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Books - असीम पर निर्भर ससीम जीवन

Media: TEXT
Language: HINDI
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आस्तिक दर्शन के वैज्ञानिक आधार

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एक प्रश्न का सही उत्तर भी सदैव एक होता है, दो नहीं। यदि उत्तर दो हों तो उनमें से एक का असत्य होना अवश्यम्भावी है यह एक बात हुई। जिसका उत्तर सही होता है वह उत्तीर्ण विद्वान और विचारवान् घोषित किया जाता है जिसका हल त्रुटिपूर्ण होता है यह माना जाता है कि उसका अध्ययन अपूर्ण रहा—यह दूसरी बात हुई। एकिक नियम से इन दोनों बातों को यों भी कहा जा सकता है विद्वान विचारवान् और अध्ययनशील व्यक्तियों के निष्कर्ष मान्य होने चाहिये जबकि जिन्होंने किसी विषय का स्पर्श हीन किया हो उसके उत्तर से सन्तुष्ट नहीं होना चाहिये।

परमात्मा का अस्तित्व है या नहीं, इस बात की पुष्टि के लिये यदि उपरोक्त सिद्धान्त को कसौटी पर कसें तो लगता है मात्र सतही ज्ञान वाले या निषेध बुद्धि व्यक्तियों ने ही उपरोक्त मान्यता का खंडन किया है, विज्ञान वेत्ताओं में अधिकांश सभी ने या तो इस सम्बन्ध में प्रायोगिक तौर पर अपनी अनभिज्ञता व्यक्त की है या फिर उन्होंने पूरी तरह ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास व्यक्त किया है।

ईश्वर की मान्यता सृष्टि का सर्वोच्च विज्ञान है और परम सत्य की खोज, विज्ञान का इष्ट। अतएव वैज्ञानिकों के निष्कर्षों की उपेक्षा करने का अर्थ असत्य का समर्थन और सत्य से इनकार के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। अखण्ड-ज्योति में समय-समय पर वैज्ञानिकों की वह सम्मतियां प्रकाशित की जाती रही हैं जिनमें उन्होंने विराट् के प्रति, असीम के प्रति श्रद्धावश, ज्ञान के अगाध विस्तार और मानवीय विवेक के आधार पर समर्थ सत्ता के औचित्य को स्वीकार किया है। ऐसा ही जोरदार प्रश्न एक बार अमेरिका के वैज्ञानिकों के सम्मुख वहां के बुद्धिवादियों ने उठा दिया। उस समय ‘न्यूयार्क एकेडमी आफ साइन्सेज’ के तत्कालीन अध्यक्ष—वैज्ञानिक एम्सक्रेफी मारिशन ने उसका उत्तर इतने तार्किक और व्यवस्थित ढंग से दिया जिसने डारविन के सिद्धान्त को मानने वालों में तहलका मच गया। ईश्वरीय अस्तित्व के प्रतिपादन में उन्होंने जो सात मूलभूत आधार निश्चित किये हैं वे इतने सशक्त और प्राणवान् हैं जिनसे एकाएक तो कोई पूर्वाग्रह ग्रस्त नास्तिक भी इनकार नहीं कर सकता। यह सातों सिद्धांत भारतीय सिद्धान्त सृष्टिकर्त्ता के (1) सृजन कर्ता (2) पालन कर्ता (3) संहारकर्ता तीनों स्वरूपों का प्रतिपादन करते हैं।

योरोप तथा एशिया के वैज्ञानिकों के समक्ष अपनी बात प्रस्तुत करते हुए मारिशन महोदय ने बताया कि सृष्टि संरचना पर दृष्टि दौड़ाते हैं तो ऐसा लगता है सारा निर्माण किसी गणितज्ञ, सूझ-बूझ वाले, बुद्धिमान चीफ इंजीनियर की देख-रेख, प्लानिंग के अन्तर्गत हुआ है सृष्टि का प्रादुर्भाव एकाएक, अकस्मात् दुर्घटनावश, यों ही नहीं हो गया। रेल की रेल से, मोटर से, पुल से दुर्घटना हो जाती है, तो ध्वंस होता है, विनाश होता है, त्राहि-त्राहि मचती है जबकि संसार में अच्छी से अच्छी और उससे अच्छी प्रसन्नतादायक रचनायें होती होती चली आती हैं, ध्वंस के स्थान पर व्यवस्था दिखाई देती है। प्रसन्नता, प्रफुल्लता, उल्लास, उत्साह और प्राणों की छलकन दिखाई देती है। दुर्घटना कभी-कभी होती है, आकस्मिकता का नम्बर करोड़ों बार के प्रयोगों में कहीं एक बार आता है। उदाहरण के लिये दस-दस पैसे के दस सिक्के लें। उन पर एक से दस के नम्बर डाल दें। सारे सिक्कों को दोनों हथेलियों का घोंसला बनाकर देर तक हिलायें और उन्हें फिर एक गड्डी में रख दें। यह क्रिया सौ, दो सौ बार दुहरायें तो यह सम्भव है कि एक नम्बर का सिक्का ठीक एक नम्बर पर ही आ जाये। हजार दो हजार बार में एक नम्बर के बाद दूसरा भी क्रम में आ सकता है, चार-पांच हजार बार में सम्भव है, एक-दो तीन नम्बर वाले सिक्के भी क्रम में आ जायें। एक सक दस तक के सभी सिक्के एक ही क्रम में आ जायें। उस स्थिति के लिये लाखों-करोड़ों नहीं असंख्य बार यह क्रिया दुहरानी पड़ सकती है। यदि सिक्कों को आंखों से देख करें, ज्ञान से उनके नम्बर पढ़कर क्रम बार लगायें तो एक से अधिक बार की क्रिया दोहरानी नहीं पड़ेगी। प्रकृति की, सृष्टि की सुव्यवस्थायें इस बात की प्रमाण हैं कि यह सारी रचना प्रकाश में, बुद्धि के द्वारा देख-सुन-समझ और निष्कर्षों को ध्यान में रखकर की गई है।

सूर्य, जीवन का स्रोत और प्राणीय चेतना का आधार माना गया है। वह पृथ्वी से 9 करोड़ मील दूर है उसकी सतह का तापमान 12000 डिग्री फारेनहाइट का है, पहले तो यही बात स्पष्ट है कि यदि इस दूरी को थोड़ा भी कम कर दिया जाता तो पृथ्वी में इतनी भयंकर ऊर्जा होती कि न तो यह वृक्ष वनस्पति होती और न प्राणि जगत-जीवन के लिये जितने ताप की आवश्यकता है उतना, इतनी ही दूरी में सन्तुलित रह सकता। यही नहीं कुछ ऐसी किरणें भी हैं जो इतनी दूरी पर भी विनाश कर सकती थीं उनसे रक्षा के लिये वायुमण्डल (आइनोस्फियर) के रक्षा कवच में पृथ्वी को बन्द कर दिया गया। बात इतने से भी बनती नहीं थी, यदि पृथ्वी को स्थित रखा गया होता तब भी यहां इतना अधिक ताप आ जाता कि लोग भाड़ की गर्मी में भुन जाने वाले चने की तरह जलकर फुटका हो जाते। इस दृष्टि से पृथ्वी को जानबूझ कर उसकी अपनी ही कक्षा में प्रति घन्टे एक हजार मील की गति से घुमा दिया गया जिससे मरुत देव गतिमान हुए और उनने ताप और शीत का नियन्त्रण प्रारम्भ कर दिया। कदाचित इस गति को 1000 की अपेक्षा 100 मील प्रति घण्टे कर दिया गया होता तो इसका अर्थ यह होता कि पृथ्वी के दिन और रात 120 घन्टे के, 120 घंटे के होने लगते। 12 घन्टे की गर्मी और सक्रियता से थककर चकनाचूर हो जाने वाले मनुष्य को दस गुने बड़े दिन को काटना ही कठिन पड़ जाता ऊपर से मध्याह्न की किरणें इतनी वीभत्स अग्नि वर्षा करतीं कि मिट्टी में भी आग लग जाती और वह स्वयं भी जलकर या तो तरल लौ कि शक्ल में हो जाती या भाप बनकर उड़ जाती। रात में यही स्थिति ठीक उल्टी अर्थात् हिम-प्रलय जैसी होती। उस स्थिति में जीवन की कल्पना करना ही कठिन होता है। जो बात सूर्य की दूरी से ऋतु नियन्त्रण पर लागू होती है, वही चन्द्रमा की दूरी पर, समुद्र के नियन्त्रण पर। इस दूरी में थोड़ा भी अन्तर पड़ने से चन्द्रमा ही पृथ्वी को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता।

उस बड़े इंजीनियर का रेखागणित ज्ञान तो उस समय आश्चर्य चकित कर देता है, जब पता चलता है कि पृथ्वी अपने ही कक्ष में 23 (अंश) झुकी हुई है। यदि ऐसा न होता तो महासागरों का सारा जल वाष्प विभक्त होकर कुछ उत्तरी ध्रुव में भाग जाता कुछ दक्षिणी ध्रुव में। फिर न यह सुहाने बादल आते, न रिमझिम वर्षा होती, न झरनों की झरझर, न नदियों की कलकल, पौधों का बढ़ना, फूलना, फलना सारी शोभा विनाश के गर्भ में डूब जाती।

पृथ्वी कुल दस फुट मोटी होती तो जीव जगत के लिए ऑक्सीजन ही सम्भव न होता। समुद्र दस फुट गहरा होता तो कार्बन डाई ऑक्साइड और ऑक्सीजन का सन्तुलन ही न बैठता, वायु मण्डल विरल होता तो तारों का उल्कापात इस तरह होता मानो किसी बगीचे में आम टपकते हों सारी धरती, लहू लुहान होती, सौन्दर्य नाम की तो यहां कोई सत्ता ही नहीं होती।

अपना दूसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए डा. मारिशन ने बताया कि जिन दिनों डारविन विकासवाद सिद्धान्त प्रतिपादित करने में जुटे थे उन दिनों ‘‘प्रोटोप्लाज्मा’’ या ‘‘कोशिका विज्ञान’’ का प्रादुर्भाव नहीं हो पाया था। इस विज्ञान से जीवन का सूक्ष्मतम स्वरूप आया और यह सिद्ध हो गया कि कोशिका उसी तरह का एक ब्रह्माण्ड है जैसा हमारा बाह्य दृश्य ब्रह्माण्ड। उसमें से नाभिक की इच्छा से प्लाज्मा की हलचल होती है स्वयं साइटोप्लाज्मा से नाभिक नहीं बनता। इसे यों समझ सकते हैं कि दृश्य प्रकृति का निर्माण सूर्य करता है। इस दृश्य प्रकृति ने सूर्य का निर्माण नहीं किया। यह चेतना ही जीवन है और भार न होने पर भी इतना शक्तिशाली है कि पौधे में अभिव्यक्त होता है तो चट्टान को फोड़कर ऊपर आ जाता है। इतना बड़ा कलाकार है कि फूलों में तरह-तरह के रंग भरता रहता है। प्रत्येक जीव को समूह गान की प्रेरणा देकर उसने अपने आपको महान संगीतज्ञ और प्रत्येक फूल में अलग-अलग तरह की गन्ध भर कर उसने अपना महान रसायनज्ञ (केमिस्ट) स्वरूप ही दर्शा दिया है।

बाजार की किसी खिलौने वाली दुकान में जाते हैं तो झांझ बजाने वाली गुड़िया नाच दिखाने और ढपली बजाने वाले बन्दर, दौड़ने वाले घोड़े, तेज गति से दौड़ने वाली बसें, रेलें और हैलिकॉप्टर आदि, तरह तरह के खिलौने देख कर मन प्रसन्न हो उठता है। सामान्य दृष्टि में यह खिलौना चाभी भर देने से चलने वाले होते हैं। पर विचारशील व्यक्ति इसे इंजीनीयरिंग बुद्धि का कौशल मानते और उन कारीगरों की प्रशंसा करते हैं जिन्होंने उनके भीतर इस तरह की मशीनरी का निर्माण कर दिया जिससे निर्जीव घोड़े, प्लास्टिक के बने बन्दर भी सजीव से गति करते दिखाई देने लगते हैं।

सृष्टि में दृष्टि दौड़ायें तो लगता है यहां भी एक विलक्षण इंजीनीयरिंग कमाल भरा हुआ है। खिलौनों की मशीन की तुलना प्रकृति के नन्हें-नन्हें जीव-जन्तुओं से लेकर विशालकाय पशुओं तक की अन्तःप्रवृत्तियों से की जाती है। इनमें मनुष्यों की तरह की विचारशक्ति नहीं होती, उनमें लिखने-पढ़ने या गूढ़ विषयों को सोचने समझने की भी सामर्थ्य नहीं होती, पर जिस तरह चाभी भरे हुए खिलौने वैसी ही गति करने लगते हैं जैसे उनके मूल उपमान तो यह विश्वास न करने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता कि सृष्टि का कोई नियंता नहीं है। अन्तः प्रवृत्तियों का यह इतिहास इतना अचरज भरा है कि उसमें सिवाय सृष्टि सृजेता के सर्वज्ञ सर्व कुशल और सर्वशक्तिमान होने के अतिरिक्त दूसरी बात ही मस्तिष्क में नहीं आती। अस्तित्व में न होने की बात तो बिलकुल ही गले नहीं उतरती।

सालमन मछली वर्षों तक समुद्र में रहती है और जब कभी अपने जन्म स्थान की याद करती है तो समुद्र से चलकर अनेक बड़ी नदियों, सहायक नदियों की यात्रा करती हुई ठीक उसी स्थान पर पहुंच जाती है जहां उसका जन्म हुआ था यदि उसे विपरीत दिशा में मोड़ने का प्रयत्न भी किया जाये या धोखा देने का प्रयास किया जाये तो भी उसे बहकाया नहीं जा सकता वह फिर कर लौटेगी अपने सही स्थान को ही।

टिड्डियां किसी उपयुक्त स्थान पर अण्डे देकर उड़ जाती हैं। पीछे बिना अभिभावकों की देखरेख के अण्डों से बच्चे निकल आते हैं और अपने पूर्वजों के पीछे-पीछे यात्रा पर उसी दिशा में चल पड़ते हैं और कुछ समय पश्चात् अपने पितरों से जा मिलते हैं।

प्रवासी पक्षी एक ऋतु कहीं गुजारते हैं दूसरी के लिये कठिन यात्रायें करके ठीक उसी स्थान पर जा पहुंचते हैं जहां उनके वंशधर आते जाते रहे हैं यह सारे कार्य अन्तःप्रवृत्ति के सहारे चलते हैं यह प्रवृत्तियां और कुछ नहीं वह चाबियां हैं जो नियन्ता ने उनमें पहले से भर कर छोड़ दी हैं।

ईल मछली इस तरह का सर्वाधिक आश्चर्यजनक उदाहरण है। दुनियां भर की सभी ईलें चाहें वह ग्रेट वियर की हों या काश्मीर की डल झील की, अण्डे बच्चे वे अटलांटिक के बारमुड़ा क्षेत्र में जहां समुद्र संसार में सबसे गहरा है, में ही देती हैं यह वही स्थान है जहां से पृथ्वी किसी ऐसे ब्रह्माण्डीय शक्ति प्रवाह से जुड़ी है जहां के आकाश में गया कोई भी जहाज आज तक लौटा नहीं, यह कहां अन्तर्धान हो जाते हैं यह आज तक भी कोई जान नहीं पाया।

झीलों की ईलें, वहां से निकलने वाली नदियों से होकर समुद्र और समुद्र से अटलांटिक महासागर और वहां से बारमुड़ा पहुंचती हैं यहां बच्चे देकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देती हैं जिस मछली ने कोई भूगोल नहीं पढ़ी जिसे महाद्वीपों का ज्ञान नहीं। वही ईलें यहां जन्म लेने के उपरांत अपने माता-पिता के देश चल देती हैं और बड़े-बड़े महासागर पार कर ठीक वहीं जा पहुंचती हैं जहां उनके माता-पिता कभी जीवन यापन किया करते थे।

ततैया की तरह का कीड़ा वाष्प ऐसा जीव है जिसके बच्चों को विकास के लिये जीवित जीव का ही मांस चाहिये मृत का नहीं, वाष्प कीड़ा घास के कीड़े को पकड़ता है और उसे मिट्टी में इस तरह गाड़ देता है जिससे वह मरता नहीं वरन् मूर्च्छित हो जाता है इस तरह जीवित किन्तु अचेतन घास के कीड़े से ही यह बच्चे अपना विकास कर लेते हैं। यह बुद्धि का खेल नहीं है यह मात्र भरी हुई चाभी का खेल है यदि बुद्धि की बात होती तो हाथी विधिवत् खेती कर रहे होते, शेर अपने बच्चों के लिये विद्यालय खोले हुए होते, भेड़ियों की मनुष्य से मित्रता हो गई होती, बन्दर बगीचों के मालिक हो गये होते। ठीक उसी तरह जिस तरह चाभी भरा घोड़ा आदमी को देशाटन करा सकता है, हर मनुष्य की अपने रेलगाड़ी होती और हैलिकॉप्टर से कम में कोई यात्रा नहीं कर रहा होता।

. मनुष्य में बौद्धिक क्षमताओं की असीम सम्भावनायें परमात्मा के अस्तित्व का चौथा बड़ा प्रमाण है। इस इलेक्ट्रानिक युग में जब कि दुनिया भर के सारे कार्य कम्प्यूटर करने लगे हैं, मानवीय बुद्धि की तुलना में सभी हतप्रभ हैं। गणित के उतने हल जितनी जानकारियां भरी गई हों कम्प्यूटर प्रदान कर सकता है, पर किसी भी तरह की बात का तात्कालिक, परिस्थितिजन्य तथा ऐसा उत्तर जिसमें भावनायें, सम्वेदनायें भी जुड़ी हुई हों वह दे नहीं सकता। शरीर की रचना जैसी मशीन नहीं, इस रूप में उसने साक्षात् अपनी ही चेतना का एक अंश मानवीय प्राणों में घोल दिया है।

अब जब कि विज्ञान की एक नई धरा जेनेटिक्स (अनुवांशिकी) का विकास हो रहा है यह विलक्षणताएं और भी स्पष्ट होने लगी हैं। उंगली के एक छोटे से पोर में ही 2 हजार मिलियन अर्थात् 20000000000 विचित्रताएं और शक्तियां गुण सूत्र रूप में सन्निहित पाई गई हैं इसका अर्थ यह हुआ कि एक मनुष्य के शरीर में सारा ब्रह्माण्ड उस तरह समाया हुआ है जिस तरह एक नन्हें बीज में वृक्ष की सारी सम्भावनाएं विद्यमान रहती हैं। यदि छोटे से पिण्ड की दो आकृतियां अर्थात् एक जड़ प्रकृति, दूसरी चेतन दो शक्तियां कार्यरत हैं उसी तरह ब्रह्माण्ड में भी उस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है यह समष्टि चेतना ही परमात्मा हो सकती है यदि यह दो तत्व भिन्न न होते मृत्यु के बाद भी शरीर के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान रहने पर भी मनुष्य की चेतना का लोप नहीं हो जाता। प्रकृति अपने आप में अत्यन्त समर्थ सत्ता है, पर जीव के उत्पादन की क्षमता उसमें नहीं है यदि मनुष्य कर ले तो उसे भी चेतन अंश की क्रिया-अनुसंधान कहा जा सकता है।

अध्यात्म की, परमात्मा की कल्पना अपने आप में एक महान् शोध है। यह कल्पना नहीं बुद्धि का गणितीय निर्णय है इसमें भले ही अंग प्रयुक्त न हुये हों उसमें बुद्धि की दौड़ उससे भी बहुत अधिक उत्कृष्ट स्तर पर हुई है। अज्ञात की कल्पना न कर सकें इसका यह अर्थ नहीं कि अज्ञात होता ही नहीं यह बात हमारे जीवन व्यवहार में प्रतिदिन देखने को मिलती रहती है। इस तरह मानवीय भावनाओं ने जिस समर्थ सत्ता का स्पर्श अनुभूति के रूप में किया और उसके प्रति श्रद्धा के सतोगुणी सत्परिणाम प्राप्त किये उसे यों ही झुठला देना व्यक्ति विशेष के तात्कालिक सन्तोष का कारण हो सकता है। आज की समस्याओं का एक मात्र आधार यह अनास्था ही है उसे दूर किया जा सके तो मानवीय गरिमा अत्यन्त समर्थ, समृद्ध और समुन्नत रूप में चरितार्थ हो सकती है।

गणितीय आधार पर ही नहीं, वस्तु परक दृष्टि से भी ईश्वर का अस्तित्व संसिद्ध है। यह तो एक मानी हुई बात है कि वे सभी वस्तुयें जो प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती अस्तित्व हीन नहीं हैं। उदाहरण के लिए हवा को किसने देखा, आकाश का अनुभव किस प्रकार का होता है। ये दोनों तत्व दृष्टि और प्रत्यक्ष अनुभव में नहीं आते। फिर भी इनका अस्तित्व है। ईश्वर के अस्तित्व को केवल इसी आधार पर अस्वीकारा जाता है कि उसका कोई अनुभव नहीं होता। विज्ञान की ओर से भी ईश्वर का अनस्तित्व सिद्ध करने के लिए ढेरों तर्क दिये जाते हैं।

परन्तु अब विज्ञान को भी अपनी मान्यतायें बदलना पड़ रही हैं। विज्ञान क्या है? प्रकृति के रहस्यों को समझने और उनसे लाभ उठाने के लिए की जाने वाली गवेषणा तथा प्रयोग। प्रत्यक्षवादी मान्यताओं के प्रति आग्रहशील रहने के कारण ही विज्ञान अपनी हठवादिता पर दृढ़ रहा है। लेकिन जैसे-जैसे प्रकृति के रहस्यों में गहरा उलटा जाने लगा वैसे-वैसे अब विज्ञान को सृष्टि की नियामक नियंत्रण कत्री चेतन सत्ता का अस्तित्व स्वीकार करने के लिए बाध्य सा होना पड़ रहा है।

परमात्मा सृष्टि का संचालक है—

विश्व विख्यात वैज्ञानिक डा. अरिस्टोटल के लिए संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य था, ब्रह्माण्ड का स्वरूप और उसकी नियमित गति। एक प्रकाश वर्ष की दूरी 186000×60×60×24×3651/5=20543997900000 मील होती है। सैद्धान्तिक अनुमान है कि यह जो ब्रह्माण्ड दिखाई दे रहा है, वह 50 करोड़ प्रकाश वर्ष की दूरी में (व्यास) में फैला हुआ है। हम जिस सूर्य के प्रकाश से अपना जीव चलाते हैं, वह जिस आकाशगंगा (नोबुल) से प्रकाश लेता है, ऐसी-ऐसी दश करोड़ आकाश गंगायें अन्तरिक्ष में प्रकाश फलती हुई अरबों सूर्यों को चमका रही हैं। इसमें अन्य ग्रह-नक्षत्रों की तो संख्या गिनी भी नहीं जा सकती।

इतना बड़ा संसार भी कितनी नियम और व्यवस्था के साथ चल रहा है। और तो और हमारा मस्तिष्क गणित के द्वारा पहले ही ग्रह नक्षत्रों के परिभ्रमण पथ पर होने वाले ग्रहण आदि संघातों का पता लगा लेता है, इसका अर्थ है कि संसार अनियमित नहीं। इतने विराट जगत को घुमाने वाला कोई महान् शक्तिशाली तत्व होना चाहिये। अरिस्टोटल का कथन है, वह केवल ईश्वर ही हो सकता है। भगवान के अतिरिक्त और किसी में यह शक्ति नहीं ‘‘परमात्मा सृष्टि का संचालक है।’’ यह उनकी मान्यता थी। हर्बर्ट स्पेंसर की दृष्टि में भगवान एक विराट्-शक्ति है, जो संसार की सब गतिविधियों का नियन्त्रण उसी प्रकार करते हैं, जिस प्रकार मुखिया घर का, प्रधान गांव का, कलेक्टर जिले का, गवर्नर प्रदेश का और राष्ट्रपति सारे राष्ट्र की भोजन, वस्त्र, निवास, सुरक्षा आदि की व्यवस्था करता है। उन्होंने कहा—‘‘राज्य के नियमों का हम इसलिये आदर करते हैं, क्योंकि हमें राज्य की शक्ति से भय होता है। नैतिक नियमों का पालन न करने पर भी हमें भय लगता है, जबकि हम उसके लिये पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं, यह इस बात का प्रमाण है कि संसार में कोई सर्वोच्च सत्ता काम करती है, हम उसके परिचय में कभी न कभी रहे हैं। क्यों कि हम डरते हैं। निर्भीक व्यक्ति नैतिक व्यक्ति ही हो सकता है, इसलिये उसे संसार की व्यवस्था ईमानदारी और न्याय से करने वाला प्रजावत्सल तत्व होना चाहिये।’’

सुप्रसिद्ध दार्शनिक कान्ट ने हर्बर्ट स्पेंसर के कथन को अधिक स्पष्ट किया है। वह लिखते हैं—‘‘नैतिक नियमों से स्वीकृति ही परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण और पूर्ण नैतिकता ही उसका स्वरूप है। संसार का बुरे से बुरा व्यक्ति भी किसी न किसी के प्रति नैतिक अवश्य होता है। चोर डकैत भी नहीं चाहते कि कोई उनसे झूठ बोले, छल या कपट करे। जबकि वे स्वयं सारे जीवन भर यही किया करते हैं। अपने भीतर से नैतिक नियमों की स्वीकृति इस बात का प्रमाण है कि संसार केवल नैतिकता के लिये ही जीवित है, उसी से संसार का निर्माण, पालन और पोषण हो रहा है, इसलिये भगवान् नैतिक-शक्ति के रूप में माना जाने योग्य है।’’

हैब्रयू ग्रन्थों में ईश्वर को ‘जेनोवाह’ कहा गया है। जेनोवाह का अर्थ है, वह जो सदैव सत्य नीति ही प्रदान करता है। मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को ठगता देखा जाता है पर पाया गया है कि ऐसा व्यक्ति कुछ ही दिनों में लोगों के आदर से, सम्मान से वंचित हो जाता है। कभी-कभी तो ऐसे लोगों की इसी जीवन में दुर्गति होते देखी गई है। इस सब का यह अर्थ है कि विश्व की सम्पूर्ण व्यवस्था किसी सत्य के आधार पर चल रही है। जो भी उससे हटने का प्रयत्न करता है, वह पीड़ित और प्रताड़ित होता है, जबकि इन नियमों पर आजीवन आरूढ़ रहने वाले व्यक्ति सांसारिक दृष्टि से कुछ घाटे में भी रहें तो भी उनकी प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं आता।

सत्य और नीति निष्ठा द्वारा संसार का नियन्त्रण करने वाली ऐसी शक्ति जो प्रत्येक व्यक्ति की आकांक्षाओं में विद्यमान् रहती है, वही ईश्वर है।

प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटों की ईश्वरीय मान्यता भी लगभग ऐसी ही थी, वह कहते थे—‘‘ईश्वर अच्छाई का विचार है।’’ संसार के प्रत्येक व्यक्ति यहां तक कि जीव-जन्तुओं को भी अच्छाई की चाह रहती है। जहां अच्छाई होती है, वहीं आनन्द रहता है। अच्छाई शरीर और सौन्दर्य की जो संयम और सदाचारों के द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई शरीर और वस्त्रों की जो धोने और स्नान करने से सुरक्षित हो, अच्छाई वातावरण की, घर, गांव और नगरों की जो स्वच्छता और सफाई द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई प्रकृति की, जो हरे भरे पौधों और खिलते हुये रंग-बिरंगे फूलों, भोलेभाले पशु-पक्षियों के कलरव और उछल-कूद से सुरक्षित हो। इस तरह संसार में हम सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करने प्रसन्नता अनुभव करते हैं। यही प्रभुत्व हैं, इन्हीं से आनन्द मिलता है, इन्हीं से संसार में आगे का मजा आता है। सो भगवान को यदि मानें तो उसे अच्छाई का वह बीज मानना पड़ेगा, जो आंखों को दिव्य मनोरम और बहुत प्यारा लगता है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन से एक बार उनके एक मित्र ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा—‘‘आप वैज्ञानिक होकर भी ईश्वर में आस्था रखते हैं? उसकी प्रार्थना किया करते हैं? यदि भगवान् सचमुच है तो वह क्या है?’’

‘ज्ञान’ न्यूटन ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया। उन्होंने कहा—‘‘हमारा मस्तिष्क ज्ञान की खोज में जहां पहुंचता है वहीं उसे एक शाश्वत चेतना का ज्ञान होता है। कण-कण में यह जो ज्ञान की अनुभूति भरी हुई है, वह परमात्मा का ही स्वरूप है। सृष्टि का कोई कण चेतना से वंचित नहीं, परमात्मा इसी रूप में सर्वव्यापी है। ज्ञान की ही शक्ति से संसार का नियन्त्रण होता है, विनाश करना चाहो तो भी ज्ञान की ही आवश्यकता होती है। परमात्मा इस रूप से ही सर्व शक्तिमान है। शरीर के एक-एक कोष (सेल्स) में ज्ञान की ही पैठ है और उससे कोई सूक्ष्म तत्त्व नहीं, जो अणु से अणु में भी प्रवेश कर सके, परमात्मा इस रूप में ही अनंत विस्तार के जगत् में समाया हुआ है।’’

स्पिनोजा ने विज्ञान और दर्शन दोनों का अध्ययन करके बताया कि ‘‘संसार में दो प्रकार की सत्तायें काम कर रही हैं, एक दृश्य, एक अदृश्य। एक का नाम है, प्रकृति या पदार्थ यह दिखाई देता है। दृश्य संसार प्रकृति की ही रचना है, अपना शरीर भी पदार्थ से बना है। इसमें भी धातुयें, खनिज, लवण, गैसें आदि भरी पड़ी हैं पर विचार उससे भिन्न है, यह दिखाई नहीं देता पर हम उसे हर घड़ी अनुभव करते हैं। हमारे जीवन की सारी क्रियाशीलता विचारों की ही देन है। विचार ठण्डे पड़ते ही शरीर ठण्डा पड़ जाता है। विचार मरे कि शरीर मर गया। मृत्यु के अन्तिम क्षण तक विचार प्रक्रिया का बने रहना यह बताता है कि विचार ही विश्व-व्यापी चेतना या ईश्वर है। विचार कभी नष्ट नहीं होते, ईश्वर भी अविनाशी है। निःसन्देह अविनाशी विचार ही भगवान् हैं। या यों कहें कि भगवान् का स्वरूप, गुण और विचारमय ही हो सकता है, चाहें वह किसी शक्ति कणों के रूप में हो अथवा प्रकाश रूप में पर विचारों का अस्तित्व संसार में है अवश्य। हम सदैव ही उनसे प्रेरित, प्रभावित होते रहते हैं। विचारों को कोई भी व्यक्ति अपना नहीं कह सकता। फ्रायड को भी कहना पड़ा था कि विचार अवचेतन मन से आते हैं और मनुष्य का उस पर कोई नियन्त्रण नहीं, वह कोई स्वतन्त्र सत्ता है।’’

वैज्ञानिक हीगल ने भी भगवान् को सामान्य इच्छाओं से उठा हुआ, इच्छाओं को भी नियन्त्रण में रखने वाला परम (एब्सोल्यूट आइडिया) बताया है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष में देखने से हमारा मस्तिष्क एक प्रकार से विचारों का पुंज है, इसी के किसी कोने से विचारों का प्रवाह निरन्तर चलता रहा है। इसी तरह सारे विश्व में फैले विचार किसी केन्द्रीभूत सत्ता से प्रस्फुटित हो रहे हैं, जिस प्रकार सूर्य में ऑक्सीजन जलती रहती है और हीलियम के कण उछलते रहते हैं, उसी प्रकार संसार के किसी भाग से नियमित विचारों का निर्झर झरता रहता है। इस केन्द्रीभूत सत्ता का नाम हीगल ने परमेश्वर बताया।

इमर्सन और बर्कले के मत में सब आत्माओं में श्रेष्ठ शक्ति का नाम ही परमात्मा है। उन्होंने तत्व-दर्शन का सहारा लिया था। सारा संसार कहीं से उधार प्राण और चेतना ले रहा है। यह चेतना और प्राण शक्ति अपने मूलरूप में एक जैसी ही है। विचार ग्रस्त होने के कारण वह अनेक जीवों के रूप में दिखाई देती है पर आत्म-चेतनता के सभी लक्षण मनुष्य और पशु, प्राणियों में समान हैं। जिस तरह बड़े विद्युत घर से विद्युत लेकर छोटे-छोटे बल्ब जलने लगते हैं, उसी प्रकार प्राणियों की चेतना भी किसी मूल तत्व से प्राण और प्रकाश लेकर अस्तित्व में आती है। जो सब आत्माओं का उद्गम है, वही परमेश्वर है। यदि आत्माओं का स्वरूप प्रकाश है तो परमात्मा भी प्रकाश है, यदि ज्ञान या विचार है तो परमात्मा भी ज्ञान या विचार है। यह सारी विशेषतायें वस्तुतः एक ही हैं, कहने भर का अन्तर जान पड़ता है।

डा. ब्रडले भगवान् को जानने के लिये अनुभवों का रूप समझने की प्रेरणा देते हैं। उनका कहना है, हमारे अन्दर जो अनुभूति कोष है, वह पदार्थ ही नहीं प्रकार, ताप, चुम्बक, विद्युत कणों से भी भिन्न है, इसलिये उन्होंने भगवान् को परंअनुभव (एब्सोल्यूट) अनुभव कहा है। यह सारी बातें मिलकर एक अध्यात्मवादी सृष्टि का निर्माण करती हैं, इसलिये यूकन ने उसे आध्यात्मिक जीवन का आधार कहा। जगद्गुरु शंकराचार्य और उपनिषद् दर्शन उसे ही ‘अहंब्रह्मस्मि’, ‘तत्वमसि’, ‘अयमात्मा ब्रह्म’, मैं ही ब्रह्म हूं, ‘परमात्मा तत्व रूप है।’ यह मेरी आत्मा ही ब्रह्म है आदि सूक्तों से सम्बोधित करते हैं। यह सारी विशेषतायें परमात्मा के स्वरूप के भिन्न-भिन्न विशेषण है, तत्वतः वह एक ही है।

उसकी स्पष्ट अनुभूति का द्वार खोला आइन्स्टीन ने। सापेक्षवाद का सिद्धान्त (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) में आइन्स्टीन ने जिस परम अवस्था (एब्सोल्यूट स्टेज) का वर्णन किया है, वह परमात्मा ही है। हम जब तक समय, स्थान, गति और कारण (टाइम, स्पेश मोशन एण्ड काजेशन) से बंधे रहते हैं, तब तक ज्ञान, मस्तिष्क, विचार की दिशायें इधर-उधर दौड़ती रहती हैं, कभी भूत की बात सोचते हैं, कभी भविष्य की, कभी अपने घर की बात सोचते हैं, कभी अमेरिका, रूस या चन्द्रमा पर मानव के पदार्पण की। मस्तिष्क गति-विहीन तहीं होता कभी हो सकता नहीं। कारण के कारण की खोज में लगा रहता है पर यदि इन सब बातों को भूलकर केवल मस्तिष्क में ही स्थिर हो जायें तो हमारे लिये समय, स्थान, गति और कारण कोई स्थान ही न रहेगा, हम एक परम स्थिति (एब्सोल्यूट स्टेज) में उठे हुए होंगे। वह ज्ञान, वह अनुभूति, वह अध्यात्म ही ईश्वर है। और ईश्वर कोई हाथ-पांव वाला मनुष्य नहीं है।

फिर भी कई लोग हैं जो वैज्ञानिक कारणों से न सही दार्शनिक प्रतिपादकों से ईश्वर का अस्तित्व संदिग्ध सिद्ध करते रहते हैं। विज्ञान ने ईश्वर के संबन्ध में केवल इतना ही कहा है कि भौतिकी नियमों और प्रयोगशाला के उपकरणों द्वारा ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता इसलिए विज्ञान उसके बारे में कुछ भी कहने में असमर्थ है। नास्तिकवादी दर्शन ने वैज्ञानिकों के इन्हीं विचारों को अपने प्रतिपादनों का आधार बनाया।

इस सम्बन्ध में आस्तिक दर्शन की मान्यता है कि भौतिक नियमों के आधार पर चेतना की व्याख्या कर पाना न तो सहज संभव है और न ही हमें उसके लिए आतुर और आग्रह होना चाहिए विज्ञान भी इस सीमा तक उदार दृष्टिकोण अपनाता है यह उचित भी है।

प्रत्यक्षवाद कितना अधूरा

पदार्थ विज्ञान का जन्म और अभिवर्धन कुछ शताब्दियों का है जब कि सृष्टि का जीवन अरबों, खरबों वर्षों का। हर्मनवेल के अनुसार ‘‘हम प्रकृति के रहस्यों का परिचय प्राप्त करने की दिशा में क्रमशः बढ़ रहे हैं । इसमें अधीर नहीं हो रहे हैं, फिर चेतना के रहस्यों को जानने के लिए विज्ञान की वर्तमान अपरिपक्व स्थिति को ही क्यों प्रमाण भूत आधार मानें? हमें धैर्य रखना होगा और वैज्ञानिक प्रगति की उस स्थिति के लिए प्रतीक्षा करनी होगी जहां पहुंच कर वह चेतना विज्ञान को भी अपने साथ सम्मिलित कर सके और अपने विकसित ज्ञान के आधार पर जीवन तत्व की व्याख्या कर सके।’’

शरीर शास्त्री सर चार्ल्स शैरिंगटन ने अपनी पुस्तक ‘मैन आन हिज नेचर’ में लिखा है—चेतना के स्तर की परीक्षा हम ऊर्जा नापने के उपकरणों से नहीं कर सकते। भावनाएं और विचारधाराएं किस स्तर की हैं और व्यक्ति के आदर्श एवं आचरण किस श्रेणी के हैं, यह जानने के लिए किसी शरीर का रासायनिक विश्लेषण करने से क्या काम चलेगा? व्यक्तित्व अपने आप में एक रहस्य है उसकी गहराई में उतरने के लिए वे परीक्षण पद्धतियां असफल ही रहेंगी जो कोशिकाओं एवं ऊतकों की संरचना तक ही साथ लेकर समाप्त हो जाती हैं। मनुष्य का कलेवर ही पदार्थों से बना है इसलिए इसी का विश्लेषण, वर्गीकरण तत्व परीक्षा द्वारा सम्भव हो सकता है। चेतना एवं उसके स्तर जिस संरचना से बने हैं उनका निरूपण एवं सुधार परिवर्तन करने के लिए भौतिकी के नियम, परीक्षण एवं उपकरण निरर्थक सिद्ध होंगे।’’

भौतिकी में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. ई.पी. विगनर ने कहा है—‘‘आधुनिक भौतिकी के सिद्धान्तों से चेतना की संरचना—स्थिति एवं उतार-चढ़ावों की व्याख्या नहीं हो सकती। जिस कारणों से चेतना में उभार, उतार, चढ़ाव, परिवर्तन आते हैं और उत्थान पतन के आधार खड़े होते हैं वे तत्व कुछ और ही हैं। वस्तुओं को जिस आधार पर प्रभावित परिवर्तित किया जाता है वे सिद्धान्त चेतना को परखने और सुधारने के लिए किसी प्रकार काम नहीं आ सकते। मस्तिष्क विद्या शरीर के एक अवयव की हलचलों का विश्लेषण तो कर सकती है, पर उस आधार पर किसी के विचार बदलने या सम्वेदनाओं को प्रभावित करने जैसे प्रयोजन बहुत ही स्वल्प मात्रा में हो सकते हैं। भौतिकी के आधार पर चेतना की व्याख्या करने के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं उनमें विसंगतियां ही भरी रह जाती हैं।’’

पदार्थ विज्ञान प्रकृति के विवरण प्रस्तुत कर सकता है, पर उसकी संरचना एवं हलचलों के पीछे सन्निहित उद्देश्यों पर प्रकाश नहीं डाल सकता। परमाणु, उप परमाणु, जीन , जीवाणु, कम्पन, ऊर्जा, कम्पन, ऊर्जा, प्रकाश, विकरण का स्वरूप ही भौतिकी हमें बता सकती है, पर यह नहीं बता सकती कि ब्रह्माण्ड में भरा हुआ पदार्थ किस लिए इतनी द्रुतगति से कहां दौड़ता चला जा रहा है? आकाश गंगाओं की विशालता और ग्रह-नक्षत्रों की मध्यवर्ती दूरी को नापने से हमारा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? जब तक यह पता न चले कि उनका अस्तित्व किस उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न है। भौतिकी ही यदि सब कुछ है तो उसकी व्याख्या में इतना और जोड़ना चाहिए कि यहां सब कुछ निरुद्देश्य है। यदि पदार्थों और हलचलों का कोई उद्देश्य नहीं तो फिर मनुष्य की सत्ता का—उसकी जीवन सम्पदा का ही कुछ प्रयोजन क्यों होगा? उद्देश्य रहित अस्तित्व के लिए न कुछ कर्त्तव्य है और न अकर्तव्य। फिर नीति नियम, अनुशासन और आदर्श की बात करना भी व्यर्थ है, भौतिकी ही यदि सब कुछ है और तत्वदर्शन निरर्थक है तो समझना चाहिये कि हम निरर्थक हैं कि हम निरर्थक दुनिया में, निरर्थक जीवनयापन कर रहे हैं और अपनी उच्छृंखलता पर निरर्थक ही अंकुश लगाने की बात सोच रहे हैं। यदि भौतिकी उन्हीं निष्कर्षों तक हमें पहुंचाती है तो उस उपलब्धि की तुलना में आदिमकाल का पिछड़ापन किसी प्रकार भी बुरा नहीं ठहराया जा सकता।

दार्शनिक कोयरे के अनुसार, ‘विज्ञान ने अविज्ञात पर से बहुत से पर्दे उठाये हैं और अनजान स्थिति को हटाकर जानकारी की सम्पन्नता प्रदान की है। उस पर भी एक बड़ी हानि यह हुई कि प्रत्यक्ष मनुष्य, अप्रत्यक्ष होता चला गया है और क्रमशः लुप्त होने के निकट जा पहुंचा है।’

विज्ञान के अनुसार परमाणु और जीवाणु का तो अस्तित्व है, पर चेतना का नहीं। कुछ समय पहले वेदान्ती इस संसार को माया, मिथ्या, स्वप्न और भ्रमवश बताया करते थे। अब विज्ञान ने उलट कर हमला किया है और कहना आरम्भ कर दिया है कि मनुष्य की सत्ता माया, मिथ्या और भ्रम है। मनुष्य का न कोई अस्तित्व है और न उद्देश्य। जो कुछ है केवल पदार्थ ही है। पदार्थ ही सोचता है, चाहता है, यह कहते भी नहीं बनता फिर जो मनुष्य सामने खड़ा है और विज्ञान को उपार्जित करता है वह स्वयं क्या है? क्या वह विज्ञान की उपज है अथवा विज्ञान में ही विलीन होने जा रहा है।

भौतिकी के स्वरूप का निर्धारण और इतिहास को क्रमबद्ध बनाने वाले इर्विन श्रेंडिगर ने अपनी प्रतिपादित ‘सीक फार दि रोड’ में लिखा है पदार्थ का मूल स्वरूप, कण है या तरंग, यह विवाद महत्व पूर्ण नहीं, जितना की जड़ और चेतन के पारस्परिक सम्बन्धों की गुत्थी सुलझाना। क्या जड़ ही एक स्थिति में चेतन बन जाती है? अथवा क्या चेतना स्वयं ही जड़ है। क्या मात्र इस संसार में पदार्थ ही पदार्थ है? चेतना का कोई स्थायित्व या अस्तित्व भी है या नहीं यह असमंजस भौतिकी ने उत्पन्न किया है। या तो उसे अपनी बात प्रमाणित करके यह घोषणा करनी चाहिए कि भौतिकी ही सब कुछ है, चेतना की पृथकता या प्रमुखता की बात व्यर्थ है। अथवा दर्शन को इस स्तर के प्रमाण संचय करने चाहिए कि छाया हुआ असमंजस दूर हो सके और चिन्तन को अस्ति और नास्ति के बीच कोई स्वरूप दिशा धारा मिल सके।

कोयरे ने झल्ला कर कहा है कि—‘‘यह कितनी विचित्र बात है कि विज्ञान ने हर पदार्थ को मान्यता दी है किन्तु मनुष्य का अस्तित्व ही मानने से इनकार कर दिया है। कभी धर्म गुरु कहते थे जो हमारे साथ नहीं चलेगा वह जहन्नुम में जायगा और अब विज्ञानी ने लगभग वैसी ही पहेली प्रस्तुत की है और कहना आरम्भ किया है जो विज्ञान को स्वीकार न करेगा वह अपनी हस्ती ही गंवा बैठेगा।’’

चेतना के अस्तित्व को अमान्य ठहराया और उसकी अवमानना करना मात्र वैज्ञानिक एवं दार्शनिक विवाद ही नहीं है। उसके निर्णय का प्रभाव मनुष्य की नैतिक, संस्कृति, समाज व्यवस्था पर भी पड़ता है। उतावली में ‘अस्वीकृति’ के प्रति आग्रह जमा लिया जाय तो उसका तात्कालिक प्रभाव यह होगा कि मानवी गरिमा का मूल्यांकन स्वतः मनुष्य की अपनी ही आंखों में हो जायगा। जब वह कुछ है ही नहीं, रासायनिक पदार्थों से बना ढकोसला ही जब उछल-कूद कर रहा है और उसका अस्तित्व क्षण भर का है तो फिर नीति और धर्म का अनुशासन मानकर कष्टसाध्य जीवन जीना निरर्थक है। तब फिर बुद्धिमत्ता इसी में है कि इन क्षणों में जितना अधिक मौज-मजा लूटा जाय उससे वंचित न रहा जाय, भले ही इससे प्रचलित नीति मर्यादाओं का अतिक्रमण ही क्यों न करना पड़े?

आत्म-गौरव का तब कोई महत्व नहीं रह जाता जब अपना अस्तित्व ही संदिग्ध है। ऐसी दशा में समाज व्यवस्था के प्रति अपना योगदान करने की प्रवृत्ति ही क्यों उठेगी। तब देशभक्ति, समाजसेवा, लोकहित, परमार्थ जैसे उन आदर्शों का कोई मूल्य नहीं रह जाता जिनके ऊपर व्यक्ति की श्रेष्ठता का स्वरूप बताने ओर उसे अपनाने वाले को श्रेय सम्मान देने की परम्परा चलती रही है। नास्तिकता की प्रतिक्रिया चरित्र-निष्ठा और समाज-निष्ठा पर सीधा कुठाराघात करती है। उनका आस्था परक मूल्य समाप्त करती है फिर समाज व्यवस्था के नाम पर जो अनुशासन लादा जाता है वह कोई दर्शन नहीं रह जाता। मात्र व्यवहार रह जाता है। ऐसे व्यवहार को स्वार्थ साधन के लिए तोड़ फेंकने में किसी को कोई संकोच नहीं हो सकता।

आज धर्म और अध्यात्म की सूत्र संचालक आस्था—आस्तिकता—के प्रति लोकश्रद्धा, व्यक्तिवाद और विलासी दृष्टिकोण के कारण स्वतः ही गिरती चली जा रही है फिर यदि नास्तिकता को दार्शनिक और वैज्ञानिक मान्यता भी मिल गई तो उसे शोध की प्रगति या अन्य जो भी नाम दिया जाय, माना और गर्व किया जा सकता है किन्तु उसका दुष्परिणाम उस संचित पूंजी को गंवाने के रूप में ही सामने आवेगा जिसे मानवी प्रयासों की लम्बी श्रृंखला के उपरान्त बड़ी कठिनाई से गढ़ा गया है। उच्चस्तरीय आस्थाओं का बांध तोड़ देने के उपरान्त तो रही बची आशा भी समाप्त हो जायगी। तब चरित्र संकट की अराजकता की प्रतिक्रिया मनुष्य को मनुष्य द्वारा फाड़-चीर-कर सही निचोड़ने, चूसने और दबाने के रूप में तो प्रस्तुत होगी ही। तब नीति और न्याय का समर्थन उथले और उपहासास्पद तर्कों के सहारे ही किया जा सकेगा और उसके किसी के गले उतरने की आशा नहीं ही की जायगी।

भारतीय नास्तिकवाद में चार्वाक दर्शन प्रसिद्धि है। उनके मत का संक्षिप्त विवेचन इन दो श्लोकों में हुआ।

देहस्थौल्यादियोगाच्च स एवात्मा न चापरः । न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः ।। यावज्जीवं सुखं जीवेद्ऋणं कृत्वा घृत पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।

अर्थात्—काया पंच तत्वों के सम्मिलन से बनी है। यह सम्मिलन ही आत्मा है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। स्वर्ग, अपवर्ग, आत्मा परलोक आदि कहीं कुछ नहीं है। इस मान्यता का फलितार्थ क्या होता है? इसका स्पष्टीकरण दूसरे श्लोक में देखा जा सकता है। जब आत्मा, कर्मफल, परलोक, पुनर्जन्म आदि कुछ है ही नहीं तो फिर जिस तरह भी हो उसी प्रकार स्वार्थ सिद्ध करने और मौज-मजा लूटने के लिए प्रयत्न करना ही अक्लमन्दी है। फिर नीति, धर्म, समाज, सदाचार आदि पर ध्यान क्यों दिया जाय? और उनके बन्धनों में बंध कर अपनी सुविधाओं में कमी की जाय? दूसरे श्लोक में यही निष्कर्ष है। चार्वाक कहते हैं—

जब तक जीना सुख से जीना—कर्ज लेकर भी घी पीना। देह तो भस्मी भूत है। फिर आने का तो सवाल ही नहीं।’’ इसी दिशा में जो मौज-मजा सम्भव हो इसी समय कर लेने की बात ही सही जंचती है। पुण्य परमार्थ, संयम, सदाचार, सेवा आदि के लिए ऐसी मनःस्थिति में कोई स्थान नहीं रह जाता।

चार्वाक की तरह ईसा से 300 वर्ष पूर्व यूनान का दार्शनिक एपीक्यूरस भी इसी मत का प्रतिपादन करता था। इसने भी प्राणी को पदार्थ कहा है और चेतना को काया का उत्पादन कहा है। इतने पर भी वह इस शंका समाधान करने में असमर्थ रहा कि यदि चेतना काया का धर्म है तो मरने के बाद वह काया से अलग क्यों हो जाती है? जब कि प्रत्येक पदार्थ का गुण उसके साथ अविच्छिन्न रूप से बना ही रहता है।

इससे अधिक स्पष्ट निष्कर्ष जर्मन वैज्ञानिक हेकल ने निकाला है। उनने अपने ग्रन्थ ‘दि रिडल आव दि युनिवर्स’ में यह सिद्ध किया है कि परमाणु में मात्र हलचल ही नहीं चेतना भी मौजूद है और वह अपने ढंग से उसी प्रकार आगा-पीछा सोचती है जैसा कि प्राणियों की सत्ता।

मानवी सत्ता की व्याख्या प्रयोगशाला के निष्कर्षों के आधार पर ही की जाय यह आवश्यक नहीं। प्रत्यक्ष ही सब कुछ नहीं है। उन भाव सम्वेदनाओं का महत्व तो दूर उनके अस्तित्व का कोई कारण तक सिद्ध नहीं किया जा सका जिनके ऊपर भावनाओं का आधार खड़ा हुआ है। स्पष्ट है कि यदि भाव तत्व हटा दिया जाय तो फिर मनुष्य सचमुच ही एक चलता-फिरता पौधा अथवा सोचने, हंसने वाला यन्त्र भर बनकर रह जायगा।

अधूरा प्रत्यक्षवाद यदि चेतना की व्याख्या करने में अतिशय उतावली करेगा—अपने साधन की अपूर्णता का ध्यान न रखेगा तो यह अत्युत्साह उस मानवी प्रगति की जड़ पर कुठाराघात ही करेगा जिसका एक अंग स्वतः विज्ञान है।
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