• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • व्यक्तित्व सम्पन्न वक्ता का प्रभावी प्रवचन
    • काया की सशक्त प्रयोगशाला और शब्द शक्ति की ऊर्जा
    • वाणी की शक्ति एवं प्रखरता
    • वाणी में सामर्थ्य का उद्भव
    • भाषण कला का आरम्भ और अभ्यास
    • वक्ता को अध्ययनशील होना चाहिए
    • सरल भाषण की कसौटी
    • भाषण और भावाभिव्यक्ति का समन्वय
    • सभा मंच पर जाने से पूर्व इन बातों का ध्यान रखें
    • भाषण का स्तर गिरने न दें
    • आरम्भिक कठिनाई का समाधान आधी सफलता
    • प्रगति इस प्रकार संभव होगी
    • अभ्यास क्रम के लिए सुगम अवलम्बन
    • श्रोताओं को नियमित रूप से उपलब्ध करने की सरल प्रक्रिया
    • वक्ताओं को ही श्रोता भी जुटाने पड़ेंगे
    • संभाषण के कुछ सारगर्भित सिद्धान्त
    • मात्र भाषण ही नहीं साथ में गायन भी
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • व्यक्तित्व सम्पन्न वक्ता का प्रभावी प्रवचन
    • काया की सशक्त प्रयोगशाला और शब्द शक्ति की ऊर्जा
    • वाणी की शक्ति एवं प्रखरता
    • वाणी में सामर्थ्य का उद्भव
    • भाषण कला का आरम्भ और अभ्यास
    • वक्ता को अध्ययनशील होना चाहिए
    • सरल भाषण की कसौटी
    • भाषण और भावाभिव्यक्ति का समन्वय
    • सभा मंच पर जाने से पूर्व इन बातों का ध्यान रखें
    • भाषण का स्तर गिरने न दें
    • आरम्भिक कठिनाई का समाधान आधी सफलता
    • प्रगति इस प्रकार संभव होगी
    • अभ्यास क्रम के लिए सुगम अवलम्बन
    • श्रोताओं को नियमित रूप से उपलब्ध करने की सरल प्रक्रिया
    • वक्ताओं को ही श्रोता भी जुटाने पड़ेंगे
    • संभाषण के कुछ सारगर्भित सिद्धान्त
    • मात्र भाषण ही नहीं साथ में गायन भी
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


अभ्यास क्रम के लिए सुगम अवलम्बन

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 12 14 Last
तथ्यात्मक, विवेचनात्मक भाषण अध्ययनशील लोग ही दें सकते हैं। उन्हें समझने के लिए ऐसे लोग चाहिए जिनकी निर्धारित विषय में पहले से ही गति रही हो। जिन्हें विज्ञान का ककहरा भी विदित नहीं है, उनके लिए उस विषय के रहस्यों को समझना और लाभान्वित होने का मार्ग सुझाना सर्वथा निरर्थक है इसी प्रकार जिस भी विषय पर भाषण करना है उसी स्तर की जनता का एकत्रीकरण संभव हो तो ही बात बनेगी। अन्यथा वक्ता कितना ही विद्वान, विषय कितना ही गहन क्यों न हो, समझ न पाने के कारण लोग कानाफूसी आरंभ करेंगे। इधर उधर ताकेंगे। सिर खुजाते, कान कुरेदते देखे जायेंगे और बोर होने पर किसी न किसी बहाने बीच में से ही उठकर चल देंगे। वक्ता और श्रोता के बीच की बड़ी तब जुड़ती है जब जानकारी और अभिरुचि का परस्पर तारतम्य बैठे।

यदि इसमें विसंगति दिखाई पड़े तो बदलना वक्ता को ही पड़ेगा। श्रोता को तत्काल नये विषय की आरंभिक जानकारी और प्रवचन समझने की स्थिति तक पहुंचा देना कठिन है। ऐसा व्यतिरेक जहां भी हो रहा हो, वक्ता को अपना रुख, प्रसंग बदलना होगा। महिलाएं, बच्चे, वयोवृद्ध अधिक हैं तो उनके समझ सकने योग्य हलका-फुलका स्तर अपनाना होगा। मंच पर जाते ही या जाने से पूर्व दृष्टि पसार कर यह देखना चाहिए कि उपस्थित समुदाय का ज्ञान एवं रुझान किस स्तर का है। उसके साथ संगति बिठाते हुए ही बात आगे बढ़ानी चाहिए और अपने प्रतिपाद्य विषय में उसी स्थिति के साथ संगति बिठाते हुए आगे बढ़ना चाहिए और बात उतनी ही ऊंची उठानी चाहिए जितनी कि लोग आसानी से हृदयंगम कर सकें।

यही बात मध्यवर्ती और उच्चस्तरीय ज्ञान वाले लोगों के संबंध में भी है। विद्वानों, विज्ञजनों की बहुलता वाले समुदाय में अशिक्षितों ग्रामीणों जैसे स्तर पर बोलना उपहास्पद बनना है। मध्य शिक्षित लोग न बहुज्ञ होते हैं न अल्पज्ञ, उनके लिए भाषण का स्तर कुछ ऊंचा किन्तु सुबोध होना चाहिए। ड्रिल करने वाले स्लो मार्च-क्विक मार्च और डबल मार्च पर अपनी चाल घटाते बढ़ाते हैं। वक्ताओं को भी उपस्थित लोगों का स्तर देखकर अपनी शैली में सुधार परिवर्तन करना चाहिए। हर हालत में उच्चारण मध्यम गति का मध्यम स्तर का ही होना चाहिए। बोलने का क्रम इतना तेज न हो कि सुनने वालों के कान उसे ठीक तरह पकड़ न सकें और मस्तिष्क में एक बात जमने से पूर्व ही नई बात घुस पड़े।

बहुत तेज स्पीड से बोलने वाले कम समय में बहुत बात तो कह देते हैं पर यह नहीं सोचते कि सुनने वाले उसे पकड़ भी सकेंगे या नहीं। यही बात उच्चारण को ऊंचा नीचा करने के सम्बन्ध में भी है। जब लाउड स्पीकरों का आविष्कार नहीं हुआ था तब नाटक वाले जोर-जोर से एक-एक शब्द कह कर भारी भीड़ के कानों तक अपनी बात समझाने में समर्थ होते थे। राजदरबार में भी उन दिनों जोर-जोर से कहने का प्रचलन था जिससे कि फैले हुए घेरे में बैठे हुए लोग उस कथन को सुन सकें। इन दिनों लाउड-स्पीकरों का युग है। अब उस प्रकार चिल्लाने की आवश्यकता नहीं रही। मध्यम स्वर में बोलने पर सब लोग आसानी से सुन सकते हैं। किन्तु यह मध्यम स्वर इतना मन्द भी नहीं होना चाहिए जिसे माइक भी अच्छी तरह पकड़ न सके। बीमारों की तरह बहुत मन्द स्वर से रुक-रुक कर बोलना भी भाषण का दोष है।

इस कमी के रहने पर अच्छे वक्ता का अच्छा विषय भी अपनी छवि गँवा बैठता है। भाषण में जहां विषय का निर्वाह और प्रतिपादन सही होना चाहिए वहां उच्चारण भी मध्यवर्ती सरल स्वाभाविक रहना चाहिए अन्यथा नाटकीय कृत्रिमता अपनाने पर उस अस्वाभाविकता के कारण भाषण का ही नहीं वक्ता का स्तर भी लड़खड़ा जायेगा। कई वक्ता अपने विषय का निर्वाह नहीं कर पाते प्रसंग की मूल धारा से हटकर इधर-उधर भटकते और कहीं से कहीं चले जाते हैं। ऐसे लोगों के संबंध में भी विज्ञजन यही सोचते हैं कि विषय पर अधिकार नहीं, पूर्व तैयारी नहीं, उथले ज्ञान के आधार पर उथले मन से ऐसे ही समय काटने वाली बकवास की जा रही है। जनता के समय का मूल्य समझना चाहिए। दस हजार की उपस्थिति में एक घन्टे का बेतुका भाषण देने वाला सुनने वालों के दस हजार घन्टे बर्बाद करता है। एक घन्टे का मूल्य दो रुपये भी माना जाय तो समझना चाहिए उस अनपढ़ वक्ता ने श्रोताओं के बीस हजार रुपये झटककर कूड़े के ढेर में फेंक दिये। इससे तो यह अच्छा था कि उनकी चप्पलें चुकाकर या पल्ला फैलाकर उतनी राशि मांग ली जाती और अपने काम आती।

अनधिकारी, अनभ्यस्त वक्ताओं का आत्मश्लाघा के लिए सभा-मंच पर चढ़ दौड़ना, माइक को हथिया लेना एक प्रकार का दुर्भाग्य ही है जिसका त्रास उपस्थित लोगों को सहना पड़ता है। वह बन्दर तो उछल मटक कर घर चला जाता है पर उपस्थित लोग संयोजकों को कोसते रहते हैं कि यदि अनपढ़ लोग ही भाषण करने के लिए थे तो उन्हें समय बर्बाद करने के लिए क्यों बुलाया गया। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति उत्पन्न करने से पूर्व यही अच्छा है कि वक्तृत्व-कला में प्रवीणता परिपक्वता आने तक निजी क्षेत्र में अभ्यास जारी रखा जाय और मंच पर तभी प्रकट हुआ जाय जब ठोंक बजाकर वैसी पात्रता का परिपूर्ण विश्वास कर लिया जाय।

भारतीय जनता की मानसिक पृष्ठभूमि आमतौर से धार्मिकता के साथ जुड़ी हुई है। यह परम्परा प्रवाह उत्तराधिकार में आज के जन समुदाय को भी उपलब्ध है। इतिहास, भूगोल आदि से अपरिचित-अशिक्षित भी रामायण, महाभारत की कथा कहानियों से परिचित हैं। परमार्थ, परलोक आदि की धर्म सम्बन्धी जानकारियां उन्हें उपलब्ध वातावरण से अनायास ही मिलती रही हैं। प्रस्तुत परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमारे प्रवचन यदि सामान्य जनता के लिए हैं तो उन्हें धर्म धारणा का पुट देकर ही अग्रगामी बनाया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में स्वर्गीय तिलक, गांधी, मालवीय आदि राजनैतिक नेताओं की प्रतिष्ठा और प्रभाव क्षमता का मूल्यांकन किया जा सकता है। वह तत्कालीन अन्य नेताओं की तुलना में बढ़ी चढ़ी थी। कारण कि उनके व्यक्तित्व एवं प्रतिपादन में धार्मिकता का पुट रहता था। जिनका विषय विशुद्ध राजनीति था वे उसी वर्ग के लोगों को प्रभावित कर सके। सामान्य जनता तो उनके तप-त्याग से ही प्रभावित थी। विचारों की दृष्टि से उनका प्रभाव उतना नहीं था जितना कि धर्म को प्रधानता देने वाले लोगों का। यह स्थिति अभी भी समाप्त नहीं हुई है। भारत में 70 प्रतिशत अशिक्षित हैं और प्रायः यही अनुपात पिछड़े देहातों में रहने वालों का है। उनकी मनोदशा को देखते हुए यही उपयुक्त है कि विचार क्रान्ति अभियान को सत्प्रवृत्ति संवर्धन की युगान्तरीय चेतना को धर्म धारणा के साथ संगति बिठाते हुए अग्रगामी बनाया जाय।

लोक शिक्षण के सिद्धान्त चिर घोषित हैं। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण हमारा लक्ष्य है। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति की लाल मशाल का आलोक जन-जन के मन-मन तक पहुंचाना है। लोकमानस के परिष्कार में श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा का उपयोग करना है। इसके लिए प्रचारात्मक, रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम बनने और चलने हैं। मिशन की समूची कार्य पद्धति इसी धुरी पर घूमती है। इन्हीं पुण्य-प्रयोजनों के लिए प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण हुआ और प्रज्ञापुराण रचा गया है। मिशन का संक्षिप्त किन्तु समग्र स्वरूप यही है।

इन प्रयासों को जन-जन के गले उतारने के लिए प्रवचनों, परामर्शों की आवश्यकता अनिवार्य रूप से पड़ेगी। इसके लिए हर युग-शिल्पी को तैयार किया जा रहा है। इसके लिए परिस्थितियों के अनुरूप शैली कथानकों की ही हो सकती है। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक, अशिक्षितों से लेकर शिक्षितों तक सभी को कथानक रुचिकर होते हैं। पुस्तक-विक्रेता की दुकानों पर सत्तर प्रतिशत साहित्य कथा-कहानियों का बिकता है। मासिक पत्रिकाओं में भी उन्हीं की भरमार रहती है। बच्चों की पुस्तकों में अधिकांश कहानियों की ही होती है। बड़ों के लिए भी समय काटने की आवश्यकता वे ही पूरी करती हैं। फिल्में दृश्य कहानियां ही तो हैं। बच्चे नानी से कहानी सुनने के लिए चिपके रहते हैं। धर्म-क्षेत्र में पुराणों का कथा-श्रवण अत्यधिक लोकप्रिय हुआ है। अठारह पुराणों से काम नहीं चला तो अठारह उपपुराण लिखे गये। चारों वेदों को मिला कर मात्र बीस हजार मंत्र हैं, पर अकेले महाभागवत पुराण में ही एक लाख के लगभग श्लोक हैं। वेद चार से पांच नहीं बने, पर पुराणों का विस्तार तो बढ़ता ही जा रहा है। रैदास पुराण से लेकर प्रज्ञा पुराण जैसी रचनाएं तो पिछले ही दिनों हुई हैं। यह कथा-शैली की लोकप्रियता का प्रमाण है। दर्शन और विवेचन विज्ञ-समाज में मान पाता है, पर भारत का अधिकांश जन-समाज जिस स्तर का है उसे देखते हुए निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि उसे युग चेतना समझाने में कथा-साहित्य का उपयोग ही सफल रहेगा। उनमें विवेचनात्मक प्रवचनों की पहुंच कानों तक ही हो सकेगी। उस गरिष्ठ भोजन को निगलना-पचाना कठिन ही पड़ेगा।

कथा शैली के प्रवचन सुनने में रोचक ही नहीं हृदयग्राही भी होते हैं; क्योंकि घटनाक्रमों, संवादों में विभिन्न स्तर के व्यक्तियों की भाव संवेदनाएं उभारना उनकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति का विश्लेषण करना सुगम पड़ता है। इससे यह कथन अनेक स्तर के व्यक्तियों की मनोदशा, आकांक्षा, समस्या, दिशाधारा, प्रतिक्रिया समझने-समझाने से बहुत स्वादिष्ट बन जाता है। षट्रसव्यंजन की, छप्पन भोगों की चर्चा ज्यों नारों के प्रसंग में होती रहती है। रंग-बिरंगे वस्त्र-आभूषणों से सजी हुई गुड़िया कितनी अच्छी लगती है, इन्द्र धनुष की शोभा देखते ही बनती है। परिवार में छोटे-बड़ों के भिन्न-भिन्न स्तर उसे कितना सरस बना देते हैं। ठीक इसी प्रकार वक्ताओं की अपनी विशेषता है। ये अगले घटनाक्रमों के लिए उत्सुकता बनाये रहने के कारण सुनने वाले को एक जंजीर में जकड़े रहते हैं और उठने नहीं देते। जबकि विवेचनात्मक भाषण में कदाचित ही कोई वक्ता सरसता उत्पन्न कर पाते हैं। फलतः दर्शक बोर होने लगते हैं और बार-बार घड़ियां देखते हैं कि इस जंजाल की कब समाप्ति हो और कब उठकर चलें। जिन्हें गहन समीक्षाओं और सारगर्भित प्रतिपादनों में रुचि होती हो, रस आता हो ऐसे लोग कम ही पाये जाते हैं। जो होते हैं वे मात्र मूर्धन्य विद्वान-वक्ताओं की सभाओं में ही सम्मिलित होते हैं।

कथा-शैली के प्रवचनों में घटना और विवेचना दोनों का समन्वय रहने से वे तर्क और प्रमाण दोनों की जोड़ी बनाते रहते हैं। ईंट चूने की तरह उनकी जुड़ाई मजबूत होती है और वह जनता को सरसता और प्रेरणा का खटमिट्ठा लाभ देती है। यही कारण है कि इस शैली को अपनाने वाले अपेक्षाकृत अधिक सफल रहते हैं। इन दिनों पाश्चात्य लेखन शैली में उन्हीं तथ्यों का समावेश हुआ है। लेखों में घटनाओं की भरमार रहती है; इससे पाठक उपन्यास का आनन्द लेते हैं और लेखक के मन्तव्य को अधिक अच्छी तरह समझते-अपनाते देखे गये हैं। हमारे प्रवचनों का भी यही स्वरूप होना चाहिए, विशेषतया तब जबकि उन्हें अपने देशवासियों की पिछड़ी मनोभूमि को देखते हुए गंभीर विवेचनाओं से बचते हुए हलकी-फुलकी बौद्धिक खुराक ही देनी चाहिए। जो हजम हो सके, जितना हजम हो सके, उतना खिलाना ही बुद्धिमत्ता है।

इस शैली में एक अच्छाई और भी है कि वह वक्ता के लिए अभ्यास में अति सरल पड़ती है। दार्शनिक प्रतिपादनों में से कुछ ही ‘प्वाइंट’ समय पर याद रह पाते हैं और वे चुक जाता है। तब बगलें झांकनी पड़ती हैं या तो निरर्थक बातों में समय पूरा करना पड़ता है या समय से पूर्व ही विराम लेने को विवश होना पड़ता है। यह कठिनाई उनके सामने नहीं आती जो यथा शैली अपना कर उदाहरणों, कहानियों, घटनाओं, संस्मरणों का पुट लगाते हुए अपनी बात आगे बढ़ाते हैं घटनाओं की कमी नहीं। कथाएं अगणित विद्यमान हैं। उन्हें ढूंढ़ना, अपने विषय के साथ गूंथ लेना—इतना भर कुशल वक्ता का काम है। जिसने यह विद्या जानी और अपनायी, समझना चाहिए कि एक ही स्थान पर जाने-पहचाने लोगों के बीच चिरकाल तक लगातार नित नये भाषण देते रहने का रहस्य हाथ लग गया। उनका कुबेर भण्डार कभी समाप्त ही नहीं हो सकता। वे अल्पज्ञ होने पर भी अपने प्रिय विषय पर बहुत दिनों तक, बहुत समय तक अपना प्रतिपादन जारी रखे रह सकते हैं। इसके विपरीत विवेचनात्मक पद्धति अपनाने वालों की जेब जल्दी ही खाली हो जाती है और उन्हें दिवालियों की तरह अपना विस्तार गोल करना पड़ता है।

वक्ता की आत्महीनता के उपरान्त दूसरी यह प्रमुख कठिनाई रहती है कि भाषण के समय विचारों का तारतम्य बना रख सकना कठिन हो जाता है। दर्शकों की मुखाकृतियां, हलचलें उसका ध्यान बंटाती है और वक्तृता की श्रृंखला की कड़ियां क्रमबद्ध रहने के स्थान पर बिखरने लगती है, प्रवाह टूटता है और डूबने-उछलने जैसी विडम्बना बन जाती है। यह कठिनाई कथा शैली में नहीं रहती। कहानी का घटना क्रम अनायास ही आगे बढ़ता, फिसलता और सरपट दौड़ता चला जाता है। इस सुविधा से नये वक्ता का अभ्यास सरलतापूर्वक चलता है और उसका मनोबल बढ़ता है। अभ्यास में उत्साह बना रहे तो फिर कुछ ही दिनों में प्रवीणता भी हस्तगत हो जाती है। हर क्षेत्र में यही बात लागू होती है। फिर भाषण कला ही कोई अजनबी या अनहोनी बात नहीं है जिसमें उत्साह भरे अभ्यास को असफल रहना पड़ेगा। साहस सदा जीता है। परिश्रम कभी निष्फल नहीं गया। संकल्प से पर्वत भी राई बनते हैं। फिर कोई कारण नहीं कि प्रवचन कला में प्रवीणता उपलब्ध न की जा सके। हिम्मत टूटने न पाये, कठिनाई मार्ग रोकने न पाये; इसलिए वक्तृता कला के आरम्भिक अभ्यासी के लिए यही सरल सुबोध पड़ेगा कि वह अपने प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में कथा शैली का आश्रय ले और पूर्णता-प्रवीणता प्राप्त करने की दिशा में क्रमिक गति से आगे बढ़े।

कथा शैली के आधार पर युगान्तरीय चेतना को जनमानस में उतारने के लिए अभिनव पाठ्यक्रम ‘प्रज्ञा पुराण’ का आरम्भ हुआ है। उसके संस्कृत श्लोकों में प्रतिपादित विषय में तत्व दर्शन, नीति शास्त्र, आत्म विज्ञान, समाज शास्त्र का उच्चस्तरीय समन्वय हुआ है। उसे युग स्मृति या प्रज्ञा उपनिषद् कह सकते हैं। युगसंधि की वेला में उसे समाज को अर्जुन जैसा उद्बोधन देने वाला प्रस्तुतीकरण कहा जा सकता है। इतनी गंभीरता के साथ-साथ उसमें अत्यन्त सरलता भी है कि हर प्रतिपादन के साथ अनेकों कथाओं का समावेश भी हुआ है। उनका वर्णन करते हुए मूल प्रतिपादन को समझना समझाना इतना सरल पड़ता है कि पिछड़ी मनोभूमि में भी उच्चस्तरीय सिद्धान्तों का प्रवेश, बीजारोपण एवं अभिवर्धन, परिपोषण नितान्त सरल पड़ता है

समय की मांग के अनुरूप कथा प्रसंग ढूंढ़ना हर किसी के लिए सरल नहीं। प्रचलित कथाएं थोड़ी सी हैं और उनसे भी अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। कुछ तो उनमें से रोचक होते हुए नितान्त प्रतिगामी होती है और धर्म कथा सुन लेने पर भी जनता को अनुपयुक्त निष्कर्ष अपनाने के लिए बाधित होना पड़ता है। अधिकतर निरुद्देश्य ही नहीं प्रतिगामी कथाएं ही प्रचलित हैं। उन्हें कहते रहने पर जन मानस में प्रगतिशीलता के स्थान पर प्रतिगामिता का ही बीजारोपण होता है। अवास्तविक भटकावों में जन समाज को उलझा देना किसी दूरदर्शी वक्ता के लिए अशोभनीय है। ऐसी दशा में पिछले दिनों यह कठिनाई रही है कि प्रगतिशील कथा प्रसंग कहां से ढूंढ़ा जाय। ऐतिहासिक घटनाक्रम तो अनेकों मिल जाते हैं, पर उनसे धर्म श्रद्धा को उत्तेजित करके भाव संवेदनाओं को उभारना तथा अन्तःकरण के श्रद्धा क्षेत्र तक युग चेतना को पहुंचाने की आवश्यकता पूर्ण नहीं होती। इतिहास में मनुष्य बोलता है जबकि पुराण के प्रतिपादन में ऋषियों, देवताओं, महामानवों के चरित्र महत्व भी जुड़ जाने से पुरातन के साथ जुड़ी हुई सहज श्रद्धा का भी पुट लग जाता है और प्रतिपादन अपेक्षाकृत अधिक वजनदार हो जाता है। इतिहास का अपना महत्व है पर उसे धर्म क्षेत्र के कथा मंच के साथ संगति बिठाना और परम्परागत स्वाभाविकता को प्रवाह क्रम को बनाये रहना कठिन पड़ता है। सरलता इसी में हो सकती है कि पौराणिक धर्म कथाओं की सामयिक आवश्यकता पूरी कर सकने योग्य चयन किया जाय और उन्हें अवांछनीयता उन्मूलन-सत्प्रवृत्ति संवर्धन के युग धर्म का निर्वाह करने के लिए प्रयुक्त किया जाय। प्रज्ञा पुराण की संरचना में इसका निर्वाह भली प्रकार हुआ है। इसे नीति दर्शन, भविष्य निर्धारण, अतीत स्मरण के साथ-साथ सामयिक लोग शिक्षण के लिए बिना किसी कठिनाई के प्रयुक्त किया जा सकता है। कहना न होगा कि इस संरचना ने न केवल विचार क्रान्ति अभियान का द्वार खोला है, वरन् पुरातन के प्रति नवीन की बढ़ती अश्रद्धा को श्रद्धा में परिणत करने की दृष्टि से एक बड़ा कदम उठाया है। लोक शिक्षण के लिए विचार गोष्ठियों की अनिवार्य आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए वर्तमान जन मानस के लिए सुबोध और अभ्यासी वक्ता के लिए सरल अवलम्बन चाहिए। इन दोनों ही उद्देश्यों की पूर्ति भी प्रज्ञा पुराणों में संभव हो जाती है। प्रथम खण्ड का असाधारण स्वागत हुआ है और उसके अगले खण्डों की सर्वत्र मांग उभरी है। फलतः हर साल एक खण्ड छापने का विचार छोड़कर जल्दी ही कम से कम पांच खण्ड लिखने और छापने का निश्चय किया गया है। इस प्रस्तुतीकरण से उपरोक्त आवश्यकता की पूर्ति में असाधारण योगदान मिलेगा यह निश्चित है।

प्रज्ञा पुराण के माध्यम से वक्तृत्व कला का अभ्यास करने के लिए कहा जा रहा है। नये अभ्यासियों के लिए यह अति सरल पड़ेगा। शैली की पूर्ण जानकारी न हो तो शांतिकुंज हरिद्वार में चलने वाले एक-एक महीने के लिए हर मास लगने वाले किसी युगशिल्पी सत्र में सम्मिलित होकर उसके उतार चढ़ावों को भली प्रकार जाना जा सकता है और फिर घर आकर उस अभ्यास को जारी रखा जा सकता है।

प्रज्ञा पुराण का ही दूसरा एक और छोटा स्वरूप है स्लाइड प्रोजेक्टर। यह प्रकाश चित्र यंत्र—नव निर्माण के संदर्भ में सभी आवश्यक प्रसंगों पर घटनाओं और व्यक्तियों के उदाहरण प्रस्तुत करता है। एक चित्र प्रायः दो मिनट दिखाया जाता है। इतनी ही देर में उस प्रसंग को व्याख्या पूर्ण करनी होती है। उसके साथ मिलने वाली व्याख्या पुस्तक में हर चित्र की व्याख्या विवेचना छपी है। उसे कई बार पढ़ लेने पर विषय सहज ही मस्तिष्क में घूम जाता है। जनता को सिखाने से पूर्व एक सप्ताह उसका अभ्यास कर लिया जाय तो हर चित्र की व्याख्या मस्तिष्क में भली प्रकार जम जाती है और फिर उसके प्रकटीकरण में किसी के लिए कोई कठिनाई नहीं रह जाती। छोटी बात को बड़ी करना कठिन पड़ता है बड़ी को छोटी करना तो बहुत सरल रहता है। फैलाना कठिन है सिकोड़ना सुगम। चित्रों के साथ जुड़े हुये घटना क्रम तो विस्तृत हैं उन्हें नमक मिर्च मिलाकर घन्टों कहा जा सकता है किन्तु उसे सकोड़कर दो मिनट में ही समाप्त करना हो तो ठोस प्वाइंट ही इतने मिल जाते हैं कि उतना समय चुटकी बजाते बात की बात में पूरा होता है। विवेचन व्याख्या में तनिक भी कठिनाई नहीं होती और नौसिखियों में प्रायः एक सप्ताह के अभ्यास से स्लाइड प्रोजेक्टर के आधार पर 36 स्लाइडें दिखाने में लगने डेढ़ घन्टा का प्रवचन इस प्रकार सुना देते हैं मानो वह पहले ही उनके अध्यास में उतरा हुआ हो—रटा हुआ हो। इतने थोड़े प्रयास से ऐसी धारावाही वक्तृता देने वाला स्वयं भी अपनी सफलता पर आश्चर्य चकित रह जाता है। सुनने वाले भी दांत तले उंगली दबाते हैं कि यह अपना ही जाना पहचाना आदमी जो संकोच से मुंह छिपाये-छिपाये फिरता था, आज किसी जादुई उपलब्धि के कारण इतना कुशल वक्ता बन गया। प्रज्ञा पुराण की तरह स्लाइड प्रोजेक्टर का अवलम्बन भी वक्तृत्व कला के अभ्यासियों के लिए एक कारगर अवलम्बन है।
First 12 14 Last


Other Version of this book



भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता
Type: SCAN
Language: EN
...


Releted Books



21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Articles of Books

  • व्यक्तित्व सम्पन्न वक्ता का प्रभावी प्रवचन
  • काया की सशक्त प्रयोगशाला और शब्द शक्ति की ऊर्जा
  • वाणी की शक्ति एवं प्रखरता
  • वाणी में सामर्थ्य का उद्भव
  • भाषण कला का आरम्भ और अभ्यास
  • वक्ता को अध्ययनशील होना चाहिए
  • सरल भाषण की कसौटी
  • भाषण और भावाभिव्यक्ति का समन्वय
  • सभा मंच पर जाने से पूर्व इन बातों का ध्यान रखें
  • भाषण का स्तर गिरने न दें
  • आरम्भिक कठिनाई का समाधान आधी सफलता
  • प्रगति इस प्रकार संभव होगी
  • अभ्यास क्रम के लिए सुगम अवलम्बन
  • श्रोताओं को नियमित रूप से उपलब्ध करने की सरल प्रक्रिया
  • वक्ताओं को ही श्रोता भी जुटाने पड़ेंगे
  • संभाषण के कुछ सारगर्भित सिद्धान्त
  • मात्र भाषण ही नहीं साथ में गायन भी
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj