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Magazine - Year 2003 - Version 2

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Language: HINDI
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ऋषित्व को विकसित करने वाला श्रावणी पर्व

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धरती पर छायी हरियाली और आसमान में छायी मेघमालाओं के बीच श्रावणी संस्कार एवं संकल्प बन कर बरस रही है। बारह महीनों के अनुक्रम में श्रावण का महीना कुछ विशेष है। धरती और सूर्य के खगोलीय सम्बन्ध पृथ्वी में पड़ने वाले अंतर्ग्रहीय प्रभाव इस महीने को कई विशेषताओं से अलंकृत करते हैं। श्रावण मास समूची प्रकृति को सम्पूर्ण व समृद्ध बनाता है। बाह्य प्रकृति एवं पर्यावरण इस माह जितने संतुलित एवं समृद्ध होते हैं, उतने अन्य महीनों में कभी नहीं हो पाते। मानव की अन्तःप्रकृति की समृद्धि एवं शृंगार के लिए भी इस महीने का महत्त्व कुछ ज्यादा है। अध्यात्म विद्या के विशेषज्ञों ने इस महीने के लिए अनेक तरह के धर्माचरण अनुष्ठान एवं तपश्चर्या के विधान सुझाए हैं।

अध्यात्म तत्त्व के जिज्ञासुओं के लिए श्रावण मास के पल-प्रति-पल का महत्त्व है। आध्यात्मिक जीवन शैली को अपनाने से इस महीने का हर पल न केवल उन्हें संस्कारित करता है, बल्कि संकल्पवान् बनाता है। ये संस्कार कितने प्रबल हुए, संकल्प शक्ति कितनी विकसित हुई? श्रावणी पर्व में इसी की परीक्षा होती है। श्रावण पूर्णिमा के इसी दिन समूचे वर्ष अपनाए जाने वाले आध्यात्मिक अनुशासनों का संतुलन बिठाया जाता है। महानता के महाशिखर पर चढ़ने के लिए नए महासंकल्प किए जाते हैं। अन्तश्चेतना में शुभ संस्कारों की नयी पौध रोपी जाती है।

संस्कार एवं संकल्प यही दो ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्तित्व में ऋषिता को विकसित करते हैं। इन्हीं के अवलम्बन, आश्रय एवं अनुपालन से व्यक्ति ऋषि बनता है। इन दो तत्त्वों, दो सत्यों एवं दो तथ्यों पर ऋषि जीवन शैली का समूचा ढाँचा खड़ा है। आज के दौर में यदि उत्कृष्ट जीवन शैली का अभाव दिखता है तो इसका कारण एक ही है कि ऋषित्व का लोप हो गया है। बढ़ती हुई मानसिक बीमारियाँ, पर्यावरण संकट, अभाव, असफलता से घिरी हुई जिन्दगी केवल यही बात दर्शाती है कि संस्कारों एवं संकल्प के महत्त्व को लोग भूल गए हैं।

अपनी जिस बेशकीमती धरोहर को भारतवासी भुला बैठे हैं, पश्चिमी दुनिया के लोग उसे ही अपनाकर सफलता व समृद्धि की सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे हैं। शक्ति गावेन, हैरी एल्डर, रचनात्मक चेतना की भाव गंगा बहा रहे हैं, उसकी सारी शक्ति का स्रोत संस्कार एवं संकल्प ही है। आर्ट ऑफ लिविंग के नाम से जो कुछ भी वर्तमान विश्व में हो रहा है उसका आधार भी ऋषि चिंतन के कर्त्तव्य सूत्र ही हैं। यह अलग बात है कि हम सब आज खुद ही अपनी धरोहर को विस्तृत कर चुके हैं। विज्ञानवेत्ता, समाजशास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक सभी एक स्वर से संस्कार एवं संकल्प के महत्त्व को अनुभव कर रहे हैं। सबका कहना यही है कि मानवीय व्यक्तित्व एवं मानवीय समाज को नए सिरे से गढ़ना-ढालना है तो ऋषिचेतना एवं चिंतन को जागृत करना होगा।

संस्कार हमारे व्यक्तित्व में चमत्कारी परिवर्तन करते हैं। व्यक्तित्व की अनेकों गूढ़ एवं रहस्यमयी शक्तियाँ संस्कारों से जागृत होती हैं। संकल्प इन शक्तियों के सही ढंग से प्रकट होने का माध्यम है। इन्सानी जिन्दगी के किसी भी मोड़ पर यदि उन्हें कर लिया जाये तो जीवन प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष में बदल जाता है। जिन्हें बचपन से ऋषि जीवन सूत्रों के अनुरूप गढ़ा-ढाला गया हो, उनके सौभाग्य का तो कहना ही क्या? श्रावणी पर्व इसी सौभाग्य दान का महापर्व है।

यज्ञोपवीत परिवर्तन एवं प्रायश्चित के रूप में हेमाद्रि संकल्प इस पर्व के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हैं। इन दोनों कार्यों में संस्कारवान्, व्रतशील एवं संकल्पवान् जीवन का तत्त्व ही संजोया गया है। यदि हमने विगत वर्ष को तप साधना एवं व्रताभ्यास के साथ व्यतीत किया है, तो उसमें इस वर्ष कतिपय नये आयाम विकसित करें। श्रेष्ठता की कक्षा को उत्तीर्ण कर श्रेष्ठतर व श्रेष्ठतम की ओर बढ़ें। यदि संयोग से अभी तक हम ऐसा कुछ भी नहीं कर सके हैं, तो इस वर्ष श्रेष्ठता के लिए संकल्पित हों। अटल विश्वास एवं प्रगाढ़ निष्ठ के साथ ऋषि जीवन की राह पर बढ़ें।

श्रावणी पर्व के साथ संस्कार-संस्कृति की रक्षा के संकल्प के साथ नारी जीवन की महिमा-गरिमा भी अनिवार्य रूप से रहती है। आज के भोगवादी दौर में नारी भी भोग का एक साधन बनकर रह गयी है। दूषित दृष्टि एवं कलुषित भावनाओं ने उसकी महिमा को धूल-धुसरित कर दिया है। उपभोक्तावाद ने उसको एक उत्कर्ष ब्राण्ड बनाकर बाजार में परोस दिया है। संस्कार और संवेदना के स्थान पर रूप और सौंदर्य से उसे परिभाषित किया जाने लगा है। इस विकृति की परिष्कृति का अनिवार्य अनुबन्ध भी श्रावणी पर्व के साथ जुड़ा हुआ है।

रक्षा बन्धन इसी अनुबन्ध की पावन संज्ञा है। युवा नर-नारियों में पनपने वाली दूषित दृष्टि को भाई-बहन के पावन सम्बन्धों से ही निर्मल बनाया जा सकता है। युवाशक्ति की सार्थकता इसी में है कि वह नारी की गरिमा का सम्मान करे। उसके संरक्षण एवं विकास में अपना योगदान दे। बहिनें इसी विश्वास के साथ भाई की कलाई में रक्षा सूत्र बाँधती हैं। स्नेह सूत्र के इसी महीने धागों को अनगिन पवित्र भावनाएँ बँधी और पिरोयी रहती हैं। रक्षा संकल्प के इन धागों ने मातृभूमि में इतिहास के कई अमिट लेख लिखे हैं। महारानी कर्मवती व युगल सम्राट हुमायुँ, राजरानी द्रौपदी एवं योगेश्वर कृष्ण की पवित्र भावनाओं की अनेकों गाथाएँ इतिहास और पुराणों के पन्नों में लिखी हैं।

श्रावणी पर्व के गागर में सम्भावनाओं के सागर समाएँ हैं। इसमें अणु में विभु का, स्वराट् में विराट् का, व्यष्टि में समष्टि का, पिण्ड में ब्रह्मांड का दर्शन किया जा सकता है। आज के युग में इसका महत्त्व अतीत की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक है। क्योंकि वैज्ञानिक समृद्धि व तकनीकी विकास के दौर में हताश और हतप्रभ जीवन के लिए ऋषि चिंतन के पुनरावर्तन की जरूरत अधिक है। व्यक्तित्व विकसित हो, समाज संस्कारित हो, पर्यावरण समृद्ध हो, नारी जीवन की पवित्रता व अस्मिता सुरक्षित रहे, ये सारे संदेश श्रावणी पर्व में ध्वनित होते हैं। इस पर्व का मनाने का अर्थ है- इन्हें आत्मसात् करना। ऐसा करके ही हम ऋषि जीवन की द्वार पर सफलता पूर्वक चल सकते हैं।

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About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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