• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • अन्तःलोक का आलोक
    • आशावाद से बड़ी कोई संजीवनी नहीं
    • आजीवन करती रही (kahani)
    • तंत्र साधना : एक सुव्यवस्थित विज्ञान
    • दावानल की तरह बढ़ती चली (kahani)
    • अहंकार गंदगी है, मल है।
    • आड़े समय में भारी सेवा (kahani)
    • ईश्वर का युवराज-ज्येष्ठ पुत्र-मनुष्य
    • एक अनोखा उदाहरण (kahani)
    • प्रकाशमय स्वर्ग - तमोमय नर्क
    • प्रजाजन रुष्ट भी न होने पाए (kahani)
    • इस युग के महासंताप की महौषधि
    • Quotation
    • प्रमाणित कर दिया (kahani)
    • ज्योति अवतरण की शक्तिदायी साधना
    • Kahani
    • भावनाओं को अभिव्यक्त करती देहभाषा
    • विद्वानों में मान्यता (kahani)
    • आस्तिकता का प्रबल परिचायक ‘स्व’ का सम्मान
    • यह कहना अतिशयोक्ति (kahani)
    • हर मनुष्य के लिये अनिवार्य शिष्टाचार
    • मृत्युदंड का भागी (kahani)
    • रोग दूर भगाएँ-भाँति-भाँति के प्राणायाम
    • Quotation
    • तुम्हारी जड़े, ही खोखली हो गई (kahani)
    • अध्यात्म बताता है लौकिक के साथ आत्मिक प्रगति का पथ
    • लड़-भिड़कर समाप्त हुए थे (kahani)
    • विकास ऐसा हो जो उत्कृष्टता की ओर ले चले
    • पछताने का भी मौका न मिला (kahani)
    • आयुर्वेद-6 - क्वाथ चिकित्सा द्वारा जटिल रोगों का सरल उपचार
    • शिष्य संजीवनी-2- - सबसे पहले शिष्य अपनी महत्वाकांक्षा छोड़े
    • संतान का निर्माण (kahani)
    • अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-जहाँ विवेक है, वहाँ वैराग्य होगा ही
    • घर वापस लौट गए (kahani)
    • गुरुगीता-13 - गुरु से बड़ा तीनों लोकों में और कोई नहीं
    • अपनी सहायता आप करते हैं (kahani)
    • ऋषित्व को विकसित करने वाला श्रावणी पर्व
    • समुदाय को श्रेष्ठ नागरिक देते है (kahani)
    • राष्ट्र के अर्चन-आराधना का महापर्व
    • 24 अवतारों में से एक माने गए (kahani)
    • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-अध्यात्म साधना का मर्म-1
    • VigyapanSuchana
    • युगगीता-46 - परम शाँतिरूपी मुक्ति का एकमात्र मार्ग
    • सफलता का मूल मंत्र (kahani)
    • चेतना की शिखर यात्रा-18 - सिद्धि के मार्ग पर संकल्प-2
    • आजीवन ब्रह्मचारिणी रहीं (kahani)
    • गुरुकथामृत-46-गुरु समान कोई मित्र न दूजा
    • प्रभु का अयाचित सहयोग kahani)
    • तीर्थसेवन का लाभ लें, जीवन साधनामय बनाएँ
    • अपनों से अपनी बात-1 - श्रावणी पर्व पर आत्मचिंतन करें, गुरुसत्ता के स्वरूप को जानें
    • अपनों से अपनी बात-2 - आगामी वसंत से पूर्व वरिष्ठ नियोजकों के विशिष्ट प्रशिक्षण
    • राह नई तैयार है
    • राह नई तैयार है (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login





Magazine - Year 2003 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


विकास ऐसा हो जो उत्कृष्टता की ओर ले चले

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 27 29 Last
अभिवृद्धि की कामना सभी करते हैं और विस्तार को प्रगति एवं सफलता का चिन्ह मानते हैं। इतने पर भी यह ध्यान रखने योग्य है कि अभिवृद्धि स्वस्थ और संतुलित होनी चाहिए, अन्यथा अनावश्यक फैलाव कई बार उलटी समस्या बन जाता है।

शरीर में चर्बी बढ़ जाने से जो स्थूलता आती है वह आँखों को भले ही संपन्नता का चिन्ह लगे और मोटा व्यक्ति भले ही अपनी समृद्धि की शेखी बघारे, पर वस्तुतः यह बढ़ा हुआ भार हर दृष्टि से असुविधा ही उत्पन्न करता है। सूजन आने से किसी अंग की स्थूलता बढ़ सकती है, पर उससे किसी को कोई सुविधा या प्रसन्नता नहीं हो सकती।

सुविधा-साधनों के लिए मची हुई आतुर भगदड़ के फलस्वरूप संपन्नता बढ़ी है, पर यह नहीं कह जा सकता कि इससे स्वस्थ विकास का कोई उपयोगी आधार खड़ा हो रहा है। प्रगति एवं समृद्धि की प्रशंसा तभी की जा सकती है, जब यह सही साधनों से उपलब्ध हुई हो और उसका उपयोग किन्हीं श्रेष्ठ प्रयोजनों के लिए किया जाता हो। इसके विपरीत यदि अवांछनीय तरीकों से वृद्धि हुई है और बढ़ोत्तरी का उपयोग अनुपयुक्त प्रयोजनों के लिए किया जाना है तो निश्चय ही इस उन्नति की तुलना में वह सामान्य स्थिति ही अच्छी थी, जिसमें असंतुलन उत्पन्न होने की आशंका तो नहीं थीं

उदाहरणार्थ, अपने समय में औसत मनुष्य के बढ़ते हुए मस्तिष्कीय भार को लिया जा सकता है। मस्तिष्क पर चिंताओं का भार बढ़ने की बात यहाँ पर नहीं कही जा रही है, वरन् उस तथ्य का उल्लेख किया जा रहा है, जिसके अनुसार खोपड़ी के भीतर भरे हुए पदार्थ के भार और विस्तार दोनों में ही बढ़ोत्तरी हो रही है। उस अभिवृद्धि के कारण लाभ नहीं हो रहा, अपितु उलटा घाटा सहना पड़ रहा है। यह वृद्धि वैसी ही है जैसी कुसंस्कारी की। उसकी बढ़ी हुई संपदा दुष्ट-दुर्गुणों को बढ़ाने का निमित्त बनती है। हाल ही में ब्रिटिश चिकित्सकों ने परीक्षण कर यह निष्कर्ष निकाला है कि मानव मस्तिष्क का भार निरंतर बढ़ रहा है। लंदन इंस्टीट्यूट ऑफ सायकिएट्री के प्रोफेसर डॉ. कोर्मेलिस एवं डॉ. मिलर ने अपनी शोध द्वारा यह सिद्ध किया है कि मानवी मस्तिष्क की क्षमता का बराबर ह्रास हो रहा है एवं उसी अनुपात में उसका वजन भी बढ़ता जा रहा है।

लंदन के अस्पतालों में मरने वाले 20 वर्ष से 60 वर्ष तक की आयु के 317 स्त्री-पुरुषों के शवों की परीक्षा करके उनने पाया कि सन् 1960 से 1980 के मध्य एक पुरुष के मस्तिष्क का औसत भार 1372 ग्राम से बढ़कर 1424 ग्राम हो गया। इसी अवधि में एक महिला के मस्तिष्क का भार 1242 ग्राम से बढ़कर 1264 ग्राम हो गया। इसी अनुपात में स्नायु रोगों की संख्या एवं आत्महत्या करने वालों की तादात भी बढ़ी। अमेरिका में प्रतिवर्ष 500, व्यक्ति आत्महत्या कर लेते है। भारत में भी आत्महत्या हेतु प्रेरित लोगों की संख्या कम नहीं है।

इन वैज्ञानिकों के अनुसार भार एवं आयतन का सीधा संबंध है। मस्तिष्क के भार के अनुपात में आयतन भी बढ़ा है। इसी कारण कसे स्नायु रोगों का आधिक्य हुआ है। ऐसा लगता है कि भौतिक सुखों की तलाश में मनुष्य के मस्तिष्क पर अधिक बोझा आ गया है। बीसवीं शताब्दी के इस अभिशाप को हम मानसिक अशाँति एवं रोगों की बढ़ती संख्या के रूप में प्रत्यक्ष देखते हैं।

यह देखकर अत्यंत आश्चर्य होता है कि अमेरिका में, जो विश्व का सर्वाधिक उन्नत, आधुनिक एवं संपन्न राष्ट्र है, इतनी अधिक आत्महत्याओं का कारण क्या है? आज से सौ वर्ष पूर्व का मानव अपनी सीमाओं में सुरक्षित था, शाँति पूर्ण जीवन जीता था, उनमें पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता नहीं थी। आज का मानव आक्रामक एवं प्रतिद्वंद्वी है एवं मनोविकारग्रस्त भी। अस्तु, वर्तमान प्रगति मानव मस्तिष्क के लिए बोझ बन गई है। विज्ञान की अतुलनीय उन्नति ने पिछली अनेक शताब्दियों के ज्ञान को समेटकर मानव मस्तिष्क पर लाद दिया है।

शरीर के कार्य करने की अपनी प्रक्रिया है। विभिन्न क्रियाएँ अपनी निर्धारित गति से कार्य करती है। इस गति, लय तथा ताल में आया अंतर संपूर्ण क्रियाओं को गड़बड़ा देता है और क्रियाओं की यह असामान्य अवस्था उसे रोगी बना देती हैं।

प्रतिद्वंद्विता, उत्तेजना तथा उलझावों के कारण मानव मस्तिष्क भावनात्मक धरातल पर कमजोर पड़ गया है। कमजोर मस्तिष्क उसकी निर्णय शक्ति का साथ नहीं दे पाता तो वह मानसिक सुप्तता के लिए दवाओं का सहारा लेता है और यही दवाएँ उसे मृत्यु के निकट पहुँचा देती हैं। विक्षिप्त व्यक्ति समाज के लिए घातक एवं बोझा तथा मृत व्यक्ति के समान होता है।

मस्तिष्क की उत्कृष्टता पर मानवी प्रगति का सारा ढाँचा खड़ा हुआ है। उससे अनेकानेक उपयोगी प्रयोजन सध सकते है, पर यह संभव तभी है, जब उसका मूलभूत ढाँचा अपनी स्वाभाविक एवं संतुलित स्थिति में बना रहे। इस सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि मनुष्य को बहुत वजन डालने वाला काम अत्यधिक मात्रा में न लिया जाए। दिनचर्या में यह गुंजाइश रहनी चाहिए कि हँसने-खेलने, विनोद-उपार्जन एवं शारीरिक श्रम के लिए समुचित समय सुरक्षित रख जाए। अत्यधिक श्रम लेने से मस्तिष्क की वैसी ही दुर्गति होती है, जैसी एक सोने का अंडा देने वाली मुरगी की हुई थी। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखा ही जाना चाहिए कि मनोविकारों की उत्तेजना मनःसंस्थान को बुरी तरह जलाती , झुलसाती और विषाक्त बनाती है। चिंता, भय, निराशा, द्वेष लिप्सा, लालसा जैसे मनोविकारों को जो अनावश्यक दबाव इन दिनों पड़ रहा है, वही इस मस्तिष्कीय भार वृद्धि का प्रधान कारण है। मोटेतौर से हर बढ़ोत्तरी सौभाग्य का चिन्ह मानी जाती है, पर मस्तिष्क भार का बढ़ना प्रत्यक्षतः हानिकारक दुष्परिणाम उत्पन्न कर रहा है।

ठीक यही बात, वर्तमान समृद्धि एवं प्रगति के संबंध में की जा सकती है, जो सुविधा-साधनों के रूप में बढ़ती रही है, पर उसके उपार्जन एवं उपयोगी में नीतिमत्ता का समावेश नहीं हो रहा है। विस्तार का उपयोग तभी है, जब उसके स्तर में न्यूनता न आने पाए।

रबर और स्प्रिंग को खींचने पर वे फैल जाते है, पर यह फैलाव तात्कालिक ही होता है। खिंचाव के हटते ही वे अपने पूर्ववर्ती स्तर और स्थिति में आ जाते हैं, अर्थात् वे हर हालत में उस स्तर को स्वयं में धारण किए रहते हैं। यही दशा सही कही जा सकती है। जो अपने विस्तार के साथ-साथ स्तर को गिराए, वह अवस्था सर्वथा अयोग्य और अस्वीकार्य है।

मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति भी एक प्रकार का स्तर-विस्तार ही है। उसमें आदमी अपनी सीमाबद्ध स्थिति से ऊँचा उठता है और ईर्ष्या-द्वेष एवं कामना, वासना अहंता जैसे दोषों का परित्याग कर जब स्वयं को पूर्ण रूप से निर्मल बनाता है तो यह स्थिति आदरणीय बनती और अनुकरणीय कहलाती है। विस्तार का यही रूप वरेण्य है। जहाँ अभिवृद्धि सिर्फ आडंबर के लिए हो, वहाँ हानि-ही-हानि है। उसे हर प्रकार से अमान्य और हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

अभिवृद्धि उत्कृष्टता का ही दूसरा नाम है। जो विकास निकृष्टता की ओर धलेके और असंतुलन एवं असामंजस्य पैदा करे, वह प्रगति जैसा दिखने वाला अवगति ही है। इससे हर हालत में बचा जाना चाहिए।

First 27 29 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • अन्तःलोक का आलोक
  • आशावाद से बड़ी कोई संजीवनी नहीं
  • आजीवन करती रही (kahani)
  • तंत्र साधना : एक सुव्यवस्थित विज्ञान
  • दावानल की तरह बढ़ती चली (kahani)
  • अहंकार गंदगी है, मल है।
  • आड़े समय में भारी सेवा (kahani)
  • ईश्वर का युवराज-ज्येष्ठ पुत्र-मनुष्य
  • एक अनोखा उदाहरण (kahani)
  • प्रकाशमय स्वर्ग - तमोमय नर्क
  • प्रजाजन रुष्ट भी न होने पाए (kahani)
  • इस युग के महासंताप की महौषधि
  • Quotation
  • प्रमाणित कर दिया (kahani)
  • ज्योति अवतरण की शक्तिदायी साधना
  • Kahani
  • भावनाओं को अभिव्यक्त करती देहभाषा
  • विद्वानों में मान्यता (kahani)
  • आस्तिकता का प्रबल परिचायक ‘स्व’ का सम्मान
  • यह कहना अतिशयोक्ति (kahani)
  • हर मनुष्य के लिये अनिवार्य शिष्टाचार
  • मृत्युदंड का भागी (kahani)
  • रोग दूर भगाएँ-भाँति-भाँति के प्राणायाम
  • Quotation
  • तुम्हारी जड़े, ही खोखली हो गई (kahani)
  • अध्यात्म बताता है लौकिक के साथ आत्मिक प्रगति का पथ
  • लड़-भिड़कर समाप्त हुए थे (kahani)
  • विकास ऐसा हो जो उत्कृष्टता की ओर ले चले
  • पछताने का भी मौका न मिला (kahani)
  • आयुर्वेद-6 - क्वाथ चिकित्सा द्वारा जटिल रोगों का सरल उपचार
  • शिष्य संजीवनी-2- - सबसे पहले शिष्य अपनी महत्वाकांक्षा छोड़े
  • संतान का निर्माण (kahani)
  • अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-जहाँ विवेक है, वहाँ वैराग्य होगा ही
  • घर वापस लौट गए (kahani)
  • गुरुगीता-13 - गुरु से बड़ा तीनों लोकों में और कोई नहीं
  • अपनी सहायता आप करते हैं (kahani)
  • ऋषित्व को विकसित करने वाला श्रावणी पर्व
  • समुदाय को श्रेष्ठ नागरिक देते है (kahani)
  • राष्ट्र के अर्चन-आराधना का महापर्व
  • 24 अवतारों में से एक माने गए (kahani)
  • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-अध्यात्म साधना का मर्म-1
  • VigyapanSuchana
  • युगगीता-46 - परम शाँतिरूपी मुक्ति का एकमात्र मार्ग
  • सफलता का मूल मंत्र (kahani)
  • चेतना की शिखर यात्रा-18 - सिद्धि के मार्ग पर संकल्प-2
  • आजीवन ब्रह्मचारिणी रहीं (kahani)
  • गुरुकथामृत-46-गुरु समान कोई मित्र न दूजा
  • प्रभु का अयाचित सहयोग kahani)
  • तीर्थसेवन का लाभ लें, जीवन साधनामय बनाएँ
  • अपनों से अपनी बात-1 - श्रावणी पर्व पर आत्मचिंतन करें, गुरुसत्ता के स्वरूप को जानें
  • अपनों से अपनी बात-2 - आगामी वसंत से पूर्व वरिष्ठ नियोजकों के विशिष्ट प्रशिक्षण
  • राह नई तैयार है
  • राह नई तैयार है (kavita)
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj