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Magazine - Year 1996 - Version 2

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रिश्ता इनसानियत का

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First 9 11 Last
आखिर कौन सा रिश्ता है-इनका आपसे, जिसके कारण आप समूचे रणभम्भौर को जोखिम में डाल रहे हैं? महामन्त्री के इस सहज प्रश्न के साथ ही सारे राजदरबार की आंखें महाराणा हम्मीर पर जा टिकीं। उन्होंने एक बार अपनी नजर सरदारों-सामन्तों-सभासदों पर डाली। फिर उस माहमशाह की ओर देखा जिसकी आँखों में कातरता झलक रही थी, चेहरे पर पीलापन छाया हुआ था और पाँव एक अनजाने भय से काँप रहे थे।

अभी कल ही की तो बात है जब वह इस ओर भागकर आ रहा था। अरावली की पहाड़ियाँ उसके अरबी घोड़े की टापों से गूँज उठीं थीं। उन टापों की लय बद्धता ने पत्थरों के सोने में भी स्पन्दन पैदा कर दिया था। घोड़े की अपरिमित गति अपने सवार की व्याकुलता को रह-रह कर व्यक्त कर जाती। अति तीव्र गति होने पर भी अश्व को व्यर्थ की एड़ लगाना सवार की किसी खास परेशानी का द्योतक था।

अश्व के साथ-साथ होड़ लगाती अपनी परछाई का निरन्तर छोटा होता जाना भी उसकी चिन्ता का कारण बन जाता, मानों वह समय की चाल को भी बाँध लेना चाहता हो, या फिर उसे अपने गन्तव्य पर अंधेरा होने से पहले ही पहुँचने की जल्दी थी।

हवा से बातें करते अश्व पर जब सन्ध्या ने अपना आँचल लहराया तो उस घुड़सवार ने ढलते सूरज की लालिमा को कुछ इस तरह देखा जैसे उसे वहीं अपनी आँखों में कैद कर लेगा और समय का चक्र एक बारगी थम जाएगा। पर वह ऐसा कुछ भी कर न सका और सन्ध्या के फैलते धुँधलके ने रात्रि के आगमन की सूचना देनी प्रारम्भ कर दी। उसने पुनः घोड़े को एड़ लगायी। रात्रि की काली चादर फैलने में अभी किंचित वक्त बाकी स्था, जब वह रणभम्भौर की सीमा में पहुँचा।

चेहरे पर चिन्ता और मन में भय संजोये, वह नगर के मुख्य द्वार पहुँचकर रुक गया। द्वार पर तैनात नगर रक्षकों ने जब उससे परिचय पत्र माँगा तो वह हाथ जोड़कर बोला, ‘मुझे रणभम्भौर के राणा हम्मीर से अभी मिलना है।’

द्वारपाल ने नजरों से ही ऊपर से नीचे तक उसका वहीं खड़े-खड़े परीक्षण कर डाला। वेशभूषा से वह कोई मुसलमान सिपाही जान पड़ता था। जिरह-बख्तर में कसा उसका लंबा-चौड़ा जिस्म उसकी बहादुरी का बखान कर रहा था। द्वारपाल का नम किसी अनजानी शंका से भर उठा। फिर भी आगन्तुक के प्रति अपनी मर्यादा भंग न करते हुए द्वार रक्षक ने अति सम्मान जनक शब्दों में उसका नाम एवं काम जानने की इच्छा प्रकट की। उसने भी नम्र निवेदन किया, ‘मैं केवल महाराणा को ही अपने आने का कारण बता सकता हूँ।’

द्वारपाल ने अपनी निगाहों से आसमान में जगमगा रहे सितारों की ओर नजर उठाकर कहा,’महानुभाव, इस वक्त तो दरबार कब का समाप्त हो चुका होगा और राणाजी अपने विश्राम कक्ष में पधार चुके होंगे। निश्चय ही आपको सुबह की प्रतीक्षा करनी होगी।’

आगन्तुक के चेहरे पर चिन्ता के भाव और भी बढ़ गए, व्याकुलता आँखों से झाँकने लगी। वह जिस परेशानी में घिरा था उससे उसे केवल राणा ही निकाल सकते थे, नहीं तो उसे उसी नगरी में मजबूरन वापस लौटना पड़ेगा, जहाँ मौत बेसब्री से उसकी राह देख रही थी। उसने विनम्र होकर कहा, ‘क्या कोई दूसरा उपाय नहीं कि अभी राणा से भेंट हो जाये?’ उसे अपने पहचान लिए जाने का भी डर सता रहा था।

‘यदि इतना ही आवश्यक है, तो मैं महामन्त्री को सूचित कर देता हूँ, वह जो भी आज्ञा दें।’

द्वारपाल ने अपना बिगुल बजाया तो विशाल द्वार के भीतर से कुछ अन्य सैनिकों की पदचाप उभरी। फिर छोटा द्वार खोल कर एक मुखाकृति ने बाहर झाँका। उसे कुछ सन्देशा देकर तुरन्त रवाना कर दिया गया। इधर उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

सन्देशवाहक तेज गति से घोड़ा दौड़ाता हुआ महामन्त्री के निवास पर जा पहुँचा और उन्हें पूरा समाचार दिया-सुनकर महामन्त्री के माथे पर कई लकीरें उभर आयीं, उनका हृदय शंकित हो उठा। क्या दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन की यह कोई नई चाल है, उनके मन में एक के बाद एक शंकाएं जन्म लेने लगीं, या तो कोई हमारे भेद लेने आया है, या सुल्तान किसी नयी सन्धि के लिए राणा को मजबूर करना चाहता होगा।’

उन्होंने अपना उत्तरीय कन्धे पर डाला और चल पड़े राणा के महल की ओर।

महामन्त्री की बात सुनकर राणा भी सोच में डूब गए। अलाउद्दीन और राजपूतों में खुला वैमनस्य है। उसका ज्यादा देर तक नगर द्वार पर ठहरना ठीक नहीं। सुबह की प्रतीक्षा करने से अच्छा है कि अभी भेंट कर ली जाय। हम्मीर ने महामंत्री से पूछा।

महामंत्री ने न चाहते हुए भी इसे स्वीकार कर लिया। कुछ देर के बाद ही उसे राणा के समा प्रस्तुत किया गया। वह राजसी सेना का बहादुर सिपाही लग रहा था। वह उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा। उसका सर झुका हुआ था।

‘तुम्हारे आने का कारण?’ राणा का स्वर गम्भीर था।

‘मेरे प्राण संकट में हैं और इस वक्त आपके संरक्षण का अभिलाषी हूँ, मुझे अपनी शरण में ले लें।’ उसका स्वर भीग चला था।

‘कौन हो तुम?’

‘मैं सुल्तान अलाउद्दीन की सेना का सिपहसालार माहमशाह हूँ। मुझे सुल्तान ने मौत का हुक्म दिया हैं’

‘तुम्हारा अपराध?’

‘मैंने उनके हरम के लिए अपनी बीबी को भेजना नामंजूर कर दिया। इस पर उन्होंने मुझे मौत की सजा दे डाली। अपनी बीबी को दूर के एक रिश्तेदार के यहाँ छोड़कर, मैं सीधा आपके पास भागता हुआ आया हूँ।

‘ओह!’ राणा हम्मीर किसी गहरे सोच में डूब गए। कुछ देर चुप रहकर उन्होंने कहा, ‘अच्छा अभी तो तुम विश्राम करो, ‘अच्छा अभी तो तुम विश्राम करो, कल दरबार में तुम्हारा फैसला होगा।’ और इन क्षणों में वह रणथम्भौर के राजदरबार में था। उसकी आँखों में याचना के भाव थे।

राणा ने एक बार फिर से उसकी ओर देखा। उनके चेहरे पर दृढ़ता थी। उन्होंने पास बैठे महामन्त्री को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘हममें इनसानियत का रिश्ता है, महामन्त्री जी! ‘ पर यह तो मुसलमान है!’ एक सरदार के मुँह से अनजाने में निकल पड़ा।

तो क्या मुसलमान इनसान नहीं होते। फिर शरणागत की रक्षा राजपूतों का पहला धर्म हमने तलवारें इसीलिए थामी हैं कि किसी उत्पीड़ित की मदद कर सकें और उत्पीड़ित न हिन्दू होता है, न मुसलमान, वह सिर्फ इनसान होता है।

सरदारों के मन में राणा की बहादुरी के प्रति पहले से ही सम्मान था। अब वे उसकी इनसानी ीवचनाओं के भी कायल हो गए। माहमशाह राणा का शुक्रिया अदा कर एक ओर हट गए। परन्तु उनके मन पर एक बोझा तो आ ही पड़ा कि अब युद्ध सुनिश्चित है। जल्द ही यह खबर अलाउद्दीन के कानों तक भी जा पहुँची। सुनते ही वह आपे से बाहर हो गया, ‘उस राजपूत की इतनी हिम्मत, कि मेरे मुजरिम को पनाह दे। क्या वह मेरी तलवार की धीरे से वाकिफ नहीं है। उसने राणा को एक धमकी भरा सन्देश भेजा।

तलवार की धार से भी ज्यादा धारदार सन्देश जब मखमल के कपड़े में लपेट कर राणा को भेजा गया, तो पढ़कर मुस्कराए। तुरन्त उत्तर लिखा भेजा।

‘सुल्तान, अपनी समझ से मैंने कोई गलती नहीं की । हम इनसान हैं कि मुसीबत जदा इनसान की मदद करना मेरा फर्ज है। वही मैंने किया है।’

दिल्ली दरबार में हम्मीर का जवाब क्या पहुँचा मानों बारूद के ढेर को पलीता लगा दिया है। अलाउद्दीन अब एक मिनट ठहर न सका। अपनी ताकत दिखाने तुरन्त अपनी फौजों के साथ रणथम्भौर जा पहुँचा और किले का घेरा डाल दिया।

दूसरी ओर से भी जवाब में रणभेरी गूँज उठी। युद्ध का सबब क्या था? एक ओर कामुक और रक्तपिपासु अहंकारी सुल्तान अपनी उन्मादी गर्जना कर रहा था। दूसरी ओर इनसानियत के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तत्पर हठी हम्मीर थे। इनसानियत के लिए मर मिटना ही हम्मीर के लिए इस युद्ध का सबब था।

रणचण्डी अपनी विनाश लीला चारों ओर फैलाने लगी। माहमशाह भी हम्मीर के कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ रहे थे। हम्मीर को चिन्ता थी तो बस किले में रह रहे, बच्चों, महिलाओं और वृद्धों की थी। रसद के मामले में भी दिन पर दिन उनका हाथ तंग होता चला जा रहा था। माहमशाह भी इस समस्या से अनजान न था। काफी सोच विचार कर उन्होंने हम्मीर से कहा कि वह उन्हें सुल्तान को सौंप कर समझौता कर लें।

हम्मीर ने एक नजर माहमशाह के चेहरे पर डाली और कहने लगे, ‘दोस्त! हम बहुत दूर निकल आए हैं। अब यह केवल तुम्हारा या मेरा युद्ध नहीं। यह पूरे राजपूताने की आन-बान-शान का सवाल है। मेरी और मेरे भाइयों की उन भावनाओं का है, जिनके अनुसार इनसानियत के लिए मर मिटना ही अपनी जिन्दगी का मकसद है। मैं मरते दम तक इसे निभाऊंगा।’

‘अब न मैं हिन्दू हूँ न आप मुसलमान, हम केवल इनसान हैं। हार-जीत की आप फिक्र न करें।’ माहमशाह राणा के इस कथन का का कोई उत्तर न दे सके। वह सोच रहे थे कि कल की लड़ाई के बाद तो किले में मुट्ठी भर सैनिक ही रह जाएंगे। खाना-पानी भी लगभग खत्म ही है। बाहर से मदद के लिए न तो कोई रास्ता है और न ही इसके आसरा या..........परवरदिगार ... वह एक लम्बी साँस खींच कर रह गए। वे अपने मददगार को इस अंजाम तक पहुँचा देंगे, इसका उन्हें अनुमान भी नहीं। अपनी गलती का जब एहसास हुआ, तो देर हो चुकी थी।

वह अपने हृदय की विकलता को कम करने के लिए किले की खुली छत पर आ गए। उनकी आत्मा उन्हें कचोट रही थी। अपने प्राणदाता के लिए वे कैसी मुसीबत बन गए। उसके लिए मुसीबत, जिसके दिल में यह रत्ती भर भी ख्याल न आया कि गैर जाति के आक्रान्ता को शरण देकर क्यों अपनी मुसीबत बुलाऊँ? केवल एक आदमी के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया। दिल्ली सुल्तान से भिड़ना कोई हंसी खेल न था। इस बात से भी वे अनभिज्ञ तो नहीं थे कि कल तक मेरी तलवार भी हिन्दुओं के खून की प्यासी हुआ करती थीं। यह विचार भी उनके हृदय में न आया। मुसीबतों का मारा जब मैं उनके सामने आकर खड़ा हुआ, तो उन्होंने, मुझे ऐसे गले लगा लिया, जैसे मैं उनका कोई बिछड़ा हुआ दोस्त हूँ। यही है इनसानियत का तकाजा। काश इसे हर कोई समझ पाता।’

अपने इन्हीं ख्यालों में डूबते-उतराते वह किले की छल के दूसरी ओर निकल गए। एक प्राचीर से ठिठक कर खड़े ही थे कि किसी की धीमी बातचीत का स्वर उनके कानों में पड़ा। उन्होंने तनिक ओर से छिप कर देखा तो हैरत में डूब गए। हम्मीर व उनकी नवोढ़ा रानी किसी वार्तालाप में निमग्न थे। रानी की पीठ उनकी ओर थी। हम्मीर कह रहे थे, ‘अब अन्त समीप है, मुट्ठीभर सिपाहियों से सुल्तान की विशाल शाही फौजों का मुकाबला नहीं किया जा सकता। हमने तो सिरों पर कफ़न बाँध लिए हैं, लेकिन तुम स्त्रियों ने क्या सोचा है? किले में अभी असंख्य ऐसी बालाएं हैं जो यौवन की देहरी लाँघ रही हैं। कल जब किले पर शत्रु का कब्जा हो जायगा तो किसी की भी लाज नहीं बचेगी।’

‘इसकी चिन्ता आप तनिक भी न करें, हम सभी जौहर करेंगी।’ महारानी का यह कथन सुनकर हम्मीर के चेहरे पर निश्चिन्तता के भाव उठे। पर माहमशाह को ऐसा लगा जैसे किसी ने उनके सीने में खंजर घोंप दिया है। राणा हम्मीर का स्वर उभरा, ‘मुझे राजपूत वीराँगनाओं से यही उम्मीद थी।’ फिर बात बदलने के लिए उन्होंने उगते चन्द्रमा की ओर इशारा किया, जिसे देखने वह वीर नारी पलटी तो माहमशाह की नजरों के सामने हजारों तारे झिलमिला उठे। रूप लावण्य से प्रदीप्त वह मुखमण्डल एक और चन्द्रमा के उदय होने का भ्रम उत्पन्न कर रहा था। माहमशाह की आँखें उसे देखकर श्रद्धा से झुक गयी। वह धीरे से एक ओर हट गए।

दूसरे दिन उन्होंने फिर से महाराणा के पाँव पकड़ लिए। बोले, ‘राणा यह युद्ध नहीं आत्माहुति होगी। स्वयं को मृत्यु के हवाले करना कहाँ की बुद्धिमानी है। मुझे सुल्तान के हवाले कर सुलह कर लीजिए। मैं अब और ज्यादा दोस्ती का बोझ नहीं ढो सकता, मासूम बच्चों एवं महिलाओं की हत्या का पाप अपने सिर नहीं ले सकता, अभी भी वक्त है, मेरी बात मान लो।’

राणा ने उन्हें छाती से चिपटा लिया। भाव भरे स्वर में बोले, मुझे कायर न बनाओ दोस्त, जीवन किसी के काम आ जाए तो बड़ा पुण्य होता है। जानता हूँ कल का दिन युद्ध का नहीं, आत्माहुति का है। परन्तु मानवीय भावनाओं के लिए अपने सर्वस्व का बलिदान करना ही तो जीवन की परिभाषा है। कुछ पल रुक वह गम्भीर स्वरों में कहने लगे।’ युद्ध की पहल मैंने तो नहीं की थी। माहम, तवारीख गवाह है कि आज तक एक भी हिन्दुस्तानी किसी दूसरे देश पर आक्रमण करने नहीं गया। न हमें जमीनों की चाह है और न ही खूनी होली खेलने का शौक। इसके बावजूद भी विदेशी घुसपैठिये दा हमारी सीमाओं में घुसकर आतंक फैलाते रहे और हमारी शान्ति को भंग करते रहे। आज तक ये क्रम जारी है। हम शान्ति और भाईचारे के कायल हैं पर कायर नहीं, हमारी तलवारों पर जंग नहीं लगा है। जब भी कोई हमारी भूमि रोंदेगा या हमें अपमानित करेगा, मुँह की खाएगा। जाति-धर्म का भेद हमारे दिलों में नहीं उपजता, सत्य और न्याय हमारी दुधारी तलवार की धारें हैं।’ हम्मीर के स्वरों में उनकी आत्मा का ओज झलक रहा था। माहमशाह उनकी भावनाओं से अभिभूत हो गए। उनकी आँखों से ये भावनाएँ बह निकलीं।

अगले दिन किले का मुख्य द्वार खुलने से पहले सभी स्त्रियों ने अपने-अपने पतियों के माथे पर तिलक किया, उनकी आरती उतारी। सभी आँखें सजल थीं।

द्वार खोल दिया गया। सबसे आगे घोड़े पर राणा हम्मीर स्वयं थे। उनके साथ थे माहमशाह। पीछे अन्य सिपाही थे। माहमशाह ने सबसे पहले हर-हर महादेव का जयघोष किया फिर राजपूत सैनिकों ने उनके स्वर मिलाया और कूद पड़े युद्ध भूमि में। माहमशाह की तलवार युद्ध में अपना करतब दिखाती रही। वह महाराणा की ढाल बने आततायियों का संहार करते रहे। अन्ततः वह घायल हो गए। हम्मीर ने दूसरे हाथ से लपक कर उन्हें थाम लिया। अलविदा मेरे रहनुमा...। ‘और वह उनकी बाहों में हमेशा के लिए सो गये। उनके बाद महाराणा और फिर सारी सेना ही युद्ध भूमि में खेत रही। इधर जैसे ही ध्वज झुका, उधर किले में अग्नि ज्वालाएँ आसमान छूने लगी।

सुल्तान अलाउद्दीन अपनी जीत का जश्न मनाता हुआ किले में घुसा। पर प्राँगण में राख का ढेर देखकर वह सहम गया। यह इनसानियत के दीवानों की राख थी, जिसे देखकर उसकी हैवानियत काँप उठी। उसे आगे बढ़ कर ढेर में से एक मुट्ठी राख उठायी, और खड़ा होकर सोचता रहा-इनसानियत के रिश्ते के बारें में, कितनी अनोखी है इसकी गरिमा। मुट्ठी से सरक कर उड़ती राख को देखकर वह सोचने लगा-किलों, महलों, राज्यों पर विजय पाने के बदले-काश मैं इनसानी दिलों को जीत सकता। इनसान से इनसानियत के रिश्ते कायम कर पाता। अब उसे अपने बौनेपन का अहसास हो चुका था। परन्तु इतिहास साक्षी है कि उसका यह अहसास क्षणिक मात्र था। इसके बाद भी रक्तपात हुए, आराध्य गृह तोड़े गये एवं जबरन धर्मान्तरण की प्रक्रिया चलती रही। काश कोई इनसानियत के मूल आधार सम्प्रदाय भेद से परे इस मर्म को समझ पाता तो शायद आज जाति वर्ग धर्म के नाम पर खून की होलियाँ न बह रही होतीं। इनसानियत का यह रिश्ता हम सबके लिए एक सबक भी है और एक मील का पत्थर भी जो हमें आगे की यात्रा का मार्ग सुझाता है।

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