
पतन क्यों—उत्थान कैसे?
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जीवित वे रहते हैं जो सतर्क रहते हैं और सामयिक परिस्थितियों से जूझने का साहस करते हैं, जिन्होंने प्रमाद बरता और सरलता का जीवन जीने की राह ढूंढ़ी; उन्हें यह आरामतलबी बहुत महंगी पड़ी है। प्रकृति की विधातक शक्तियां इसी फेर में रहती हैं कि कब किसे बेखबर और कमजोर पायें और किसे कब कैसे धर दबोचे। यह संसार कुछ ऐसा ही विचित्र है, यहां उपयोगी का चुनाव वाला कम काम करता रहता है और जो संघर्ष से बचता डरता पाया जाता है उसी पर विपत्ति का कुल्हाड़ा चलने लगता है। सरलता और सुविधा के फेर में जिन्होंने अपनी सतर्कता संघर्षशीलता गंवादी उन्हें देर सवेर में अपने अस्तित्व से भी हाथ धोना पड़ता है।
रूस की विज्ञान एकेडमी के पुराजीव संग्रहालय में लाखों वर्ष पुराने जीव कंकालों का संग्रह किया गया है। इनमें सबसे बड़ा कंकाल सारो लोफ वर्ग की एक विशालकाय ‘डिनोसार’ का है जो 23 फुट ऊंचा है। यह मंगोलिया में पाया गया था। ऐसी प्रागैतिहासिक दुर्लभ वस्तुयें उसी क्षेत्र में मिली हैं। मंगोलिया में समुद्र की सतह से कोई 3200 फुट ऊंचा एक पठार है। समुद्री हलचलों से वह स्थान पिछले 10 करोड़ वर्षों से सुरक्षित रहा है। वहां का गोबी रेगिस्तान चिर अतीत की भौगोलिक गाथाओं और जीव इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियां अपनी छाती से छिपायें बैठा है। अन्वेषकों का बहुत ध्यान इस क्षेत्र पर है। उपरोक्त कंकाल वहीं से मिला है।
किसी समय मनुष्य भी अब की अपेक्षा काफी लम्बे तगड़े थे पर उनमें बुद्धि की कमी रही, प्रकृति के अवरोधों से अपना बचाव करने की बात न सोच सके। फलतः उनकी विशेषतायें घटती चली गईं। लुप्त होने से जो बच सके तो उनकी पीढ़ियां कद और वजन की दृष्टि से हलकी होती चली गईं और वही स्थिति अब तक चली आ रही है। सन् 1939 में जावा इण्डोनेडिया में सोलो नदी के किनारे खुदाई करते हुए पुरातत्ववेत्ता वान क्योनिंगबाल्ड को एक ऐसा मनुष्य का जबड़ा मिला था जो बताता था कि प्राचीनकाल के मनुष्य अब की अपेक्षा काफी लम्बे चौड़े थे। उन्हें दो वर्ष बाद सन् 41 में उससे भी बड़ा जबड़ा प्राप्त हुआ। जिससे पता चलता है कि भूतकाल के दैत्याकार मनुष्यों की जैसी किम्वदन्तियां प्रचलित हैं वे निराधार नहीं हैं।
दैत्याकार मानवों के शोध प्रसंगों में चीन के विभिन्न स्थानों पर कुल मिलाकर मानव प्राणी के 47 दांत ऐसे मिले हैं जो अब के मनुष्यों की तुलना में छह गुने बड़े हैं। दैत्याकार अस्थि पिंजरों के टुकड़े प्रायः चार लाख वर्ष पुराने माने गये हैं। इन अस्थियों से एक और रहस्योद्घाटन होता है कि पुराने समय में जबड़े बड़े थे और मस्तिष्क का आकार जैसे-जैसे बढ़ा वैसे वैसे जबड़ा छोटा होता चला गया। पंख युक्त होते हुए भी उड़ सकने की क्षमता से रहित पक्षियों में मोआ, रही, कीवी, कैसोवरो, एमू, शुतुरमुर्ग और पेन्गुइन मुख्य हैं। यों पालतू मुर्गे और मोर भी धीरे-धीरे अपने उड़ने की क्षमता खोते चले जा रहे हैं। इस प्रकार के और भी कुछ पक्षी हैं जिनका स्वाभाविक वजन बढ़ता जा रहा है और वे उड़ने की दृष्टि से अपंग होते चले जा रहे हैं।
न्यूयार्क के म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री में पिछले दिनों न्यूजीलैण्ड में पाये जाने वाले मोआ पक्षी का अस्थि पिंजर रखा है इसकी ऊंचाई 13 फुट थी और वजन 500 पौण्ड यह पक्षी अपने उड़ने की क्षमता खो चुका था।
अमेरिकी शुतुरमुर्ग ‘कही’ भी भूमिचारी था, नर के साथ 8-10 मादायें रहती थीं। मादाएं बन-बिहार करती थीं और नर सबके अण्डे बच्चे सम्भालने घर पर रहता था उसे चारे दाने के लिए तभी बाहर जाने को अवसर मिलता था जब मादाएं उसे वैसी सुविधा और आज्ञा प्रदान करदें।
न्यू गायना में पाया जाने वाला कैसेवरी धरती पर सुविधाजनक रीति से आहार पाकर संतुष्ट हो गया और उसने उड़ने का परिश्रम करने से जी चुराना शुरू कर दिया फलस्वरूप उसकी उड़न शक्ति विदा हो गई और धरती पर रहने वाली लोमड़ियां उसे चट कर गई। यही हाल आस्ट्रेलियाई एमू का हुआ। दौड़ने की क्षमता गंवा बैठने के बाद उसे अकल आई तब उसने तेज दौड़ने का अभ्यास करके किसी प्रकार जान बचाने की तरकीब लड़ाई, इससे भी काम नहीं चला, जो एक बार हारा सो हारा। धूर्त शिकारियों ने उनका अस्तित्व निर्दयता पूर्वक मिटा ही डाला। गोल गेंद जैसे कोवी अब कुछ ही दिन में धरती पर से उठ जायेंगे। आलसी नर घर पर पड़ा-पड़ा अण्डे बच्चे सेता रहता है। बेचारी मादा को ही आहार जुटाने के लिए भी दौड़ धूप करनी पड़ती है। 82 दिनों में जब तक पिछले बच्चे उड़ने योग्य हो पाते हैं तब तक मादा पर नये बच्चे देने का भार आ पड़ता है इस प्रकार वह प्रजनन का ही कष्ट नहीं उठाती, परिवार का पेट पालने में भी मरती खपती है। नर को आलस मारे डाल रहा है और मादा की जान अति भार वहन से निकली जा रही है। इस असंतुलन का परिणाम सामने है यह सुन्दर पक्षी, पंख तो पहले ही गंवा चुका था अब प्रकृति के निर्दय रंग मंच पर अपनी सत्ता भी समाप्त करने जा रहा है।
प्रकृति के साथ संघर्ष करने में जो प्राणी साहस और सतर्कता के साथ संलग्न हैं उन्हें अतिरिक्त परिश्रम तो करना पड़ता है पर अपने अस्तित्व को भली प्रकार अक्षुण्ण रखे हुए हैं।
कुछ बतखें जल तट पर नहीं पेड़ों पर अण्डे देती हैं और जब बच्चे कुछ समर्थ हो जाते हैं तो उन्हें पीठ पर लाद कर पेड़ से नीचे लाती हैं। हिप्पो, समुद्री ऊदबिलाव भी अपने बच्चों को पीठ पर लादते हैं। मादा बिच्छू की पीठ पर तो तीस की संख्या तक लदे देखे गये हैं। चलते समय जो गिर पड़े उन्हें उठाकर फिर पीठ पर लादने का काम भी मादा को ही निपटाना पड़ता है। चमगादड़ के बच्चे अपनी मां की गरदन पकड़ कर लटके रहते हैं। कंगारू के बच्चे माता के पेट से सटी हुई थैली में बहुत दिनों तक गुजर बसर करते हैं। गिनी चकमो और हेमड्रेज बानर मिश्र और एवीसीनिया में धार्मिक श्रद्धा के पात्र समझे जाते हैं। दक्षिणी एवीसीनिया में पाये जाने वाले गेलेडा जब समूह वद्ध युद्ध करते हैं तब उनका रण कौशल मनुष्य युद्ध विद्या विशारदों के लिए भी देखने समझने योग्य होता है लगता है कि चक्रव्यूह विद्या के अनेक पक्ष अभिमन्यु की तरह गर्भ में से ही सीख कर आये हों। उनका रौद्र रूप देखकर आक्रमणकारी चीता भी दुम दबाकर भागता है।
कृमि कीटकों की प्रायः की 50 जातियां इस पृथ्वी पर होने का अनुमान है। इनमें से 20 लाख की खोज खबर मनुष्य द्वारा अबतक ली जा चुकी हैं। संसार में आंखों से दीख पड़ने वाले जितने जीवधारी बसते हैं उनमें से 85 प्रतिशत यह कीट पतंगें ही हैं।
आत्मरक्षा, ऋतु प्रभाव और आहार उपलब्धि एवं वंश वृद्धि की समस्याओं के सुलझाने के लिए उन्हें अपनी आकृति-प्रकृति में सृष्टि के आदि से लेकर समयानुसार अनेक परिवर्तन करने पड़े हैं। परिस्थितियां उनकी इच्छानुसार नहीं बन सकती थीं तो अपने आपको उन्होंने बदलना सम्भालना आरम्भ किया फलस्वरूप अभावग्रस्तता, असुविधा और विधातयक परिस्थितियों से अपने अस्तित्व को बचाये रहना उनके लिए सम्भव हो सका। हवा और पानी के प्रवाह में वे अक्सर कहीं से कहीं पहुंच जाते हैं। परिव्रजन आकांक्षा से प्रेरित होकर भी रेंगते, फुदकते, उड़ते दूर-दूर की ऐसी यात्राएं कर लेते हैं जहां अनभ्यस्त आहार और अजनबी वातावरण में ही निर्वाह करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहता। तब प्रकृति उनके शरीरों में तेजी से परिवर्तन करती है और इस लायक बना देती है कि वे नये वातावरण में गुजर कर सकें।
कछुआ प्रकृति ने जलचर के रूप में बनाया है, वह जलाशयों के समीपवर्ती तटों पर भी रह सकता है; पर जब उसे परिस्थिति वश कठोर पर्वतों पर रहना पड़ा तो वह पाषाण कच्छप के रूप में बदल गया और चट्टानों के बीच ही निर्वाह करने लगा। बिलों में रहने वाला सर्प आहार की सुविधा के लिए जलाशयों की मछलियां आसानी से प्राप्त करने लगा तो उसने जलचर बनना अंगीकार कर लिया और जल सर्पों की जातियां अस्तित्व में आईं।
आक्रमणकारियों से अपना बचाव करने और शिकार पकड़ने के दाव पेंच सफल बनाने के लिए इन कीड़ों ने पेड़-पौधों की पत्तियों में छिपे रहने योग्य काय-कलेवर का रंग-रूप आवश्यक समझा। तदनुसार अधिकांश कीड़े घास-पात की हरियाली में छिप सकने जैसे रंग-रूप के बन गये। फूलों पर उड़ने वाली तितलियों का रंग रूप प्रायः वैसा ही रंग-बिरंगा हो गया। जिराफ की चमड़ी के दाग-धब्बे ऐसे होते हैं जिससे वह दूर से देखने वालों को झाड़ी मात्र प्रतीत हो।
सींग, विषदंश दांत, पंजे प्रायः इसी आधार पर बने हैं कि वे अपना आहार सरलता पूर्वक पकड़ने और खाने में सफल रहें। पेट के पाचन यन्त्रों में भी इसी आधार पर विकास परिवर्तन होता रहा है।
दुर्बलकाय सीप और घोंघे, शंख, शम्बुक, कौड़ी, जाति के कीड़ों ने आत्मरक्षा का एक उपयोगी उपाय सोचा है—अपने चारों ओर एक मजबूत कवच का निर्माण करना। वे अपने शरीर में से ही एक अजीब किस्म का रस निकालते हैं और उसकी परतें शरीर के चारों ओर चढ़ाते चले जाते हैं। समयानुसार यह परत इतनी मजबूत हो जाती हैं कि शिकारी जल जीव इनका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर पाते और सुरक्षित शान्तिपूर्ण जीवन यापन करते हैं। इन कीटकों की कुशलता उन पर चढ़े कवचों की आकर्षक सुन्दरता के रूप में दर्शकों का मन मुग्ध करती है।
जो हो इस विश्व में सजगता, समर्थता और सक्रियता का अपना महत्व है। इन्हें गंवा कर जो आलसी बनते हैं, असावधान रहते हैं उनकी सुविधा को प्रकृति सहन नहीं कर सकती और एक दिन झल्लाकर छीन ही लेती है। उसे तो पुरुषार्थ और संघर्ष ही भाता है।
आराम तलबी व आलसी पन प्रकृति के विरुद्ध
सुगम सुविधाजनक, आराम तलबी की जिन्दगी आज के आदमी का लक्ष्य बनी हुई है। वह अधिक से अधिक शोक-मौज से भरे—दिन काटना चाहता है और विलासिता में निमग्न रहने के साधन ढूंढ़ता है तथाकथित बड़े लोगों की आज कल यही प्रवृत्ति है। वे अधिक धन और सुविधा सामग्री इसी प्रयोजन के लिए जमा करते हैं। छोटा कहा जाने वाला वर्ग धन की कमी की वजह से नहीं, उत्साह और उमंगों की दरिद्रता के कारण छोटा है और दिन-दिन और भी अधिक गिरता जाता है। उसे आलस्य और प्रमाद खाये जाता है। जब भूख विवश करती है तो कुछ करने को खड़ा होता है और उतने ही हाथ-पैर हिलाता है जितने के बिना कि पेट का गड्ढा नहीं भरता। इसके बाद उसे भी आलस्य-प्रमाद, व्यसन आदि झगड़े, गप-शप और आवारागर्दी की सूझती है। अपने आपके सम्बन्ध में बेखबर यह लोग कितना गंदा गलीज जीवन क्रम अपनाये रहते हैं यह देखकर दया आती है, आवारागर्दी के समय को यदि वे शरीर—वस्त्र—मकान और जो कुछ उनके पास है उसे स्वच्छ बनाने में ही लगा लिया करें तो इतने मलीन तो न दीखें। पिछड़ेपन में निर्धनता और अशिक्षा भी कारण हो सकती है पर सबसे बड़ा कारण है मानसिक छोटापन। उसी व्यापक छूत की बीमारी को हम इस देश के पिछड़ेपन का मूलभूत कारण भी कह सकते हैं।
आरामतलबी या आलसीपन यह दोनों ही सजीव चेतन प्राणी की अन्तरात्मा की मूल प्रकृति के विपरीत हैं। यदि अन्तःकरण को दुर्बुद्धि ने मूर्छित न कर दिया हो तो उससे सदा साहसिकता का परिचय देने की—शौर्य प्रवृत्ति उमंगती रहती दिखाई देगी। बहादुरी और वीरता के प्रतिफल ही सच्चा आनन्द और सन्तोष दें सकते हैं, इसे छोटे पक्षी भी जानते हैं।
चिड़ियों में बहुत सी ऐसी होती हैं जो बदलती हुई ऋतुओं का आनन्द लेने के लिये यात्रायें करती हैं। इसमें उन्हें काफी श्रम करना पड़ता है और भारी जोखिम उठानी पड़ती है तथा मनोयोग का प्रयोग करना पड़ता है, पर वे बेकार झंझट में क्यों पड़ें—चैन के दिन क्यों न गुजारें की भाषा में नहीं सोचतीं वरन् इस प्रकार साहसिकता का परिचय देने में आन्तरिक प्रसन्नता एवं सन्तोष को अनुभव करती हैं। इसके लिए उनमें भीतर से ऐसी उमंग उठती है जिसे पूरा किये बिना रहा ही नहीं जाता। पेट कहीं भी भरा जा सकता है और दिन कहीं भी काटे जा सकते हैं, यह मरी हुई जिन्दगी है जिसे मनुष्य भले ही पसन्द करे, पर पशु-पक्षियों से लेकर कीट-पतंगों तक कोई भी उसे पसन्द नहीं करता। कुछ चिड़ियां तो ऐसी हैं जो अपनी साहसिक यात्राओं द्वारा सम्भवतः मनुष्य को भी उत्साही, परिश्रमी, साहसी और महत्वाकांक्षी होने की प्रेरणा करती हैं। सितम्बर के प्रथम सप्ताह में भारत में ऐसे अनेक रंग-बिरंगे पक्षी दिखाई पड़ते हैं जो गर्मी और बरसात में नहीं थे। यह पक्षी जर्मनी, साइबेरिया, चीन, तिब्बत आदि सुदूर देशों से हजारों मील की लम्बी यात्रा करके आते हैं। तिधारी, चैती, हंसक, पैतरा, सुरखाव, लालसर आदि प्रमुख हैं। इनमें पैर के अंगूठे के बराबर ‘स्वेटपेनिकल’ जैसे छोटे और 25 पौण्ड भारी आदम कद सारस जैसे बड़े पक्षी भी होते हैं। यह लम्बी यात्रा सप्ताहों तथा महीनों की होती है। आहार की सुविधा, ऋतु प्रभाव से बचाव और सैर-सपाटे का आनन्द यह इस लम्बी यात्रा का उद्देश्य होता है। आश्चर्य यह है कि यह अपनी यात्रा अवधि पूरी करके नियत समय पर ही अपने स्थानों को लौट जाते हैं और अपने पुराने पेड़ों और पुराने घोंसलों में ही जाकर फिर बस जाते हैं। भारत में भी वे मारे-मारे नहीं फिरते वरन् यहां भी वे अपने नियत स्थान बनाते हैं और जब तक जीवित रहते हैं प्रायः इन दोनों क्षेत्रों में अपने नियत स्थानों पर ही निवास करते हैं।
इन पक्षियों की लम्बी यात्रायें, ऊंची उड़ानें आश्चर्यजनक हैं। बागटेल 2000 मील की लम्बी यात्रा करके बम्बई के निकट एक मैदान में उतरते हैं और फिर विभिन्न स्थानों के लिये बिखर जाते हैं। गोल्डन फ्लावर पक्षी अमेरिका से चलते हैं। पतझड़ में भारत में विश्राम करते हैं फिर थकान मिटाकर अटलांटिक और दक्षिण महासागर पार करते हुए दक्षिण अमेरिका जा पहुंचते हैं। आते समय वे समुद्र के ऊपर से उड़ते हैं और जाते समय जमीन के रास्ते लौटते हैं। अलास्का में उनके घोंसले होते हैं और वहीं अण्डे देते हैं। हर वर्ष प्रायः वह दो ढाई हजार मील की यात्रा करते हैं। पृथ्वी की परिक्रमा तीन हजार मील की है। इस प्रकार वे लगभग पृथ्वी की एक परिक्रमा हर वर्ष पूरी करते हैं। आर्कटिक टिटहरी इन सब घुमक्कड़ पक्षियों से आगे है। उत्तरी ध्रुव के समीप उसका घोंसला होता है। पतझड़ में वह दक्षिण ध्रुव जा पहुंचती है। वसन्त में फिर वापिस उत्तरी ध्रुव लौट आती है। जर्मनी के बगुले 4 महीने में करीब 4000 मील का सफर पूरा करते हैं। रूसी बतखें भी 5000 मील की लम्बी यात्रायें करती हैं। यह पक्षी औसतन 200 मील की यात्रा हर रोज करते हैं। टर्नस्टान इन सबसे अधिक उड़ती है उसकी दैनिक उड़ान 500 मील के करीब तक की होती है साथ ही उसका 17 हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ना और भी अधिक आश्चर्यजनक है। हां समुद्र पार करते समय उड़ने की ऊंचाई तीन हजार फीट से अधिक नहीं होती।
इन्हें इतनी खतरनाक और कष्ट साध्य उड़ाने उड़ने की उचंग क्यों उठती है। क्या उनके लिए यह उड़ान अनिवार्य है? क्या वे अपने क्षेत्र में गुजारा नहीं कर सकते या वहीं कहीं थोड़ा उड़कर काम नहीं चला सकते? आखिर ऐसा बड़ा कारण क्या है जिसके कारण जान जोखिम में डालने वाला ऐसा कदम उन्हें उठाना पड़ता है।
पक्षी विज्ञान के विज्ञानियों ने यह पाया है कि वाह्य दृष्टि से उनके सामने कोई ऐसी बड़ी कठिनाई नहीं होती जिसके कारण उन्हें इतना बड़ा जोखिम उठाने के लिए विवश होना पड़े। आहार की—ऋतु प्रभाव की घट-बढ़ होती रह सकती है, पर दूसरे पक्षी भी तो उन्हीं परिस्थितियों में किसी प्रकार निर्वाह करते हैं। फिर सैलानी चिड़ियों को ही ऐसी विचित्र उमंग क्यों उठती है। इस प्रश्न का उत्तर उनकी वृक्क ग्रन्थियों में पाये जाने वाले विशेष हारमोन रसों से मिलता है। जिस प्रकार कुछ बढ़े हुए हारमोन अपने समय पर काम-वासना के लिए बेचैनी उत्पन्न करते हैं, लगभग वैसी ही बेचैनी इस प्रकार की लम्बी उड़ान भरने के लिये इन पक्षियों को विवश करती है। वे अपने भीतर एक अद्भुत उमंग अनुभव करते हैं और वह इतनी प्रबल होती है कि उसे पूरा किये बिना उनसे रहा ही नहीं जाता। यह उड़न हारमोन न केवल प्रेरणा देते हैं; वरन् उसके लिए उनके शरीरों में आवश्यक साधन सामग्री भी जुटाते हैं। पंखों में अतिरिक्त शक्ति, खुराक का समुचित साधन न जुट सकने की क्षति पूर्ति करने के लिए बढ़ी हुई चर्बी—साथ उड़ने की प्रवृत्ति, समय का ज्ञान, नियत स्थानों की पहचान, सफर का सही मार्ग जैसी कितनी ही एक से एक अद्भुत बातें हैं जो इस लम्बी उड़ान और वापसी के साथ जुड़ी हुई हैं। उन उड़न हारमोनों को पक्षी के शरीर, मन और अन्तर्मन में इस प्रकार के समस्त साधन जुटाने पड़ते हैं जिससे उनकी यात्रा प्रवृत्ति तथा प्रक्रिया को सफलतापूर्वक कार्यान्वित होते रहने का अवसर मिलता रहे।
प्रकृति नहीं चाहती कि कोई प्राणी अपनी प्रतिभा को आलसी और विलासी बनाकर नष्ट करे। प्रकृति इन यात्रा प्रेमी पक्षियों को यही प्रेरणा देती है कि वे विभिन्न स्थानों के सुन्दर दृश्य देखें, और वहां के ऋतु प्रभाव एवं आहार विहार के हर्षोल्लास का अनुभव करें। अपनी क्षमता और योग्यता को परिपुष्ट करें।
मनुष्य में आराम तलवी की प्रवृत्ति इतनी घातक हैं कि वह कुछ महत्वपूर्ण काम कर ही नहीं सकता, अपनी प्रगति के द्वार किसी को रोकने हों तो उसे काम से जी चुराने की आदत डालनी चाहिए और साहसिकता का त्याग कर विलासी बनने की बात सोचनी चाहिए। ऐसे लोगों को मुंह चिढ़ाते हुए—उनकी भर्त्सना करते हुए ही यह उड़न पक्षी विश्व निरीक्षण, विश्व भ्रमण करते रहते हैं—ऐसा लगता है।
परिणाम फिर भी प्रतिकूल क्यों !
मनुष्य अपने बुद्धि-बल और पुरुषार्थ के अनुरूप सदा से यह प्रयत्न करता रहा है कि उसे अधिक अच्छी परिस्थितियां, सुविधाएं तथा सम्पदायें प्राप्त होती चलें। इसके लिए उसने प्रकृति के भौतिक स्तर का ही स्पर्श किया है और तदनुरूप थोड़ा-बहुत लाभ पाया भी है।
उसे यह ध्यान नहीं रहा कि प्रकृति का एक अध्यात्म पक्ष भी है। उसमें विकृति आने से दैवी आपत्तियां टूटती हैं और किये सारे प्रयत्न देखते-देखते मटियामेट हो जाते हैं। प्रकृति का सूक्ष्म स्तर तब बिगड़ता है जब मनुष्य कृत चेतनात्मक विक्षोभ से पराप्रकृति का अन्तराल विषाक्त हो जाता है।
सत्युग के—रामराज्य के—वर्णन में यह बताया गया है कि उन दिनों प्रकृति अत्यधिक अनुकूल थी, समय पर वर्षा होती थी—वृक्ष वनस्पतियां प्रसन्न होकर फलते थे, मनुष्य दीर्घजीवी थे, दूध-दही की नदियां बहती थीं, दैवी प्रकोपों से किसी को कोई कठिनाई नहीं उठानी पड़ती थी। अकाल मृत्यु से लेकर महामारियों तक का कहीं अता-पता भी नहीं मिलता था। यह इसलिए होता था कि मनुष्यों की सद्भावनाएं और सत्प्रवृत्तियां उत्कृष्ट, उच्च स्तर की बनी हुई थीं।
कलियुग में तरह-तरह को दैवी विपत्तियों और विकृतियों की सम्भावना का पुराणों में जो पूर्व कथन मिलता है उसका एकमात्र आधार यही है कि जब मनुष्यों का रुझान दुष्कर्मों की ओर होगा तो उसकी प्रतिक्रिया प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल को विषाक्त बनायेगी। फलस्वरूप मनुष्यों को उनका प्रतिफल विपत्तियों के रूप में भुगतना पड़ेगा। सम्पत्तियां एवं सुविधाएं भले ही बढ़ जायं, पर उन्हें शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, अन्तर्राष्ट्रीय हर क्षेत्र में घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा। इस संकट को बढ़ाने में प्रकृति का प्रकोप भी कम योगदान नहीं देगा। कलियुग के सविस्तार भयावह वर्णन की पौराणिक भविष्यवाणियां इसी आधार पर हैं। हम देखते हैं कि वह पूर्व कथन सही होता चला जा रहा है। जिस क्रम से हम दुष्ट और भ्रष्ट बनने पर उतारू हैं उसी क्रम से प्रकृति के हण्टरों की मार दिन-दिन अधिक तीव्र एवं अधिक निर्दय बनती चली जा रही है।
प्रकृति की—मौसम की—अनुकूलता, प्रतिकूलता हमारी आर्थिक और शारीरिक परिस्थितियों को अत्यधिक प्रभावित करती है। वर्षा के न्यून अथवा अधिक होने पर—पाला पड़ने, अन्धड़ चलने तूफान, भूकम्प जैसे उपद्रव खड़े होने से कृषि, पशु पालन तथा अन्यान्य उद्योग धन्धों पर जो प्रभाव पड़ता है उसे कौन नहीं जानता। मौसम की असह्य प्रतिकूलता से कितने ही बीमार पड़ते हैं, कितने ही दम तोड़ देते हैं। दुर्भिक्ष, महामारी एवं अप्रत्याशित विपत्तियां लेकर मौसम की प्रतिकूलता जब सामने आती है तो प्राणियों को अत्यधिक कष्ट होता है। वृक्ष वनस्पतियां नष्ट हो जाती हैं और सर्वत्र त्राहि-त्राहि सुनाई पड़ती है। इसके विपरीत यदि मौसम अनुकूल हो तो आर्थिक और शारीरिक खुशहाली बढ़ने का भरपूर लाभ मिलता है।
सन् 71 के अक्टूबर मास में उड़ीसा के समुद्र तट पर तूफान ने जो कहर ढाया उसकी याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कटक के समीपवर्ती क्षेत्र में उसने 7 हजार व्यक्तियों की बलि देखते देखते ले ली थी। 6 हजार वर्ग मील में बसी 50 लाख की जनसंख्या को उसने दयनीय दुर्दशा के गर्त में झोंक दिया था। एक अरब रुपये की सम्पत्ति बर्बाद हो गई। सात लाख मकान नष्ट हो गये। इसके पीछे एक और साथी जुड़ा हुआ था, गनीमत इतनी हुई कि वह पश्चिमी बंगाल की ओर मुड़ गया। अन्यथा वह दूसरा रहा सहा विनाश पूरा करके उसे सर्वनाश की स्थिति तक पहुंचा देता।
मियानी (फ्लोरिडा) की नेशनल हरीकेन रिसर्च लेबोरेटरी के डायरेक्टर डा. सेसिले गेन्ट्री ने उन प्रयासों पर प्रकाश डाला है जो समुद्री तूफानों पर किसी कदर नियन्त्रण प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं। बादलों पर सूखी बर्फ का चूर्ण गिराकर उन्हें हलका और दुर्बल बना दिया गया। डा. सिम्पसन ने सिल्वर आयोडाइड छिड़क कर तूफान को हलका किया। तूफानों का उठना रोकने तथा दिशा बदलने में तो सफलता नहीं मिली, पर ‘सीडिंग’ उद्योग श्रृंखला का यह परिणाम जरूर निकला कि चक्रवातों का वेग 31 प्रतिशत तक घटाया जा सका। ‘विरास’ और ‘निम्वये’ उपग्रह इस सन्दर्भ में इन दिनों कई तरह की जांच-पड़ताल कर रहे हैं ताकि इन सत्यानाशी तूफानों की उच्छृंखलता पर किसी नियन्त्रण स्थापित किया जा सके।
‘साइक्लोन्स-हाउटू गार्ड अगेन्स्ट दैम’ पुस्तक में दिये गये विवरणों से विदित होता है कि भारत को समय-समय पर इन समुद्री तूफानों से कितनी क्षति उठानी पड़ती है। 16 अक्टूबर 1942 को बंगाल की खाड़ी में 140 मील प्रति घण्टा की चाल से एक ऐसा तूफान आया था जिसने कलकत्ता नगर को झकझोर कर रख दिया। भयंकर वर्षा हुई। ज्वार की लहरों ने 250 वर्ग मील सूखी जमीन को पानी से भर दिया। पानी की ऊंचाई 16 फुट तक जा पहुंची थी। करीब 15 हजार मनुष्य और 60 हजार पशु मरे। अतिवृष्टि, अनावृष्टि भूकम्प आदि आदि की बात छोड़ कर केवल आंधी, तूफान की एक विपत्ति पर ही विचार करें तो प्रतीत होगा कि इस शताब्दी में उससे अति भयावह हानि उठानी पड़ी है। प्रगति के नाम पर हुए उपार्जन का एक बड़ा भाग इन अन्धड़ चक्रवातों ने निर्दयतापूर्वक उदरस्थ कर लिया।
इस स्तर के अगणित अन्धड़ समुद्री क्षेत्र में इन दिनों आये दिन उठते रहते हैं और वे भारी विनाश उत्पन्न करते हैं। ये अन्धड़ प्रायः एक हजार से लेकर दो हजार किलोमीटर क्षेत्र का मौसम उद्विग्न कर देते हैं और अपने विकराल रूप से महाविनाश के लिए आगे बढ़ते हैं। कोई-कोई छोटे या बड़े भी होते हैं। हवा का वेग जब 60 किलोमीटर प्रति घण्टे से अधिक हो जाता है तो उसे तूफान कहते हैं। 85 किलोमीटर का वेग उग्र तूफान कहा जाता है। यह चक्रवात यदि समुद्र की परिधि में ही उठे और यही समाप्त हो जाय तो उससे उस क्षेत्र के जल जीवों एवं जलयानों को ही क्षति पहुंचती है, पर यदि वे थल क्षेत्र में घुस पड़े तो फिर तटवर्ती क्षेत्रों में भयावह विनाश लीला प्रस्तुत करते हैं।
टेलीविजन और इन्फ्रारेड आवजर्वेशन सैट लाइट (टाइरोस) यन्त्र आकाश में उठाकर मौसम सम्बन्धी पूर्व जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न पिछले 13 वर्षों से किया जा रहा है। इन उपकरणों ने पिछले दिनों जो जानकारियां भेजी हैं उनसे यह आशा बंधी है कि निकट भविष्य में मौसम के परिवर्तनों की विशेषतया वर्षा एवं आंधी तूफानों की पूर्व जानकारी प्राप्त की जा सकेगी और उस आधार पर सम्भावित विपत्ति से बचने के लिए सुरक्षात्मक प्रयत्न कर सकना सम्भव हो सकेगा।
संसार का मौसम नियन्त्रण में रखने के लिए कुछ उपाय वैज्ञानिक जगत में विचाराधीन हैं। (1) आर्कटिक क्षेत्र की हिमि राशि पर कालिख पोत दी जाय ताकि इससे सौर ऊर्जा पर नियन्त्रण करके उत्तरी ध्रुव क्षेत्र की मानवोपयोगी बनाया जा सकेगा (2) समुद्र में जहां से अधिक बादल उठते हैं और अनावश्यक वर्षा करके बर्बादी प्रस्तुत करते हैं उन क्षेत्रों पर हेक्साडेकानोल जैसे रसायनों की परत जमा कर बादल बनना सीमित कर दिया जाय। ताकि अधिक वर्षा वाले क्षेत्र भी उपजाऊ हो सकें। (3) आर्कटिक क्षेत्र के नीचे धरती खोदकर उसमें 10 मेगाटन शक्ति के दस ऐसे हाइड्रोजन बम फोड़े जायं जो विषाक्त विकरण से रहित हों। इससे 5 मील मोटा बर्फ का बादल आकाश में छितरा जायगा और पृथ्वी का मौसम अब की अपेक्षा थोड़ा और गर्म हो जायगा। (4) बेरिंग मुहाने पर 55 मील चौड़ा बांध बनाकर आर्कटिक सागर के ठण्डे पानी को प्रशान्त महासागर में मिलने से रोक दिया जाय।
सोचा जा रहा है कि यह योजनाएं बड़ी तो हैं और खर्चीली भी, पर यदि मनुष्य को व्यापक पैमाने पर मौसम का नियन्त्रण करना है तो उतना बड़ा पुरुषार्थ भी करना ही होगा। आखिर आंधी, तूफान आते क्यों हैं? उठते कहां से हैं? इनका उद्गम स्रोत कहां हैं? इन प्रश्नों का उत्तर विज्ञान ने अपने ढंग से प्रस्तुत किया है।
कहा गया है कि मौसम के निर्माण एवं परिवर्तन के चार प्रमुख आधार हैं—(1) सूर्य के द्वारा प्रेषित ऊर्जा का वातावरण पर पड़ने वाला प्रभाव (2) पृथ्वी के भ्रमण मार्ग में प्रस्तुत होते रहने वाले आधार (3) धरती से उठने वाले और सूर्य से गिरने वाले दबाव की प्रतिक्रिया (4) भूगर्भी एवं अन्तरिक्षीय प्रभावों से उत्पन्न विस्फोटीय उत्तेजना। इन चारों से मिलकर मौसम के उतार-चढ़ाव उत्पन्न होते हैं। सूर्य, वायु, पृथ्वी तथा अन्तरिक्ष की स्थिति के अनेकानेक ज्ञात-अविज्ञात कारण मिलकर मौसम का निर्माण करते हैं। कौन ऋतुएं किन महीनों में होती हैं। वर्षा, सर्दी, गर्मी के दिन कब होते हैं यह मोटी जानकारी ही हमें प्राप्त है। किस अवधि में क्या घटना क्रम किस प्रकार घटित होगा इसे ठीक तरह से जान सकना अभी किसी के लिए भी सम्भव नहीं हुआ है।
पृथ्वी से 9 करोड़ 29 लाख मील दूर बैठा हुआ सूर्य पृथ्वी पर अपनी ऊर्जा का केवल दो अरब वां भाग भेजता है, पर वह भी प्रति मिनट 23 अरब हार्स पावर जितना होता है। यह ऊष्मा अत्यधिक प्रचण्ड है यदि वह सीधी धरती पर आती तो यहां सब कुछ जल भुन जाता। खैर इसी बात की है कि इस ताप का अधिकांश भाग बादलों, समुद्री, ध्रुवीय हिमि श्रृंखलाओं और वायुमण्डल की विभिन्न परतों द्वारा सोख लिया जाता है यह अवशोषण भी बहुत सन्तुलित है। सामान्य धरातल को जो सूर्य ताप प्राप्त होता है यदि उसमें 13 प्रतिशत और कमी किसी कारण हो जाये तो फिर सारी पृथ्वी एक मील ऊंची बर्फ की परत से ढक जायगी।
पश्चिम से पूर्व की ओर ध्वनि वेग से भी अधिक तेजी के साथ घूमती हुई पृथ्वी सूर्यदेव की 60 करोड़ मील लम्बी अण्डाकार कक्षा में परिक्रमा करती रहती है। उसकी धुरी 3।। डिग्री झुकी हुई है। इससे सूर्य किरणें तिरछी पड़ती हैं इससे न केवल सौर ऊर्जा में वरन् जल प्रवाहों और हवाओं की संचरण प्रक्रियाओं में भी अन्तर पड़ता है। मौसम बदलते रहने का यह भी एक बड़ा कारण है।
पृथ्वी की गति को बदलना—उसकी कक्षा में परिवर्तन लाना—सूर्य को अमुक, अमुक मात्रा में ऊर्जा भेजने के लिए विवश करना आज के तथाकथित विकासमान विज्ञान को अति कठिन मालूम पड़ता है। इतनी ऊंची बात जाने भी दी जाय और ऐसा भर सोचा जाय कि मौसम की सामयिक परिस्थितियों की ही थोड़ी रोकथाम कर ली जाय तो वह भी इतना अधिक भारी प्रतीत होता है कि बार-बार उतना कर सकना सम्भव ही न हो सकेगा।
यदि सारी दुनिया की हवा इच्छानुसार चलाई जाय तो इसके लिए प्रतिदिन दस लाख परमाणु बम फोड़ने से उत्पन्न हो सकने जितनी शक्ति जुटानी पड़ेगी। समस्त वायुमण्डल के तापक्रम में एक अंश सेन्टीग्रेड गर्मी और बढ़ानी हो तो डेढ़ हजार अणुबम फोड़ने होंगे। एक मामूली सा तूफान रोकना हो तो उसके लिए एक मेगाटन ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी। इतनी ऊर्जा जुटाकर प्रकृति से लड़ सकना और उसे वशवर्ती बना सकना विज्ञान के लिए कब और कैसे सम्भव हो सकेगा यह कोई नहीं कह सकता। शरीर का स्वास्थ्य ठीक बनाये रखने के लिए मानसिक स्वास्थ्य को सुधारना आवश्यक है, इस तथ्य पर विज्ञान बहुत दिन बाद अब आकर पहुंचा है। इससे पूर्व शरीर और मानसिक स्वास्थ्य को पृथक-पृथक मानकर उनके सम्बन्ध में सोचा जाता रहा है। अब अनेक शोधों ने यह सत्य प्रकट कर दिया है कि शरीर को निरोग रखना हो तो मन का आरोग्य संभालना आवश्यक है। बिलकुल यही तथ्य परा और अपरा प्रकृति के सम्बन्ध में लागू होता है। विज्ञान की पहुंच जिस स्थूल प्रकृति तक है वह सब कुछ नहीं हैं। उसके अन्तराल में सूक्ष्म प्रकृति काम करती है जो चेतना है। उनकी परिशुद्धि इस बात पर निर्भर है कि संसार में सद्भाव सम्पन्न वातावरण संव्याप्त हो। सत्युग में ऐसी ही स्थिति के फलस्वरूप स्थूल प्रकृति शान्त और सन्तुलित रहती थी और संसार में सुखद प्रकृति-अनुकूलता बनी रहती थी।
स्थूल प्रकृति को अनुकूल बनाने के लिए—मौसम को नियन्त्रण में रखने के लिए जितने खर्चे की—जितने पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ेगी, उसका लाखवां भाग भी यदि सूक्ष्म प्रकृति को शान्त सन्तुलित रखने के लिए, सदाशयतापूर्ण वातावरण बनाने के प्रयत्न में लगाया जाय तो मनुष्य पारस्परिक सद्-व्यवहार के कारण भी सुखी रहेंगे और प्रकृति भी अनुकूल व्यवहार करेगी। कलियुगी प्रचलन को यदि सत्युग की रीति-नीति में बदला जा सके तो मौसम ही नहीं वातावरण का हर भाग बदल जायेगा और विक्षोभ के स्थान पर मंगलमय उल्लास बिखरा दिखाई पड़ेगा। संसार के मूर्धन्य व्यक्ति न जाने क्यों इस तथ्य पर ध्यान नहीं देते।
रूस की विज्ञान एकेडमी के पुराजीव संग्रहालय में लाखों वर्ष पुराने जीव कंकालों का संग्रह किया गया है। इनमें सबसे बड़ा कंकाल सारो लोफ वर्ग की एक विशालकाय ‘डिनोसार’ का है जो 23 फुट ऊंचा है। यह मंगोलिया में पाया गया था। ऐसी प्रागैतिहासिक दुर्लभ वस्तुयें उसी क्षेत्र में मिली हैं। मंगोलिया में समुद्र की सतह से कोई 3200 फुट ऊंचा एक पठार है। समुद्री हलचलों से वह स्थान पिछले 10 करोड़ वर्षों से सुरक्षित रहा है। वहां का गोबी रेगिस्तान चिर अतीत की भौगोलिक गाथाओं और जीव इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियां अपनी छाती से छिपायें बैठा है। अन्वेषकों का बहुत ध्यान इस क्षेत्र पर है। उपरोक्त कंकाल वहीं से मिला है।
किसी समय मनुष्य भी अब की अपेक्षा काफी लम्बे तगड़े थे पर उनमें बुद्धि की कमी रही, प्रकृति के अवरोधों से अपना बचाव करने की बात न सोच सके। फलतः उनकी विशेषतायें घटती चली गईं। लुप्त होने से जो बच सके तो उनकी पीढ़ियां कद और वजन की दृष्टि से हलकी होती चली गईं और वही स्थिति अब तक चली आ रही है। सन् 1939 में जावा इण्डोनेडिया में सोलो नदी के किनारे खुदाई करते हुए पुरातत्ववेत्ता वान क्योनिंगबाल्ड को एक ऐसा मनुष्य का जबड़ा मिला था जो बताता था कि प्राचीनकाल के मनुष्य अब की अपेक्षा काफी लम्बे चौड़े थे। उन्हें दो वर्ष बाद सन् 41 में उससे भी बड़ा जबड़ा प्राप्त हुआ। जिससे पता चलता है कि भूतकाल के दैत्याकार मनुष्यों की जैसी किम्वदन्तियां प्रचलित हैं वे निराधार नहीं हैं।
दैत्याकार मानवों के शोध प्रसंगों में चीन के विभिन्न स्थानों पर कुल मिलाकर मानव प्राणी के 47 दांत ऐसे मिले हैं जो अब के मनुष्यों की तुलना में छह गुने बड़े हैं। दैत्याकार अस्थि पिंजरों के टुकड़े प्रायः चार लाख वर्ष पुराने माने गये हैं। इन अस्थियों से एक और रहस्योद्घाटन होता है कि पुराने समय में जबड़े बड़े थे और मस्तिष्क का आकार जैसे-जैसे बढ़ा वैसे वैसे जबड़ा छोटा होता चला गया। पंख युक्त होते हुए भी उड़ सकने की क्षमता से रहित पक्षियों में मोआ, रही, कीवी, कैसोवरो, एमू, शुतुरमुर्ग और पेन्गुइन मुख्य हैं। यों पालतू मुर्गे और मोर भी धीरे-धीरे अपने उड़ने की क्षमता खोते चले जा रहे हैं। इस प्रकार के और भी कुछ पक्षी हैं जिनका स्वाभाविक वजन बढ़ता जा रहा है और वे उड़ने की दृष्टि से अपंग होते चले जा रहे हैं।
न्यूयार्क के म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री में पिछले दिनों न्यूजीलैण्ड में पाये जाने वाले मोआ पक्षी का अस्थि पिंजर रखा है इसकी ऊंचाई 13 फुट थी और वजन 500 पौण्ड यह पक्षी अपने उड़ने की क्षमता खो चुका था।
अमेरिकी शुतुरमुर्ग ‘कही’ भी भूमिचारी था, नर के साथ 8-10 मादायें रहती थीं। मादाएं बन-बिहार करती थीं और नर सबके अण्डे बच्चे सम्भालने घर पर रहता था उसे चारे दाने के लिए तभी बाहर जाने को अवसर मिलता था जब मादाएं उसे वैसी सुविधा और आज्ञा प्रदान करदें।
न्यू गायना में पाया जाने वाला कैसेवरी धरती पर सुविधाजनक रीति से आहार पाकर संतुष्ट हो गया और उसने उड़ने का परिश्रम करने से जी चुराना शुरू कर दिया फलस्वरूप उसकी उड़न शक्ति विदा हो गई और धरती पर रहने वाली लोमड़ियां उसे चट कर गई। यही हाल आस्ट्रेलियाई एमू का हुआ। दौड़ने की क्षमता गंवा बैठने के बाद उसे अकल आई तब उसने तेज दौड़ने का अभ्यास करके किसी प्रकार जान बचाने की तरकीब लड़ाई, इससे भी काम नहीं चला, जो एक बार हारा सो हारा। धूर्त शिकारियों ने उनका अस्तित्व निर्दयता पूर्वक मिटा ही डाला। गोल गेंद जैसे कोवी अब कुछ ही दिन में धरती पर से उठ जायेंगे। आलसी नर घर पर पड़ा-पड़ा अण्डे बच्चे सेता रहता है। बेचारी मादा को ही आहार जुटाने के लिए भी दौड़ धूप करनी पड़ती है। 82 दिनों में जब तक पिछले बच्चे उड़ने योग्य हो पाते हैं तब तक मादा पर नये बच्चे देने का भार आ पड़ता है इस प्रकार वह प्रजनन का ही कष्ट नहीं उठाती, परिवार का पेट पालने में भी मरती खपती है। नर को आलस मारे डाल रहा है और मादा की जान अति भार वहन से निकली जा रही है। इस असंतुलन का परिणाम सामने है यह सुन्दर पक्षी, पंख तो पहले ही गंवा चुका था अब प्रकृति के निर्दय रंग मंच पर अपनी सत्ता भी समाप्त करने जा रहा है।
प्रकृति के साथ संघर्ष करने में जो प्राणी साहस और सतर्कता के साथ संलग्न हैं उन्हें अतिरिक्त परिश्रम तो करना पड़ता है पर अपने अस्तित्व को भली प्रकार अक्षुण्ण रखे हुए हैं।
कुछ बतखें जल तट पर नहीं पेड़ों पर अण्डे देती हैं और जब बच्चे कुछ समर्थ हो जाते हैं तो उन्हें पीठ पर लाद कर पेड़ से नीचे लाती हैं। हिप्पो, समुद्री ऊदबिलाव भी अपने बच्चों को पीठ पर लादते हैं। मादा बिच्छू की पीठ पर तो तीस की संख्या तक लदे देखे गये हैं। चलते समय जो गिर पड़े उन्हें उठाकर फिर पीठ पर लादने का काम भी मादा को ही निपटाना पड़ता है। चमगादड़ के बच्चे अपनी मां की गरदन पकड़ कर लटके रहते हैं। कंगारू के बच्चे माता के पेट से सटी हुई थैली में बहुत दिनों तक गुजर बसर करते हैं। गिनी चकमो और हेमड्रेज बानर मिश्र और एवीसीनिया में धार्मिक श्रद्धा के पात्र समझे जाते हैं। दक्षिणी एवीसीनिया में पाये जाने वाले गेलेडा जब समूह वद्ध युद्ध करते हैं तब उनका रण कौशल मनुष्य युद्ध विद्या विशारदों के लिए भी देखने समझने योग्य होता है लगता है कि चक्रव्यूह विद्या के अनेक पक्ष अभिमन्यु की तरह गर्भ में से ही सीख कर आये हों। उनका रौद्र रूप देखकर आक्रमणकारी चीता भी दुम दबाकर भागता है।
कृमि कीटकों की प्रायः की 50 जातियां इस पृथ्वी पर होने का अनुमान है। इनमें से 20 लाख की खोज खबर मनुष्य द्वारा अबतक ली जा चुकी हैं। संसार में आंखों से दीख पड़ने वाले जितने जीवधारी बसते हैं उनमें से 85 प्रतिशत यह कीट पतंगें ही हैं।
आत्मरक्षा, ऋतु प्रभाव और आहार उपलब्धि एवं वंश वृद्धि की समस्याओं के सुलझाने के लिए उन्हें अपनी आकृति-प्रकृति में सृष्टि के आदि से लेकर समयानुसार अनेक परिवर्तन करने पड़े हैं। परिस्थितियां उनकी इच्छानुसार नहीं बन सकती थीं तो अपने आपको उन्होंने बदलना सम्भालना आरम्भ किया फलस्वरूप अभावग्रस्तता, असुविधा और विधातयक परिस्थितियों से अपने अस्तित्व को बचाये रहना उनके लिए सम्भव हो सका। हवा और पानी के प्रवाह में वे अक्सर कहीं से कहीं पहुंच जाते हैं। परिव्रजन आकांक्षा से प्रेरित होकर भी रेंगते, फुदकते, उड़ते दूर-दूर की ऐसी यात्राएं कर लेते हैं जहां अनभ्यस्त आहार और अजनबी वातावरण में ही निर्वाह करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहता। तब प्रकृति उनके शरीरों में तेजी से परिवर्तन करती है और इस लायक बना देती है कि वे नये वातावरण में गुजर कर सकें।
कछुआ प्रकृति ने जलचर के रूप में बनाया है, वह जलाशयों के समीपवर्ती तटों पर भी रह सकता है; पर जब उसे परिस्थिति वश कठोर पर्वतों पर रहना पड़ा तो वह पाषाण कच्छप के रूप में बदल गया और चट्टानों के बीच ही निर्वाह करने लगा। बिलों में रहने वाला सर्प आहार की सुविधा के लिए जलाशयों की मछलियां आसानी से प्राप्त करने लगा तो उसने जलचर बनना अंगीकार कर लिया और जल सर्पों की जातियां अस्तित्व में आईं।
आक्रमणकारियों से अपना बचाव करने और शिकार पकड़ने के दाव पेंच सफल बनाने के लिए इन कीड़ों ने पेड़-पौधों की पत्तियों में छिपे रहने योग्य काय-कलेवर का रंग-रूप आवश्यक समझा। तदनुसार अधिकांश कीड़े घास-पात की हरियाली में छिप सकने जैसे रंग-रूप के बन गये। फूलों पर उड़ने वाली तितलियों का रंग रूप प्रायः वैसा ही रंग-बिरंगा हो गया। जिराफ की चमड़ी के दाग-धब्बे ऐसे होते हैं जिससे वह दूर से देखने वालों को झाड़ी मात्र प्रतीत हो।
सींग, विषदंश दांत, पंजे प्रायः इसी आधार पर बने हैं कि वे अपना आहार सरलता पूर्वक पकड़ने और खाने में सफल रहें। पेट के पाचन यन्त्रों में भी इसी आधार पर विकास परिवर्तन होता रहा है।
दुर्बलकाय सीप और घोंघे, शंख, शम्बुक, कौड़ी, जाति के कीड़ों ने आत्मरक्षा का एक उपयोगी उपाय सोचा है—अपने चारों ओर एक मजबूत कवच का निर्माण करना। वे अपने शरीर में से ही एक अजीब किस्म का रस निकालते हैं और उसकी परतें शरीर के चारों ओर चढ़ाते चले जाते हैं। समयानुसार यह परत इतनी मजबूत हो जाती हैं कि शिकारी जल जीव इनका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर पाते और सुरक्षित शान्तिपूर्ण जीवन यापन करते हैं। इन कीटकों की कुशलता उन पर चढ़े कवचों की आकर्षक सुन्दरता के रूप में दर्शकों का मन मुग्ध करती है।
जो हो इस विश्व में सजगता, समर्थता और सक्रियता का अपना महत्व है। इन्हें गंवा कर जो आलसी बनते हैं, असावधान रहते हैं उनकी सुविधा को प्रकृति सहन नहीं कर सकती और एक दिन झल्लाकर छीन ही लेती है। उसे तो पुरुषार्थ और संघर्ष ही भाता है।
आराम तलबी व आलसी पन प्रकृति के विरुद्ध
सुगम सुविधाजनक, आराम तलबी की जिन्दगी आज के आदमी का लक्ष्य बनी हुई है। वह अधिक से अधिक शोक-मौज से भरे—दिन काटना चाहता है और विलासिता में निमग्न रहने के साधन ढूंढ़ता है तथाकथित बड़े लोगों की आज कल यही प्रवृत्ति है। वे अधिक धन और सुविधा सामग्री इसी प्रयोजन के लिए जमा करते हैं। छोटा कहा जाने वाला वर्ग धन की कमी की वजह से नहीं, उत्साह और उमंगों की दरिद्रता के कारण छोटा है और दिन-दिन और भी अधिक गिरता जाता है। उसे आलस्य और प्रमाद खाये जाता है। जब भूख विवश करती है तो कुछ करने को खड़ा होता है और उतने ही हाथ-पैर हिलाता है जितने के बिना कि पेट का गड्ढा नहीं भरता। इसके बाद उसे भी आलस्य-प्रमाद, व्यसन आदि झगड़े, गप-शप और आवारागर्दी की सूझती है। अपने आपके सम्बन्ध में बेखबर यह लोग कितना गंदा गलीज जीवन क्रम अपनाये रहते हैं यह देखकर दया आती है, आवारागर्दी के समय को यदि वे शरीर—वस्त्र—मकान और जो कुछ उनके पास है उसे स्वच्छ बनाने में ही लगा लिया करें तो इतने मलीन तो न दीखें। पिछड़ेपन में निर्धनता और अशिक्षा भी कारण हो सकती है पर सबसे बड़ा कारण है मानसिक छोटापन। उसी व्यापक छूत की बीमारी को हम इस देश के पिछड़ेपन का मूलभूत कारण भी कह सकते हैं।
आरामतलबी या आलसीपन यह दोनों ही सजीव चेतन प्राणी की अन्तरात्मा की मूल प्रकृति के विपरीत हैं। यदि अन्तःकरण को दुर्बुद्धि ने मूर्छित न कर दिया हो तो उससे सदा साहसिकता का परिचय देने की—शौर्य प्रवृत्ति उमंगती रहती दिखाई देगी। बहादुरी और वीरता के प्रतिफल ही सच्चा आनन्द और सन्तोष दें सकते हैं, इसे छोटे पक्षी भी जानते हैं।
चिड़ियों में बहुत सी ऐसी होती हैं जो बदलती हुई ऋतुओं का आनन्द लेने के लिये यात्रायें करती हैं। इसमें उन्हें काफी श्रम करना पड़ता है और भारी जोखिम उठानी पड़ती है तथा मनोयोग का प्रयोग करना पड़ता है, पर वे बेकार झंझट में क्यों पड़ें—चैन के दिन क्यों न गुजारें की भाषा में नहीं सोचतीं वरन् इस प्रकार साहसिकता का परिचय देने में आन्तरिक प्रसन्नता एवं सन्तोष को अनुभव करती हैं। इसके लिए उनमें भीतर से ऐसी उमंग उठती है जिसे पूरा किये बिना रहा ही नहीं जाता। पेट कहीं भी भरा जा सकता है और दिन कहीं भी काटे जा सकते हैं, यह मरी हुई जिन्दगी है जिसे मनुष्य भले ही पसन्द करे, पर पशु-पक्षियों से लेकर कीट-पतंगों तक कोई भी उसे पसन्द नहीं करता। कुछ चिड़ियां तो ऐसी हैं जो अपनी साहसिक यात्राओं द्वारा सम्भवतः मनुष्य को भी उत्साही, परिश्रमी, साहसी और महत्वाकांक्षी होने की प्रेरणा करती हैं। सितम्बर के प्रथम सप्ताह में भारत में ऐसे अनेक रंग-बिरंगे पक्षी दिखाई पड़ते हैं जो गर्मी और बरसात में नहीं थे। यह पक्षी जर्मनी, साइबेरिया, चीन, तिब्बत आदि सुदूर देशों से हजारों मील की लम्बी यात्रा करके आते हैं। तिधारी, चैती, हंसक, पैतरा, सुरखाव, लालसर आदि प्रमुख हैं। इनमें पैर के अंगूठे के बराबर ‘स्वेटपेनिकल’ जैसे छोटे और 25 पौण्ड भारी आदम कद सारस जैसे बड़े पक्षी भी होते हैं। यह लम्बी यात्रा सप्ताहों तथा महीनों की होती है। आहार की सुविधा, ऋतु प्रभाव से बचाव और सैर-सपाटे का आनन्द यह इस लम्बी यात्रा का उद्देश्य होता है। आश्चर्य यह है कि यह अपनी यात्रा अवधि पूरी करके नियत समय पर ही अपने स्थानों को लौट जाते हैं और अपने पुराने पेड़ों और पुराने घोंसलों में ही जाकर फिर बस जाते हैं। भारत में भी वे मारे-मारे नहीं फिरते वरन् यहां भी वे अपने नियत स्थान बनाते हैं और जब तक जीवित रहते हैं प्रायः इन दोनों क्षेत्रों में अपने नियत स्थानों पर ही निवास करते हैं।
इन पक्षियों की लम्बी यात्रायें, ऊंची उड़ानें आश्चर्यजनक हैं। बागटेल 2000 मील की लम्बी यात्रा करके बम्बई के निकट एक मैदान में उतरते हैं और फिर विभिन्न स्थानों के लिये बिखर जाते हैं। गोल्डन फ्लावर पक्षी अमेरिका से चलते हैं। पतझड़ में भारत में विश्राम करते हैं फिर थकान मिटाकर अटलांटिक और दक्षिण महासागर पार करते हुए दक्षिण अमेरिका जा पहुंचते हैं। आते समय वे समुद्र के ऊपर से उड़ते हैं और जाते समय जमीन के रास्ते लौटते हैं। अलास्का में उनके घोंसले होते हैं और वहीं अण्डे देते हैं। हर वर्ष प्रायः वह दो ढाई हजार मील की यात्रा करते हैं। पृथ्वी की परिक्रमा तीन हजार मील की है। इस प्रकार वे लगभग पृथ्वी की एक परिक्रमा हर वर्ष पूरी करते हैं। आर्कटिक टिटहरी इन सब घुमक्कड़ पक्षियों से आगे है। उत्तरी ध्रुव के समीप उसका घोंसला होता है। पतझड़ में वह दक्षिण ध्रुव जा पहुंचती है। वसन्त में फिर वापिस उत्तरी ध्रुव लौट आती है। जर्मनी के बगुले 4 महीने में करीब 4000 मील का सफर पूरा करते हैं। रूसी बतखें भी 5000 मील की लम्बी यात्रायें करती हैं। यह पक्षी औसतन 200 मील की यात्रा हर रोज करते हैं। टर्नस्टान इन सबसे अधिक उड़ती है उसकी दैनिक उड़ान 500 मील के करीब तक की होती है साथ ही उसका 17 हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ना और भी अधिक आश्चर्यजनक है। हां समुद्र पार करते समय उड़ने की ऊंचाई तीन हजार फीट से अधिक नहीं होती।
इन्हें इतनी खतरनाक और कष्ट साध्य उड़ाने उड़ने की उचंग क्यों उठती है। क्या उनके लिए यह उड़ान अनिवार्य है? क्या वे अपने क्षेत्र में गुजारा नहीं कर सकते या वहीं कहीं थोड़ा उड़कर काम नहीं चला सकते? आखिर ऐसा बड़ा कारण क्या है जिसके कारण जान जोखिम में डालने वाला ऐसा कदम उन्हें उठाना पड़ता है।
पक्षी विज्ञान के विज्ञानियों ने यह पाया है कि वाह्य दृष्टि से उनके सामने कोई ऐसी बड़ी कठिनाई नहीं होती जिसके कारण उन्हें इतना बड़ा जोखिम उठाने के लिए विवश होना पड़े। आहार की—ऋतु प्रभाव की घट-बढ़ होती रह सकती है, पर दूसरे पक्षी भी तो उन्हीं परिस्थितियों में किसी प्रकार निर्वाह करते हैं। फिर सैलानी चिड़ियों को ही ऐसी विचित्र उमंग क्यों उठती है। इस प्रश्न का उत्तर उनकी वृक्क ग्रन्थियों में पाये जाने वाले विशेष हारमोन रसों से मिलता है। जिस प्रकार कुछ बढ़े हुए हारमोन अपने समय पर काम-वासना के लिए बेचैनी उत्पन्न करते हैं, लगभग वैसी ही बेचैनी इस प्रकार की लम्बी उड़ान भरने के लिये इन पक्षियों को विवश करती है। वे अपने भीतर एक अद्भुत उमंग अनुभव करते हैं और वह इतनी प्रबल होती है कि उसे पूरा किये बिना उनसे रहा ही नहीं जाता। यह उड़न हारमोन न केवल प्रेरणा देते हैं; वरन् उसके लिए उनके शरीरों में आवश्यक साधन सामग्री भी जुटाते हैं। पंखों में अतिरिक्त शक्ति, खुराक का समुचित साधन न जुट सकने की क्षति पूर्ति करने के लिए बढ़ी हुई चर्बी—साथ उड़ने की प्रवृत्ति, समय का ज्ञान, नियत स्थानों की पहचान, सफर का सही मार्ग जैसी कितनी ही एक से एक अद्भुत बातें हैं जो इस लम्बी उड़ान और वापसी के साथ जुड़ी हुई हैं। उन उड़न हारमोनों को पक्षी के शरीर, मन और अन्तर्मन में इस प्रकार के समस्त साधन जुटाने पड़ते हैं जिससे उनकी यात्रा प्रवृत्ति तथा प्रक्रिया को सफलतापूर्वक कार्यान्वित होते रहने का अवसर मिलता रहे।
प्रकृति नहीं चाहती कि कोई प्राणी अपनी प्रतिभा को आलसी और विलासी बनाकर नष्ट करे। प्रकृति इन यात्रा प्रेमी पक्षियों को यही प्रेरणा देती है कि वे विभिन्न स्थानों के सुन्दर दृश्य देखें, और वहां के ऋतु प्रभाव एवं आहार विहार के हर्षोल्लास का अनुभव करें। अपनी क्षमता और योग्यता को परिपुष्ट करें।
मनुष्य में आराम तलवी की प्रवृत्ति इतनी घातक हैं कि वह कुछ महत्वपूर्ण काम कर ही नहीं सकता, अपनी प्रगति के द्वार किसी को रोकने हों तो उसे काम से जी चुराने की आदत डालनी चाहिए और साहसिकता का त्याग कर विलासी बनने की बात सोचनी चाहिए। ऐसे लोगों को मुंह चिढ़ाते हुए—उनकी भर्त्सना करते हुए ही यह उड़न पक्षी विश्व निरीक्षण, विश्व भ्रमण करते रहते हैं—ऐसा लगता है।
परिणाम फिर भी प्रतिकूल क्यों !
मनुष्य अपने बुद्धि-बल और पुरुषार्थ के अनुरूप सदा से यह प्रयत्न करता रहा है कि उसे अधिक अच्छी परिस्थितियां, सुविधाएं तथा सम्पदायें प्राप्त होती चलें। इसके लिए उसने प्रकृति के भौतिक स्तर का ही स्पर्श किया है और तदनुरूप थोड़ा-बहुत लाभ पाया भी है।
उसे यह ध्यान नहीं रहा कि प्रकृति का एक अध्यात्म पक्ष भी है। उसमें विकृति आने से दैवी आपत्तियां टूटती हैं और किये सारे प्रयत्न देखते-देखते मटियामेट हो जाते हैं। प्रकृति का सूक्ष्म स्तर तब बिगड़ता है जब मनुष्य कृत चेतनात्मक विक्षोभ से पराप्रकृति का अन्तराल विषाक्त हो जाता है।
सत्युग के—रामराज्य के—वर्णन में यह बताया गया है कि उन दिनों प्रकृति अत्यधिक अनुकूल थी, समय पर वर्षा होती थी—वृक्ष वनस्पतियां प्रसन्न होकर फलते थे, मनुष्य दीर्घजीवी थे, दूध-दही की नदियां बहती थीं, दैवी प्रकोपों से किसी को कोई कठिनाई नहीं उठानी पड़ती थी। अकाल मृत्यु से लेकर महामारियों तक का कहीं अता-पता भी नहीं मिलता था। यह इसलिए होता था कि मनुष्यों की सद्भावनाएं और सत्प्रवृत्तियां उत्कृष्ट, उच्च स्तर की बनी हुई थीं।
कलियुग में तरह-तरह को दैवी विपत्तियों और विकृतियों की सम्भावना का पुराणों में जो पूर्व कथन मिलता है उसका एकमात्र आधार यही है कि जब मनुष्यों का रुझान दुष्कर्मों की ओर होगा तो उसकी प्रतिक्रिया प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल को विषाक्त बनायेगी। फलस्वरूप मनुष्यों को उनका प्रतिफल विपत्तियों के रूप में भुगतना पड़ेगा। सम्पत्तियां एवं सुविधाएं भले ही बढ़ जायं, पर उन्हें शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, अन्तर्राष्ट्रीय हर क्षेत्र में घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा। इस संकट को बढ़ाने में प्रकृति का प्रकोप भी कम योगदान नहीं देगा। कलियुग के सविस्तार भयावह वर्णन की पौराणिक भविष्यवाणियां इसी आधार पर हैं। हम देखते हैं कि वह पूर्व कथन सही होता चला जा रहा है। जिस क्रम से हम दुष्ट और भ्रष्ट बनने पर उतारू हैं उसी क्रम से प्रकृति के हण्टरों की मार दिन-दिन अधिक तीव्र एवं अधिक निर्दय बनती चली जा रही है।
प्रकृति की—मौसम की—अनुकूलता, प्रतिकूलता हमारी आर्थिक और शारीरिक परिस्थितियों को अत्यधिक प्रभावित करती है। वर्षा के न्यून अथवा अधिक होने पर—पाला पड़ने, अन्धड़ चलने तूफान, भूकम्प जैसे उपद्रव खड़े होने से कृषि, पशु पालन तथा अन्यान्य उद्योग धन्धों पर जो प्रभाव पड़ता है उसे कौन नहीं जानता। मौसम की असह्य प्रतिकूलता से कितने ही बीमार पड़ते हैं, कितने ही दम तोड़ देते हैं। दुर्भिक्ष, महामारी एवं अप्रत्याशित विपत्तियां लेकर मौसम की प्रतिकूलता जब सामने आती है तो प्राणियों को अत्यधिक कष्ट होता है। वृक्ष वनस्पतियां नष्ट हो जाती हैं और सर्वत्र त्राहि-त्राहि सुनाई पड़ती है। इसके विपरीत यदि मौसम अनुकूल हो तो आर्थिक और शारीरिक खुशहाली बढ़ने का भरपूर लाभ मिलता है।
सन् 71 के अक्टूबर मास में उड़ीसा के समुद्र तट पर तूफान ने जो कहर ढाया उसकी याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कटक के समीपवर्ती क्षेत्र में उसने 7 हजार व्यक्तियों की बलि देखते देखते ले ली थी। 6 हजार वर्ग मील में बसी 50 लाख की जनसंख्या को उसने दयनीय दुर्दशा के गर्त में झोंक दिया था। एक अरब रुपये की सम्पत्ति बर्बाद हो गई। सात लाख मकान नष्ट हो गये। इसके पीछे एक और साथी जुड़ा हुआ था, गनीमत इतनी हुई कि वह पश्चिमी बंगाल की ओर मुड़ गया। अन्यथा वह दूसरा रहा सहा विनाश पूरा करके उसे सर्वनाश की स्थिति तक पहुंचा देता।
मियानी (फ्लोरिडा) की नेशनल हरीकेन रिसर्च लेबोरेटरी के डायरेक्टर डा. सेसिले गेन्ट्री ने उन प्रयासों पर प्रकाश डाला है जो समुद्री तूफानों पर किसी कदर नियन्त्रण प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं। बादलों पर सूखी बर्फ का चूर्ण गिराकर उन्हें हलका और दुर्बल बना दिया गया। डा. सिम्पसन ने सिल्वर आयोडाइड छिड़क कर तूफान को हलका किया। तूफानों का उठना रोकने तथा दिशा बदलने में तो सफलता नहीं मिली, पर ‘सीडिंग’ उद्योग श्रृंखला का यह परिणाम जरूर निकला कि चक्रवातों का वेग 31 प्रतिशत तक घटाया जा सका। ‘विरास’ और ‘निम्वये’ उपग्रह इस सन्दर्भ में इन दिनों कई तरह की जांच-पड़ताल कर रहे हैं ताकि इन सत्यानाशी तूफानों की उच्छृंखलता पर किसी नियन्त्रण स्थापित किया जा सके।
‘साइक्लोन्स-हाउटू गार्ड अगेन्स्ट दैम’ पुस्तक में दिये गये विवरणों से विदित होता है कि भारत को समय-समय पर इन समुद्री तूफानों से कितनी क्षति उठानी पड़ती है। 16 अक्टूबर 1942 को बंगाल की खाड़ी में 140 मील प्रति घण्टा की चाल से एक ऐसा तूफान आया था जिसने कलकत्ता नगर को झकझोर कर रख दिया। भयंकर वर्षा हुई। ज्वार की लहरों ने 250 वर्ग मील सूखी जमीन को पानी से भर दिया। पानी की ऊंचाई 16 फुट तक जा पहुंची थी। करीब 15 हजार मनुष्य और 60 हजार पशु मरे। अतिवृष्टि, अनावृष्टि भूकम्प आदि आदि की बात छोड़ कर केवल आंधी, तूफान की एक विपत्ति पर ही विचार करें तो प्रतीत होगा कि इस शताब्दी में उससे अति भयावह हानि उठानी पड़ी है। प्रगति के नाम पर हुए उपार्जन का एक बड़ा भाग इन अन्धड़ चक्रवातों ने निर्दयतापूर्वक उदरस्थ कर लिया।
इस स्तर के अगणित अन्धड़ समुद्री क्षेत्र में इन दिनों आये दिन उठते रहते हैं और वे भारी विनाश उत्पन्न करते हैं। ये अन्धड़ प्रायः एक हजार से लेकर दो हजार किलोमीटर क्षेत्र का मौसम उद्विग्न कर देते हैं और अपने विकराल रूप से महाविनाश के लिए आगे बढ़ते हैं। कोई-कोई छोटे या बड़े भी होते हैं। हवा का वेग जब 60 किलोमीटर प्रति घण्टे से अधिक हो जाता है तो उसे तूफान कहते हैं। 85 किलोमीटर का वेग उग्र तूफान कहा जाता है। यह चक्रवात यदि समुद्र की परिधि में ही उठे और यही समाप्त हो जाय तो उससे उस क्षेत्र के जल जीवों एवं जलयानों को ही क्षति पहुंचती है, पर यदि वे थल क्षेत्र में घुस पड़े तो फिर तटवर्ती क्षेत्रों में भयावह विनाश लीला प्रस्तुत करते हैं।
टेलीविजन और इन्फ्रारेड आवजर्वेशन सैट लाइट (टाइरोस) यन्त्र आकाश में उठाकर मौसम सम्बन्धी पूर्व जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न पिछले 13 वर्षों से किया जा रहा है। इन उपकरणों ने पिछले दिनों जो जानकारियां भेजी हैं उनसे यह आशा बंधी है कि निकट भविष्य में मौसम के परिवर्तनों की विशेषतया वर्षा एवं आंधी तूफानों की पूर्व जानकारी प्राप्त की जा सकेगी और उस आधार पर सम्भावित विपत्ति से बचने के लिए सुरक्षात्मक प्रयत्न कर सकना सम्भव हो सकेगा।
संसार का मौसम नियन्त्रण में रखने के लिए कुछ उपाय वैज्ञानिक जगत में विचाराधीन हैं। (1) आर्कटिक क्षेत्र की हिमि राशि पर कालिख पोत दी जाय ताकि इससे सौर ऊर्जा पर नियन्त्रण करके उत्तरी ध्रुव क्षेत्र की मानवोपयोगी बनाया जा सकेगा (2) समुद्र में जहां से अधिक बादल उठते हैं और अनावश्यक वर्षा करके बर्बादी प्रस्तुत करते हैं उन क्षेत्रों पर हेक्साडेकानोल जैसे रसायनों की परत जमा कर बादल बनना सीमित कर दिया जाय। ताकि अधिक वर्षा वाले क्षेत्र भी उपजाऊ हो सकें। (3) आर्कटिक क्षेत्र के नीचे धरती खोदकर उसमें 10 मेगाटन शक्ति के दस ऐसे हाइड्रोजन बम फोड़े जायं जो विषाक्त विकरण से रहित हों। इससे 5 मील मोटा बर्फ का बादल आकाश में छितरा जायगा और पृथ्वी का मौसम अब की अपेक्षा थोड़ा और गर्म हो जायगा। (4) बेरिंग मुहाने पर 55 मील चौड़ा बांध बनाकर आर्कटिक सागर के ठण्डे पानी को प्रशान्त महासागर में मिलने से रोक दिया जाय।
सोचा जा रहा है कि यह योजनाएं बड़ी तो हैं और खर्चीली भी, पर यदि मनुष्य को व्यापक पैमाने पर मौसम का नियन्त्रण करना है तो उतना बड़ा पुरुषार्थ भी करना ही होगा। आखिर आंधी, तूफान आते क्यों हैं? उठते कहां से हैं? इनका उद्गम स्रोत कहां हैं? इन प्रश्नों का उत्तर विज्ञान ने अपने ढंग से प्रस्तुत किया है।
कहा गया है कि मौसम के निर्माण एवं परिवर्तन के चार प्रमुख आधार हैं—(1) सूर्य के द्वारा प्रेषित ऊर्जा का वातावरण पर पड़ने वाला प्रभाव (2) पृथ्वी के भ्रमण मार्ग में प्रस्तुत होते रहने वाले आधार (3) धरती से उठने वाले और सूर्य से गिरने वाले दबाव की प्रतिक्रिया (4) भूगर्भी एवं अन्तरिक्षीय प्रभावों से उत्पन्न विस्फोटीय उत्तेजना। इन चारों से मिलकर मौसम के उतार-चढ़ाव उत्पन्न होते हैं। सूर्य, वायु, पृथ्वी तथा अन्तरिक्ष की स्थिति के अनेकानेक ज्ञात-अविज्ञात कारण मिलकर मौसम का निर्माण करते हैं। कौन ऋतुएं किन महीनों में होती हैं। वर्षा, सर्दी, गर्मी के दिन कब होते हैं यह मोटी जानकारी ही हमें प्राप्त है। किस अवधि में क्या घटना क्रम किस प्रकार घटित होगा इसे ठीक तरह से जान सकना अभी किसी के लिए भी सम्भव नहीं हुआ है।
पृथ्वी से 9 करोड़ 29 लाख मील दूर बैठा हुआ सूर्य पृथ्वी पर अपनी ऊर्जा का केवल दो अरब वां भाग भेजता है, पर वह भी प्रति मिनट 23 अरब हार्स पावर जितना होता है। यह ऊष्मा अत्यधिक प्रचण्ड है यदि वह सीधी धरती पर आती तो यहां सब कुछ जल भुन जाता। खैर इसी बात की है कि इस ताप का अधिकांश भाग बादलों, समुद्री, ध्रुवीय हिमि श्रृंखलाओं और वायुमण्डल की विभिन्न परतों द्वारा सोख लिया जाता है यह अवशोषण भी बहुत सन्तुलित है। सामान्य धरातल को जो सूर्य ताप प्राप्त होता है यदि उसमें 13 प्रतिशत और कमी किसी कारण हो जाये तो फिर सारी पृथ्वी एक मील ऊंची बर्फ की परत से ढक जायगी।
पश्चिम से पूर्व की ओर ध्वनि वेग से भी अधिक तेजी के साथ घूमती हुई पृथ्वी सूर्यदेव की 60 करोड़ मील लम्बी अण्डाकार कक्षा में परिक्रमा करती रहती है। उसकी धुरी 3।। डिग्री झुकी हुई है। इससे सूर्य किरणें तिरछी पड़ती हैं इससे न केवल सौर ऊर्जा में वरन् जल प्रवाहों और हवाओं की संचरण प्रक्रियाओं में भी अन्तर पड़ता है। मौसम बदलते रहने का यह भी एक बड़ा कारण है।
पृथ्वी की गति को बदलना—उसकी कक्षा में परिवर्तन लाना—सूर्य को अमुक, अमुक मात्रा में ऊर्जा भेजने के लिए विवश करना आज के तथाकथित विकासमान विज्ञान को अति कठिन मालूम पड़ता है। इतनी ऊंची बात जाने भी दी जाय और ऐसा भर सोचा जाय कि मौसम की सामयिक परिस्थितियों की ही थोड़ी रोकथाम कर ली जाय तो वह भी इतना अधिक भारी प्रतीत होता है कि बार-बार उतना कर सकना सम्भव ही न हो सकेगा।
यदि सारी दुनिया की हवा इच्छानुसार चलाई जाय तो इसके लिए प्रतिदिन दस लाख परमाणु बम फोड़ने से उत्पन्न हो सकने जितनी शक्ति जुटानी पड़ेगी। समस्त वायुमण्डल के तापक्रम में एक अंश सेन्टीग्रेड गर्मी और बढ़ानी हो तो डेढ़ हजार अणुबम फोड़ने होंगे। एक मामूली सा तूफान रोकना हो तो उसके लिए एक मेगाटन ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी। इतनी ऊर्जा जुटाकर प्रकृति से लड़ सकना और उसे वशवर्ती बना सकना विज्ञान के लिए कब और कैसे सम्भव हो सकेगा यह कोई नहीं कह सकता। शरीर का स्वास्थ्य ठीक बनाये रखने के लिए मानसिक स्वास्थ्य को सुधारना आवश्यक है, इस तथ्य पर विज्ञान बहुत दिन बाद अब आकर पहुंचा है। इससे पूर्व शरीर और मानसिक स्वास्थ्य को पृथक-पृथक मानकर उनके सम्बन्ध में सोचा जाता रहा है। अब अनेक शोधों ने यह सत्य प्रकट कर दिया है कि शरीर को निरोग रखना हो तो मन का आरोग्य संभालना आवश्यक है। बिलकुल यही तथ्य परा और अपरा प्रकृति के सम्बन्ध में लागू होता है। विज्ञान की पहुंच जिस स्थूल प्रकृति तक है वह सब कुछ नहीं हैं। उसके अन्तराल में सूक्ष्म प्रकृति काम करती है जो चेतना है। उनकी परिशुद्धि इस बात पर निर्भर है कि संसार में सद्भाव सम्पन्न वातावरण संव्याप्त हो। सत्युग में ऐसी ही स्थिति के फलस्वरूप स्थूल प्रकृति शान्त और सन्तुलित रहती थी और संसार में सुखद प्रकृति-अनुकूलता बनी रहती थी।
स्थूल प्रकृति को अनुकूल बनाने के लिए—मौसम को नियन्त्रण में रखने के लिए जितने खर्चे की—जितने पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ेगी, उसका लाखवां भाग भी यदि सूक्ष्म प्रकृति को शान्त सन्तुलित रखने के लिए, सदाशयतापूर्ण वातावरण बनाने के प्रयत्न में लगाया जाय तो मनुष्य पारस्परिक सद्-व्यवहार के कारण भी सुखी रहेंगे और प्रकृति भी अनुकूल व्यवहार करेगी। कलियुगी प्रचलन को यदि सत्युग की रीति-नीति में बदला जा सके तो मौसम ही नहीं वातावरण का हर भाग बदल जायेगा और विक्षोभ के स्थान पर मंगलमय उल्लास बिखरा दिखाई पड़ेगा। संसार के मूर्धन्य व्यक्ति न जाने क्यों इस तथ्य पर ध्यान नहीं देते।