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Books - अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि

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Language: HINDI
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​​​अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठ भूमि व आधार

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अतीन्द्रिय ज्ञान अब एक वैज्ञानिक तथ्य है। सामान्यतः पात्र ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से ही ज्ञान सम्पादन किया जाता है पर अब विश्लेषण का विषय छठी इन्द्रिय भी बन गयी है। मनुष्य कई बार ऐसी ज्ञान-कर्मरयां प्राप्त करता है, जो इन्द्रिय ज्ञान की परिधि से सर्वदा बाहर की बात होती है। अमेरिका मन रोग चिकित्सक ने अपनी पुरूरक वियोद टेलीपैथी में ऐसी अनेकों घटनाओं का उल्लेख किया है जिनसे सिद्ध होता है कि कितने ही मनुष्यों को समय-समय पर दूरस्थ स्थानों पर घटित हुई घटनाओं का ज्ञान बिना किसी साधन संचार के अनायास ही होते देखा गया है।

प्रामाणिक इतिहासकार ‘हिरोडोटस’ ने ईसा से पूर्व 546-560 में हुए लीडिया के राजा क्रोशस का विवरण लिखा है। उसमें कहा गया है कि राजा अपने शत्रुओं से आतंकित था। उसने किसी भविष्यवक्ता की सहायता से रास्ता निकालने की बात सोची। प्रामाणिक भविष्यवक्ता को ढूंढ़ निकालने के लिए उसने तत्कालीन सात प्रसिद्ध भविष्यवक्ताओं के पास अपने दूत भेजे और कहा जिस समय मिलें उसी समय यह पूछें कि—‘अब क्रोशस’ क्या कर रहे हैं? इधर राजा ने अपना घड़ी-घड़ी का कार्य विवरण लिखने की व्यवस्था कर दी।

छह के उत्तर तो गलत निकले, पर सातवें उत्फी नामक भविष्यवक्ता की बात अक्षरशः सही निकली उसने दूत के बिना पूछे ही बताया—‘‘क्रोशस इस समय पीतल के बर्तन में कछुए और भेड़ का मिला हुआ मांस भून रहा है।’’ पीछे राजा ने उस भविष्यवक्ता को बुलाया और उसके परामर्श से कठिनाइयों से त्राण पाया।

इटली के एक पादरी अलोफोन्सस लिगाडरी ने अर्धमूर्छित स्थिति में दिवा स्वप्न देखा कि ‘‘ठीक उसी समय रोम के बड़े पोप का स्वर्गवास हो गया है।’’
उन दिनों सन् 1774 में यातायात या डाक-तार का भी कोई प्रबन्ध न था। इतनी दूर की किसी घटना की ऐसी जानकारी जब उनने अपने शिष्यों को सुनाई तो किसी को इसका कोई आधार प्रतीत नहीं हुआ। बड़ी पोप बीमार भी नहीं थे फिर अचानक ऐसी यह मृत्यु किस प्रकार हो सकती है? कुछ ही दिन बाद समाचार मिला कि पाप की ठीक उसी समय वैसी ही स्थिति में मृत्यु हुई थी जैसी कि लिगाडरी ने विस्तार पूर्वक बताई थी।

सन् 1759 की वह घटना प्रामाणिक उल्लेखों में दर्ज है जिसके अनुसार स्वीडन के इमेनुअल स्वीडन वर्ग नामक साधक ने सैकड़ों मील दूर पर ठीक उसी समय हो रहे भयंकर अग्निकाण्ड का सुविस्तृत विवरण अपनी मित्र मन्डली को सुनाया था। उस अग्निकाण्ड में घायल तथा मरने वालों के नाम तक उनने सुनाये थे जो पीछे पता लगाने पर अक्षरशः सच निकले।

खोये हुए मनुष्यों एवं सामानों के सम्बन्ध में अतीन्द्रिय चेतना सम्पन्न मनुष्य जब सही अता-पता देने में सही सिद्ध होते हैं तो यही मानना पड़ता है प्रत्यक्ष साधनों एवं इन्द्रिय ज्ञान के सहारे जो कुछ जाना जाता है बात उतने तक ही सीमित नहीं है, मनुष्य की रहस्यमयी शक्तियों के आधार पर वैसा भी बहुत कुछ जाना जा सकता है जो सामान्यतया असम्भव ही कहा जा सकता है।

विज्ञानी डा. मोरे बर्सटीन ने लेडी वंडर के बारे में एक दिन अपने एक मित्र से सुना, इसके पूर्व विमान-यात्रा में उनका विस्तार व सामान खो गया था, जिसमें जरूरी काजजातों वाला वक्सा भी था। विमान कम्पनी ने खोए सामान के न मिलने की घोषणा, करदी थी तथा मुआवजे का प्रस्ताव रखा था, जिसे वर्सटीन ने अस्वीकार कर खोज जारी रखने को कहा था।

अब मित्र से सुन वर्सटीन को अपने सामान की चिन्ता तो जाती रही। भीतर की जिज्ञासा—वृत्ति उमड़ उठी। वे चल पड़े लेडी वन्डर से मिलने। वहां सर्व प्रथम वर्सटीन ने पूछा—बताइये, पेरिस में मैंने जो बिल्ली पाल रखी थी, उसका नाम क्या था? लेडी वंडर ने उसे विस्मित करते हुए बताया—भर्तिनी। फिर वर्सटीन ने अपने सामान की बावत पूछा। लेडी वन्डर ने बताया—तुम्हारा सामान न्यूयार्क हवाई अड्डे में है।

पहले तो वर्सटीन को अविश्वास हुआ। क्योंकि न्यूयार्क हवाई अड्डा छाना जा चुका था। पर फिर उसने हवाई अड्डे के अधिकारियों को फोन किया—‘‘महोदय, मुझे विश्वस्त सूत्रों से जानकारी मिली है कि मेरा सामान न्यूयार्क हवाई अड्डे के भवन के ही भीतर है। कृपया दुबारा तलाश करें।’’ तलाशी शुरू हुई और सामान सचमुच मिल गया।

न्यूजर्सी की आत्मवेत्ता महिला फ्लोरेन्स किसी वस्तु को छूकर उससे सम्बन्धित व्यक्ति के बारे में जो कुछ बताती थी, उसका प्रायः 80 प्रतिशत सच होता रहा। गुमशुदा की तलाश, हत्याओं की जांच तथा अन्य खोज-बीन के मामलों में पुलिस भी उसको सहायता लेती रही।

पूर्वाभास की यह क्षमता कई व्यक्तियों में असाधारण तौर पर विकसित होती है। द्वितीय महायुद्ध में ऐसे लोगों का दोनों पक्षों ने उपयोग किया था। हिटलर के परामर्श मण्डल में पांच ऐसे ही दिव्यदर्शी भी थे। उनका नेतृत्व करते थे विलियम क्राफ्ट।

इसी मण्डली के एक सदस्य श्री डी. व्होल ने तत्कालीन ब्रिटिश विदेश मन्त्री लार्ड हेली फिक्स को सर्वप्रथम एक भोज में अनुरोध किए जाने पर हिटलर की योजनाओं का पूर्वाभास दिया। वे सच निकलीं और श्री व्होल को फौज में केप्टिन का पद दिया गया। श्री डी. व्होल हिटलर की अनेक योजनाओं की जानकारी अपनी दिव्य दृष्टि से दें देते। ब्रिटेन तदनुसार रणनीति बनाता। फौजी अफसरों को जिम्मेदारियां सौंपते समय भी उनके भविष्य बावत श्री डी. व्होल से सलाह ली जाती। उन्हीं के परामर्श पर माउंट गोमरी को फील्ड मार्शल बनाया गया। उनकी सफलताएं सर्वविदित हैं। जापानी जहाजी बेड़े को नष्ट करने की योजना भी श्री व्होल की सलाह से बनी थी। महायुद्ध की समाप्ति के बाद श्री व्होल ने ब्रिटिश शासक को परामर्श देने का कार्य छोड़ दिया था और धार्मिक लेखन का अपना पुराना काम करने लगे थे।

प्रत्यक्ष इन्द्रिय शक्ति हमारे सामान्य जीवन निर्वाह में अतीव उपयोगी भूमिका सम्पन्न करती है। वह न हो तो फिर हम जीवित मांस पिण्ड की तरह इधर-उधर लुढ़कते ही मौत के दिन पूरे करेंगे। मानवी प्रगति में उसकी परिष्कृत ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का ही प्रमुख योगदान है।

कल्पनायें सजीव सक्रिय

मानवी चेतना का मोटा उपभोग वस्तुओं के उपभोग और प्राणियों के साथ व्यवहार कौशल के रूप ही प्रतीत होता है, पर जैसे-जैसे रहस्यमय पर्दे उठते जा रहे हैं वैसे-वैसे सिद्ध होता जा रहा है कि इस स्थूल के भीतर कोई दिव्य चेतना लोक जगमगा रहा है और उसमें प्रवेश करके बहुमूल्य रत्न राशि ढूंढ़ लाने की क्षमता भी मनुष्य में विद्यमान है। मन को साधारणतः इच्छा, ज्ञान और क्रिया में संलग्न रखने वाली चेतना के रूप में जाना जाता रहा है, पर अब उसकी अतीन्द्रिय चेतना पर विश्वास किया जाने लगा है। ऐसे अगणित प्रमाण सामने आ रहे हैं जिनसे प्रतीत होता है कि हाड़ मास का सोचने, बोलने वाला पिन्ड जो कर सकता है उससे कहीं अधिक परिधि मानवी चेतना की है। उसमें अति मानवी असाधारण शक्तियां भी सन्निहित हैं।

अमेरिका के टोरेन्टो टेलीविजन स्टूडियो में एक व्यक्ति की कल्पनाएं मूर्तिमान रूप में किस प्रकार दिखाई देती हैं इस के प्रामाणिक चित्र लिये गये। 49 वर्षीय ट्रक ड्राइवर थियोडर सेरिओस का दावा था कि उसके विचार इतने स्पष्ट होते हैं कि उन्हें शायद चित्र रूप में भी उतारा जा सके। उपरोक्त प्रयोगशाला में उसे प्रस्तुत किया गया। इसके लिये कम्पनी में बना सीलबन्ध पोलारायड कैमरा खरीदा गया और फिल्म बनाने वाली कम्पनी से सीधे ही उसमें फिल्म भराई गई। यह कैमरा ऐसा है जो अपने आप ही एक मिनट में तैयार फोटो हाथ में रख देता है। यह प्रयोग उपकरण इसलिए ऐसी सावधानी के साथ प्रयुक्त किये गये कि किसी को यह सन्देह न रहे कि—किसी व्यक्ति विशेष की ख्याति के लिये कोई बाजीगरी की गई है। उपकरणों की और फोटोग्राफी की शुद्धता के लिये कई साक्षी भी साथ रखे गये।

थियोडर ने जो-जो कल्पनाएं की, मस्तिष्क के सामने लगे कैमरे ने ठीक उन्हीं चित्रों को उतार दिया। इस विशिष्टता की चर्चा जब अधिक हुई तो कोलरेडो विश्व-विद्यालय ने उस व्यक्ति के सम्बन्ध में गहराई तक जांच करने का निश्चय किया और इसके लिये डा. आइसनवद के नेतृत्व में एक विशेष विभाग ही बना दिया जो न केवल इस चमत्कारों की वरन् उसके कारणों की भी जांच करे। जांच दो वर्ष तक चली और उसका निष्कर्ष इतना ही निकला कि उस व्यक्ति में निश्चित ही यह अद्भुत शक्ति है। उसके कारण नहीं जाने जा सके केवल कुछ सम्भावनाओं की चर्चा की गई है। कल्पना, विचार, भावनायें और संकल्प कोई हवाई उड़ानें या अवास्तविक बातें ही नहीं है बल्कि वे भी स्कूल क्रियाओं की तरह प्रभावशाली होती है। बल्कि इनकी सामर्थ्य स्थूल क्रियाओं से अधिक समर्थ होती है। प्राचीन काल में ऋषि महर्षियों ने इस शक्ति का महत्व समझकर उनका उपयोग सरलता पूर्वक करने की विधि खोज ली थी।

विचार संचालन, टेलीपैथी के अन्तर्गत बिना यन्त्रों संकेतों या इन्द्रियों की सहायता के दूरस्थ व्यक्तियों द्वारा परस्पर विचार विनिमय की प्रक्रिया इसी शक्ति के अन्तर्गत आती है। अतीन्द्रिय दृष्टि में बिना आंखों की सहायता के दृश्यों को देखा जाना सम्मिलित है। पूर्व ज्ञान से बीती हुई घटनाओं को जानना और भविष्य ज्ञान में भावी सम्भावनाओं का परिचय प्राप्त करने की बात है। स्वप्नों में व्यक्ति की स्थिति अथवा अविज्ञात घटना क्रमों के भूतकालीन अथवा भावी संकेत समझे जाते हैं। साइकोकाइनेसिस के अन्तर्गत मस्तिष्क का वस्तुओं पर पड़ने वाला प्रभाव आंका जाता है। लूथर वरथेन्क ने पौधे, फूल, कीड़े, पक्षी और पशुओं पर अपनी भाव सम्वेदनाओं के भिन्न-भिन्न प्रभाव डालने में जो सफलता प्राप्त की है उससे शोधकर्त्ताओं का उत्साह बहुत बढ़ा और वे न केवल प्राणियों को प्रमाणित कर सकने में सफल हुए।

मैस्मरेजम के आविष्कर्ता डा. मैस्मर ने लिखा है—‘‘मन को यदि संसार के पदार्थों और तुच्छ इन्द्रिय भोगों से उठाकर ऊर्ध्वगामी बनाया जा सके तो वह ऐसी विलक्षण शक्ति और सामर्थ्यों से परिपूर्ण हो सकता है, जो साधारण लोगों के लिये चमत्कार सी जान पड़े। मन आकाश (स्पेश) में भ्रमण कर सकता है और उन घटनाओं को ग्रहण करने में समर्थ हो सकता है, जिन्हें हमारी ज्ञानेन्द्रियां ग्रहण न कर सकें और हमारा तर्क जिन्हें व्यक्त करने में असमर्थ हो।’’

अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान डा. जे.बी. राइन ने भी उक्त तथ्य की बाद में विस्तृत खोज की और पाया कि विचार, चिन्तन और किसी भी अभ्यास द्वारा यदि मन को विचारणाओं के सामान्य धरातल से ऊपर उठाकर आकाश में घुमाया जा सके तो वह भूत और भविष्य की अनेक घटनाओं को बेतार के तार के सन्देश की तरह प्राप्त कर सकता है। न्यू फ्रान्टियर्स आफ माइंड नामक पुस्तक में उन्होंने ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण भी दिया है, जो उक्त कथन की सत्यता प्रतिपादित करती है। यह एक विज्ञानसम्मत प्रक्रिया है अंधविश्वास नहीं।

इस तथ्य को समझने से पूर्व की मन की शक्ति के बारे में जान लेना आवश्यक होगा। जिस प्रकार ध्वनि तरंगों को पकड़ने के लिये रेडियो में एक विशेष प्रकार का क्रिस्टल फिट किया जाता है, शरीर अध्यात्म का भी एक क्रिस्टल है और वह मन है। विज्ञान जानने वालों को पता है ईथर नामक तत्व सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, हम जो भी बोलते हैं, उनका भी एक प्रवाह है पर वह बहुत हल्का होता है, किन्तु जब अपने शब्दों को विद्युत परमाणुओं में बदल देते हैं तो वह शब्द तरंगें भी विद्युत शक्ति के अनुरूप ही प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है और बड़े वेग से चारों तरफ फैलने लगती है। वह शब्दत रंगे सम्पूर्ण आकाश में भरी रहती है, रेडियो उन लहरों को पकड़ता है और विद्युत परमाणुओं को रोककर केवल शब्द तरंगों को लाउडस्पीकर तक जाने देता है, जिससे दूर बैठे व्यक्ति की ध्वनि वहां सुनाई देने लगती है। शब्द को तरंग और तरंगों को फिर शब्द में बदलने का काम विद्युत करती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्सा और विचार प्रेषण (टेलीपैथी) का मन करता है।

यों मन शरीर में एक प्रथम सत्ता की भांति दिखाई देता है पर वैज्ञानिक जानते हैं कि शरीर के प्रत्येक कोष में एक प्रथक मन होता है। कोषों के मनों का समुदाय ही अवयव स्थित मन का निर्माण करता है। प्रत्येक अवयव का क्रिया क्षेत्र अलग-अलग है पर वह सब मन अवयव के अधीन हैं। मान लीजिये गुदा के समीपवर्ती जीवकोष (सेल्स) अपनी तरह के रासायनिक पदार्थ ढूंढ़ते और ग्रहण करते हैं। उनकी उत्तेजना काम-वासना को भड़काने का काम करती है किन्तु अवयव मन नहीं चाहता कि इन गुदावस्थित जीव-कोषों की इच्छा को पूरा किया जाये तो वह काम वासना पर नियन्त्रण कर लेगा। इसी प्रकार शरीर के हर अंग के मन अपनी-अपनी इच्छायें प्रकट करते हैं पर अवयव मन उन सबको काटता, छांटता रहता है, जो इच्छा पूर्ण नहीं होने को होती, उसे दबाता रहता है और दूसरे को सहयोग देकर वैसा काम करने लगता है।

इस बात को और ठीक तरह से समझने के लिये शरीर रचना का थोड़ा ज्ञान होना आवश्यक है। यह भौतिक शरीर सूक्ष्म जीव-कोषों से बना है, प्रत्येक जीवकोष प्रोटीन की एक अण्डाकार दीवार में घिरा रहता है। उस कोष के अन्दर सैकड़ों प्रकार के यौगिक और मिश्रण पाये जाते हैं। नाइट्रोजन और न्यूक्लियक अम्लों का सबसे बड़ा समूह इस सेल के अन्दर होता है। फास्फोरस चर्बियां (बसायें) और शर्करायें भी उसमें मिलती हैं, साथ ही बीसियों अन्य कार्बनिक पदार्थ सूक्ष्म मात्राओं में पाये जाते हैं, जैसे विटामिन और हार्मोन, उसमें बहुत से अकार्बनिक लवण भी होते हैं। यानी प्रोटीन न्यूक्लियक अम्ल, बसायें शर्करायें और लवण, ये सांसारिक पदार्थ जिन्हें रसायनज्ञ एक जीवित कोशिका में पाता है, निश्चय ही ऐसे पदार्थ नहीं हैं, जिनसे विचारों का निर्माण होता है, फिर भी ऐसे ही पदार्थों के ऊपर उस असम्भव विचार का भवन निर्मित होता है, जिसे हम जीवन कहते हैं, अतः उस जीवन की विचित्रता और बढ़ जाती है, यह मान्यता आधुनिक विज्ञान वेत्ताओं की है। यह जीव-कोषों के मन ही मिलकर अवयव मन का निर्माण करते हैं, इसलिये मन को एक वस्तु न मानकर अध्यात्म-शास्त्र में उसे ‘मनोमय कोश’ कहा गया है। एक अवस्था ऐसी होती है, जब शरीर के सब मन उसके आधीन काम करते हैं, जब यह अनुशासन स्थापित हो जाता है तो मन की क्षमता बड़ी प्रचण्ड हो जाती है और उसे जिस तरफ लगा दिया जाये उसी ओर वह तूफान की सी तीव्र हलचल पैदा कर देता है।

इन सूक्ष्म जीवों के मन निःसन्देह प्रत्युत्पन्न मति पटल (संस्कार जन्य मन) के आधीन हैं और बुद्धि की आज्ञाओं को भी मानते हैं। इन जीवों के मन में अपने विशेष कार्य के लिये विचित्र योग्यता रहती है। रक्त से आवश्यक सार का शोषण, अनावश्यक का त्याग इनकी बुद्धि का प्रमाण है। यह क्रिया शरीर के हर अंग में होती है, जो जीवकोष संस्थान ज्यादा सक्रिय होता है, वह ज्यादा बलवान् रहता है और अपने पास-पड़ौस वाले जीव-कोषों की शक्ति को मन्द कर देता है। गुदा वाले जीव-कोष जो काम-वासना में रुचि रखते हैं, वह सक्रिय होते हैं तो आमाशय के जीव-कोषों की शक्ति का भी अपहरण कर लेते हैं और इस तरह काम-वासना की प्रत्येक पूर्ति के साथ आमाशय की शक्ति घटती जाती है और वह व्यक्ति पेट का मरीज हो जाता है। जीव-कोषों का अनुशासित न होना ही शरीर की इन चोरियों का कारण बनता है। जो भी हो यह सत्य है कि पचन का आसात्वत, घावों का पूरना, आवश्यकतानुसार दूसरे स्थानों पर दौड़ जाना, अन्य बहुत से कार्य कोषगत जीवन के ही मानसिक कार्य हैं। इन्हें विश्रृंखलित रहने देने से उनका सम्राट् मस्तिष्क में रहने वाला मन भी कमजोर और अस्त-व्यस्त हो जाता है, किन्तु जब सम्पूर्ण शरीर के मन उसके अनुशासन में आ जाते हैं तो शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है।

केवल कोमल स्नायु, पेशियां, झिल्लियां आदि ही नहीं हड्डियां, दांत, नाखून आदि कठोर पदार्थ भी सूक्ष्म जीवों के योग से बने होते हैं, अपने कार्यों के अनुसार इनकी आकृतियां अलग-अलग होती हैं पर इनमें भी स्वतंत्र और प्रत्युत्पन्न मन के आधीन काम करने की दोहरी क्षमता होती हैं। अर्थात् सब जीव-कोष स्थानीय कार्य भी करते रहते हैं और संगठित कार्य भी। जिस प्रकार एक गांव के सब लोग अपना अलग-अलग काम करते रहते हैं, अपना खेत जोतना, अपना काटना, अपने लिये अलग पकाना, अपने ही परिवार के साथ बसना, अपनी बनाई कुटिया में रहना आदि केवल अपने तक ही सीमित रहते हैं पर आवश्यकता आ जाती है तो सब लोग इकट्ठे होकर कोई सार्वजनिक कुआं तालाब-आदि भी खोदते हैं, एक आदमी दूसरे की सहायता करता है। ठीक वैसे ही जीवकोषों के मन और प्रत्युत्पन्न मन के भी दो क्षेत्र हैं और दोनों अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। कुछ कोष ऐसे भी होते हैं, जिन्हें शरीर में केवल सुरक्षा की दृष्टि से तैनात किया है, वे गंदगी को दूर करने, कचरा न जमा होने देने की चौकीदारी भी करते हैं और कोई रोग का कीटाणु (वायरस) शरीर में आ जायें तो उससे युद्ध करने का काम भी वे कोष करते हैं। इस तरह शरीर के मन तो अपनी-अपनी व्यक्तिगत ड्यूटी पूरी करते हैं, दूसरे बाह्य जगत से सम्पर्क बनाते हैं, दोनों अलग-अलग अपने काम करते रहते हैं।

शरीर के अन्दर इस तरह जीव-कोषों का मेला लगा हुआ है। अनुमानत केवल लाल रंग के कोषों की संख्या कम से कम 75000,000,000 है, इनका फेफड़ों से ऑक्सीजन चूसना, धमनियों और वाहिनियों के द्वारा सारे शरीर में बांटना होता है। यह जीव कोष अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यह जगत् से भी शक्ति चूसने के वैज्ञानिक कार्य को पूरा करते हैं। इसलिए मनुष्य शारीरिक शक्ति की कमी के बावजूद भी बहुत दिन तक जिन्दा रहता है, क्योंकि यह विश्व-व्यापी प्राण सत्ता से शरीर का सम्बन्ध बनाये रहते हैं।

प्रत्युत्पन्न मन जब एकाग्र और संकल्पशील होता है तो सभी कोष स्थित मन जो विभिन्न गुणों और स्थानों की सुरक्षा वाले होते हैं, उसी के आधीन होकर काम करने में लग जाते हैं, फिर उस संग्रहीत शक्ति से किसी भी स्थान के जीव-कोषों को किसी दूसरे के शरीर में पहुंचाकर उस व्यक्ति की किसी रोग से रक्षा की जा सकती है, सुनने, समझने वाले मनों में हलचल पैदा करके उन्हें सन्देश दिया जा सकता है, किसी को पीड़ित या परेशान भी किया जा सकता है।

जीव-विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान रिचीकाल्डर ने इस तथ्य का प्रतिपादन इस तरह किया है—इलेक्ट्रान हमारा दास है, क्योंकि वे मानवी प्रतिक्रियाओं में अधिक तेजी से चलते हैं, ये मानवीय नेत्र से भी अधिक देख सकते हैं, मानवीय स्पर्श से अधिक हर्ष अनुभव कर सकते हैं। मानवीय कान से अधिक सुन सकते हैं, मस्तिष्क की अपेक्षा शीघ्र और ठीक गिनती कर सकते हैं। हमारे सामने दूर आस्वादन (टेलेगस्टेशन), दूर श्रवण (टेलेआडीशन) दूर घ्राण (टेले आल्फेक्शन) सुगन्धि पदार्थ तथा बोलते चित्र भी हैं, वह इन्हीं दास इलेक्ट्रानों का काम है। नियन्त्रण मोटरों (सर्वोमीटर) के द्वारा इलेक्ट्रान किसी रॉलिंग मिल के हजारों टन इस्पात को पाव भर वजन की तरह उठा देता है, जबकि वह पदार्थगत मन है इसके सहारे यदि मानव के जीव-कोषों में अवस्थित मन (इलेक्ट्रान्स) की शक्ति का अनुमान करें तो वहां तक सम्भवतः हमारी बुद्धि न पहुंचे पर अब इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि ऐसी कोई विद्या हो सकती है, जब एक शरीर अपनी विशेष शक्ति या सन्देश किसी और शरीरधारी को दें सके।

हम जानते हैं कि प्रकाश एक शक्ति है पर वह अपने मौलिक रूप में पदार्थ भी है, क्योंकि वह टुकड़ों में विभक्त हो जाती है, यह प्रकाश परमाणु ‘फोटो-सेल्स’ कहलाते हैं। उनमें भी इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन और न्यूक्लियस की रचना होती है। अर्थात् प्रकाश से भी सूक्ष्म सत्तायें इस संसार में हैं, यह मानना पड़ता है।

वस्तुयें हम प्रकाश की सहायता से देख सकते हैं। किंतु साधारण प्रकाश कणों की सहायता से हम शरीर के कोश (सेल) को देखना चाहें तो वह इतने सूक्ष्म है कि उन्हें देख नहीं सकते। इलेक्ट्रानों को जब 50000 वोल्ट आवेश पर सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में भेजा जाता है तो उनको तरंग दैर्ध्य श्वेत प्रकाश कणों की तुलना में 1/100000 भाग सूक्ष्म होती है, तब वह हाइड्रोजन के परमाणु का जितना व्यास होता है, उसके भी 42.4 वें हिस्से छोटे परमाणु में भी प्रवेश करके वहां की गतिविधियां दिखा सकती हैं। उदाहरण के लिए यदि मनुष्य की आंख एक इंच घेरे को देख सकती है तो उससे भी 500 अंश कम को प्रकाश-सूक्ष्मदर्शी और 10000 अंश छोटे भाग को इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य शरीर के कोष (सेल्स) का चेतन भाग कितना सूक्ष्म होना चाहिये। इस तरह के सूक्ष्मदर्शी से जब कोश का निरीक्षण किया गया तो उसमें भी एक टिमटिमाता हुआ प्रकाश दिखाई दिया है। चेतना या महत्तत्व इस प्रकार प्रकाश की ही अति सूक्ष्म स्फुरणा है, यह विज्ञान भी मानता है।

मास्को के जीव वैज्ञानिक प्रो. तारासोव ने यह देख कर ही बताया था कि मनुष्य शरीर का प्रत्येक सेल एक टिमटिमाते हुए दीपक की तरह है, कुल शरीर ब्रह्मांड के नक्षत्रों की तरह—तो यह सूक्ष्मतम चेतना ही उसमें जीवन है।

यह जीवन तत्व शरीर के प्रत्येक अंग में छिटका हुआ पर उसका एक नियत स्थान भी है, जहां से वह प्रभासित होता है। हम देखते हैं कि आत्मा नामक कोई वस्तु शरीर में है तो उसे प्रकाश अणुओं के रूप में पाया जाना चाहिए पर जैसे सूर्य सारे ब्रह्मांड में बिखर गया है, यह चेतना भी सारे शरीर में संव्याप्त है और विचार तथा भावनाओं के रूप में निःसृत होता रहता है, इस तरह प्रत्येक व्यक्ति के साथ उसके विचारों की तरंग-दैर्ध्य चलती रहती है। जो अधिक स्थूल स्वभाव और आचार-विचार के व्यक्ति होते हैं, उनका यह तरंग दैर्ध्य बहुत सीमित और दुर्गंधित होता है, इसलिये बुरे लोग अपने पास वाले को भी प्रभावित नहीं कर पाते, जबकि विचारशील लोग विशेष प्राणवान् लोग सभा-मंडप में बैठे हजारों लोगों को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति भाषणों द्वारा इतनी शक्ति और प्रेरणा दें सकते हैं कि सैकड़ों लोग थोड़ी ही देर में अपने विचार पलट कर रख देते हैं। इस तरह के प्राणवान् व्यक्ति आदि काल से ही लोगों की जीवन दिशायें बदलते और युगों में परिवर्तन लाते आये हैं।

हमारा शरीर एक प्रकार से आकाश है। यदि त्वचा के आवरण बांध कर उसे एक विशेष गुरुत्वाकर्षण शक्ति द्वारा पृथ्वी से बांध नहीं दिया गया होता तो हम आकाश में कहीं विचरण कर रहे होते। सूक्ष्म रूप से हमारी चेतना विचार और संकल्पों के रूप में आकाश तत्व में तरंगित होती रहती है। भारतीय योगियों ने उस चेतना की विभिन्न प्राणायाम, धारणा ध्यान समाधि आदि योग क्रियाओं द्वारा मन के रूप में नियन्त्रित किया था। आज्ञा चक्र नामक स्थान, जो माथे में दोनों भावों के बीज पाया जाता है, ध्यान द्वारा देखा गया तो उस बिखरी हुई ज्योति के एकाकार दर्शन ऐसे ही हुए जैसे हजार दिशाओं में बिखरे होने पर भी सूर्य का एक पुंजीभूत रूप भी है और वह उन बिखरे हुए अस्त-व्यस्त कणों की तुलना में जोकि सारे सौर-मंडल की प्रकृति का निर्धारण करते हैं, कहीं अधिक ऊर्जा (प्रकाश, विद्युत, ताप) से सम्पन्न होता है। ऐसे ही मन जब शरीर के सब कोषों की ऊर्जा के रूप में नियन्त्रित हो जाता है तो उसकी शक्ति सामर्थ्य और विभेदन क्षमता का कोई पारावार नहीं रहता है। इस तरह का मन ही सर्वत्र गमनशील सर्वदर्शी और सर्वव्यापी होता है। वही क्षण में कहीं का कहीं पहुंचकर बेतार के तार की तरह सन्देश पहुंचाता रहता है।

ऊर्जा का प्रकाश में बदलना एक अत्यन्त जटिल प्रणाली है पर वैज्ञानिक यह जान चुके हैं कि जब यह ऊर्जा किसी वस्तु में प्रवेश करती है तो उसके परमाणु उत्तेजित हो उठते हैं। फिर थोड़ा शान्त होकर जब वे अपने मूल स्थान को लौटते हैं तो उस सोखी हुई ऊर्जा को प्रकाश में बदल देते हैं। इस क्रिया को ‘संदीप्ति’ कहते हैं यह गुण संसार के सभी प्राणियों में पाया जाता है, हम उसे जानते नहीं पर यह वैज्ञानिकों को पता है कि मनुष्य जो कुछ सोचता है, वह कितना ही छुपाये-छुप नहीं सकता। वह इसी प्रकार सूक्ष्म प्रकाश तरंगों के रूप में बाहर निकलता रहता है, यदि हम उन तरंगों से भी सूक्ष्म आत्म-चेतना द्वारा उन तरंगों में प्रवेश पा सकें, जैसा कि ऊपर के प्रयोग में बताया गया है तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि यह व्यक्ति क्या सोच रहा है, भविष्य की इसकी योजनायें क्या हैं, आदि-आदि। पर यह सब तभी सम्भव है, जब नितांत शुद्ध रूप में हम मन पर नियन्त्रण कर चुके हों।

पहले लोगों का विश्वास था कि प्रकाश छोड़ने का यह गुण (संदीप्ति) केवल जड़ वस्तुओं का ही गुण है पर अब यह स्पष्ट हो गया कि यह गुण जीव-धारियों में भी पाया जाता है। ‘अणु और आत्मा’ पुस्तक में श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट ने इसी विज्ञान की व्याख्या की है और इस आत्म विज्ञान के पहलू को प्रकाश में लाकर उन्होंने वैज्ञानिकों को शोध की नई दिशा भी दी है। हम उस बात को सामान्यतः फुंगी मधुरिका, जुगनू आदि जीवों से समझ सकते हैं, जुगनू की तरह कई जीव-समुद्र में भी पाये जाते हैं, जो अपने शरीर में ‘एजाइमी आक्सीकरण’ की प्रक्रिया में मुक्त होने वाली ऊर्जा को प्रकाश में बदल देते हैं। यही प्रकाश इनमें टिमटिमाता दिखाई देता है। मादा जुगनू जब कभी कामोत्तेजित होती है तो उसके शरीर में एक जैव रासायनिक क्रिया उत्पन्न होती है, जिसमें रासायनिक द्रव्य लूसी फेरस इन्जाइम, लूसीफिरिन और ए.टी.पी. कम्पाउन्ड भाग लेते हैं, इससे एक विशेष प्रकार की रासायनिक ऊर्जा-तरंग उत्पन्न होती है अर्थात् उस विद्युत-तरंग में उस मादा की गन्ध भी रहती है, इसलिए उस विशेष सिगनल को नर जुगनू पहचान लेता है। और मादा के पास जा पहुंचता है।

एन्जाइम एक प्रकार के सूक्ष्म नाड़ी तन्तु हैं, जो सांस द्वारा प्राप्त ऑक्सीजन को सारे शरीर में पहुंचाकर जीवन शक्ति बनाये रखते हैं। मानसिक शक्तियों का शुद्ध परिष्कार भी अधिकांश प्राणायाम के अभ्यास पर ही निर्भर है, उसमें वायु में पाये गये प्राण-तत्व (प्राकृतिक ऊर्जा) के द्वारा मन को प्रखर और शुद्ध बनाया जाता है।

डा. हर्टलाइन ने सन् 1967 में पहली बार नेत्र कोशिकाओं में उत्पन्न विद्युत आवेगों को इलेक्ट्रानिक युक्तियों से रिकार्ड करके बताया कि प्रत्येक कोश में उस बिम्ब की सारी बारीकियों अर्थात् रंग, आकार, उभरी-धंसी रेखायें आदि निहित होती हैं, प्रत्येक कोश एक सेकिंड के भी करोड़वें हिस्से में उस प्रतिबिम्ब को अगले कोष को पार कर देता है और इस प्रकार सामने दिखाई देने वाले बिम्ब की सूचना प्रकाश की गति के हिसाब से मस्तिष्क के दृश्य-स्थान (आष्टिक सेन्टर) में पहुंच जाता है।

इस दृश्य को मन के द्वारा प्रकृति के प्राण-विद्युत प्रवाह में घोलकर वह दृश्य जो हमारे मस्तिष्क में है किसी भी दूरवर्ती व्यक्ति को भेज सकते हैं। उपक्रम-संचार पद्धति के विकास ने इस मान्यता को भी पुष्ट कर दिया है, अब लन्दन में होने वाली शल्य-चिकित्सा को हजारों मील दूर के अस्पतालों में भी देखा जा सकेगा। अभी रायल फ्री हास्पिटल के सर्जनों द्वारा सम्पर्क परीक्षणों को मैनचेस्टर और बर्मिघम स्थित मेडिकल स्कूल के विद्यार्थियों ने देखा। इसमें भारतीय विद्यार्थियों सहित 2000 विद्यार्थी सम्मिलित थे। इस प्रणाली से किसी भी दृश्य को फोटो-सेल्स के माध्यम से आठ संचार उपग्रह (टेलस्टार) जो पृथ्वी की परिक्रमा लगा रहा है, को भेजा। संचार उपग्रह ने उसे एक नियत फ्रीक्वेंसी पर सारे संसार में फैला दिया। इस तरह एक ही दृश्य को सारे संसार में पहुंचाना तक सम्भव है। दूरदर्शी दृश्यों को देखने के प्रकाश परमाणुओं पर पड़े बिम्बों को ऊर्जा की एक धारा में बहाकर लाना या ले जाना होता है, जिसे नियन्त्रित मन से पूरा किया जा सकता है। हम किसी के मन में अचानक सन्देश और दृश्य भोज ही नहीं—सुन और देख भी लेते हैं, वह सब इन प्रकाश अणुओं और उसमें व्याप्त चेतना की ही करामात होती है।

सन् 1927 में डा. किलिन्टन, लिस्टर एच जरमर तथा जे डेवीसन ने बैल टेलीफोन लैबोरेटरी न्यूयार्क में किये अनुसंधान के आधार पर बताया कि इलेक्ट्रान द्वैत प्रकृति तत्व है अर्थात् वह एक कण की तरह भी काम करता है और लहर की तरह भी। उसकी गति 31050 मील प्रति सेकेण्ड होती है उनकी इस खोज के आधार पर ही इन्हें नोबुल पुरस्कार भी मिला था। इलेक्ट्रान जिस तरह एक कण के रूप में स्थिर और गतिशील भी है उसी प्रकार प्रकाश भी स्थिर और गतिशील है सर आर्थर-स्टेनले एडिंग्टन ने ‘नेचर आफ दि फिजिकल वर्ड’ में लिखा है कि प्रकाश भी छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त है इन नाचते हुये कणों को ‘‘फोटोन्स’’ कहते हैं और उन्हें ‘‘फ्लोरोएन्ट स्क्रीन’’ के प्रकाश में देखा जा सकता है इनकी गति 186300 मील प्रति सेकेंड अर्थात् इलेक्ट्रान से भी 6 गुना अधिक होती है।

इलेक्ट्रान और प्रकाश यदि वे शक्ति हैं तो पदार्थ भी हैं। कण हैं तो लहर भी। इलेक्ट्रान सृष्टि के हर कण में है पर वह अपनी उत्पादकता न होकर नाभिक से बंधा है उसी प्रकार प्रकाश ब्रह्मांड भर में कहीं भी विचरण कर सकती है पर वह स्वयं अपनी अपनी उत्पादकता नहीं है अपने जीवन के अन्तिम समय आइन्स्टीन, जो कि ऋषियों के मायावाद सिद्धान्त तक पहुंच गये थे, ने यह बताया था कि काल और स्थान सापेक्ष हैं और वे प्रकाश की माप पर निर्भर है, (रिलेटिविटी टाइम एण्ड स्पेश इज विद रिफरेन्स टुयार्ड स्टिक आफ लाइट)। वे अब यह सिद्ध करना चाहते थे कि कोई एकात्म क्षेत्र (यूनीफाईड फील्ड) ऐसा है जिसमें विद्युत चुम्बकीय बल (इलेक्ट्रोमैगनेटिक फोर्स) भी है और गुरुत्वाकर्षण भी। वह क्षेत्र इन दानों से युक्त भी है और मुक्त भी। यह इलेक्ट्रान की तरह ही द्वैत गुण था और आइन्स्टीन ने उसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया वरन् माना था कि ‘‘मस्तिष्कीय द्रव्य’’ (माइंड स्टाफ) में वह गुण हैं वह समय और पदार्थ से परे तत्व है उसकी गति और अगति में कोई अन्तर नहीं है अर्थात् वह (मस्तिष्कीय द्रव्य—(माइंड स्टाफ) एक ही समय में कलकत्ता या बम्बई में भी हो सकता है और उसी समय वह मथुरा में भी उपस्थित रह सकता है। यही वह तत्व है जो प्रकाश को धारण करके उसकी गति से किसी भी वस्तु का स्थानान्तरण कर सकता है। पदार्थ को शक्ति में बदल कर उसे कहीं भी सूक्ष्म अणुओं के रूप में बहाकर ले जा सकता है और उसे सैकिंड से भी कम समय में बदल सकता है।

योगी और साधक ध्यान द्वारा मस्तिष्क के इसी एकान्त क्षेत्र पर अवस्थित होकर इलेक्ट्रान और प्रकाश कणों द्वारा ई.एम.सी. 2 के आधार पर वह शक्ति अपने भीतर से उत्पन्न करते हैं जो किसी भी परमाणविक शक्ति से बढ़कर होती है, उसमें इलेक्ट्रान और प्रकाश कणों की द्वैत शक्ति ही होती है। जिससे वे स्थूल और सूक्ष्म क्रियायें सम्भव हैं जो अतीन्द्रिय घटनाओं के रूप में प्रकट होती है।
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