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Magazine - Year 1995 - Version 2

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Language: HINDI
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परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी से एक विशिष्ट मार्गदर्शन - त्रिपदा के तीन प्रयोग और आदर्श

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First 21 23 Last
बीस वर्ष के गायत्री आलोक को व्यापक बनाते हुये युग निर्माण की पृष्ठभूमि बनाने के लिये हमें कहा गया था। यह कार्य हिमालय से लौटते ही समग्र तत्परता के साथ आरम्भ कर दिया। उसका शुभारम्भ तो पहले ही हो चुका था। गायत्री परिवार का ढाँचा खड़ा करना प्रेस लगाना जैसे कार्य तो इससे पूर्व ही हो चुके। अगले बीस वर्षों में क्या किया जाना है। यह जन समुदाय को पहले ही बताया जा चुका था। नवीन साधना सम्बन्धी कार्य पद्धति में कुछ नये तत्वों के समावेश की आवश्यकता पड़ी, जिन्हें एकान्त साधना करनी है, उनकी बात दूसरी है पर जिन्हें आपत्तिकालीन समय की माँग को देखते हुये जन आन्दोलन के क्रिया–कलापों में लगना है उन्हें अपनी साधना में ऐसे तत्वों का समन्वय करना चाहिये। जो व्यक्तित्व के इस प्रयोजन की सिद्धि में सहायक हो सके।

इस दृष्टि से प्रज्ञायुग की विधि व्यवस्था को मंत्राराधन करने के अतिरिक्त भी ऐसा कुछ करना था, ताकि अन्तःकरण और व्यक्तित्व का निरन्तर निखार होता रहे। इसके अतिरिक्त लोक साधना में संलग्न होने वालों की तीन धारा वाले उस उपक्रम को भी जीवनचर्या के हर पक्ष में सम्मिलित करना चाहिये जो साधक को त्रिवेणी संगम जैसी स्थिति में पहुँचा देता है।

बीज ही अंकुरित, पल्लवित होकर विशाल बनता है पर साथ ही यह भी गलत नहीं है कि पौधे को खाद, पानी निराई, गुड़ाई, रखवाली आदि की व्यवस्था भी आवश्यक होती है। अन्यथा बीज को सड़क पर बिखेर देने से वहाँ उद्यान खड़ा नहीं हो सकता। लोकसेवा में रुचि रखने वालों और सेवा क्षेत्र में उतरने वालों के लिये यह त्रिविध साधना नितान्त आवश्यक है। इसके सहारे व्यक्तित्व में वह विशिष्टता उपजती है, जो दूसरों को प्रभावित कर सके यह प्रयोजन आत्मसत्ता को प्रखर किये बिना सम्भव नहीं। यश-कामना के साथ साथ दूसरे स्वार्थ साधने के लिये तो कितने ही व्यक्ति लोकसेवी को चोगा पहनते है कुछ उछल कूद भी करते है, पर जब निष्कर्ष निकालने का अवसर आता है तो प्रतीत होता है कि कोई महत्वपूर्ण परिणति हाथ नहीं लगी। व्यर्थ ही लोकरंजन होता रहा। उसके साथ लोक मंगल का उद्देश्य पूरा न हो सका।

उपासना साधना और आराधना के समन्वय को तीर्थराज प्रयाग का त्रिवेणी-संगम कहा गया है। उपासना अर्थात् गंगा, साधना अर्थात् यमुना, सरस्वती अर्थात् आराधना। यही है वह समन्वय का महातीर्थ जिसका अवगाहन करने से आध्यात्मिक कायाकल्प होता है और कौआ, कोयल तथा बगुला हंस बन जाता है। रामायण के प्रतिपादनानुसार मात्र स्थान विशेष में जाकर पानी में डुबकी लगाने भर से वह प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता।

हमें उपरोक्त निर्देशन को भी अपनी जीवनचर्या में सिरे से सम्मिलित करना पड़ा और जो भी उपासना प्रयोजन के लिये पूछताछ करने, मार्गदर्शन लेने आये उन सबको यह बताना पड़ा कि मात्र जप संख्या पूरी करने से बात नहीं बनेगी। ऐसे तो कर्मकाण्ड की पूर्ति असंख्यों करते रहते और उसका अभ्यास पड़ जाने से ढर्रा भी स्वभाव का अंग बन जाता है। और कृत्य यथाक्रम चलता रहता है पर वह लाभ हस्तगत नहीं होता जिसकी आशा की गई थी।

कहा जा चुका है कि मंत्राराधन के अतिरिक्त निष्ठावान् साधक को अपनी जीवनचर्या में उपासना, साधना और आराधना का समन्वय करना चाहिये। स्मरण रहे, त्रिपदा गायत्री के तीन चरणों में इन तीनों विशिष्टताओं को मनोभूमि में ओत प्रोत कर लेने की आवश्यकता है।

उपासना स्थूल शरीर से सम्बन्धित है। साधना चिन्तन से सूक्ष्म शरीर से और आराधना के कारण शरीर अन्तःकरण से सम्बन्धित है।

उपासना में आत्मा को परमात्मा के साथ एकाकार करने का अभ्यास करना होता है। भावना बनानी पड़ती है कि आत्मा को परमात्मा के प्रति समर्पित किया गया और उसी के आदेशानुसार चलन के लिये सच्चे मन से सहमत हुआ गया।

उप समीप आसन माने बैठना। यह समीप बैठना इतना वास्तविक, भावनात्मक और घनिष्ठ होना चाहिये कि दोनों के मध्य एकता की अनुभूति होने लगे और अपनी सत की आकांक्षा को मिटाकर इष्ट देव की सत्ता में विलीन होने का अनुभव होने लगे।

बूँद समुद्र में गिरती है तो अपनी सत्ता खो बैठती है और समुद्र की महानता में तिरोहित हो जाती है। पानी के पात्र में नामक या शक्कर डालने पर उनका अपना अस्तित्व तो समाप्त हो जाता है पर उनका खारापन या मिठास समूचे जलपात्र में घुल जाता है। आग में ईंधन डालने पर ईंधन का स्वतन्त्र अस्तित्व मिटता है किन्तु वह स्वयं अग्नि रूप हो जाता है। यह स्थिति ईश्वरार्पण होने वाले भक्त जन की होती है।

नाला नदी में मिलता है तो वह अपनी हस्ती गंवाने पर गंदा नहीं रहता, वरन् गंगाजल ही बन जाता है। बेल अपनी पृथक् सत्ता में थोड़ी दूरी तक जमीन पर फैल सकती है किन्तु पेड़ से लिपट जाने पर वह उतनी ही ऊँची उठती जाती है जितना कि पेड़ है। पतंग में अपनी निज की कोई क्षमता भले ही न हो, पर जब वह अपनी डोरी कुशल उड़ाने वाले के हाथों सौंप देती है, तो आकाश नापने लगती है। बंशी में अपना कोई स्वर नहीं पर जब निज के कूड़े-कबाड़े से विरत होकर बजाने वाले के होठों से लगती है तो वादक की समूची कला उस स्वल्प मूल्य के वाद्य यंत्र से प्रकट होती है और सुनने वाले मंत्र मुग्ध रह जाते हैं। यह समर्पण का ही प्रतिफल है।

पत्नी जब अपना तन मन धन पति को समर्पित करके विवाह बंधन में बंधती है तो तत्क्षण उसका पति की ख्याति और सम्पदा पर अधिकार बन जाता है। डॉक्टर की पत्नी डॉक्टरनी पण्डित की पत्नी पण्डितानी सेठ की पत्नी सेठानी कहलाती है भले ही उसकी निज की विशेषता कुछ भी न हो। पति के वैभव पर उसका कानूनी हक उसी पति की सम्पदा पर तत्काल उत्तराधिकार मिलता है, भले ही विवाह को एक महीना ही क्यों न हुआ हो। इसी घनिष्ठता को समीपता या उपासना कहते है ओर उसके लाभ भी प्रत्यक्ष मिलते है।

यह लाभ उस वेश्या को नहीं मिल सकते, जो पैसे के लोभ में अपना शरीर बेचती और मनोरंजन करती रहती है। सकाम उपासनाएँ ऐसी ही घटिया वेश्यावृत्ति जैसी है जिसमें अपने स्वार्थों की मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये छुट पुट कर्मकाण्ड किये जाते है। और उनमें व्यवधान पड़ने पर पूजा पाठ छोड़ बैठने से लेकर खीजने और गालियाँ देते तक का सिलसिला चल पड़ता हैं ऐसी कामनाओं से भरी हुयी पूजा-पत्री एक प्रकार से उपासना का उपहास है।

यह व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव है। एक देवता के दो भक्त परस्पर शत्रु हों और विजय के लिये दोनों मनौती मनाये तो दोनों की इच्छापूर्ति कैसे हो? जो हारेगा, वह गाली सुनायेगा। यदि इतनी सस्ती मनोकामना पूर्ति रही होती, तो किसी को भी योग्यता, पात्रता, तत्परता बढ़ाने की प्रतियोगिता में जीतने की आवश्यकता न पड़ती। थोड़ी-सी टंट घंट से ही सारे मनोरथ सिद्ध हो जाया करते और संसार का कोई व्यक्ति कठोर पराक्रम के लिये तैयार न होता, सभी पूजा पाठ का हेरा-फेरी करके मनचाही इच्छाएँ पूर्ण करा लिया करते। इसलिये उपासना के तत्त्वज्ञान में अपनी कामनाओं की भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं की तिलाञ्जलि देनी पड़ती है। और ईश्वर की इच्छाओं को ही अपनी इच्छा बनानी पड़ती है। भगवान मनुष्य से दो ही अपेक्षा करते है एक आत्मशोधन, दूसरा लोकमंगल। जो इन दो कामों को जितनी मात्रा में जितनी तन्मयता और तत्परता से करते है समझना चाहिये कि वे ईश्वर की इच्छा के अनुरूप अपने को ढाल रहे हैं। ऐसे भक्त जन ही भगवत् स्वरूप हो जाते हैं और वे नर में नारायण प्रकट कर सकने की समर्थता से सम्पन्न हो जाते हैं।

व्यावहारिक जीवन को भक्ति भावना से ओत प्रोत कर लेने को साधना कहते है। साधना अर्थात् अपने आपको साध लेना संभाल लेना सुधार लेना। अनगढ़ को सुसंस्कृत बना लेना। जन्म जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कारों के कारण मनुष्य के गुण कर्म स्वभाव में नर पशु स्तर की निकृष्टताओं भरी होती है वे अनायास ही उभरती रहती है मन भी पानी जैसी प्रकृति का है जो ढलान की ओर ही सहज गिरता है। इस गिरावट को रोकने और ऊँचा उठाने के लिये घोर प्रयत्न करना अविवेक और अनाचार से लड़ पड़ने का साहस सँजोना, यह वह प्रयास है जिसे साधना कहते हैं। गीता में जिस महाभारत का धर्मयुद्ध का वर्णन है। वस्तुतः वह आत्मशोधन की प्रक्रिया है जिसके लिये स्वभावगत दुष्प्रवृत्ति से जूझना पड़ता है।

अनगढ़ आने को जो जितना श्रेष्ठ समुन्नत बना सका समझना चाहिये उसकी साधना जीवन साधना उसी अनुपात से सफल हुई। माली अनगढ़ पेड़ पौधों को काटता छाँटता रहता है उसके साथ उगे हुये खर पतवार को उखाड़ फेंकता है तभी वह नये किस्म की कलमें लगाता है और उसका उद्यान शोभायमान बन पड़ता है।

साँप, रीछ, बानर जैसे अनगढ़ जानवरों को मदारी कुशलता से नाचने में सफल होता है और उन्हीं की कमाई पर अपने परिवार को भरण पोषण चलाता है। आत्मशोधन की जीवन साधना का स्वरूप भी प्रायः इसी प्रकार का है। किसान बैलों से महावत हाथियों से काम लेते है। सरकस वाली वैसी ही कुशलता जीवन शोधन में भी दिखाने पड़ती है। सरकस वाले शेर, घोड़े, हाथी, रीछ, कुत्ते आदि जैसे जानवरों को ऐसे कर तब दिखाने के लिये प्रशिक्षित कर लेते है। जिन्हें देखकर दर्शकों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहे। वे जानवर यशस्वी हों और मालिक को असाधारण रूप से धन कमाने का अवसर प्रदान करें। ऐसे ही प्रयास आत्मनिर्माण के सम्बन्ध में किये जाते है तो उन्हें साधना के नाम से पुकारते है। साधना का अर्थ है व्यक्तित्व को चरित्र को आदर्श बनाना। इस प्रकार के व्यक्ति ही दूसरों पर अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं उनके कथन का मूल्य समझा जाता है और प्रभाव भी पड़ता है। जो उपदेशों के अम्बार लगाते रहते है पर निज के जीवन में खोखले रहते है। उनका कला कोशल सराहा जाता है पर उनका अनुसरण करने के लिये कोई तैयार नहीं होता है।

रंगमंच पर राजा, ऋषि आदि की साज सज्ज बनाकर अभिनय करने वाले मनोरंजन तो कर देते है पर दर्शकों में से कोई उनके सम्बन्ध में ये धारणा नहीं बनाता कि वे सचमुच ही राजा या ऋषि है। लो नेतृत्व के लिये आत्म परिष्कार की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। उपदेशक का आसन तो ऊँचा रखा ही जाता है उसके चरित्र भी सर्वसाधारण की तुलना में अधिक उत्कृष्ट और आदर्श होना चाहिये। इससे कम में बात बनती नहीं। जिसे करने के लिये प्रवृत्त हुआ गया है। जनता की साधन श्रद्धा न होने के कारण कार्यान्वित हो ही नहीं पाता।

एक नशेबाज अनेकों को नशेबाजी सिखा लेता है। एक वेश्या अनेकों को व्यभिचारी बना लेती है। चोर और उचक्के अपने गिरोह बना लेते है। इसका कारण एक ही है कि उनका कथन और कृत्य एक होता है बुरी बातों के सम्बन्ध में जो नीति काम करती है, वही नियम भले कामों के सम्बन्ध में भी है। स्थायी, प्रभावी और उच्चस्तरीय प्रेरणा देने और अनुयायी बनाने के लिये मनुष्य का अपना चरित्र ऊँचा होना चाहिये। यही जीवन साधना है। इसके लिये हर समय अपने ऊपर तीखी नजर रखनी पड़ती है। और जहाँ भी लोभ या दबाव के क्रम पैर डगमगाने लगें, वहीं अपने को संभालना पड़ता है। त्रिपदा गायत्री को जीवनचर्या में सम्मिलित करने के लिये उपासना साधना के अतिरिक्त तीसरा चरण आराधना का कार्यान्वित करना होता है। आराधना का अर्थ है। लोकमंगल की पुण्य-परमार्थ की सेवा साधना। सेवा धर्म का परिपालन भी ईश्वर भक्ति का ही एक चरण है।

विश्वव्यापी नियम और व्यवस्था की शक्ति के रूप में ब्रह्माण्ड भर में समाये हुये निराकार भगवान का चर्म चक्षुओं से दर्शन नहीं हो सकता। देव प्रतिमाएँ तो अपनी अपनी मान्यता के साथ ध्यान प्रयोजन के लिये गढ़ी जाती है। वस्तुतः वैसी प्रतिमाओं वाले देवता कहीं होते नहीं। होते तो अनेक सम्प्रदायों की पृथक् कहीं होते नहीं। होते तो अनेक सम्प्रदायों की पृथक् पृथक् मान्यताओं के अनुरूप अलग अलग नाम रूप के भगवान क्यों दृष्टिगोचर होते। होते तो सूर्य चन्द्र की तरह संसार भर में एक ही रूप दिखाई क्यों न पड़ता। तब भिन्नता कैसे होती। देव प्रकरण बाल- बोध की तरह लोक शिक्षण के लिये है।

आराधना जिसकी की जा सकती है जो चर्म चक्षुओं से देखा जा सकता है। वह विराट् रूप के दर्शन कराये गये। यशोदा भी कृष्ण का बालक रूप नहीं, वास्तविक रूप देखना चाहती थी, उन्हें भी माटी न खाने की सफाई देते हुये भगवान ने अपना विराट् रूप ही दिखाया। रामावतार में कौशल्या को पालने में और काकभुसुण्डि को खेल के मैदान में अपना यही विराट् रूप दिखाया था।

आराधना इसी विराट् विश्व की, की जा सकती है। आराधना अर्थात् सेवा। सेवा निराकार ब्रह्म सत्ता की नहीं हो सकती। उसका तो अनुशासन ही पाला जा सकता है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के क्षेत्रों में मानवी गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रहना, चरित्र भ्रष्ट न होना, आदर्शों का विधाओं का मर्यादापूर्वक पालन करना, कर्तव्यों का पालन ईश्वर को घट घट वासी मानकर करते रहना ही पर्याप्त है। उसे किसी के धूप दीपकों या मनुहार उपहार की आवश्यकता नहीं। वह निन्दा से या स्तुति से प्रभावित नहीं संवेदनाओं को उच्चस्तरीय बनाये रखने के लिये किया जाता है।

आराधना दृश्य संसार की, की जा सकती है। इसके लिये सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन और दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन करना पड़ता है। भगवान के अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म का उन्मूलन करने के लिये होते है। यह कार्य उसके अनुचरों को करने होते है। राम दल के रीछ, बानर, सेतु बाँधने, लंका उजाड़ने में ही नहीं, राम राज्य की स्थापना में अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में भी जुटे रहे। भगवान परशुराम ने अनीति से जूझने के लिये फरसा भी चलाया और इसके पश्चात् वे उद्यान आरोपण में जुट गये। यह दोनों ही पक्ष ईश्वराधना के धर्म सेवा के परमार्थ परायणता के है। इन्हीं में साधक को लगना पड़ता है।

किन्तु यह बन तभी पड़ता है जब लोभ ओर मोह के भवबन्धनों से अपने को निवृत्त कर लिया जाय, अन्यथा यह दो ऐसे महादैत्य है जो मनुष्य की सारी क्षमताओं को उदरस्थ कर जाते है और बदले में पापों का इतना भारी पोटला सिर पर लाद जाते हैं, जिनका प्रतिफल भुगतते भुगतते अनन्त काल तक नारकीय त्रास सहने पड़ते है।

मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताएँ मुट्ठी भर है। कुटुम्ब को न बढ़ाया और जो आश्रित है उन्हें स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनने भर तक का भार वहन किया जाय तो उसे निबाहते हुये परमार्थ प्रयोजनों के लिये ढेरों समय निकाला जा सकता है। यह पूर्णतया शक्य है संसार के असंख्य मनुष्य गृहस्थ जीवन यापन करते है लोक मंगल के एक से एक बढ़कर काम किये है। उनकी विशेषता एक ही रही है कि महत्त्वाकाँक्षाओं और तृष्णा अहंताओं से अपने को बचाये रखा सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त अपनाया और इतना अधिक काम कर सके कि अगणितों ने उनसे प्रकाश प्रेरणा प्राप्त की अनेकों ने यश गाथा गाई ओर अभिनन्दन किया। इतिहास उनकी कृतियों उल्लेख करते हुये धन्य हुआ।

मथुरा रहकर हमने अपनी बहिरंग साधना का यही स्वरूप रखा। रात्रि में शयन के अतिरिक्त उपासना सम्पन्न कर ली। दिन में अपने प्रति कठोरता और दूसरों के प्रति उदारता का व्यवहार करते रहे। आत्मशोधन ओर लोकमंगल की साधना का यही सुनिश्चित स्वरूप चलता रहा।

जो लोग संपर्क में आये, उन सबको गायत्री विधान और तत्त्वज्ञान से अवगत कराते हुये यही कहते रहे कि गायत्री त्रिपदा है। उसके तीन चरणों की तीन प्रेरणाएँ है उपासना, साधना और आराधना। यदि विधान के साथ तत्त्वज्ञान का सम्मिश्रण रखा गया। तो उसका समुचित लाभ प्राप्त होगा। अपने अनुभव की साक्षी देकर जब यह प्रतिपादन समझाया तो सम्पर्क में आने वालों में अधिकाँश ने उस मार्ग पर चलना अंगीकार किया। यही कारण है जहाँ मात्र पूजा पाठ करने वाले सर्वथा खाली हाथ रहते और प्रपंच रचते देखे गये है वहाँ हमारे द्वारा प्रशिक्षित गायत्री साधकों में से अधिकाँश ने अपने व्यक्तित्व का कायाकल्प किया और लोकसेवा के क्षेत्र में बढ़ चढ़ कर भूमिका निबाही। एक लाख से अधिक लोकसेवी कार्य क्षेत्र में उतारने का एक बहुत बड़ा कार्य इसी प्रशिक्षण से आरम्भ किया।

कार्यकर्ता भी ऐसे जिनमें योग्यता थी ओर प्रतिभा भी। अनेकों ने अपनी निजी सम्पदा को बेच बेच कर बैंक में जमा किया और उसके ब्याज से अपना निर्वाह करते हुये पूर्णतया अवैतनिक रूप से काम करते रहे। बहुत ही ऐसे थे। जिनके पास निजी साधन कम या नहीं थे। उन्हीं को मिशन से ब्राह्मणोचित निर्वाह लेना पड़ा। आजीवन इस प्रकार का व्रत निबाहने वाले ओर अपने आदर्श से असंख्यों में प्राण फूँकने वाले कार्यकर्ता जिनके पास हों ऐसे संस्था संगठन इतने बड़े परिमाण में कदाचित् ही कहीं दृष्टिगोचर होते है। जहाँ है वहाँ रामकृष्ण मिशन की तरह सफलतापूर्वक महत्वपूर्ण क्रिया−कलाप भी चल रहे है।

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