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Books - असीम पर निर्भर ससीम जीवन

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


सब कुछ व्यवस्थित और नियमबद्ध है

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चेतना का मुख्य गुण है विकास। जहां भी चेतना या जीवन का अस्तित्व विद्यमान दिखाई देता है, वहां अनिवार्य रूप से विकास, वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की हलचल दिखाई देती है। इस दृष्टि से मनुष्यों, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों को ही जीवित माना जाता है। परन्तु भारतीय आध्यात्म की मान्यता है कि जड़ कुछ है ही नहीं, सब कुछ चैतन्य ही है। सुविधा के लिये स्थिर निष्क्रिय और यथास्थिति में बने रहने वाली वस्तुओं को जड़ कहा जाता है परन्तु वस्तुतः वे प्रचलित अर्थों में जड़ हैं नहीं।

चेतना और उसके परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाली गति विकास की प्रक्रिया को पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा से लेकर अखिल ब्रह्माण्ड में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए पिछले दिनों वैज्ञानिकों में अपने अन्तरिक्ष उपकरणों और खगोलीय शोधों के आधार पर कहा कि सारा ब्रह्माण्ड निरन्तर फैलता जा रहा है।

कोई 90 वर्ष पूर्व की बात है—विश्वविख्यात नक्षत्रविद् डा. हवल अपने दूरदर्शी स्पेक्ट्रोमीटर पर सुदूर नक्षत्रों से आने वाले प्रकाश के वर्णक्रम का अध्ययन करते थे। सूर्य का श्वेत प्रकाश सात रंगों के मेल से बना है। स्पेक्ट्रोमीटर एक ऐसा यन्त्र है जिसमें एक त्रिपार्श्व कांच लगा रहता है जब प्रकाश की एक किरण को उसमें कुदाया जाता है तो इस कांच के गुण के अनुसार वह अपने सातों रंगों में फूट पड़ता है। इन रंगों के वर्णक्रम से प्रकाश की स्थिति अन्तरंग खनिज स्रोतों की जानकारी भी की जाती है। पर यहां जो प्रयोग चल रहा था उसका प्रयोजन एक आकाशगंगा की दूरी की जांच करना था जो उस समय ब्रह्माण्ड की सीमा पर प्रतीत हो रही थी।

जांच के समय एक बिलकुल ही नया तथ्य प्रकाश में आया। वर्णहाम का लाल रंग निरन्तर सरकता और क्षीण होता प्रतीत हो रहा था, जिसका अर्थ था कि आकाशगंगा परे हट रही है। उससे आने वाला नाद भी क्रमशः मन्द पड़ता जा रहा था, इस परिवर्तन को ‘डाप्लर प्रभाव’ की संज्ञा दी गई और एक नये दर्शन ने जन्म लिया कि ब्रह्मांड निरन्तर बढ़ रहा है यह चौंका देने वाली जानकारी थी, जिसने वैज्ञानिकों के सामने विचार के लिये सैकड़ों प्रश्न छोड़े हैं।

अभी कुछ दिन पूर्व एक अन्य वैज्ञानिक डा. फ्रेड हायल भारत वर्ष आये थे, विज्ञान भवन में उपरोक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था—अन्तरिक्ष की गहराइयां जितना अनन्त की ओर बढ़ेंगी, उसमें झांककर देखने से मानवीय अस्तित्व का अर्थ और प्रयोजन उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा। शर्त यह रहेगी कि हमारा अपना भी विकास और विस्तार हो। यदि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान मात्र पेट प्रजनन, तृष्णा अहन्ता तक ही सीमित रहता है तब तो हम पड़ौस भी नहीं जान सकेंगे, पर यदि इन सबसे पूर्वाग्रह मुक्त हों तो ब्रह्माण्ड इतनी खुली और अच्छे अक्षरों में लिखी चमकदार पुस्तक है कि उससे हर शब्द का अर्थ, प्रत्येक अस्तित्व का अभिप्राय समझा जाता और अनुभव किया जा सकता है।

ब्रह्माण्ड के निरन्तर विकास का अर्थ यह हुआ कि सृष्टि में जो कुछ भी है चाहे वह पदार्थ हो, ऊर्जा हो, चुम्बकत्व हो प्रकाश हो, अथवा विचार सत्ता जो भी स्थूल या सूक्ष्म अस्तित्व में है वह सब एक ही केन्द्र बिन्दु पर समाहित था। इस संदर्भ में भारतीय दर्शन और वैज्ञानिक दोनों की धारणायें एक जैसी हैं। प्रारम्भ में एक महापिण्ड था यह विज्ञान की मान्यता है कि उस महापिण्ड में किसी समय एकाएक विस्फोट हुआ। विस्फोट से समस्त दिशाओं में आकाश गंगाओं के रूप में पदार्थ बह निकला, अब तक की शोधों के अनुसार ब्रह्माण्ड में 19 अरब आकाश गंगाएं हैं और हर आकाश गंगा में 10 अरब तारे हैं एक आकाश गंगा की परिधि या व्यास लगभग एक लाख प्रकाश वर्ष अर्थात् 300000×60×60×24×365 1।4 प्रकाश की गति का जो गुणनफल आता है वह दूरी एक प्रकाश वर्ष कहलाती है। 9525600000000 किलोमीटर दूरी 1 प्रकाश वर्ष की हुई, इससे 1 लाख गुना बड़ा व्यास अपनी आकाश गंगा का है जब कि उसके परिवार के दूर-दूर तक छिटके तारों की दूरी भी अरबों प्रकाश वर्ष में है अतएव इस भयंकरतम विस्तार का तो कुछ पता ही नहीं चलता।

सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सवा नौ करोड़ मील है वहां से यहां तक प्रकाश आने में सवा 8 मिनट लगते हैं। यदि किसी तारे का प्रकाश पृथ्वी तक 8 हजार वर्षों में आता है तो उसका अर्थ यह हुआ कि वह पृथ्वी से 47 पदम मील दूर है कि उनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में ही अरबों वर्ष लग जायेंगे अर्थात् उस दूरी का तो अनुमान ही असम्भव है। इस तरह सृष्टि की अनन्त गहराई में अनन्त प्रकृति अनन्त रूपों में विद्यमान है।

भारतीय दर्शन की मान्यता चेतन को मूल मानकर ज्यों की त्यों है प्रारम्भ में एक ही तत्व परमात्मा पिण्ड रूप में था उसके नाभि देश से ‘अकोस्हं बहुस्याम्’ मैं एक हूं बहुत हो जाऊं इस तरह की स्फुरणा, भावना या विचार उठा इससे वह फट पड़ा और महा प्रकृति की रचना हुई, उसमें सत, रज, तम तीन गुणों का सम्मिलन था, इन्हीं से सृष्टि में जीवन का निर्माण हुआ और सृष्टि के विस्तार की तरह ही 84 लाख जीव योनियों का निरन्तर विस्तार होता चला गया, जिस तरह ब्रह्माण्ड विकसित हो रहा है नाना प्रकार की जीवन सृष्टि का भी विकास होता जा रहा है यह सब अत्यधिक करुणा मूलक, स्नेह जनक मातृसंज्ञक रूप से चल रहा है। भौतिक या आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से आकाश गंगाएं माता का हृदय कही जा सकती हैं। इनसे एक ओर भौतिक जगत को आवश्यक जीवन और प्रकाश मिलता है तो दूसरी और जीवन सत्ता उसी से प्राण और पोषण पाती है।

चेतन कहीं भी प्रकृति से भिन्न नहीं है किसी न किसी अवस्था में दोनों अन्योन्याश्रित हैं, ‘‘गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत-भिन्न न भिन्न’’ वाली स्थिति है। यदि दोनों में से कोई इस सन्तुलन को बिगाड़ने का प्रयास करते हैं वही संकट पैदा हो जाता है। महापिण्ड या परमात्मा ने अपनी शक्ति स्वरूपा सहचरी आकाश गंगाओं को विपुल शक्ति देकर व्यवस्था के लिए भेज दिया। मन्दाकिनियां उस अनुदान को हर मण्डप के एक-एक मुखिया सूर्य को आवश्यक सम्प्रदायें सौंपती चली जाती हैं। यह सूर्य आद्य शक्ति अपनी मां से पोषण और बल लेकर अपने समस्त सौर मण्डप को जीवित और जागृत रखते हैं। सब को शक्ति प्रकाश गर्मी वायु जल वर्षा प्रकृति अन्न आदि देते हैं। इन सबका प्रयोजन चेतना को—इच्छा शक्ति को जीवित रखना ही तो हो सकता है। यदि मनुष्य समाज की परिवार संस्थाएं प्रेम सद्भावना और सहकारिता के इस चुम्बकत्व को स्वयं भी धारण करले तो विशाल सौर परिवार की तरह करोड़ों जीवों का समुदाय एकत्र हो जाने पर भी सभी आनन्द और उल्लास का जीवन जीते रह सकते हैं। अनेक ग्रह नक्षत्रों का परिवार, जिन्हें अनुशासित मर्यादित पोषित और संरक्षित रखने का काम निरन्तर तप कर सूर्य भगवान् करते हैं। सौर परिवार या सौर मण्डल कहलाता है। इन सब सौर परिवारों का मुखिया उनका सूर्य है। देखने में वह आग का गोला लगते हैं, पर उनमें सोडियम लोहा, मैग्नीशियम, कैल्शियम आदि सब कुछ है, 1859 में डा. मेघनाद साहा ने अपनी खोजों से यह सिद्ध किया था कि सूर्य के प्लाज्मा में दृश्य जगत का हर तत्व विद्यमान है। लोगों को सूक्ष्म अस्तित्व में भी आत्मिक आनन्द की सभी सामग्री बताई जाती है तो लोग विश्वास नहीं करते उनकी स्थूल दृष्टि में दृश्य जगत और स्थूल पदार्थ ही प्रसन्नता के मूल हैं, पर हमारी अनुभूतियां जितनी सूक्ष्म और विशाल होती जाती हैं रस और आनन्द के तत्व भी उसी अनुपात में असीम तृप्ति वाले बनते चले जाते हैं।

सूर्य ने भी शक्तियों पर एकाधिकार, परिग्रह नहीं किया वह अपनी शक्तियां निरन्तर बांटते रहते हैं इससे वे रिक्त नहीं हुए वरन् परमात्मा का मातृहृदय उन्हें यथावत बनाये रखे है जब मनुष्य समाज ने संग्रह का पाप लाद कर कितनी अव्यवस्थायें बढ़ा दी हैं, यह हर कोई भली प्रकार अनुभव करता है।

सूर्य की तरह हर तारे का अपना भी एक परिवार होता है, उसके अपने चन्द्रमा होते हैं, उसका अपना वातावरण होता है उसी के अनुरूप वह शक्ति का आवश्यक अंश ग्रहण करता रहता है।

परम ब्रह्माण्ड से लेकर मन्दाकिनी परिवारों के विराट् जगत, सौर-मण्डल, तारा-मण्डल से लेकर प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु तक में सर्वत्र नियम, क्रम, व्यवस्था और अनुशासन है। यह तत्व शान्ति और प्रगति के मूल आधार हैं उनकी उपेक्षा कहीं भी उचित और सह्य नहीं ब्रह्माण्ड का यह विधान समान रूप से मनुष्य जीवन भर भी लागू है।

तारों को एक प्रकार से ताप-नाभिकीय भट्टियों की संज्ञा दी जा सकती है, इस उच्च ताप में ही तत्वों का निर्माण होता रहता है किन्तु कहीं भी विखण्डन की स्थिति नहीं आती अन्यथा महाविस्फोट हो जाये और किसी भी एक तारे की मर्यादा भंग से सारी सृष्टि का सर्वनाश हो सकता है। सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से जिन्हें बड़े उत्तरदायित्व—जिम्मेदारियां दी जाती हैं उन्हें असीमित अधिकार देने की परम्परा प्रकृति में भी है मनुष्य समाज में भी प्रकृति अपना सन्तुलन निरन्तर बनाये हुए है इसी से संसार में सुव्यवस्था कायम है, जब कि मनुष्य इन अधिकारों का हनन करके अपने लिए देश, समाज, संस्कृति सभी के लिये संकट पैदा करता रहता है। शेक्सपियर ने सम्भवतः इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुये जूलियस सीजर में लिखा है—‘‘दोष अपने तारों में नहीं स्वयं मनुष्य में है।’’

ब्रह्माण्ड की गति और विस्तार का क्रम सर्वत्र एक सा है, हर ग्रह नक्षत्र अपनी धुरी पर घूमता है। पृथ्वी 27 घण्टे में अपनी एक परिक्रमा पूरी करती है जब कि चन्द्रमा 336 घण्टे में। अर्थात् वहां के दिन और रात में हमारी पृथ्वी के दिन व रात से 14 गुने बड़े दिन और 14 गुनी बड़ी रात। बुध की परिस्थितियां भिन्न हैं अर्थात् उसका एक भाग निरन्तर सूर्य की ही ओर बना रहता है दूसरा अन्धकार में पर अपने आप में, गतिशील वह भी है हम समझते हैं सूर्य स्थिर है, पर ऐसा नहीं वह भी 1 सैकिंड में 13 मील की गति से घूमता है, मन्दाकिनियां भी अपने सौर परिवारों को लेकर किसी विराट् परिक्रमा से संलग्न हैं, अपनी ‘‘स्पाइरल’’ आकाश गंगा की स्वयं की गति 200 मील प्रति सैकिण्ड है। इसी तरह ब्रह्माण्ड 150 मील प्रति सैकिण्ड की गति से विकसित हो रहा है। यह गति हर जगह है। इसी तरह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी एक आचार संहिता ऐसी निर्धारित करनी चाहिए, जिससे समाज में गतिशीलता तो रहे पर किसी की सीमा किसी के अधिकारों का अतिक्रमण न हो। हर ग्रह अपने मुखिया की परिक्रमा में लगा है। हर चन्द्रमा अपने ग्रह का, ग्रह सौर परिवार का सौर मण्डल मन्दाकिनियों की परिक्रमा करते और मनुष्य को अपने देश, जाति, समाज के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ बने रहने की प्रेरणा देते रहते हैं।

क्षुद्रता का दण्ड दुष्परिणाम

खगोल विद्या के अनुसार यह ब्रह्माण्ड निरन्तर बढ़ और फैल रहा है। विराट की पोल में प्रत्यक्ष ग्रह नक्षत्र किसी असीम अनन्त की दिशा में द्रुतगति से भागते चले जा रहे हैं। यों यह पिण्ड अपनी धुरी और कक्षा में भी घूमते हैं पर हो यह रहा है कि वह कक्षा, धुरी और भंडली तीनों ही असीम की ओर दौड़ रहे हैं। सौर मण्डल एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। यह दौड़ प्रकाश की गति से भी कहीं अधिक है। जो तारे कुछ समय पूर्व दीखते थे वे अब अधिक दूरी पर चले जाने के कारण अदृश्य हो गये।

इसे विस्तार भी कह सकते हैं—विघटन भी, और यह भी कह सकते हैं कि इसका अन्त एकता में होगा। गोलाई का सिद्धान्त अकाट्य है। प्रत्येक गतिशील वस्तु गोल हो जाती है। स्वयं ग्रह नक्षत्र इसी सिद्धान्त के अनुसार चौकोर, तिकोने आयातः न होकर गोल हुए हैं। यह ब्रह्माण्ड भी गोल है। नक्षत्रों की कक्षाएं भी गोल हैं। इस गोल वृत्त की लपेट में आगे यह दौड़ अंत में किसी न किसी बिन्दु पर पहुंच कर मिल ही जायेगी और इस वियोग प्रक्रिया को संयोग में परिणत होना पड़ेगा।

सौर मण्डल इसलिए व्यवस्थित, जीवित और गतिशील है कि वहां प्रत्येक ग्रह अपनी मर्यादाओं में चल रहा है और एक दूसरे के साथ अदृश्य बन्धनों में बंधा हुआ है। यदि यह प्रकृति इन ग्रहों की न होती तो वह न जाने कब का बिखर गया होता और टूट-फूटकर नष्ट हो गया होता।

सौर परिवार अति विशाल है। सूर्य की गरिमा अद्भुत है। उसका वजन सौर परिवार के समस्त ग्रहों उपग्रहों के सम्मिलित वजन से लगभग 750 गुना अधिक है। सौर मण्डल केवल विशाल ग्रह और उपग्रहों का ही सुसम्पन्न परिवार नहीं है, उसमें छोटे और नगण्य समझे जाने वाले क्षुद्र ग्रहों का अस्तित्व भी अक्षुण्य है और उन्हें भी समान सम्मान एवं सुविधाएं उपलब्ध हैं। यह क्षुद्र ग्रह किस प्रकार बने? इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों का मत है कि दो समर्थ ग्रह परस्पर टकरा गये। टकराहट किसी को लाभान्वित नहीं होने देती। उसमें दोनों का ही विनाश होता है, विजेता का भी और उपविजेता का भी। यह विश्व सहयोग पर टिका हुआ है, संघर्ष पर नहीं, संघर्ष की उद्धत नीति अपनाकर बड़े समझे जाने वाले भी क्षुद्रता से पतित होते हैं। यह क्षुद्र ग्रह यह बताते रहते हैं कि हम कभी महान थे पर संघर्ष के उद्धत आचरण ने हमें इस दुर्गति के गर्त में पटक दिया।

मंगल और बृहस्पति के बीच करोड़ों मील खाली जगह में क्षुद्र ग्रहों की एक बहुत बड़ी सेना घूमती रहती है। सीरिस, पैलास, हाइडाल्गो, हर्मेस, वेस्ट, ईरास आदि बड़े हैं। छोटों को मिलाकर इनकी संख्या 44 हजार आंकी गई है। इनमें कुछ 427 मील व्यास तक के बड़े हैं और कुछ पचास मील से भी कम।

कहा जाता है कि कभी मंगल और बृहस्पति के बीच कोई ग्रह आपस में टकरा गये हैं और उनका चूरा इन क्षुद्र ग्रहों के रूप में घूम रहा है। पर यह बात भी कुछ कम समझ में आती है क्योंकि इन सारे क्षुद्र ग्रहों को इकट्ठा कर लिया जाय तो भी वह मसाला चन्द्रमा से छोटा बैठेगा। दो ग्रहों के टूटने का इतना कम मलवा कैसे? एक कल्पना यह है कि सौर मण्डल बनते समय का बचा खुचा फालतू मसाला इस तरह बिखरा पड़ा है और घूम रहा है।

वैज्ञानिकों के इन क्षुद्र ग्रहों पर बड़े दांत लगे हुए हैं। एक योजना यह है कि इनमें से जो कीमती हैं उनको पकड़ कर धरती पर लाया जाय और उनमें से धातुएं निकाली जायें। एक योजना यह है कि इनमें से कइयों को पकड़ कर एक साथ बांध दिया जाय ताकि अन्तर्ग्रह यात्रा के लिये जाने वाले यानों के लिये उस पर विश्राम स्थल बनाया जा सके।

विशाल ग्रह उपग्रहों से धातुएं निकालने, उनको पुल के पत्थरों की तरह पकड़ कर घसीट लाने की कोई वैज्ञानिक योजना नहीं है। किसी ने ऐसा सोचा भी नहीं कि शनि या बृहस्पति को पकड़ कर धरती के किसी अजायब घर में रखा जाना चाहिए पर बेचारे क्षुद्र ग्रहों के लिए कितने ही तरह के जाल बुने जा रहे हैं। क्षुद्रता एक प्रकार की विपत्ति ही है, हमें आत्म-विस्तार की बात सोचनी चाहिए। व्यक्तिवाद की, निजी लाभ की, स्वार्थ भरी संकीर्णता की परिधि छोड़कर आत्म विस्तार की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। निखिल विश्व में यही क्रम चल रहा है। ग्रह नक्षत्र इसी रीति-नीति का अनुसरण कर रहे हैं। क्यों न हम भी इसी श्रेय पथ पर चलने के लिए कदम बढ़ायें? सब कुछ विकासमान है

हम क्रमशः विकसित हो रहे हैं—आगे बढ़ रहे हैं, यह एक तथ्य है। आदिम काल के वनवासी मनुष्य ने सभ्यता के वर्तमान चरण तक पहुंचने की लम्बी यात्रा में अपनी अग्रगामी चेष्टा को प्रखर रखा है। चेतना की अदम्य इच्छा आगे बढ़ने की—प्रगति करने की है यह उचित भी है और आवश्यक भी। अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ रही जीव आकांक्षा अपने लक्ष्य की ओर चलते हुये विकास-क्रम और अग्रगमन के उत्साह का ही अवलम्बन ग्रहण करेगी। यह विकास-प्रक्रिया न केवल मानवी-चेतना में काम करती है, वरन् ब्रह्माण्ड-विस्तार के रूप में भी वह क्रम चल रहा है।

ज्योति भौतिकी की महत्वपूर्ण खोजों से यह स्पष्ट हो चला है कि ब्रह्माण्ड का निरन्तर विस्तार हो रहा है। समस्त आकाश-गंगायें समस्त सौर मण्डल और ग्रह नक्षत्र क्रमशः अपना आकाशीय-क्षेत्र आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं। कहा जाता है कि अरबों वर्ष पूर्व सृष्टि के अन्तराल में ‘घनीभूत’ पदार्थ के मध्य एक भयंकर विस्फोट हुआ था। उसी के छिटक कर ग्रह नक्षत्र बने और वह छिटकना तब से लेकर अब तक क्रमशः आगे ही बढ़ता चला जा रहा है। सभी आकाश-गंगायें एक-दूसरे से दूर हटती जा रही हैं और यही हाल सौर-मण्डलों का है। शून्य आकाश के उन्मुक्त क्षेत्र की विशालता इतनी बड़ी है कि अभी करोड़ों-अरबों वर्षों तक यह दौड़ ऐसे ही चलती रह सकती है, पर कभी न कभी इसका भी अन्त होगा और गोलाई की गति के अनुसार यह धावमान पदार्थ अन्ततः अपने मूल उद्गम पर जाकर इकट्ठा हो जायगा। उसी स्थिति को महाप्रलय कहा जा सकेगा।

ब्रह्माण्ड-व्यापी आकाश को समझने-समझाने की दृष्टि से चार क्षेत्रों में बांटा जा सकता है—

प्रथम क्षेत्र में तो हमारी धरी, उसका वायुमण्डल, चुम्बकीय क्षेत्र है। ऊपरी वायुमण्डल का अधिक भाग आवेशित परमाणुओं, अणुओं और इलेक्ट्रानों से बना हुआ है। आकाश के इस क्षेत्र में पदार्थ के अस्तित्व का पता आसानी से चल जाता है।

दूसरा क्षेत्र है—सौर-मण्डल के ग्रहों के बीच में फैला हुआ भाग। यह क्षेत्र सूर्य के बाहरी परि-मण्डल (कोरोना) से निरन्तर निकलने वाली पतली और फैलने वाली गैस से भरा हुआ है। इसे ‘प्लाज्मा’ या सौर वायु कहते हैं। इसी हवा के कारण पुच्छल-तारों की पूछें सदा सूर्य से विपरीत दिशा में रहती है। यही हवा पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र को भी पूंछ की शकल का पुच्छल-तारा बना देती है।

तीसरा क्षेत्र है—पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी से प्रायः 50 गुना-सौर मण्डल से आगे हमारी आकाश-गंगा में जुड़े तारों के बीच का आकाश भाग। यहां भी तारों के बीच के भाग में पदार्थ के उदासीन और आवेशित कणों से बनी हुई पतली गैस है।

चौथा क्षेत्र वह आकाश है—जिसमें हमारी आकाश-गंगा जैसी अन्य अगणित आकाश-गंगाएं और उनके सम्बद्ध असंख्य चित्र-विचित्र ग्रह-नक्षत्र भरे पड़े हैं।

इस विशाल महा आकाश के सम्बन्ध में जितनी कुछ जानकारी अब तक मिली है उसका परिचय विशाल-काय दूरबीनों, रेडियो टेलिस्कोपों किरणों में उपलब्ध आवेशित कणों ध्रुवीय-प्रकाश आदि के साधनों का बड़ा योगदान है। उड़न राकेटों और अन्तरिक्ष यानों ने भी इस आकाश-ज्ञान में अभिवृद्धि की है।

इस समस्त जानकारी के आधार पर यह तथ्य स्पष्ट है कि जन्म से लेकर प्रौढ़ता पर्यन्त हर पदार्थ में विकास-क्रम जारी रहता है। अभी अपना ब्रह्माण्ड किशोरावस्था पार करके प्रौढ़ता की आयु में प्रवेश कर रहा है। इसलिए अधिकांश ग्रह-नक्षत्र अपना आयतन फुला रहे हैं, अपनी कक्षाएं चौड़ी कर रहे हैं और एक दूसरे से छिटक कर अनन्त आकाश में अविज्ञात की ओर द्रुतगति से दौड़े जा रहे हैं, इसे हम सृष्टि का विकास-विस्तार या प्रगति कह सकते हैं।

एक से अनेक बनने की ब्रह्म-इच्छा ने हिरण्यगर्भ का विस्फोट किया और उससे अगणित आकाश-गंगाओं, महातारकों, सौर-मण्डलों, ग्रह-उपग्रहों, उल्का और धूम-केतुओं का विशालकाय परिवार अस्तित्व में आया। जन्म के बाद विकास ही दूसरा चरण है, सो हम देखते हैं कि ब्रह्माण्ड में विकास के चरण द्रुतगति से आगे बढ़ रहे हैं। अधिकांश ग्रह-नक्षत्रों की गति-विधियां इन दिनों इसी स्तर की हैं। हमें अपनी गति-विधियों को विकासोन्मुख प्रगतिशील रखते हुए प्रकृति की प्रेरणा का अनुगमन करना चाहिये। ग्रहों की स्थिति का बारीकी से अध्ययन करने पर अनेकों सृष्टि-नियम ऐसे दृष्टिगोचर होते हैं, जो क्या जड़, क्या चेतन सभी पर समान रूप से लागू होते हैं। अपनी पृथ्वी की अगणित विशेषताओं में से एक यह है कि उसकी ऊपरी परत में शीतलता और हल्कापन पर्याप्त मात्रा में है इसी कारण उस पर जीवों की उत्पत्ति से लेकर शोभा सुषुमा तक का सौन्दर्य विकसित हुआ है। जीवन पर भी यह नियम लागू होता है। यदि हलके-फुलके दृष्टिकोण को लेकर जिया जायगा, संग्रहशीलता और अनियन्त्रित—महत्वाकांक्षाओं के भार से बचा जायगा तो मनुष्य न केवल सुखी रहेगा, वरन् प्रगति भी करेगा। पर जिनने अपने को भारी बोझों से लाद, जकड़ लिया है, उन्हें पग-पग पर जिन्दगी दूभर लगेगी और निरन्तर रोष, असन्तोष की स्थिति से अपने को घिरा पावेंगे। पृथ्वी के भीतरी परतों में गर्मी भी अधिक है और भारीपन का दबाव भी बढ़ा-चढ़ा है। अतएव वहां किसी सुन्दर और सुव्यवस्थित वस्तु का अस्तित्व नहीं बन पाता। सब कुछ आग्नेय द्रव के रूप में है। भूकम्पों द्वारा समय-समय पर पृथ्वी की इस आन्तरिक स्थिति का परिचय भी मिलता रहता है।

अब तक पृथ्वी को अधिक से अधिक 5 मील तक ही खोदा जा सका है, जब कि पृथ्वी के मध्य केन्द्र की गहराई लगभग 4 हजार मील है। अधिक गहराई में क्या है—इसकी यत्किंचित् जानकारी भूकम्पों के समय निकलने वाली भूगर्भीय तरंगों से ही प्रतीत होती है।

पृथ्वी की संरचना में ऑक्सीजन, सिलिकन, एल्युमिनियम, लोहा आदि भारी तत्वों का बाहुल्य है। ब्रह्माण्ड में प्रायः हाइड्रोजन, हीलियम जैसे हलके पदार्थ ही अधिक भरे पड़े हैं, उसमें उनकी मात्रा 80 से 99 प्रतिशत तक है, पर अपनी पृथ्वी में उनकी मात्रा 1।10 प्रतिशत से भी कम है।

पृथ्वी के भीतरी भाग में दबाव बहुत अधिक है। जहां धरती का तरल भाग समाप्त होकर कड़ा आवरण शुरू होता है, वहां का दबाव प्रायः प्रति वर्ग इंच पर लगभग 10 हजार टन है।

यों अहंकारी स्थूल दृष्टि भारी-भरकमपन और उष्णता उग्रता को ही महत्व देगी, पर पृथ्वी की स्थिति ने स्पष्ट कर दिया है कि उसके भीतरी अन्तराल में जहां गर्मी और दबाव का बाहुल्य है, वहां केवल दाह की भट्टी ही जल रही है और उस विक्षोभ की उसासें भूकम्पों और ज्वालामुखियों के रूप में फूटकर शान्त वातावरण को विषाक्त और विकृत ही करती रहती हैं। इसके विपरीत धरती के ऊपरी वायुमण्डल में जहां हलकापन और शीतलता का सन्तुलन है, वहीं जीवन, सौन्दर्य और सुविधा—साधनों के पनपने का अवसर मिला है। यह तथ्य यदि हम समझ सकें तो अपनी गति-विधियों में उपयोगी परिवर्तन करके सुख-सन्तोष भरी प्रगतिशीलता का रसास्वादन कर सकते हैं।

यों हर किसी को स्वावलम्बी बनने का प्रयत्न करना चाहिए, पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अपने में जो बीज रूप से विद्यमान क्षमताएं हैं, उन्हें विकसित करने के लिए बाहर से भी बहुत कुछ सहयोग लेना पड़ता है। यह सारा समाज सहकारिता के सिद्धांतों से जकड़ा हुआ है। हमारा विकास ही नहीं, जीवन भी पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही गतिशील हो रहा है।

ग्रह-नक्षत्रों का अस्तित्व और क्रियाकलाप भी पारस्परिक सहयोग और आदान-प्रदान पर ही चल रहा है। अपनी पृथ्वी को ही लें, वह सूर्य से बहुत कुछ ग्रहण करती उसके अनुदान से अपना काम चलाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह दूसरे ग्रहों को अपना अनुदान नहीं देती। निश्चित रूप से लेने के साथ, देने का भी अविच्छिन्न तथ्य जुड़ा हुआ है। जो लेता भर रहेगा और देने का नाम न लेगा, वह बेमौत मरेगा। पृथ्वी दूसरे ग्रहों को पर्याप्त अनुदान देती है, पर साथ ही अपनी विशेषताओं को अक्षुण्ण रखने के लिए सूर्य पर निर्भर भी रहती है।

ब्रिटिश खगोलज्ञ और सुप्रसिद्ध दूरबीन विशेषज्ञ—सर विलियम हर्शेल ने सूर्य की स्थिति का धरती पर होने वाले प्रभावों का गहरा अध्ययन किया है और यह निष्कर्ष निकाला है कि वनस्पतियों के विकसित और फलित होने से लेकर प्राणियों के शरीर और मनुष्यों के मनःस्तर पर सूर्य परिवर्तन का असाधारण प्रभाव पड़ता है। इसे देखते हुए यह प्रतीत होता है कि सूर्य से पृथ्वी के न केवल ऋतु-परिवर्तन प्रभावित होते हैं, वरन् प्राणियों का शारीरिक और मानसिक स्तर भी उठता-गिरता है। उजवेक (रूस) के विज्ञानी—‘एन. केनोसरिन’ ने सूर्य के धब्बों के साथ पृथ्वी पर दल-दल घटने-बढ़ने की, संगति बिठाई है। मास्को के ‘प्रो. शिझेब्स्की’ ने पता लगाया है कि धरती के इतिहास में जब-जब सूर्य में तीव्र प्रतिक्रियाएं हुई हैं, तब-तब हैजा, प्लेग, टाइफ़ाइड आदि बिमारियों का संसार में भारी प्रकोप हुआ है। उसका कारण वे बैक्टीरिया जीवाणुओं पर होने वाली सौर प्रतिक्रिया को मानते हैं। वे सूर्य के प्रभाव में घट-बढ़ होने के कारण मनुष्यों के स्वभाव में हेर-फेर होने की बात भी कहते हैं।

ग्रहों के बीच परस्पर क्या सम्बन्ध है? इसका निरूपण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि सभी एक दूसरे के सहयोगी हैं। कौन किसका पिता, पुत्र, भाई, भतीजा आदि हैं? इसका विश्लेषण करने से कुछ काम नहीं चलता। कौन पुराना, कौन नया, कौन दानी और ऋणी, कौन बड़ा, कौन छोटा—इस झंझट में पड़कर न अहंकार को बढ़ाया जाना चाहिए और न किसी को हीनता का अनुभव कराना चाहिए। अच्छा यही है कि हम पारस्परिक सहकारिता और सहयोग भावना का महत्व समझें और यह मानें कि कोई किसी को एक तरह का सहयोग दे रहा है, तो दूसरा उसकी अन्य प्रकार से सहायता कर रहा है।

ग्रह-नक्षत्रों के बीच भी अब इसी मान्यता को प्रधानता दी जा रही है। चन्द्रमा और पृथ्वी के बीच क्या रिश्तेदारी है? इसका विश्लेषण बहुत समय तक किया जाता रहा, पर अब अन्त में इसी निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि कोई किसी का आश्रित नहीं, सभी का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और इस ब्रह्माण्ड-परिवार में सभी ग्रह-नक्षत्र सहयोगी सदस्य बनकर रह रहे हैं।

चांद पृथ्वी का भाई है? बेटा है? या दोस्त मेहमान? यह पता लगाया जाना शेष है।

‘सर जार्ज डार्विन’ ने कहा है कि—प्रशान्त महासागर की जमीन किसी खण्डप्रलय के कारण उखड़ पड़ी और उड़कर चांद बन गई। जहां से वह मिट्टी उखड़ी—वहां का गड्ढा समुद्र बन गया। यह उखड़ी हुई जमीन आकाश में मंडराने लगी और धरती का चक्कर काटती हुई चन्द्रमा बन गई। इस प्रकार वह पृथ्वी का बेटा हुआ। इसी सन्दर्भ में यह भी कहा गया है कि जिन दिनों पृथ्वी की सतह लाल अंगारे की तरह तप रही थी, उन दिनों वह घूमती भी तेजी से थी, अपनी धुरी पर तब वह एक चक्कर तीन घन्टे में ही लगा लेती थी और आये दिन गरम लावे के ज्वार-भाटे जैसे भूकम्प आते थे। उन्हीं दिनों कई विशालकाय उल्काएं धरती से टकराई और कई समुद्र तथा झील-सरोवर बन गये। फ्रेंच वैज्ञानिक बुफो ने चन्द्रमा को धरती का भाई माना है। वे कहते हैं—सारे ग्रह-उपग्रह एक ही समय एक ही साथ बने हैं। आरम्भ में अकेला सूर्य था। कहीं से एक और विशालकाय सूर्य आया और हमारे सूर्य से टकरा गया। टकराव से दोनों का बहुत बड़ा हिस्सा धूल बनकर अन्तरिक्ष में उड़ने लगा और जब वह सघन हुआ तो उसी से सौर-मण्डल के ग्रह और उपग्रह बन गये।

खगोलज्ञ लाटलास वाईज स्रैकर, जेरार्डकुइपर, फ्रन्डहाइल आदि विद्वानों का कथन है कि समस्त आकाश गंगायें, तारक, सौर-मण्डल और उपग्रह, सृष्टि के आदि से प्रथम विस्फोट के छितराव से फैली हुई धूलि से बने हैं। वे आकर्षण-विकर्षण की धाराओं से परस्पर बंधे जरूर हैं और अपनी धुरी और कक्षा की भ्रमणशीलता भी परस्पर सम्बन्धों के आधार पर स्थिर किये हुए हैं—फिर भी कोई किसी से उत्पन्न नहीं हुआ। सभी ग्रह-उपग्रहों का जन्म स्वतन्त्र रूप से हुआ है और उनका मूल कारण आदि पदार्थ ‘हिरण्यगर्भ’ का विस्फोट ही था। इस प्रकार सभी ग्रह एक दूसरे के मित्र, पड़ौसी मात्र हैं। यही बात पृथ्वी और चन्द्रमा के सम्बन्ध में भी लागू होती है।

ब्रह्माण्ड-परिवार के सदस्य—ग्रह-नक्षत्र जहां विकास की दिशा में बढ़ रहे हैं, वहीं उनमें वृद्धता, मरण और पतन का क्रम भी अपने ढंग से चल रहा है। उसे देखते हुए यह सम्भावना स्पष्ट है कि इस विशाल ब्रह्माण्ड को भी एक दिन मरण के मुख में जाना पड़ेगा। तारक और आकाश-गंगायें स्वाभाविक वृद्धता के शिकार होकर मृत्यु के ग्रास होते रहे हैं और आगे होते रहेंगे। जब समस्त ब्रह्माण्ड बूढ़ा हो जायगा तो महाकाल उसे भी अपनी कराल डाढ़ों से चबाकर रख देगा। जन्म के बाद विकास, विकास के बाद मरण का सिद्धान्त तो ब्रह्माण्ड को भी लपेट में लिये बिना छोड़ने वाला नहीं है।

अपनी आकाश-गंगा की शक्ति जिस तेजी से क्षीण हो रही है, उसे देखते हुए वैज्ञानिक उससे सम्बद्ध सौर-मण्डलों के अवसान की आशंका करने लगे हैं। मेरीलेण्ड विश्वविद्यालय की खगोल शाखा ने बताया है कि वह दिन निकट आता चला आ रहा है, जब अपना आकाश-गंगा के साथ जुड़े हुए ग्रह उससे छिटक कर दूर चले जायेंगे और अनन्त अन्तरिक्ष में स्वतन्त्र रूप से विचरण करने लगेंगे। इसका प्रभाव सौर-परिवार पर ही नहीं, ग्रहों के साथ भ्रमण करने वाले उपग्रहों पर भी पड़ेगा और एक विश्रृंखल अराजकता की ऐसी बाढ़ आवेगी कि सर्वत्र एकाकीपन दृष्टिगोचर होने लगेगा। पर अंतर्ग्रहीय आदान की श्रृंखला टूट जाने से ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी कि हर नक्षत्र विविधताओं के कारण बनी हुई विशेषताओं और सुन्दरताओं को खोकर अपने स्वरूप की तुच्छताओं से सीमाबद्ध अपंग और कुरूप स्तर को ही प्राप्त होगा।

यहां सब कुछ जन्मता, बढ़ता और मरता है। ब्रह्माण्ड भी—यह तथ्य मनुष्य को समझना चाहिए साथ ही यह भी समझना चाहिये कि जन्म मरण के साथ-साथ सब कुछ एक नियम व्यवस्था के अन्तर्गत चल रहा है। इस नियम व्यवस्था को समझने, परमात्मा की न्याय व्यवस्था को स्वीकार करने के अतिरिक्त मनुष्य को अपने जीवन का सीमित विस्तार मानते हुए, चिरकाल तक उपभोग के लिए नीति अनीति पूर्वक सब कुछ संचित करते जाने की गलती नहीं करनी चाहिए।
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