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Books - भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

Media: TEXT
Language: HINDI
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भाषण कला का आरम्भ और अभ्यास

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आरम्भ में भाषण की सफलता न मिले तो निराश होने की आवश्यकता नहीं। कुछ समय प्रयत्न पूर्वक अभ्यास जारी रखने से वह कठिनाई दूर हो जाती है। सभी जानते हैं कि महात्मा गान्धी के प्रवचन सुनने के लिए हर जगह उत्साह के साथ भारी जन समुदाय एकत्रित होता था। उनके भाषण जनता में नवजीवन उत्पन्न करते थे। उनके आह्वान से अगणित व्यक्ति सत्याग्रही बने और भारी कष्ट सहने को तत्पर हुए फलतः भारत को स्वतन्त्रता मिल गई। उनके भाषणों को सर्वत्र अति महत्व दिया जाता था किन्तु आरम्भ में ऐसी स्थिति नहीं थी। गान्धी जी जब दक्षिण अफ्रीका में वकालत शुरू कर रहे थे तो प्रथम मुकदमें में अदालत के समक्ष जाने पर वे घबरा गये और बोलती बन्द हो गई। प्रयत्न करने पर भी वे कुछ बोल न सके, इस पर क्रुद्ध होकर जज ने उन्हें इजलास से बाहर निकलवा दिया। मुवक्किल भी बहुत क्रुद्ध हुआ अपमान किया और अपने दिये हुए फीस के रुपये तत्काल वापिस ले लिए। उस समय कोई यह अनुमान नहीं कर सकता था कि भविष्य में वे ही गान्धी जी अपनी वाणी में जादू जैसा असर पैदा कर सकेंगे और इतने बड़े देश की जनता को अपने इशारों पर नचा सकेंगे। आरम्भ की असफलता देख कर किसी को हिम्मत हारने की जरूरत नहीं है। भाषण एक कला मात्र है। जो आदमी अपने घर परिवार में या दोस्तों के साथ बातचीत कर सकता है, जिसकी जिह्वा में कोई दोष नहीं है उसके लिए थोड़े समय अभ्यास करते रहने पर यह कला निश्चित रूप में आ सकती है। किसी को भी ऐसा सोचने की आवश्यकता नहीं कि हम भाषण कर सकने की दृष्टि में अयोग्य हैं, हमें भविष्य में भी इसमें सफलता न मिलेगी। अमेरिका के सुप्रसिद्ध वक्ता और लेखक सन्त इमर्सन, आरम्भिक दिनों में जब भाषण करने खड़े होते थे तो वे बुरी तरह सकपका जाते, उनके वाक्य अधूरे रह जाते और एक प्रसंग पूरा होने से पहले ही दूसरी बात शुरू कर देते थे। इस असफलता के कारण उन्हें कई बार उपहासास्पद बनना पड़ा पर इससे उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। दूने मनोबल से अभ्यास जारी रखा और अन्ततः विश्व में मूर्धन्य वक्ताओं में से एक बन गये।

अमेरिका के एक और मनीषी डेल कारनेगी केवल स्वयं कुशल वक्ता ही नहीं हैं वरन् वे भाषण कला सिखाने का विद्यालय भी चलाते हैं। संभाषण कला पर इनने बहुत कुछ लिखा भी है। वे आरम्भ से ही ऐसे कुशल न थे। प्रवीणता इन्हें बहुत समय उपरान्त प्राप्त हुई। जब वे नौसिखिया थे तब उन्हें कई बार अपनी असफलता पर बड़ी निराशा हुई थी और बड़ी कठिनाई से ही अपने साहस की रक्षा कर सके थे।

ईसा से 384 वर्ष पूर्व यूनान के एन्थेस नगर में जन्मे विद्वान डिमास्थनीज अपने समय के अति प्रभावशाली वक्ता थे। यह कुशलता प्राप्त करने के लिए उन्हें घोर प्रयत्न करना पड़ा। उनकी वाणी में दोष था, हकला कर बोलते थे। शब्दोच्चारण सही न हो पाने के कारण साधारणतया यही समझा जाता था कि उनकी भाषण कर सकने सम्बन्धी महत्वाकांक्षा पूरी न हो सकेगी। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एकान्त कमरे में, सुन-सान जंगलों में जाकर उनने अभ्यास जारी रखा और समयानुसार अभीष्ट सफलता प्राप्त करली।

संसार में कितने ही ऐसे वक्ता हुए हैं जिनने अपने आरम्भिक भाषणों में निराशाजनक असफलता पाई। अनुमान था कि वे अच्छे वक्ता न हो सकेंगे। पर जब वे अदम्य साहस के बल पर अपनी अक्षमता को निरस्त करने में लगे ही रहे तो अपने उद्देश्य में असाधारण रूप से सफल होकर लोगों को चमत्कृत कर सके।

संसद सदस्य जानब्राइट 60 वर्ष की आयु में उच्चकोटि का वक्ता था। उसने अपनी आत्म कथा में लिखा है—‘‘आरम्भिक दिनों में बोलते समय उसके पैर और हाथ बेतरह कांपते थे, दिल धड़कता था और मुंह सूखता था। घबराहट के मारे पसीना छूटता था। लगता था भाषण देना मौत से लड़ने की तरह कठिन है। पर मैंने अपनी कमजोरियों से जूझने का निश्चय किया और इस प्रयास में बिना थके वर्षों तक लगा रहा। अन्ततः कमजोरियां हारी और साहस जीत गया। आज मुझे अच्छे वक्ता के रूप में पहचाना जाता है।

डिसरेली को यहूदी होने के कारण बोलने से रोका और टोका जाता था। उसे वैसे ही प्रथम बार बोलने में बहुत झिझक लग रही थी इस पर भी यह रोक टोक हिम्मत तोड़ने के लिए काफी थी। इस दुहरी कठिनाई से जूझने के लिए उसने सारा साहस समेटा और होठ चबाते हुए दांत किट किटा कर गर्जना की—‘‘आपको मेरा भाषण सुनना ही होगा क्योंकि उसमें सुनने और समझने लायक बहुत कुछ है। श्रोता शान्त हो गये और फिर वह पूरी हिम्मत के साथ अपनी बात कहता ही चला गया।

लायड जार्ज अपने प्रथम भाषण की चर्चा करते हुए बताया करते थे कि उस प्रथम प्रयास में उनकी जीभ तालू से चिपक गई थी, मुंह सूख गया था और कुछ शब्द भी सही उच्चारण के साथ नहीं बोले जा सके थे।

भाषण सम्बन्धी असफलताओं का सबसे बड़ा कारण वक्ता की आत्म हीनता है। वह उपस्थित लोगों को बहुत बड़ा मान लेता है और उनकी तुलना में अपने को तुच्छ अनुभव करता है। भीड़ को देख कर डर जाने में घबराहट पैदा होती है, सन्तुलन बिगड़ जाता है, गला सूख जाता है और जीभ रुक जाती है। यह घबराहट अपनी ही मानसिक दुर्बलता की निशानी है। सुनने वाले परीक्षा लेने नहीं आते। घर में जिस प्रकार सभी आपस में बातचीत करते सुनते हैं, वैसे ही एक बड़े परिवार के रूप में गोष्ठी या सभा जुड़ती है। यदि अपने पास कुछ कहने योग्य है तो निर्भयता पूर्वक संकोच रहित होकर कहना चाहिए। चोर को डरने का कारण है पर अपने अच्छे विचारों के प्रकट करने में कोई ऐसा कारण नहीं जिसकी वजह से डरने की आवश्यकता पड़े। उपस्थित लोगों में यदि कुछ विद्वान, प्रभावशाली एवं बड़े आदमी हैं तो भी वे सहानुभूतिपूर्वक सुनने ही बैठे हैं—लड़ने के लिए नहीं, ऐसी दशा में उनसे भी क्यों डरा जाय?

अपने को अयोग्य-अभ्यस्त नौसिखिया मान लेने और वक्तृता के उपहासास्पद बन जाने के अपडर से ही वह स्थिति पैदा हो जाती है जिसे मानसिक असंतुलन कह सकते हैं। इसी हड़बड़ी में भाषण लड़खड़ा जाते हैं। यदि अभीष्ट मनोबल सम्पादन कर लिया जाय और उपस्थित जन समुदाय को विपत्ति न मानकर घर परिवार के लोगों के स्तर का मान लिया जाय तो आत्मविश्वास उत्पन्न होगा और उस संतुलित मनःस्थिति में भाषण प्रवाह ठीक प्रकार चल पड़ेगा।

विद्वान इमर्सन ने लिखा है—‘‘श्रोता समुदाय और कुछ नहीं एक प्रकार का वाद्य यन्त्र है। वक्ता को यह अनुभव करना चाहिए कि वह उस बाजे को बजाने के लिए खड़ा हुआ है।’’

वक्ता का अतिमहत्वपूर्ण गुण है उसकी निर्भीकता, निःसंकोचता। डरता वह है जो कायर होता है—उन अनेक दोष दुर्गुणों में, पाप अपराधों में अभाव अभिशापों में एक कायरता भी है। डरपोक आदमी पग-पग पर मरता रहता है जब कि स्वाभाविक मौत जिन्दगी भर में एक बार ही आती है। भयभीत मनुष्य कायरता के वशीभूत होकर न सोचने योग्य सोचता और न करने योग्य करता है। उसका सहारा लेने की किसी को इच्छा नहीं होती उस पर कोई कदाचित ही कुछ बड़े प्रयोजन पूरे कर सकने का विश्वास करता है। डरपोक आदमी गया गुजरा और दया का पात्र समझा जाता है। वक्तृता में लड़खड़ाना प्रधानतया भीरुता एवं कायरता के कारण ही होता है अन्यथा बात-चीत तो यार दोस्तों से भी करनी पड़ती है, घर बाजार में भी तो बाते की ही जाती हैं। जब वहां जीभ को शब्द उच्चारण करने में कोई कष्ट नहीं होता तो भाषण के समय ही अवरोध क्यों हो, वक्तृता के अवसर पर लड़खड़ाने में प्रायः वक्ता की डरपोक प्रकृति ही प्रधान बाधा सिद्ध होती है।

निर्भीकता और निःसंकोचता दोनों में अन्तर तो बहुत है फिर भी उन्हें सहेली सहचरी कहा जा सकता है। संकोच करने झिझकने में आत्महीनता ही एक कारण नहीं होती, उसमें छिपाव या दुराव का भाव भी छिपा रहता है। दुराव छल की दृष्टि से भी होता है और परायेपन के कारण भी। पराये लोगों से तरह-तरह की आशंकाएं होती हैं, वे क्रुद्ध हो सकते हैं—बुरा मान सकते हैं—उपहास कर सकते हैं—जैसी आशंकाएं मन में रहती हैं, इसलिए कहने वाले को अपने मन की बात मन में ही छिपाये रहना ठीक लगता है। छोटे और बड़े होने के कारण भी यह अन्तर देखा जाता है। नौकर और मालिक में प्रायः खुलकर बात नहीं होती। नौकर का मन मालिक के बड़प्पन के भार से दबा-डरा रहता है। मालिक अपने नौकर को आश्रित, तुच्छ, हेय मानता है और उससे बराबरी के दर्जे पर लाकर मन की बातें करना अनुचित प्रतीत होता है। उसमें उसे अपनी ‘हेठी’ लगती है। ऐसे ही अवरोध नौकर मालिक को जी खोलकर बातें नहीं करने देते और अति समीप रहते हुए भी बहुत दूर—नदी के एक तट से दूसरे तट की तरह कभी न मिलने वाले फासले पर रहते हैं। संकोचशीलता में आदमी की अपनी चारित्रिक या योग्यता सम्बन्धी कमी की झिझक भी एक कारण होता है। ऐसे ऐसे अनेकों कारण संकोचशीलता के होते हैं। वे कुछ भी क्यों न हों—इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि शिष्टाचार के लिए आवश्यक विनयशीलता के अतिरिक्त संकोचशीलता हर दृष्टि से अवांछनीय है। वह संकोची को दब्बू झेंपू, पिछड़ा, असंस्कृत, असामाजिक, साहसहीन, जैसी क्षुद्रताओं से ग्रसित सिद्ध करती है।

भीरुता और संकोचशीलता में ग्रसित व्यक्तित्व अविकसित माना जाता है साथ ही उस पर अयोग्यता के अतिरिक्त ओछेपन का भी लांछन आता है। ऐसा व्यक्ति न विश्वस्त ठहरता है और न प्रामाणिक, फिर उसके लंगड़े, लूले, अन्धे अधूरे लड़खड़ाते-हड़बड़ाते भाषण को सुनना कौन पसन्द करेगा? कौन उससे कितना प्रभावित होगा? इन्हीं लक्षणों के संदर्भ में वक्ता के लिए यह आवश्यक माना गया है कि निर्भीक और निःसंकोच होने की उसकी मूल प्रकृति होनी चाहिए। सफल वक्ता बनने के लिए इन दोनों सद्गुणों को अपने में विकसित करना नितान्त आवश्यक है।

डरा हुआ व्यक्ति यदि भाषण देने खड़ा भी हो जाय तो उसके मुख से विसंगति बात निकलेगी—कुछ का कुछ कहेगा—एक बात पूरी होने से पहले उसे छोड़कर दूसरी कहने लगेगा। प्रसंग का प्रवाह जारी रखना भूल कर अप्रासंगिक बाते कहने लगेगा। सुनने वाले जब उन अटपटी बातों का उपहास करने की मुद्रा में होंगे तो बोलने वाले का रहा-सहा साहस भी टूट जायगा। जितना समय उसे बोलना था—जो कुछ कहना था उसे पूरा किये बिना ही वह चुप हो जायगा। यह वक्ता की वैसी ही पराजय है जैसा कि लड़ाई के मैदान में हारे हुए सैनिक के उतरे हुए चेहरे पर दिखाई देती है। इस प्रकार उपहास भाजन होते हुए कितने ही पराजय अनुभव करने वाले वक्ता हिम्मत हार जाते हैं और भविष्य में मंच पर खड़े होकर बोलने का साहस ही नहीं कर पाते।

इतिहास प्रसिद्ध वक्ताओं में से एक मार्टिन लूथर ने लिखा है—‘‘भाषण में सफलता मुझे तब मिली जब मैं मंच पर यह सोच कर खड़ा होने लगा कि उपस्थित जन समुदाय मिट्टी के बने निर्जीव खिलौनों का ढेर मात्र है।’’

नौसिखियों के लिए तो यह नितान्त आवश्यक है। उन्हें अभ्यास न होने के कारण मंच पर बैठना, प्रवचन करने के लिए खड़ा होना, जनता की हजारों आंखें अपने ऊपर गड़ने से सकपका जाना स्वाभाविक है। इस उलझन भरी मनःस्थिति में प्रतिपादित विषय का जो क्रम एवं तारतम्य सोचा गया था वह सभी गड़बड़ा जाता है और यह सूझ नहीं पड़ता कि क्या कहें, क्या न कहें। गाड़ी जरा-जरा चलकर अड़ जाती है। एक-दो बार रुकावट पड़ते ही आत्मविश्वास चला जाता है, लगता है हमारी योग्यता बोल सकने की नहीं है। अपने से यह नहीं बन पड़ेगा। आत्महीनता और निराशा की सम्मिलित मनःस्थिति एक बार लेट पसर जाय तो फिर उसे उठाना कठिन होता है। कितने ही प्रतिभाशाली व्यक्ति इसी आरंभिक असफलता के कारण हिम्मत छोड़ बैठे और कुशल वक्ता बनकर जो कार्य कर सकते थे वे उससे वंचित रह गये। भाषण में मिली असफलता एक और छाप छोड़ती है कि अपना व्यक्तित्व त्रुटिपूर्ण है। अयोग्यता की बात सोचते-सोचते वस्तुतः अपना स्तर अयोग्य जैसा ही बन जाता है। जो कमी अपने में नहीं थी, वह भी इस भ्रमग्रस्त मनःस्थिति में ‘मनसा भूत’ बन कर पीठ पर लद जाती है। प्रवचन के आरंभिक प्रयास में मिली असफलता कई बार तो अन्य प्रकार की असफलताओं को भी अपनी श्रृंखला में बांध कर सामने ले आती है।

भाषण कला के आरम्भिक अभ्यास में अपनी स्थिति एक विद्यार्थी की मान कर चलना चाहिए और इस प्रकार सोचना चाहिए कि हर काम के आरम्भ में त्रुटियां हरती हैं—उनकी मात्रा योग्यता वृद्धि के साथ घटती जाती है और अनवरत प्रयत्न जारी रखने पर समयानुसार प्रवीणता प्राप्त हो जाती है। यही बात भाषण कला के अभ्यास पर लागू होती है। आरम्भ के दिन ही कोई कुशल वक्ता नहीं बन सकता। हर किसी को इसके लिए प्रयत्नपूर्वक—मनोयोग के साथ अभ्यास करना पड़ता है। पूर्ण पारंगतता के लिए धीरज और हिम्मत के साथ प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

अच्छे स्कूलों में छात्रों को दूसरों के सामने अपने विचार व्यक्त करने का अभ्यास आरम्भ से ही कराया जाता है, ताकि बड़े होने पर वे बिना झिझक के भाषण कर सकने में समर्थ हो सकें। कविता पाठ, गीत-गायन, सामूहिक प्रार्थना अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता, सांस्कृतिक कार्यक्रम, एकांकी नाटक आदि के अवसर जिन विद्यालयों में रहते हैं उनके छात्र भाषण सम्बन्धी अभ्यास आरम्भ से ही करते हैं और आगे चलकर बिना झिझक बोल सकने में प्रवीण हो जाते हैं। निर्भीकतापूर्वक विचार व्यक्त कर सकना मनुष्य का आवश्यक गुण है। इसे विकसित करने के लिए छोटी आयु से ही अवसर मिलता रहे तो फिर बड़े होने पर उसके लिए विशेष प्रयत्न एवं अभ्यास की आवश्यकता नहीं पड़ती। वह एक सहज स्वाभाविक गुण बन जाता है।

आरम्भिक अभ्यास एकान्त में—एकाकी प्रयोग के रूप में किया जाना चाहिये। इसके लिए अपना निजी कमरा सबसे उपयुक्त स्थान है। उसमें जो सामान हो उसे श्रोताओं की तरह सामने बिछा लेना चाहिए और यह अनुभव करना चाहिए कि यह एक जन समुदाय बैठा हुआ है। इसके सामने प्रवचन निर्भीकता पूर्वक आरम्भ करने में कोई कठिनाई नहीं होती। जब दुकान पर ग्राहक न हों तब दुकानदार अपनी बिखरी हुई विक्रय वस्तुओं को ही श्रोता मानकर अभ्यास आरम्भ कर सकता है। स्त्रियां अपने चौके चूल्हे के सामान को बर्तनों को श्रोता मानकर जब भी अवकाश हो वक्तृता आरम्भ कर सकती हैं और एकाकीपन का समुचित लाभ इस कला का विकास करने के रूप में उठा सकती हैं। वक्ता बनने का अभ्यास करने में बड़ा दर्पण बहुत सहायक होता है। उसके सामने बैठकर अपना चेहरा देखते हुए व्याख्यान देने से यह पता चलता है कि वक्तृता में चेहरे के हावभाव कैसे रहते हैं। बोलते समय दूसरों को हम कैसे लगते होंगे। आत्म समीक्षा से भाव भंगिमा की—अंग संचालन की त्रुटियां दूर हो सकती हैं। अपने भाषण की सफलता देखकर आत्म विश्वास बढ़ता है। दूसरों के सामने बोलने में जो संकोच होता था वह शीशे को सम्मुख रखकर अपने ही सामने बोलने में नहीं होता। स्वच्छ जल वाले तालाब भी दर्पण का काम दे जाते हैं। संकोचशीलता को मिटाने के लिए आरम्भिक दिनों में टहलने जाते समय किसी मैदान, पार्क या जंगल में बैठकर एकान्त प्रवचनों का सिलसिला बनाया जा सकता है। इस प्रकार आत्म विश्वास बढ़ाते हुए प्रगति पर आगे बढ़ा जा सकता है।

अपने विश्वस्त मित्रों को सामने बिठाकर अपनी भाषण शैली के दोष बताने में सहायता ली जा सकती है। नये लोग तो वैसा कर नहीं पाते, पर मित्र, स्वजनों में यदि परख सकने, सुझाव देने की क्षमता हो तो वे अच्छे समीक्षक और मार्गदर्शक हो सकते हैं, उनकी सहायता लेने में लाभ ही है।

अपने से कम योग्यता वालों के सम्मुख भाषण करना और उन्हें प्रभावित करना अधिक सरल रहता है। आवश्यक नहीं कि अधिक विद्वानों या तथाकथित बड़े आदमियों के बीच में ही बोला जाय। अच्छा यह है कि अपने ज्ञान और स्तर से जिनकी स्थिति कम है, उनको अपना प्रचार क्षेत्र बनाया जाय। दसवें दर्जे का विद्यार्थी आठवें दर्जे वाले को अच्छी तरह पढ़ा सकता और उसकी दृष्टि में सम्मान भी पा सकता है। पर बी.ए. के छात्रों को पढ़ाने में उसे सफलता न मिलेगी। ऐसी दशा में तथाकथित बड़े लोगों की अपेक्षा यदि अपने समय और ज्ञान लाभ उनमें वितरित किया जाय जो ‘छोटे’ समझे जाते हैं तो यह प्रयास अधिक सफल बनकर रहेगा। यों सत्परामर्श देने के लिए छोटे बड़े का भेदभाव करने की भी आवश्यकता नहीं है। बच्चे भी बड़ों को अनौचित्य छोड़ने के लिए साहसपूर्वक कह सकते हैं।

आरम्भ में भाषण का अभ्यास कम समय का कार्यक्रम बनाकर चलाना चाहिए। यह समय दस या पन्द्रह मिनट का पर्याप्त है। घर में एकान्त कमरा मिल सके तो ठीक, अन्यथा खेत, मैदान, पार्क, नदी तट आदि की खुली जगह भी उपयुक्त है। जनशून्य खेत मैदानों में जाकर पेड़, पौधे, पत्थर, पक्षी, मच्छर, चींटी, दीमक, पुस्तकें, बर्तन, कपड़े आदि को संबोधन करते हुए ही बोल सकते हैं। जो निर्जीव या सजीव वस्तुएं सामने हैं उन्हीं को उपस्थित जनता मानकर भाषण आरम्भ किया जा सकता है ऐसा करने से सामने बैठे मनुष्यों को देख कर घबड़ाने की कठिनाई न रहेगी। दूर क्षेत्र में फैले हुए पेड़-पौधे या घर में रखी हुई पुस्तकें आदि को सजीव मनुष्य—जनता मान लेने से आधी समस्या हल हो जाती है। भीड़ मौजूद भी है और नहीं भी है। भीड़ है तो इसलिए कि संख्या की दृष्टि से पदार्थ मौजूद हैं और नहीं इस दृष्टि से कि उनमें उपहास करने या अयोग्य ठहराने की क्षमता नहीं है।

अभ्यास थोड़े समय का इसलिए रखना उचित है कि उतने समय में निर्धारित विषय के अनेक विचारों में से कुछ तो मस्तिष्क में उठ ही आवेंगे और उन्हें संक्षेप में कहते हुए भी दस-पन्द्रह मिनट कह सकने लायक सामग्री तो मिल ही जायेगी जिससे भाषण बिना लड़खड़ाये पूरा सकेगा।

धीमे स्वर से नहीं खुले स्पष्ट और ऊंची आवाज में बोलना चाहिए। ऊंची आवाज में रुकने-लड़खड़ाने हकलाने की कम गुंजाइश रहती है। अक्सर जल्दी बोले गये शब्दों में उलझने की आशंका ज्यादा रहती है। उलझे हुए शब्द भाषा की दृष्टि से अधूरे और ध्वनि की दृष्टि से अस्पष्ट होते हैं। उनका अभिप्राय ठीक तरह समझ में न आने से जनता को उपहास करने का अधिक अवसर रहता है। इसलिए आरम्भिक वक्ता को न तो धीरे बोलना चाहिए और नहीं तीव्र गति से। मस्तिष्क को सोचने, विचार-क्रम व्यवस्थित करने में जितना समय लगता है उतना ही अवकाश यदि जीभ को उच्चारण के लिए मिल जाय तो लड़खड़ाने की कठिनाई न पड़ेगी। जब एक बार ठीक चल पड़ा तो फिर वक्ता को आत्म विश्वास हो जाता है कि वह ठीक तरह बोल सकने में सक्षम है। जहां यह आत्म-विश्वास उत्पन्न हुआ, समझना चाहिए कि समस्या का अधिकांश समाधान हो गया। भाषण की असफलता का कारण वाणी का दोष, योग्यता की कमी, विचारों की न्यूनता आदि नहीं होते। वस्तुतः वह मनोवैज्ञानिक समस्या है, जिसका समाधान ढूंढ़ने के लिए मनोवैज्ञानिक स्तर के प्रयास ही सफल होते हैं।

भाषण में जो कहना है उसे एक कागज पर क्रमबद्ध रूप से नोट कर लेना चाहिए। स्मरण शक्ति के आधार पर आरम्भिक भाषण ठीक तरह दे सकना कठिन है। इसके लिए तैयारी आवश्यक है। सामान्य बात-चीत में जो लोग क्रमबद्ध रूप से ठीक प्रकार बात-चीत कर लेते हैं वे भी भाषण के समय घबराहट में उन बातों को भूल जाते हैं। मस्तिष्क इस चक्कर में पड़ जाता है कि क्या कहें? कौन सी बात पहले और कौन सी पीछे कहने की है? यह उलझन वाणी की रुकावट या उलझन के रूप में सामने आती है। इस अड़चन से बचने का सीधा उपाय यही है कि भाषण को क्रमबद्ध रूप से साफ कागज पर बड़े अक्षरों में नोट किया जाय। आवश्यक नहीं कि पूरी इबारत लिखी जाय। अपने समझने लायक संक्षेप में—संकेत रूप से भी उन्हें लिखा जा सकता है। आवश्यकता अपने आप को स्मरण दिलाने भर की है। वह प्रयोजन जितने अक्षरों से पूरा होता हो उतने ही नोट करके काम चलाया जा सकता है।

बच्चे को कहानियां सुनाने से वक्तृत्व कला का अभ्यास करना बहुत ही सरल है। पुस्तकों में से कुछ उपयोगी कहानियां चुन ली जायं और फिर उन्हें बच्चों के सामने रोचक एवं शिक्षाप्रद तत्व मिलाकर ऐसे ढंग से कहा जाय कि वे संक्षिप्त स्वर से कुछ बड़ी हो जायं। उनमें घटनाक्रम के अधिक विस्तृत बनाने में कल्पना का अधिक सहारा लिया जाय। कहानी जिन परिस्थितियों में होकर गुजरी उसके दृश्य, घटना क्रम—संभावनाएं—आशंकाएं—संवाद आदि को गढ़ा जा सकता है और उसे भावनात्मक उतार-चढ़ावों के साथ कहा जा सकता है। यह एक छोटे उपन्यास के सृजन का अभ्यास भी कहा जा सकता है और वर्णनात्मक व्याख्यान का संमिश्रण भी। बच्चों के द्वारा अयोग्य ठहराये जाने या उपहासास्पद घोषित किये जाने की भी आशंका नहीं होती। ऐसी दशा में भाषण का ढर्रा अच्छी तरह चल सकता है।

देखा गया है कि कथा वाचक लोग घंटों पुराण गाथा बिना थके पढ़ते रहते हैं। इसका कारण यह है कि घटनाओं का सहारा लेकर वर्णनात्मक शैली से देर तक कुछ भी कहा जा सकता है। दबाव विचारात्मक भावात्मक, और समीक्षात्मक प्रवचनों को प्रस्तुत करते हुए पड़ता है। वाणी में प्रवाह निखरा न हो मस्तिष्क, की भीड़ से घबराने की फिक्र छूटी न हो—विचार प्रवाह और वाणी की गति का तालमेल सन्तुलित न हो—तो भाषण लड़खड़ायेगा और वक्ता असमंजस में पड़ जायेगा। इसी परिस्थिति में विचार समीक्षा का कठिन उत्तरदायित्व सिर पर और आ पड़े तो उस भार को वहन करने में कठिनाई उत्पन्न होगी। इसलिए उचित यही है कि नौसिखिये वक्ता अपने छोटे प्रवचन में कुछ कथाएं दृष्टान्त, संस्मरण, घटनाक्रम जोड़कर रखें। विचार क्रम और वर्णन अधिक हो तो मस्तिष्क पर दबाव कम पड़ेगा और वाणी निर्धारित आधार के सहारे सीधी सड़क पर लुढ़कती चली जायगी। वक्तृता कठिन न जंचेगी। बच्चों से आरम्भ किया अभ्यास बड़ों तक आगे बढ़ाया जा सकता है। रामायण कथा आदि कहने लगने में लोगों की धार्मिक रुचि को भी सन्तोष होता है, पुण्य लाभ की बात भी सोची जा सकती है। भाषण के अभ्यास का लाभ तो प्रत्यक्ष है ही।

छोटे-प्रवचन थोड़े समय के व्याख्यान से लाभ यह है कि वह ठीक बन जाता है तो अपना आत्म विश्वास बढ़ता है। साइकिल चलाने में आरम्भ के दिनों हाथ और पैर लड़खड़ाते हैं और गिरने के अवसर आते हैं। पर ऐसी कठिनाई डरने झिझकने वालों को ही अधिक आती है। जो निर्भय होकर सन्तुलित मस्तिष्क रख कर सीखते हैं उनके लिए यह बहुत ही मामूली और बहुत ही सरल अभ्यास है, उन्हें एक बार भी नहीं गिरना पड़ता है और एक-दो दिन में ही सवारी करने लगते हैं। इस सफलता में मानसिक सन्तुलन का ही योगदान अधिक रहता है। अन्य कोई बुद्धिमत्ता, क्रिया-कुशलता आदि ऐसी बात नहीं होती जिसे सौभाग्य रहस्य या अद्भुत कहा जा सके। भाषण के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात कही जा सकती है। उसमें जो कुछ सीखना, साधना है वह एक शब्द में मानसिक सन्तुलन ही कहा जा सकता है। वक्तृता की सफलता में जितनी देर लगती है—कठिनाई प्रतीत होती है, उसे मस्तिष्कीय अव्यवस्था के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। अभ्यासी को इसी कठिनाई पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने आप से, असन्तुलन से लड़ना चाहिए।

घर में मित्रों से जिस प्रकार वार्तालाप किया जाता है वैसी निःसंकोच मनःस्थिति में यदि उपस्थित जन-समुदाय के सम्मुख अपनी बात रखने का साहस जुटा लिया जाय तो समझना चाहिए कि अवरोध समाप्त हो गया और प्रवेश द्वार खुल गया। अब उस पर कला का आवरण चढ़ना शेष है। इसके लिए अध्ययनशील बनने की—तथ्य, तर्क, प्रमाण, उदाहरण एकत्रित करने की आवश्यकता पड़ती है। त्रुटियों को ढूंढ़ना, उनको दूर करना, विशेषताओं को उपलब्ध करना और उन्हें अभ्यास-उपयोग में लाना, प्रत्येक कलाकार की सदा बनी रहने वाली आवश्यकता है। वे इसी रीति-नीति को अपना कर अपने शिल्प में प्रगति करते हैं—प्रवीण बनते हैं। वक्तृत्व कला अन्य सभी कलाओं से अधिक प्रभावपूर्ण एवं सत्परिणाम प्रस्तुत करने वाली है। इस लिए उसे निखारने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना पड़ता है। जो वक्ता अपनी थोड़ी सी कुशलता पर सन्तुष्ट होकर बैठ जाय—अधिक परिष्कृत स्थिति प्राप्त करने का प्रयत्न छोड़ बैठे, समझना चाहिए कि उसके उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएं समाप्त हो गईं। जहां वह इस समय है उससे आगे नहीं बढ़ेगा, पीछे ही हटेगा। मस्तिष्क का विस्मरण क्रम तो अनायास ही चलता रहता है। स्मरण के लिए और निखार के लिए नये आधार ढूंढ़ने पड़ते हैं। यदि उस ओर उपेक्षा बरती गई तो यथा स्थिति भी नहीं रहेगी—अवनति की ओर ही लौटना पड़ेगा। धैर्य पूर्वक, दृढ़ निश्चय के साथ अभ्यास करना और क्रमिक प्रगति से निराश होकर पूर्ण विश्वास के साथ लम्बे समय तक प्रयत्न करने की बातें सोचकर उसमें लगे रहना किसी भी व्यक्ति को देर-सवेर कुशल वक्ता बना देगा।

प्रवीणता की स्थिति तक पहुंचने के लिए सदा सर्वदा अनवरत अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। उपयुक्त सफलता प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। हथेली पर सरसों जमाने की उतावली कभी फलित नहीं होती। इस हाथ प्रयत्न उस हाथ सफलता चाहने वाले लोगों का उत्साह पानी के बबूले की तरह उठता ओर नष्ट होता देखा जाता है। किसान को फसल काटने के लिए लगातार छह महीने मेहनत और प्रतीक्षा करनी पड़ती है। विद्यार्थी स्कूल में प्रवेश पाने के दूसरे दिन ही स्नातक कहां बन जाता है? इसके लिए उसे 12 वर्ष के एक युग तक साधना करनी पड़ती है। डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर कलाकार आदि किसी से भी पूछ कर देखा जा सकता है कि उन्हें प्रयास आरम्भ करने के दिन ही पूर्णता प्राप्त हो गई या उन्हें बिना उत्साह घटाये दीर्घकालीन साधना करनी पड़ी? वे लोग बतायेंगे कि कितनी असफलताओं का मुंह देखते हुए-कितना परिश्रम करते हुए, कितने दिन पश्चात् सफलता की स्थिति तक पहुंचने का अवसर मिला। भाषण कला भी एक उच्च कोटि का कौशल है। उसकी सफलता सहज नहीं—श्रम साध्य है। उतावले लोग जिस काम में भी हाथ डालते हैं उसमें आतुर आरम्भ, और आतुर अन्त का ढेर लगाते चलते हैं। उनके जीवन में असफलताओं का इतिहास जुड़ा होता है। यदि प्रवचन के लिए वे उत्सुकता प्रकट करें तो आतुरता उस क्षेत्र में भी उन्हें असफल ही रखेगी। लम्बी मंजिलें एक-एक कदम चलते हुए-एक के बाद एक मील पार करते हुए ही पूरी होती हैं। भाषणकला में दक्षता प्राप्त करने का लक्ष्य भी इसी क्रम से पूरा करना पड़ता है। बहुत दिन तक-बिना हिम्मत हारे-हर दिन त्रुटियों को देखते समझते और सुधार करने की नीति अपनाये बिना इस क्षेत्र में भी किसी को अनायास सफलता की आशा नहीं करनी चाहिये।
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