदर्भ में उससे जब एक फ्राँसीसी पत्रकार ने इण्टरव्यू लिया, तो उसका कहना था कि वह यह सब कीर्तिमान के लिए कर रहा है और ऐसा तब तक करता रहेगा, जब तक वह इतिहास में अद्वितीय न साबित हो जाय।

आज से पाँच वर्ष पूर्व इंग्लैण्ड के नाटिंघम शहर की नैन्सी नामक एक किशोरी सिर्फ 10 पाउण्ड की खातिर डेढ़ किलो की एक लोहे की गेंद निगल गई। उन दिनों वहाँ के अखबारों में इस घटना की बड़ी चर्चा थी।

न्यूयार्क में माइकल क्राफ्टन नामक एक युवक है। वह जिस मुहल्ले में रहता है, वहीं कुछ दूर पर एक बड़ा सा कूड़ादान है। उसमें उसने अपने नाम का एक इश्तहार लिख छोड़ा है, जिसमें आस-पास के लोगों से आग्रह किया गया है कि वह अपने बेकार पॉलीथिन बैग को कूड़ेदान में न डाल कर उसके घर पहुँचाने का कष्ट करें। बस फिर क्या था उसका एक बड़ा सा कमरा इसी से भर गया है। लोगों ने जब पूछा आखिर ऐसा क्यों? तो उसका जवाब था “मुझे कूड़ा खाने में आनन्द आता है। अब तक कोई सौ ऐसे बैग वह खा चुका है। बड़ा विचित्र है यह मनुष्य जिसका पेट एक प्रकार का ट्रेण्चिग ग्राउण्ड है।”

एक महिला के पेट से दर्द की वजह से हुए आपरेशन के बाद मुड़ी लोहे की पिनें तथा एक महिला के पेट से बालों का गुच्छा निकला। दोनों को ही इन चीजों को खाने का शौक था। इसे मेडीकल साइंस में एक प्रकार की बीमारी कहा जाता है।

इन सब विवरणों से व्यक्ति विशेष को कोई सामयिक सस्ती वाहवाही भले ही मिल जाय पर कर्ता का, व समाज का इनसे कोई भला नहीं होता। उलटे स्रष्टा की इस कृति से किये जा रहे खिलवाड़ से विधाता का मजाक और उड़ता है। ऐसे नाटक अब बन्द होने चाहिए।

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समग्र सिद्धि दात्री महाकुण्डलिनी

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मानवीय प्रगति के तीन प्रधान आधार हैं आकाँक्षा, विचारणा और क्रिया। इन्हीं तीनों के विकास के आधार पर मनुष्य में प्रसन्नता, तत्परता और श्रमशीलता उत्पन्न होती तथा प्रगति पथ पर आगे धकेलती सफलता के द्वार तक ले जाती है। इसका सारा रहस्य कुण्डलिनी महाशक्ति के भीतर छिपा पड़ा है जिसके जागरण का मूल गायत्री महामंत्र में सन्निहित है। गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। इसके तीन चरण ही कुण्डलिनी के तीन लपेटे हैं और गायत्री की तीन धाराओं का प्रतिनिधित्व कुण्डलिनी-शक्ति प्रवाह के तीन सूक्ष्म नाड़ी- पथ करते है जिन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना स्थल कहा जाता है। त्रिदेवों, त्रिशक्तियों का निवास स्थल यहीं है। प्रज्ञावान साधक इन्हीं में ध्यान रमाते हैं और भौतिक ऋषियों एवं आत्मिक विभूतियों के स्वामी बनते हैं।

आद्य शक्ति में आकाँक्षा, विचारणा और क्रिया अर्थात् साधन-उत्पादन की तीनों क्षमताएँ विद्यमान हैं। मानव जीवन की इन मूल क्षमताओं का विकास ही कुण्डलिनी महाशक्ति की साधना है। इन्हें ही इच्छा शक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का विकास कहा गया है। देवी भागवत् में उल्लेख है “इच्छाशक्तिश्च भूःकारः क्रियाशक्तिर्भुवः तथा। स्वः कारः ज्ञानशक्तिश्च भूर्भुवः स्वः स्वरूपकम।” अर्थात् भूर्भुवः और स्वः ये तीन व्याहृतियाँ क्रमशः इच्छा, क्रिया और ज्ञानशक्तियों का स्वरूप है। इसी में आगे कहा गया है कि ज्ञानशक्ति सात्विक, क्रियाशक्ति राजस और द्रव्यशक्ति तापस होती है। इन्हें ही प्रकृति की तीन महाशक्तियाँ-महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली कहते हैं। अध्यात्मशास्त्रों में इन्हीं तीनों महाशक्तियों की साधना करने का निर्देश है। इन परम वैभवों की उपलब्धि जिस साधना उपक्रम को अपनाने से होती है, उसे ही कुण्डलिनी महाशक्ति का जागरण कहते हैं। अध्यात्म क्षेत्र का परम पुरुषार्थ भी यही है।

कुण्डलिनी महाशक्ति का स्वरूप क्या है तथा उसकी प्रसुप्ति को जागृति में बदलने के लिए किन साधना उपक्रमों का आश्रय लेना पड़ता है आदि रहस्यों का उपनिषदों तथा योगशास्त्रों में विस्तारपूर्वक वर्णन है। इसके स्वरूप का उल्लेख करते हुए महायोग-विज्ञान में कहा गया है “आत्मशक्ति कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में साढ़े तीन कुण्डलिनी लगाये हुए सर्पिणी की तरह शयन करती है। जब तक वह सोती है, तब तक मनुष्य पशुवत बना रहता है। बहुत प्रयत्न करने पर भी तब तक उसे ज्ञान नहीं हो पाता। जिसकी यह आधार शक्ति सो रही है उसका सारा संसार ही सो रहा है,पर जब वह जागती है तो उसका भाग्य और संसार ही जाग पड़ता है। बिजली जैसी चमक वाली पंच तत्वों एवं पंच प्राणों की माता। परम चेतना, ज्ञान शक्ति तथा क्रिया शक्ति कुण्डलिनी, योग साधना से जाग्रत होती है। कर्मों की सफलता इसी के जागने से प्राप्त होती है। अतएव उस महाशक्ति को जगाने के लिए प्रबल प्रयत्न करना चाहिए।”

घेरण्ड संहिता 6/16/18 में कहा गया है।

मूलाधारे कुण्डलिनी भुजंगाकार रुपिणी।

जीवात्मा तिष्ठति तत्र प्रदीप कलिकाकृतिः।

बहुभाग्य वशाद्यस्य कुण्डली जाग्रत भवेत्।

अर्थात् मूलाधार चक्र में सर्पिणी आकार की कुण्डलिनी शक्ति है जो दीपक की लौ जैसी दीप्तिमान है। वही जीवात्मा का निवास है। जिसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाये उसे बड़ा सौभाग्यशाली मानना चाहिए।

शिव संहिता के अनुसार-

सुप्ता नागोपमाहयेष स्फुरन्ती प्रभवा स्वया।

अहिवत् संधि संस्थाना वाग्देवी बीज संज्ञका।

श्रेया शक्तिरियं विष्णोर्निभया स्वर्ण भास्करा॥

अर्थात् यह कुण्डलिनी शक्ति सप्त सर्पिणी के समान है। वही स्फुरणा, गति, ज्योति एवं वाक् है। यह विष्णु शक्ति है। स्वर्णिम सूर्य के समान दीप्तिमान है।

योग वशिष्ठ में इसे रस भावना से ओतप्रोत बताते हुए महर्षि वशिष्ठ श्रीराम से कहते हैं-

सवित्तिःसेव-यात्यंग रसाद्यन्तं यथाक्रमम्।

रसेनापूर्णतामेति तंत्रोमार इवाम्बुना।

रसापूर्णा यमाकारं भावयत्याशु तलथा।

धन्ते चित्रकृतो बुद्धो रेखा राम यथा कृतिम॥

अर्थात् यह कुण्डलिनी शक्ति रस भावना से ओतप्रोत है। उसके जागृत होने पर मनुष्य रस भावनाओं से ऐसे भर जाता है जैसे पानी भरने से चमड़े का चरस। यह रसिकता भाव संवेदना अनेक कलाओं के रूप में विकसित होते हुए जीवन को रससिक्त बना देती है। “रसौ वै सः” इसी स्थिति को कहा गया है।

महायोग विज्ञान में इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं “इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मासौ तेजोरुपा सर्व विश्व प्रवर्तिनी “ अर्थात् तेजस्वरूप कुण्डलिनी जाग्रत होने पर साधक की इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति को प्रखर बनाती है। सम्पूर्ण शरीर पर उसका प्रभाव दीखने लगता है। प्रसुप्त मन्त्रमय जगत एवं विश्वात्म ज्ञान जाग्रत हो उठता है। विश्व का प्रवर्तन करने वाली कुण्डलिनी साधक को अनेक गुना शक्ति सम्पन्न बना देती है।

कुण्डलिनी जागरण के प्रतिबल से परिचित होने पर साधक उसके लिए साधना प्रयास आरंभ करता है और उस परम पुरुषार्थ का समुचित लाभ प्राप्त करता है जिसका उल्लेख शक्ति तंत्र में किया गया है। उसके अनुसार “कुण्डलिनी महाशक्ति के प्रयत्न से ही यह सारा संसार व्यापार चल रहा है, जो इस तथ्य को जान लेता है, वह शोक संतप्त भव बंधनों से बँधा नहीं रहता।”

मानवी काया में विद्यमान इस परम वैभव की उपलब्धि के दो मार्ग अध्यात्मवेत्ताओं योग विद्या विशारदों पर आध्यात्मिक और तंत्र के आधार पर भौतिक उन्नति का पथ प्रशस्त होता है। कुण्डलिनी जागरण में उभयपक्षीय संभावनायें सन्निहित है। यह दोनों ही प्रयोजन उससे सिद्ध होते हैं। गाड़ी के दो पहिये, पक्षी के दो पंख, मनुष्य के दो हाथ मिलकर जिस तरह उनकी क्षमता को मूर्तिमान बनाते हैं, उसी प्रकार कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया जीवन के दोनों पक्षों को समुन्नत बनाती है। हठयोग प्रदीपिका में इसी तथ्य को इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है।

सशैलवन धात्रीणाँ यथाधीराऽहिनायकः।

सर्वेषाँ योगतन्त्राणाँ तथा धारोहि कुण्डली॥

सप्ता गुरु प्रसादेन यथा जागृति कुण्डली।

तदा सर्वाणि पद्मानि भिद्यंते ग्रथयोऽपिच॥

अर्थात् जिस प्रकार सम्पूर्ण वनों सहित जितनी भूमि है, उसका आधार शेषनाग है, उसी प्रकार समस्त योग साधनाओं का आधार भी कुण्डलिनी ही है। जब गुरु की कृपा से सोयी हुई कुण्डलिनी जागती है, तब सम्पूर्ण पद्म-षट्चक्र और ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं। इसी ग्रंथ के अगले श्लोकों 3/15 से 17 में कहा गया है कि जाग्रत होने पर ही यह कुण्डलिनी योगियों के मोक्ष का साधन बनती है और सोती रहने पर मूढ़ों के बन्धन का कारण बनी रहती है। इस रहस्य को जानने वाला साधक ही योगी होता है। जिस प्रकार कुँजी से किवाड़ खोले जाते हैं वैसे ही साधक कुण्डलिनी द्वारा मोक्ष द्वार को खोलते हैं।

महायोग सूत्र के अनुसार-अनन्त शक्तियों की भण्डार सुप्त सर्पिणी कुण्डलिनी अपने साधक का पालन और रक्षण करती है, सो मुक्ति के आकाँक्षी उसी की साधना करते हैं। प्राणवायु के द्वारा जाग्रत हुई यह कुण्डलिनी साधक के लिए सिद्धियों का आधार बनती है और उसे परमज्ञान प्रदान करती है। ऋग्वेद की ऋचा 10/125/5 में इस तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा गया है-

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्ट देवेभिरुत भानुषेभिः।

यं यं काम ये तं तमुग्रं कृणोभि तं ब्राह्मणं तमृषि तं सुमेधाम॥

अर्थात् “देवताओं और मनुष्यों को अभीष्ट प्राप्ति का मार्ग मैं ही बतलाती हूँ। जो मेरी विवेक सम्मत उपासना कर मुझे प्रसन्न करता है- जाग्रत करता है, उसे ही मैं प्रखर बनाती हूँ। ब्राह्मण, ऋषि तथा मेधावी बनाती हूँ।”

इन आप्त वचनों और शास्त्रीय कथनों से स्पष्ट है कि आत्मसत्ता में सन्निहित इस महाशक्ति की साधना से अधिक और भौतिक सिद्धियों का पथ प्रशस्त होता है और ऐसा अजस्र भण्डार जो अपने ही भीतर छिपा है, प्रकट हो जाता है क
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