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Magazine - Year 1994 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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भगवान दत्तात्रेय की तरह इन्हें गुरु बनाकर तो देखें

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मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना जात है। उसकी श्रेष्ठता का आधार अन्य प्राणियों की तुलना में नीति, सदाचार, धर्म, परोपकार एवं उदार सेवा- सहकारिता की भावनायें ही तो है। यदि मनुष्य ने इन्हें सुविकसित न किया तो उसमें और पशुओं में क्या अंतर रह सकता है। तब मनुष्य भी बिना सींग और पूँछ का पशु ही माना जायगा। सेवा-सहयोग की-सहकार की -प्रवृत्तियां तो ऐसी है जो विभिन्न पशु-पक्षियों में भी पायी जाती है। सूझ-बूझ उनमें भी है, अंतर केवल इतना है कि जहाँ मनुष्य ने बुद्धि के कारण इन्हें विकसित करने में सफलता अर्जित की, वही पशु-पक्षी अपने आदिम वर्ग की उसी श्रेणी में बने रहे जिनमें वे कभी जन्में थे। मनुष्य के लिए यह कलंक की ही बात मानी जायगी कि जग तुच्छ समझ जाने वाले पशु-पक्षियों में परोपकार, नैतिकता सदाचार ओर सहकार के सद्गुण मिलते हो और मनुष्य अनैतिकता की ओर बढ़ता जा रहा हों यदि कहाँ ईश्वर ने मनुष्यों की तरह इन जीव-जंतुओं को भी सोचने के लिए बुद्धि और विचार करने के संयंत्र प्रदान किये होते तो वे सेवा-सहायता एवं नैतिकता जैसे सद्गुणों की होड़ में मनुष्यों से भी कही आगे बढ़ गये होते। अनुसंधानकर्ता प्राण शास्त्रियों ने अपने अध्ययन में पाया है कि पशुओं में प्रगाढ़ मित्रता होती है और सामयिक व्यवधान आने पर भले ही कुछ समय के लिए टूट जाये, किंतु पुनः पहले जैसी मित्रता हो जाती है। उनमें गाठें नहीं पड़ती और न उनमें मनुष्यों के बीच लंबे समय तक चलने वाले ईर्ष्या, द्वेष, एवं मनोमालिन्य जैसी कोई बात होती है। फ्लोरिडा के वैज्ञानिक ने अपने एक अध्ययन में बताया है कि दो नर डाल्फिनों में गहरी दोस्ती थी। दोनों साथ रहते और समुद्र में तैरते थे, किंतु इसी बीच एक तीसरी मादा डाल्फिन उनके बीच आयी। उसे कौन अपनी ओर आकर्षित करे? उस मादा के ध्यानाकर्षण हेतु दोनों में अरसे तक एक दूसरे के प्रति प्राणघाती प्रतिद्वन्द्विता चलती रही। इस घटना के पटाक्षेप होने के पश्चात् जग वे दोनों डाल्फिन फिर मिले तो एक दूसरे को न केवल पहचानने लगे वरन् पुनः पहले जैसी दोनों की घनिष्ठ मित्रता हो गयी। दोनों साथ-साथ खेलने और तैरने लगे, मानों बीच में कुछ हुआ ही न हो। त्याग संसार का सर्वोपरि धर्म है जिस पर समस्त सृष्टि क्रम चल रही हैं। लेने और देने, पाने और छोड़ने के विश्व नियम को जो प्राणी जितना आत्मसात् कर सका, वह उतना ही विकसित हो पाया। त्याग और सहयोग का विधान अपार शक्तिशाली है, वह सब पर लागू होता है। स्वेच्छा से किया जाने वाला त्याग संतोष और शाँति प्रदान करता है। एक का त्याग दूसरे की प्राप्ति का वरदान है। जो त्याग नहीं कर सकता उससे प्राप्त करने का अधिकार छिन जाता है। पशु-पक्षी भी अपनी सीमित सामर्थ्य और योग्यता के आधार पर अपने संगी-साथियों, विपत्ति ग्रस्तों की सेवा सहायता करते पाये गये है। प्रकृति - वर्णन कारी सुविख्यात जीव विज्ञानी रिजबेक ने अपने कृति में सेवाभावी सिंहों का वर्णन किया है उनके अनुसार एक वयस्क सिंह का कन्धा बुरी तरह जख्मी हो गया था। शिकार करना तो दूर की बात, उससे उठा भी नहीं जा रही था, किंतु उसकी प्राणरक्षा साथ रहने वाले एक दूसरे सिंह ने की। वह उस घायल साथी के लिए तब तक शिकार लाता रहा जब तक कि वह स्वस्थ समर्थ नहीं हो गया।आज प्रगति की अंधी दौड़ में दूसरों को धक्का देकर आगे निकलने की होड़ में ही हर कोई मानव व्यस्त दिखायी देता है। दुष्टता और दुराचार की प्रवृत्तियां अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी है, ऐसी स्थिति में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्रणी कैसे कहा जा सकता है? सृष्टि के सारे जीव-जंतु एक ही ईश्वर की संतानें है, फिर क्यों न इन छोटे-छोटे प्राणियों से सेवा-सहयोग की शिक्षायें सीखकर अपने जीवन में उतारने का हम भी प्रयत्न करे। सुप्रसिद्ध जीवविज्ञानी

डब्ल्यू0 एच॰ थार्प के अनुसार मादा डाल्फिन अपना प्रसव एकाँत में करती हे,किंतु यदि बंदी अवस्था में उसे प्रसव करना ही पड़े तो उसकी सहेलियाँ इस आपत्ति में उसकी रक्षक बनती है, क्योंकि प्रसव करती हुई मादा को देखकर नर डाल्फिन मरने - मारने पर उतारू हो जाता है। उसकी उत्तेजना से मादा को बचाने के लिए कई मादायें एकत्र होकर एक मजबूत रक्षा कवच बना लेती हैं जिसका बेधन कर सकता नर के बूते से बाहर होता है। जच्चा-बच्चा दोनों की देख-रेख मादा डाल्फिन ही किया करती है। नवजात शिशु केवल जन्म देने वाली माँ का ही नहीं, वरन् सबका बच्चा माना जाता है। जब नवजात शिशु पहली बार साँस लेने जल की सतह पर आता है तो माता के साथ तैरने वाली दूसरी मादायें ठीक बच्चे के नीचे इस प्रकार से तैरती है मानों वह उसे बचाने की पूरी-पूरी तैयारी में ही तैर रही हो। यह सुरक्षा क्रम तब तक चलता है जब तक बच्चा स्वयं तैरना नहीं सीख जाता। औजारों का प्रयोग करना ओर उन्हें सुरक्षित रखना मनुष्य ही नहीं, पशु भी जानते हैं। कैलीफोर्निया का ऊदबिलाव विचित्र ढंग से शिकार करता है। यह घोंघे जैसे कड़े आवरण वाले समुद्री जीवों का शिकार करता है इनके कठोर आवरण को हटाने में उसे पत्थर से तोड़ना पड़ता है । समुद्र तट पर घूमते हुए ज्यों ही उसकी नजर घोंघे तोड़ने के अपने काम लायक किसी पत्थर पर पड़ी, वह उसे उठा लेता है और उसे लेकर सीने से सटाते हुए गहरे पानी में गोता लगाता है। जग शिकार सहित पानी से बाहर आता है तब उसी पत्थर से ठोंक-पीट कर अपना खाद्य खा लेता है। अखाद्य आवरण आदि को फेंक देता है। किंतु पत्थर को पकड़े दुबारा डुबकी लगाता है और नये खा? को पुराने पत्थर से तब तक चुनता और खाता रहता हे जब तक उसका पेट नहीं भर जाता। इतनी समझदारी उसमें है। व्यक्ति चाहे सज्जन हो या दुर्जन, भले या बुरे किसी भी कार्य को संपन्न कर सकने में हर मनुष्य को संतुलित व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है। दुर्जन व्यक्ति को दृष्टि से गये-गुजरे होते हैं परिणाम स्वरूप सहा असंतुलित ही बने रहती हे और तद्नुरूप ही उनके कार्य भी होते हैं संघर्षों में भी जो जितना संतुलित रह सका, वह अपने लक्ष्य की ओर उतना ही अग्रसर हो सकेगा। व्यक्ति को अपनी मनःस्थिति योगी की बनानी होती है उसे स्मरण रखना पड़ता है कि वह विश्व रंगमंच पर एक कलाकार की भूमिका संपादित कर रहा है। उसकी मनोदशा एक खिलाड़ी समय आक्रामक भले ही दीख पड़ते हैं किंतु उनका उद्देश्य खेल ही होता है। वे खेल में न तो विपक्षी को मारते हैं और न चोट पहुँचाने का प्रयास ही करते हैं जबकि चोल में वे गुत्थमगुत्था तक हो जाते हैं, भागते, लकुकते-छिपते, चिल्लाते, मर्राते और एक दूसरे पर दाँत पंजा चलाने दिखाई पड़ते हैं। पशुओं का गया गुजरा भले ही माना जाता हो, किंतु उनके गुणों का लोहा तो हमें मानना ही पड़ेगा। ‘स्वामिभक्त’ एवं ‘वफादार’ शब्द सुनते हो वरवश कुत्तों की सुकृति ही आती है। जो कुत्ता अपने पालनकर्ता के फेंके गये चंद टुकड़ों पर जिंदगी बसर कर रहा हो, समय आने पर अपने प्राणों का मोह लेकर वह कहाँ कर्तव्यच्युत होता है? ऐसे अनेकों गुण है जिनमें मनुष्येत्तर प्राणी हमसे कही आगे है। उन्हें प्रकृति ने ऐसी सूझबूझ दी है कि बिना किसी शिक्षा-दीक्षा के इतना सुन्दर सुव्यवस्थित जीवन यापन करते हैं कि उनकी सुरुचि, अनुशासनशीलता, साहसिकता, बुद्धिमता और अतीन्द्रिय सामर्थ्य पर आश्चर्यचकित रह जाता पड़ता है। नकुल-नेवला परिवार का एक सदस्य है मीरकैट, जिसे “स्टिकटेल्स” या लकड़पुच्छा के नाम से भी जाना जाता है, अपने पारस्परिक स्नेह सद्भाव एवं साहसिक कारनामों के लिए बहुत ही प्रसिद्ध है। अफ्रीका के कालाहारी मरुस्थल में रहने वाला यह प्राणी जीवन की तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी उत्साह और उमंगों के बलबूते अपने अस्तित्व को बनाये हुए है उसका सामूहिक जीवन मनुष्य के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है। प्राणि विशेषज्ञों के अनुसार इन प्राणियों का जीवनक्रम स्वार्थपरता का नहीं परमार्थ परायणता का होता है। ‘जियो और जीने दो’ तथा मिल−बांट कर खाने समुदाय के हर प्राणी के रोम-रोम में रम चुका है। भोजन को वे कभी अकेले ही नहीं चट कर जाते, वरन् अन्य स्वजनों को साथ लेकर मिल−बांट कर ही खाते हैं। अपने लिए कठोर और दूसरों के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण रखने में ही उन्हें जीवन की सार्थकता नजर आती है। कोई भी मीरकैट जब कभी किसी संकटग्रस्त परिस्थितियों में फँस जाता है तो वे आपस में मिल-जुलकर उसका साहस के साथ सामना करते और उससे बच निकलने में समर्थ होते हैं। मादा जब गर्भकाल से गुजर रही होती है तो अन्य सक्षम सदस्य उसकी आहार व्यवस्था जुटाते और सुरक्षा आदि का प्रबंध पूरी तरह करते पाये गये है। उनकी एकता, समता, सहिष्णुता और साहसिकता की भावनायें मनुष्य से कही अधिक बढ़ चढ़कर पायी जाती है। आततायियों के प्रतिरोध-आक्रोश की भावना केवल मनुष्यों में ही नहीं पायी जाती, वरन् प्रकृति जगत के ये नन्हे से सूरमा भी अनीति का डटकर मुकाबला करते हैं। सामान्यतः कमजोर जानवर ताकतवर जानवर से भयभीत हो जाते हैं और डर कर या तो भाग जाते हैं अथवा आत्म समर्पण कर देते हैं, परन्तु मीरकैट ऐसी परिस्थितियों में गजब की साहसिकता और समझदारी का परिचय देते हुए आततायी का डटकर मुकाबला करते हैं। तब कोई भी सबल आक्रान्त उन पर आक्रमण करने को उतारू होते हैं तो वे सभी एक जुट होकर उस पर टूट पड़ते हैं। घेराव की स्थिति में वे एक दूसरे से सटकर खड़े हो जाते हे और आक्रमणकारी पर एक साथ झपट्टा मारते और उसे खदेड़ कर ही छोड़ते हैं। शरीर बल के धनी नर-नकुल अपने छोटे-छोटे परिजनों की रक्षा हेतु पंक्ति के दोनों छोरों पर सदा तैनात मिलेंगे। यदि सेना की भाँति एकत्रित और संगठित न रहे होते तो संभवतः कुछ की दिनों में उनका अस्तित्व कब का समाप्त हो गया होता। लेकिन सहयोग और सामूहिकता की प्रवृत्ति के कारण वे क्षुद्र होते हुए भी सुरक्षित और व्यवस्थित जिंदगी जीते हैं और उनका अस्तित्व भी उतना ही सुरक्षित बना हुआ है। प्रकृति ने सभी प्राणियों की भावनाशील और कर्तव्य परायण बनाया है। हर प्राणी को उसकी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप ऐसे साधन दिये हैं जिनका वे भरपूर उपयोग करते और हँसी खुशी का जीवन जीते हैं यदि चतुरता का दंभ भरने वाला मनुष्य भी इन छोटे-छोटे प्राणियों से कुछ शिक्षा और प्रेरणा ग्रहण कर सके तो उसके सभी सांसारिक विग्रह देखते-देखते दूर हो जायँ।

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