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Magazine - Year 1994 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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यह वसुँधरा बंध्या नहीं

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देव। वत्स राज्य की प्रजा चिंतित है। स्वयं मुझे भी आश्रय की अपेक्षा है। नरेश ने राज्य गुरु अनंत- शंकर आचार्य के चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना की- आपकी असीम कृपा एवं अकल्पनीय प्रतिभा ने राज्य को अब तक निश्चिंत रखा।

कोई अमर नहीं है, यह बात मैं समझता हूँ। स्वयं तुमसे इस संबंध में विचार करना था मुझे। आचार्य ने सत्रह पूर्वक कहा- जराजीर्ण इस कलेवर को कालार्पण करने का समय समीप आ गया है, यह मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। तुम इतना करो कि राजोद्यान में देश के विद्वान ब्राह्मणों का सत्कार करने की घोषणा कर दो। आगे क्या करना है, मैं स्वयं देख लूँगा।

‘ जैसी आज्ञा। ‘ नरेश को आश्वासन प्राप्त हुआ। वे राज सदन लौट गये। देश के विभिन्न नगरों में वत्स नरेश की विद्वत-सत्कार घोषणा का प्रचार हो गया।

‘ विद्वत्सत्कार।’ वत्स राज्य की घोषणा कुतूहल एवं उत्साह दोनों को देने वाली थी। कोई यज्ञ, कोई सत्र, कोई तथ्य निर्णायिका विद्वत्परिषद- ऐसा कुछ नहीं। अब तक तो नरपतिगण ऐसे ही किसी अवसर पर देश-देश के विद्वानों को आमंत्रित किया करते थे। लेकिन वत्स नरेश की घोषणा में ऐसा कुछ नहीं है।

‘ पूरा नवीन संवत्सर वत्स राज्य विद्वत्सत्कार वर्ष के रूप में मनाएगा। आप अपनी सुविधानुसार पधारें। जब तक आप रहना चाहेंगे , हम सेवा करके अपने को कृतार्थ मानेंगे। घोषणा तो यही थी। इसमें कहीं किसी प्रयोजन का संकेत नहीं। कोई एक निश्चित अवधि में सब लोग जब एकत्र नहीं होते हैं तो यज्ञ, सत्र अथवा परिषद के अकस्मात् आयोजन की भी संभावना नहीं रह जाती।

‘ कैसा है यह विद्वत्सत्कार का शुभारंभ ?’ यह प्रश्न सभी विद्वानों के मन में उठना था। प्रश्न उठा तो कुतूहल ने यात्रा करने की प्रेरणा दी। वत्स नरेश ने विद्वानों की यात्रा के लिए यथासंभव सब सुविधाएँ मार्ग में कर दी थी। सभी पड़ोसी राज्यों से भी उन्होंने विद्वानों को यात्रा में सुविधा देने की प्रार्थना की थी।

‘ आचार्य अनंत शंकर भगवती वीणापाणि के वरद पुत्र हैं।’ अनेक स्थानों पर विद्वानों ने वत्सराज्य की इस आह्वान-घोषणा पर विचार करने के लिए स्थानीय संगोष्ठियाँ आयोजित कर ली। उन गोष्ठियों में प्रायः एक जैसी बातें कही गयी- वे क्या चाहते हैं, कल्पना कर लेना सरल नहीं हैं, किंतु इस प्रकार उनके सत्संग का सुअवसर उपलब्ध हुआ, यह हम सबका सौभाग्य।’

आचार्य वृद्ध हो गए हैं। उनके कुल में और कोई तो है नहीं। अनेक स्थानों में यह अनुमान भी किया गया- उन्हें अपना उत्तराधिकारी भी तो राज्य को देना है। अब वे इस विषय पर विचार करने की अवस्था प्राप्त कर चुके हैं। तपस्वी, विद्वान, ब्राह्मणों में ही उन्हें अपना अधिकारी चुनना है।

आचार्य के आह्वान का प्रयोजन प्रायः लोगों ने अनुमान कर लिया था, इससे आगंतुकों की संख्या बढ़ गयी थी। किंतु इससे आचार्य ने कोई असुविधा अनुभव नहीं की। वे तो केवल इससे बचना चाहते थे कि आशा लेकर प्रतिस्पर्धा के भाव से आये ब्राह्मणों को लौटने का निष्ठुर कार्य न करना पड़े।

राजोद्यान सत्कार-शिविर बन गया। नगर के बाहर रम्य स्थलों पर सुँदर आवास बना दिए गए थे। आगत-अतिथि उन आवासों में संपूर्ण सुविधा प्राप्त करके भी स्वच्छंदता-पूर्वक स्वरुचि के अनुसार व्यवहार करते रहें-ऐसा प्रथम अत्यंत सावधानी से किया गया था। आचार्य स्वयं राजोद्यान में आ बसे थे और विद्वानों को उनके समीप आने में कोई रुकावट नहीं थी। वहीं पर वस्त्र , धन, धेनु आदि देकर स्वदेश लौटने के इच्छुक विद्वानों का सत्कार करने की व्यवस्था थी।

वत्स राज्य की राजधानी उत्सव , अनुष्ठानमयी हो उठी। अर्चा, तप, यज्ञ, कीर्तन, वेदपाठ, शास्त्रचर्चा-विद्वान ब्राह्मणों के यहाँ यही तो होता था। जल, पुष्प, दर्भ, समिधा, फल तथा यज्ञ एवं अर्चन की सामग्रियाँ सबके लिए अत्यंत सुलभ कर दी गयीं थी। नागरिक जनों को लगा उनके समस्त पुण्य इस समय साक्षात् फलोन्मुख हो उठे हैं।

विद्वद्वर्ग आचार्य के समीप उपस्थित होता था। परस्पर भी उनकी गोष्ठियाँ होती थी। इन दिनों केवल आचार्य के अपने अंतेवासी ब्रह्मचारी परस्पर मिल नहीं पाते थे। उन्होंने उनमें से प्रत्येक को आगतों के सेवा सत्कार में नियुक्त कर दिया था और इस पुनीत पर्व पर इतना उत्तम कार्य प्राप्त कर वे भी उत्साह पूर्वक लगे थे।

बड़ा सात्विक समारोह। अत्यंत सरल सत्संग का सुअवसर। वत्स नरेश की श्रद्धा धन्य है। स्तुत्य है उनकी निष्काम श्रद्धा विद्वानों ने आचार्य के आयोजन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जिनको जब जाने की आवश्यकता प्रतीत हुई-समुचित सत्कार एवं दान से सम्मानित करके लौटने की पूरी सुविधा नरेश ने कृतज्ञता तथा नम्रता प्रकट करते हुए प्रदान की। किसी को संकेत भी नहीं प्राप्त हुआ कि इस आयोजन का कोई प्रयोजन भी था। अपने अनुमान विद्वानों को अकारण प्रतीत हुए।

वेद, वेदांत, धर्मशास्त्र, कर्मकाँड, न्याय, साँख्य वेदाँत, व्याकरण, साहित्य आदि के प्रकाँड पंडित पधारे थे। अद्भुत प्रतिभाशाली, अकल्पनीय अनुष्ठान धनी, स्वभाव सिद्ध तापस तथा योग-सिद्ध साधक भी आये थे। विद्वानों की मंडलियां आती रहीं और विदा होती रहीं।

इव। नरेश को अपने आचार्य में अगाध श्रद्धा थी। वे केवल आज्ञा का अनुगमन कर रहे थे-अकथनीय पाँडित्य पाया है इन्होंने। नरेश किसी की विद्या से प्रभावित हुए, आते तो प्रार्थना कर लेते थे।

‘ राजन्। किसने क्या पढ़ा है ? क्या जानता है ? इसका अधिक मूल्य नहीं है।’ आचार्य तटस्थ स्वर में कह देते- ‘ वह स्वयं क्या है, महत्व की बात यह है।’

‘ लोक पूजित तपोधन पधारे आज। ‘ नरेश समुत्सुक सूचना देते।

‘ कार्य-क्लेश केवल प्रकृति के राज्य में पुरस्कार पाता है।’ आचार्य अद्भुत है। उन पर जैसे कोई सूचना प्रभाव ही नहीं डालती। वे व्याख्या करने लगते हैं- जनार्दन की संतुष्टि भिन्न वस्तु है और जो उसका संपादन न कर सके, जनता के मार्ग दर्शन का दायित्व उठा लेने की शक्ति उसमें नहीं हो सकती। ‘

‘ साधना ने जिन्हें सिद्धि समुदाय का स्वामी बना दिया है, ऐसे महापुरुष की सेवा का सौभाग्य मिला मुझे आज।’ नरपति का हर्ष अनुचित नहीं था।

‘ सिद्धि साधना की सफलता की नहीं, उसके बाधित हो जाने की परिचायिका है।’ आचार्य उपदेश करने लग जाते- लोक नायक को उससे सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वह सामान्य नियमों का उल्लंघन करके भी न्यायालय की परिधि में नहीं आया करता। शारीरिक आसक्ति या यश-इच्छा ने ही उसे सिद्धि के स्वीकार करने को विवश किया है। कामना वहाँ निर्बीज नहीं हुई। अत्यंत उर्वर खाद है सिद्धि इस बीज के लिए। अतः वह बीज कैसे कितना बड़ा वृक्ष बनेगा, कहा नहीं जा सकता। उससे असावधान रहोगे तो अपना अहित कर सकते हो श्रद्धा के आवेश में।

‘ देव। आज अंतिम विद्व-मंडल भी विदा हो गया।’ नरेश के स्वर में अत्यंत व्यथा थी। वर्ष समाप्त हो गया। आगत विद्वान जा चुके। उनका सत्संग, उनकी सेवा का महापुण्य-यह सब तो ठीक, किंतु इस आयोजन का उद्देश्य जब आज भी अपूर्ण है, तब वह कब कैसे पूर्ण होगा ?’

“ व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है। राजन्। यह वसुंधरा कभी बंध्या नहीं होती। ‘ ‘ आचार्य ने आश्वस्त करते हुए कहा-’ ‘ अपने इस संपूर्ण देश का नाम सृष्टिकर्ता ने अजनाभ वर्ष अकारण नहीं रखा है। व्यष्टि में-अपनी देह में समस्त सद्भावनाओं का केन्द्र है, नाभिचक्र और समष्टि में सृष्टिकर्ता के सर्वतो मुखी ज्ञान का उद्भावक है यह अजनाभ वर्ष। लेकिन अन्वेषण अपने स्थान पर बैठे-बैठे कर लेने की आशा करना मेरे लिए भी उचित नहीं था। यात्रा करूंगा मैं तुम्हारे साथ। ‘ ‘

बहुत कम लोगों को साथ ले जाना था। अन्वेषण यात्रा भी इसे कहना कठिन था। आयार्य ने उस आदेश देने वाली रात्रि को शयन नहीं किया था। वे पूरी रात्रि ध्यानस्थ रहे और प्रातः जब यात्रा के लिए प्रस्तुत होकर नरेश पधारे, आयार्य नित्यकर्म संपूर्ण कर चुके थे। रथ पर बैठते ही उन्होंने वत्स राज्य के ही एक सीमा स्थित ग्राम में चलने का आदेश दे दिया।

‘ ‘ मेरा अहोभाग्य। ‘ ‘ एक साधारण झोंपड़ी के सम्मुख जब ये रथ आकर खड़े हुए, ग्राम के प्रायः सब नर-नारी एकत्र हो गए। उस झोंपड़ी का स्वामी तो हर्ष से उन्मत्त प्रायः हो उठा। ‘ मुझ कंगाल के यहाँ आज श्री हरि स्वयं पधारे।’

नरेश कहीं किसी स्थान पर आते, कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। अपनी प्रजा का निरीक्षण करने नरेश को समय समय पर आना ही चाहिए , किंतु नरेश के साथ स्वयं आयार्य पधारें-संपूर्ण ग्राम जनों को लगता था कि आज उनके यहाँ श्री बैकुँठनाथ ही आ गये हैं।

‘ आज याचक होकर तुम्हारे यहाँ वत्स नरेश पधारे हैं, देवता। ‘ आचार्य ने धीमे से कहा।

‘ ‘ राजन्। क्या सेवा करे यह निर्धन ब्राह्मण आपकी?’ ‘ उस अत्यंत सरल ग्रामीण ने अब नरेश की ओर देखा। अभी तक तो वह आचार्य की वंदना-अर्चना में यह भी भूल गा था कि उसके यहाँ आचार्य के साथ कोई और भी आए हैं।

राजन। सदाचार के सम्यक् पालन में अभयदेव शर्मा की समता करने योग्य मैं किसी को नहीं पाता। आचार्य गंभीर स्वर में कह रहे थे- ‘ प्रबल प्रलोभन इन्हें विचलित नहीं कर सके, यह आप भी जानते हैं। प्रकृति के प्रकोप तथा शरीर का असहयोग भी इन्हें अस्थिर नहीं कर पाता। सदाचार धर्म का दृढ़ मूल है। और जहाँ धर्म सम्यक् पूर्ण है, जनार्दन स्वतः सुप्रसन्न है। अभयदेव ने अपने सदाचार तथा दीन जनों की सेवा से उस सर्वेश को संतुष्ट किया है। शास्त्र का मर्म ऐसे सत्पात्र में अप्रकाशित नहीं रहता। पुस्तकीय पाँडित्य की अपेक्षा यहाँ नहीं है। आप अपने भावी राजगुरु की चरण वंदना करें।

‘ आप अपने देश को, अपने नरेश को और मुझ वृद्ध को निराश नहीं कर सकते।’ आचार्य ने उस ब्राह्मण को बोलने ही नहीं दिया- यह दायित्व आप सँभाल सकते हैं, ऐसी आस्था मुझमें है। आप आज ही राजधानी चलना स्वीकार करें तो यह बूढ़ा अतिथि आपके यहाँ आहार ग्रहण करेगा- अब उनके लिए यह प्रार्थना स्वीकार करने के अलावा और मार्ग भी क्या रहा था ?

निश्चित ही ब्राह्मणोचित जीवन जीने वाला सादगी भरी जिंदगी के सूत्रों के हित का चिंतन करने वाला व्यक्ति ही समाज का नेतृत्व कर सकता है आज सबकी दृष्टि इन्हीं पर है।

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