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Magazine - Year 1995 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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परिवर्तन, सतत् परिवर्तन ही सत्य है

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सत्य के संबंध में तथ्यान्वेषियों का मत है कि कुछ प्रकरणों को छोड़ दिया जाय, तो “सत्य शाश्वत होता है।” वस्तुतः यह सत्य नहीं है। सत्य तो परिवर्तनशील है। उसका स्वरूप बदलता रहता है। जो आज सच है, अगले दिनों मिथ्या साबित हो सकता है और जो झूठ जैसा प्रतीत होता था, वह सच बन सकता है। यही प्रगतिशीलता हैं। उन्नति का आधार है जो इस प्रक्रिया से गुजरना चाहते है उन्हें अपना मस्तिष्क खुला रखना पड़ता है। पूर्वाग्रहों से चिपके रहने का अर्थ होगा उसी अनुपात में सत्य से दूर हटना और अवगति की ओर चल पड़ना

यह मानवी स्वभाव है कि वह एक बार जिसे सत्य मान लेता है उसके संबंध में स्थायी मान्यता बना बैठता है कि वह गलत हो ही नहीं सकता। इस क्रम में परिवर्तन की उन संभावनाओं को भी मानने से इनकार कर देता है जो वर्तमान में असत्य जैसी लगती तो हैं पर उनके यथार्थ साबित होने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। मानवी प्रकृति की इस दुराग्रहपूर्ण नीति से कितनी ही महत्त्वपूर्ण जानकारियों से आये दिन वंचित रहना करने एवं तदनुरूप अनुकूलता अपनाने के अभाव में अनेकों प्रकार की कठिनाइयाँ का सामना करना पड़ता है।

परिवर्तन एक सच्चाई हैं। इसकी आवश्यकता को स्वीकार करने के उपरान्त ही अधिकाधिक प्रगति की दिशा में अग्रसर हो पाना संभव हैं। उदाहरणार्थ पृथ्वी को लिया जा सकता है जिसकी परिवर्तनशील प्रकृति ने ही उसे आज वृक्ष-वनस्पतियों से सज्जित और प्राणियों से आबाद बनाया है अन्यथा आरंभ में तो यह एक आग का तपता हुआ गोला भर थी। यदि वह ठंडी होकर ठोस न बनती तो शायद उसे यह सौभाग्य प्राप्त न होता। उसका यह परिवर्तन क्रम यहीं रुक नहीं गया, वरन् एक बार आरंभ हुआ तो फिर आगे चलता ही रहा। उसके मानचित्र में परिवर्तन का सिलसिला जारी रहा। शोध से समय-समय पर इस बात की पुष्टि होती रहीं है कि पृथ्वी के जिन हिस्सों में इन दिनों समुद्र सागर है वहाँ कभी पूर्व में स्थल भाग रहे थे और जहाँ समतल मैदान है, वहाँ पर्वत श्रृंखलायें थी। इसी बात को सत्यापित करने वाली दो सर्वथा प्राचीन चट्टानें कनाडा के मानिटोबा प्रांत के उस भाग में प्राप्त हुई है जहाँ इन दिनों सपाट मैदान है? पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार यह चट्टानें लगभग दो अरब तीस करोड़ वर्ष पुरानी है। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि उन दिनों उधर एक महाखण्ड था। दक्षिण अमेरिका अफ्रीका, भारत का दक्षिण खंड व आस्ट्रेलिया इससे परस्पर जुड़े हुए थे। तब एटलाँटिक एवं हिन्द महासागर का अस्तित्व नहीं था। एशिया का अधिकांश भाग जलप्लावित था। बाद में परिवर्तन प्रक्रिया के दौरान जल में थल प्रकट हुआ।

भूगर्भवेत्ता बताते हैं कि इन परिवर्तनों के पीछे भूकंप ज्वालामुखी विस्फोट बाढ़ जैसे अनेक कारण हो सकते है। इसमें हिमयुगों की भूमिका भी कोई कम नहीं रही। उनके अनुसार पृथ्वी पर पहले चार बार ऐसा ही हिमयुग आ चुका है। पिछले हिमयुग में पृथ्वी के विभिन्न खण्ड बर्फ से ढके थे बर्फ के पिघलने के उपरान्त जल के स्थान पर स्थल और थल के स्थान पर जल हो गया। यह सिलसिला आगे भी जारी रहे, तो कोई आश्चर्य नहीं। भूगोल के जानकार कहते है कि पिछले हिमयुग के दौरान बर्फ के जमाव के कारण बरसात के पानी के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न हुआ, जिससे समुद्रों में उसका जाना रुक गया। इससे समुद्र सूखते गये और स्थल भाग बढ़ता गया। इसी के परिणामस्वरूप भाग बढ़ता गया। इसी के परिणामस्वरूप ब्रिटेन आज एक खाई के माध्यम से पृथक् होते हुए भी यूरोप से जुड़ा हुआ है दो लाख वर्ष पूर्व भारत और लंका भी एक ही भूभाग के रूप में परस्पर जुड़े थे। तब थल मार्ग द्वारा ही भारत से लंका पहुँचा जाता था। आज एक समुद्री चैनल ने उसी तरह दोनों को पृथक् कर दिया।

विद्वानों का मत है कि आज का आँध्रप्रदेश का तटीय विस्तार भूमि की दृष्टि से आस्ट्रेलिया से जुड़ा था एवं पूरा क्षेत्र “आँद्राचलम” कहलाता था। बाद में वह अलग होते हुए बहुत दूर चला गया। एशिया के साइबेरिया तथा अमेरिका के अलास्का के मध्य समुद्र के सुख जाने के कारण एशिया निवासी पशुओं को साथ लेकर अमेरिका जा बसे। आज के अमेरिकी दो लाख वर्ष पूर्व के एशियावासियों के ही वंशज हैं। हिमयुग के दिनों में एशिया चीन एवं कोरिया के मध्य विद्यमान् पीले समुद्र खाड़ी अनुपस्थित थी। इण्डोनेशिया तथा फिलीपीन्स के द्वीप एक दूसरे से जुड़े थे। यूगोस्लाविया और एड्रियाटिक के बीच समुद्र सूख गया था। जिब्राल्टर का जल डमरू मध्य न रहने के कारण स्पेन (यूरोप) से मोरक्कों (अफ्रीका) तक की पैदल यात्रा सहज संभव थी। हिमयुग के उपरान्त जमीन पर जमी बर्फ पिघल कर समुद्र की ओर बहने लगी जिससे कितने ही द्वीप जो परस्पर जुड़ें थे, पृथक् पृथक् होकर स्वतंत्र टापू बन गये।

बदलाव का यह क्रम यहीं नहीं थमा। आगे भी बना रहा। वर्षों पूर्व कच्छ के मरुप्रदेश की कुछ भूमि उठ कर ऊपर आ गई। उस स्थान पर पहले सिंधु नदी प्रवाहित होती थी। अब वह क्षेत्र अल्लाह का बाँध” नाम से प्रसिद्ध है। रेगिस्तानों का इतिहास भी इस बात की पुष्टि करता हे कि जहाँ इन दिनों मरुस्थल है वे कभी पृथ्वी के उपजाऊ भूभाग थे। परिवर्तन प्रक्रिया ने उन्हें कालक्रम में ऊसर बंजर भूमिखण्ड में बदल दिया।

पृथ्वी पर सतत् चलने वाले यह रूपान्तरण इस बात के द्योतक है कि यह सृष्टि की शाश्वत एवं सनातन प्रक्रिया है उसका हर कण हर क्षण परिवर्तन के लिए उद्यत है जड़ ही नहीं चेतन प्राणियों में भी यह क्रिया निरंतर चल रहीं है। उनके स्वरूप स्वभाव में अनवरत परिवर्तन हो रहे है। जड़वादी मान्यता के अनुसार मनुष्य का विकास “अमीबा” जैसे एककोशीय जीव से हुआ। इस विकास-यात्रा में सदियों बीत गये। उसके बाद ही वह वर्तमान आकार प्रकार प्राप्त कर सका। मनुष्य के उद्भव के संदर्भ में विकासवादी मान्यता यही है। क्रांतिकारी इसे ही सच मानते है तथ्य चाहे जो हों पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य को परिवर्तनों की एक लम्बी शृंखला से होकर गुजरना पड़ा है इस अवधि में आदि मानवों के नाक-नक्शे में ही परिवर्तन नहीं आये दृष्टिकोण विश्वास स्वभाव एवं क्रिया–कलापों में भी भारी अंतर देखा गया। जो कभी असभ्य अनपढ़ की तरह जंगली और गँवार थे, आज वह सभ्य संस्कृत बन कर गर्व-गौरव अनुभव करते है। संसार अगले ही दिनों उन्हें प्रगति के अग्रिम पड़ाव की ओर प्रयाण करते देख सकेगा। महामानवों का निर्माण इसी शृंखला की कड़ी होगा। सापेक्षवाद के अनुसार मान्यताएँ स्वयं में सच या झूठ नहीं होती। वह एक दूसरे के सापेक्ष होती है। इस आधार पर व्यक्तियों वस्तुओं या स्थानों के संबंध में कोई भी बात बिलकुल सत्य है ऐसा नहीं कहा जा सकता उनमें सुधार संशोधन की पूरी संभावना रहती है। विज्ञान का इतिहास इसी तथ्य की पुष्टि करता है। गतिशीलता इसी को कहते है। यह परिवर्तन प्रक्रिया का ही परिणाम है। सत्य के करीब इसी के सहारे पहुँचा जा सकता है। प्रकृति का यही नियम है।

मनुष्य मात्र को एक तथ्य समझना होगा कि प्रगति शील हुये बिना, प्रगति से गतिशीलता, परिवर्तन शीलता का शिक्षण लिये बिना प्रगति सम्भव नहीं। अध्यात्म का परिष्कृत स्वरूप ऐसे तत्त्वदर्शन को व्यवहारिक ठहरता है। जिसमें हठ न हो कि जो कहा जा रहा है वही सत्य है। तर्क तथ्य प्रमाणों की कसौटी पर कसकर यदि मान्यताओं को युगानुकूल बनाया जा सके तो प्रगति के अनेकानेक झरोखे सहसा खुल जाते है। सत्य को यदि पाना है तो मनुष्य मात्र को स्वयं को इतना लचीला चिन्तन अपनाना होगा। इसके सत्परिणाम मानवी विकास के अनेकानेक सोपानों के रूप में हस्तगत होते रह सकते है यही युगानुकूल भी है।

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