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Magazine - Year 1994 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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धारावाहिक विशेष लेखमाला – 14 - युगपुरुष पूज्य गुरुदेव पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य - युगऋषि जिनने साधना सूत्रों को सरल

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अनेकानेक जाल-जंजाल से भरी, कई प्रकार के निग्रहों-निषेधात्मक आदेशों से युक्त साधना विज्ञान की पुस्तकों को देखकर आज के युग के किसी भी व्यक्ति को लग सकता है कि ये सब उसके लिए नहीं है। कोई देवलोक से विशिष्ट क्षमताएँ लेकर आया व्यक्ति ही यह कार्य कर सकता है, एक सामान्य व्यक्ति के लिए तो मात्र पेट-प्रजनन की जिंदगी जीकर जीवन किसी तरह काट देना भर हैं, यही तथ्य, सबको समझ में आता है व लोक-व्यवहार में दृष्टिगोचर भी होता है। लेकिन पूज्यवर गुरुदेव, पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपने जीवन के अनुभवों से हर व्यक्ति के समक्ष एक खुली किताब रखते हुए कहा कि साधनहीन व्यक्ति भले ही जीवन जीले किंतु साधना विहीन जीवन न जिये एवं उसके लिए सरलतम योग साधनात्मक पद्धतियों का आहार से लेकर दैनंदिन जीवन व्यवहार का एक ऐसा पहलू प्रस्तुत किया जो हर किसी के लिए सुगम है।

ऐसे व्यक्ति ही युगऋषि कहलाते हैं, जो जटिल साधना पद्धतियों में युगानुकूल हेर फेर कर अपनी जीवन रूपी प्रयोगशाला में उसका भली भाँति प्रयोग कर उन्हें सहज-सुगम बना देते हैं। पूज्यवर का सारा जीवन इसकी साक्षी देता है। उनने स्वयं 24-24 लक्ष के 24 महापुरश्चरण किए। बड़ी कठोर साधना की। मात्र जौ व छाछ पर रहकर उस अवधि को पूरा किया। यों वह अवधि 24 वर्ष की थी किन्तु बीच में अदृश्य गुरु सत्ता का आदेश आने पर वह प्रायः 27 वर्षों में पूरी हुई एवं 1953 में उनकी पूर्णाहुति संपन्न हुई। उनके निज के जीवन के लिए यह साधना अनिवार्य थी। इसके कई गुह्य व परोक्ष पहलू हमें किसी को भी ज्ञात नहीं है। परम वंदनीया माताजी के अतिरिक्त उन्हें कोई जानता भी नहीं है। किन्तु उनने जन-जन को देखा था। यह भी देखा व पाया था कि आत्मबल, अध्यात्म शक्ति के अभाव-वश व्यक्ति दीन−हीन जीवन जीता देखा जाता है। भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जिन दिनों अपने हाथ पाँव फेंक रहा था, अनेकानेक व्यक्ति बढ़चढ़कर आगे आ रहे थे, पूज्यवर के मन में एक ही बात थी कि विराट स्वतंत्र भारत को साँस्कृतिक दृष्टि से आजादी दिलाने वाले मनोबल, आत्मशक्ति-संपन्न मरजीवड़े कैसे व कहाँ से आयेंगे ?

जब श्री अरविन्द व श्री माँ अपने पूर्ण योग का प्रतिपादन कर अतिचेतन के महावतरण की चर्चा पांडिचेरी में कर रहे थे, तब एक ही संकल्प पूज्यवर के मन में उनकी गुरुसत्ता का दिया उभरता रहता था कि अति मानस जो आएगा उसके लिए सुपात्र एक नहीं, अनेकानेक-लाखों-करोड़ों, व्यक्ति चाहिए जो मात्र भारतवासी हों जरूरी नहीं, सारा विश्व उसमें भागीदारी कर सके। इसलिए यह पद्धति जन सुलभ हो, प्रत्येक के लिए सरल हो एवं क्रमशः जीवन में उतारने हुए सभी उसे कर सकें। श्रेष्ठ मानव बनें, ग्रंथिमुक्त-कुँठा-संत्रस्तरहित व्यक्तित्व जन्में, बहुचित्तीय (पाँलिसाइकिक) नहीं बल्कि एकनिष्ठ भाव से काम करने वाले हर श्रेणी के व्यक्तियों से मिलकर बना समुदाय अपनी चिंतन साधना से समष्टि मन का निर्माण कर सके ताकि समूह चेतना के जागरण से व्यक्ति-परिवार ही नहीं समाज की अभिनव संरचना का भी सरंजाम जुट सके। इतने विराट स्तर पर मानव मात्र के कल्याण की बात युगऋषि स्तर की सत्ता ही सोच सकती है।

पूज्यवर बहुधा कहा करते थे, कि भीतर से हर व्यक्ति के अन्दर देवत्व भरा पड़ा है, आवश्यकता मात्र उसे उभारने की है। मनुष्य का स्वाभाविक रुझान की उत्कृष्टता परक है हुआ देवता है, उठा हुआ पशु उसे संयम-शील व उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा भी दी जा सकती है। भगवत्प्रेरणा, ब्रह्मांडीय सुव्यवस्था के साथ तारतम्य बिठाकर चलने के लिए दैनंदिन जीवन में जिन अनुशासनों का समावेश करना जरूरी है, वे प्रारम्भिक साधकों के लिए न्यूनतम हों एवं वे इसे दैनंदिन जीवन का ही एक अंग माने, यह समझाने का प्रयास उनने 1940 से प्रकाशित हो रही अपनी अखण्ड-ज्योति पत्रिका को दिये जाने वाले सतत् मार्गदर्शन से आरम्भ कर दिया था।

व्यक्ति का आहार सही हो व विचार करने की प्रक्रिया उसकी सुव्यवस्थित बने, यही वह जीवन योग था। जिसे पूज्यवर ने जन-जन को बताया। तंत्र; कुँडलिनी षट्चक्र वेधन के बारे में तरह-तरह की जिज्ञासाएँ लेकर आने वाले व्यक्ति से वे यही कहते थे कि “पहले तुम आहार सही करली सोचने की पद्धति बदल डालो, फिर पाओगे कि तुम्हारी कुँडलिनी जागरण प्रक्रिया का शुभारंभ हो गया।” वे अध्यात्म को जिंदगी का शीर्षासन कहते थे व बताते थे कि जब भी अध्यात्म किसी के जीवन में पूर्ण रूप से उतर जाता है तो वह उसके व्यक्तित्व का आमूल-चूल परिष्कार कर उसे बदल कर रख देता है। गोय के नाम पर उछलकूद करने वाले, तरह तरह की नाटकबाजी-कलाकारी दिखाने वाले तथा हठयोग की प्रारम्भिक क्रियाओं को ही सब कुछ मानने वालों की हँसी उड़ाते हुए वे कहते थे कि इनने योग का मतलब स्वयं समझा नहीं, औरो को और भ्रम जंजाल में भटकाते रहते हैं।

गायत्री के चौबीस अक्षरों के तत्वज्ञान को उनने समूचे जीवन के उत्कर्ष का मूल माना तथा उसकी विशद व्याख्या के माध्यम से उनने बताया कि गायत्री की महानता के आदर्शों को जीवन-यात्रा का एक अंग बनाने पर संपन्न होती है। इसके लिए जहाँ व्यक्ति का चिंतन सही रखने के लिए आहार सही होना जरूरी हैं, वहीं श्रेष्ठ विचारों को आमंत्रित करने की कला भी उसे सीखनी होगी तभी ध्यान सफल होगा। जीवन जीने की कला के नाम से उनने जिस योग साधना को जनम दिया। वह अपने आप में विलक्षण किंतु सरल हैं। उनने कहा कि नित्यप्रति के अपने आहार पर ध्यान दो कि तुम क्या खा रहे हो पर कड़ा तप करने की कोई जरूरत किसी को भी नहीं है। हम शाकाहारी बनें, सात्विक आहार लें एवं अन्नों वै मनः के तथ्य को ध्यान में रखें कि जैसा हम खाते हैं, वैसा ही हमारा चिंतन बन जाता है। आँवलखेड़ा से आगरा, मथुरा से हिमालय-उत्तरकाशी-सप्तसरोवर व फिर हरिद्वार के शाँतिकुँज में उनके प्रयोग सतत् चलते उनने ‘अस्वाद व्रत जन जन से कराके सबको सिखाया। नमक-शक्कर व मसाला आदि का परित्याग मात्र एक ही दिन व्यक्ति करके देखे तो पाएगा कि इससे उसके स्वादेन्द्रियों की कड़ी परीक्षा हो रही है। जीभ यदि स्वाद के बिना कुछ घंटों रहना भी सीख ले तो दो संयम रसना का व जननेन्द्रियों का स्वयं सधने लगने की प्रक्रिया गतिशील हो जाती है, यह अनेकों ने अपने जीवन में परीक्षा कर सफल होता पाया।

गायत्री तपोभूमि मथुरा में भी उनने कल्प साधना- शाक कल्प, दुग्ध कल्प, फलों के कल्प के प्रयोग किए, कइयों से कराए तथा शाँतिकुँज में कृच्छा चाँद्रायण प्रक्रिया में अमृताशन के रूप में उबले नाम मात्र के मसाले के आहार, हविष्यान्न के प्रयोग तथा पूर्णिमा से अमावस्या व फिर पूर्णिमा तक क्रमशः आहार घटाने व बढ़ाने का प्रयोग कर अन्नमय कोश को साधना व इससे प्राणमय कोश परिष्कार की प्रक्रिया में आगे बढ़ने का सरलतम प्रयोग सबको सिखाया। युग के अनुरूप जो व्यक्ति के शरीर- मन आज ढल गये हैं, उनमें सरलतम पद्धति हो सकती है, इससे लेकर कठिनतम का सत्त विकास पूज्यवर की साधना प्रणालियों में पाये जाते हैं। व्रतों को भी उनने उतना ही महत्व दिया पर उस रूप में नहीं, जैसे वे आज प्रचलित है। आज तो फलाहार के नाम पर अनापशनाप खाकर मनुष्य पेट में और अधिक ठूँसता चला जाता है जबकि व्रत का मोटा अर्थ है- शरीर को थोड़ी छुट्टी -अवकाश दे देना तथा सूक्ष्म अर्थ है मन को निभ्रांत कर श्रेष्ठ चिंतन का सत्त अभ्यास करने की प्रक्रिया सीखना। नवरात्रि साधना के साथ आहार संयम का सरल सुगम रूप पूज्यवर ने दो चीजों का प्रयोग- एक खाने की एक लगाने की या मात्र तरल प्रवाही द्रव्योँ का प्रयोग, यह बताया। नवरात्रि की अनुष्ठान साधना तो ढेरों व्यक्ति करते हैं तो कितने सही अर्थों में मन लगा पाते हैं। यदि वे जल उपवास जैसी या निर्जला जैसी कड़ी तथा फलाहार की अति वाली दो विपरीत धुरियों के बीच एक सामान्य कड़ी के ही प्रयोग चालू करें तो बहुत सफल साधना उनकी होती रह सकती है, यह पूज्यवर ने समय समय पर बताया।

पंचकोशी व कुँडलिनी जागरण साधना, प्राण प्रत्यावर्तन साधना, आध्यात्मिक भावकल्प साधना आदि के रूप में शांति कुँज में समय-समय पर सत्र तो होते रहे हैं किंतु पूज्यवर ने मुख्य ध्यान जन-जन के लिए साधना सूत्रों को सुगम बनाने पर विशेषतः दिया व जीवन साधना सत्र इसी प्रयोजन के निमित्त आयोजित भी होते रहें। इन्हें बाद में संजीवनी साधना नाम दिया गया जिनमें जीवन जीने की कला के शिक्षण के सारे सूत्र गूँथ दिये गए। यह अपने आप में एक विलक्षण संश्लेषित प्रक्रिया बन गयी। दैनिक जप, जप के साथ ध्यान तथा प्रज्ञायोग को नियमित संपादित किया जाना, स्वाध्याय एवं ध्यान योग लययोग-नादयोग के रूप में योग त्रयी का दिनचर्या में समावेश अपने आप में एक साधना शैली बन गयी जिसे अब लाखों व्यक्ति जीवन में उतारते देखे जाते हैं।

प्राणायाम के माध्यम से वह भी सीधे सादे- सरल, प्राणाकर्षण या लोभ विलाभ सूर्यवेधन या नाड़ी शोधन से कोई व्यक्ति कैसे अपने सूक्ष्म शरीर को प्राणमय तथा मनोमय कोश को परिष्कृत जाग्रत कर सकता है, इसे पूज्यवर ने समझाकर इस भाँति हृदयंगम करा दिया कि आज यह प्रक्रिया अपनाकर अनेकों व्यक्ति न केवल रोगमुक्त, मनो विकारों से मुक्त अपितु शाँत-शीतल मनःस्थिति जीवन जीते देखे जा सकते हैं, जिसमें उन्हीं प्राणशक्ति जीवनी शक्ति तो बढ़ी ही है-आभामंडल भी परिष्कृत हुआ है। पाँच मिनट के इस सरल प्रयोग ने कुँडलिनी जागरण की सामूहिक प्रक्रिया के लिए सुपात्रों का निर्माण आरंभ कर दिया है व स्वयं में यह एक बड़ी विलक्षण प्रक्रिया है। आज देश विदेश में अनेकों व्यक्ति उगते सूर्य के ध्यान से लोम-विलोम सूर्य बेधन प्राणायाम कर अपनी प्रसुप्त क्षमता को जगाकर दिनभर उल्लास भरा जीवन जीते देखे जा सकते हैं।

ध्यान को पूज्यवर ने बड़ा सुगम बनाया, उनने समय-समय पर कहा कि सामूहिक महापुरश्चरण से समूह मन तो विकसित होगा ही एवं प्राण चुँबक निज का बढ़ेगा ही, व्यक्तिगत ध्यान से आने वाले युग की एक निराली ध्यान चिकित्सा पद्धति विकसित होगी। ध्यान के लिए विंदुयोग, त्राटक दीपक की लौ या उगते सूर्य का ध्यान सबसे सरल प्रयोग था जिससे प्रतिभा की प्रखरता ही नहीं, विशिष्ट उपलब्धि अंतः ऊर्जा के जागरण के रूप में सबको मिल रही थी। ध्यान के दौरान विशिष्ट विचारों को आमंत्रित करना, विधेयात्मक चिंतन द्वारा व्यक्तित्व को विचारों का स्नान कराना तथा अपनी अनगढ़ता को सुगढ़ता में बदलने की यह प्रक्रिया अब सारे विश्व में लोकप्रिय हो गयी है। रंगों का ध्यान, रागों का सुनते हुए ध्यान, दृश्य मूर्ति पर साकारो पासना में ध्यान यह प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें जनसामान्य बिना इस विशिष्ट मार्गदर्शन के कर नहीं सकता था। आज सभी व्यक्ति सारे विश्व में इन साधनाओं को कर रहे हैं एवं लाभान्वित हो रहे हैं।

उपासना परम सत्ता की , साधना अपने आपकी तथा आराधना विराट विश्व ब्रह्मांड की , इस समाज की यह एक निराली त्रिधा साधना प्रक्रिया पूज्यवर के द्वारा ही निर्धारित है। उपासना में आत्मसत्ता को परमतत्व से एकाकार करने की भावना कषाय कल्मषों का परिशोधन, साधना में विचार, अर्थ, समय व इंद्रिय-संयम व उसके लिए सत्त स्वाध्याय तथा आराधना में सारे समाज का अपने को एक अंग मानते हुए समाज सेवा के निमित्त समय व अंशदान नियमित रूप से देते रहने का विधान जो उनने बनाया, वह प्रज्ञापरिजनों के लिए योगत्रयी बनाया। यह त्रिवेणी जिसमें करोड़ों व्यक्ति स्नान कर अपने आप को महाकाल की धारा के साथ जोड़ चुके हैं, आज अपने सरल-सुगम रूप में योग साधना में प्रवेश का, मानव मात्र को कुँडलिनी के जागरण का एक द्वारा हो नहीं खोलती है वरन् जन जन की आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करती है। यही वह विशेषता है जिससे गायत्री परिवार अपने अधिष्ठाता के मार्गदर्शन में साधना प्रणाली को जन-जन तक पहुँचा सका है। दीपयज्ञों, संस्कारों के द्वारा अब हर व्यक्ति अध्यात्म को उल्लासमय महोत्सव बनाकर अपने जीवन से झरता देख सकता है। युगसाधना का कायाकल्प कर प्रत्येक के लिए मुक्ति का पथ प्रशस्त करने वाले उस युगऋषि को महाकाल की सत्ता को बारंबार प्रणाम है।

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