• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • पाप-नाशिनी गायत्री
    • पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएं
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • पाप-नाशिनी गायत्री
    • पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएं
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - पापनाशिनी गायत्री

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


पाप-नाशिनी गायत्री

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


2 Last
गायत्री को धर्म ग्रन्थों में ‘पाप-नाशिनी’ कहा गया है। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। गायत्र्यास्तु परन्नास्ति शोधनं पाप कर्मणाय । —सम्वर्त स्मृति 218 अर्थात् पापों का संशोधन करने में गायत्री के समान और कोई उपाय नहीं है। गायत्री जप कृद् भक्त्या सर्व पापै प्रयुज्यते । —पारासर भक्तिपूर्वक गायत्री जपने वाला सब पापों से छूट जाता है। सहस्र कृत्वस्त्यकभ्यस्य वहिरेतत्रिकं द्विजः । महतोप्येन सो मासात्वचे वाहिर्विमुच्यते ।। —मनुस्मृति 2।79 अर्थात्—गायत्री का विधिवत् जप करने वाला द्विज सब प्रकार के पापों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है। यदाह्नात्कुरुते पापं तदह्नात्प्रति मुच्यते । यद्रात्रियात्कुरुते पापं तद्रात्रियात्प्रति मुच्यते ।। —तै. आ. प्र. 10।34 हे गायत्री, तुम्हारे प्रभाव से दिन में किये पाप दिन में नष्ट हो जाते हैं और रात्रि में किये पाप रात्रि में ही नष्ट हो जाते हैं। गायत्री उपनिषद् के तेईसवें चौबीसवें मन्त्र में उल्लेख है:— सायमधीयानो दिवस कृतं पापं नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रि कृतं पापं नाशयति । तत् सायं प्रातरधीयानो पापी ऽपापी भवति ।। अपेय पानात् पूतो भवति । अभक्ष भक्षणात् पूतो भवति । अज्ञानात्पूतो भवति । स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति । अब्रह्मचारी सब्रह्मचारी भवति । अर्थात्—सायंकाल में गायत्री उपासना करने से दिन में किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। प्रातःकाल में जप करने से रात्रि में किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। सायं प्रातः दोनों समय जप करने से पापी भी निष्पाप हो जाते हैं। मद्यादि अपेय पीने वाले, मांस आदि अभक्ष खाने वाले, अज्ञानी, चोर, व्यभिचारी भी इन दुष्कर्मों से छुटकारा प्राप्त करके निष्पाप बनते हैं। इस प्रकार के अनेकों अभिवचन धर्म ग्रन्थों में मिलते हैं जिनसे प्रकट होता है कि पापों से छूटना गायत्री-उपासना के द्वारा सर्वथा सुलभ है। गायत्री-उपासना की यह विशेषता है कि इन 24 अक्षरों में सन्निहित शक्तियों का गुंजन जब अन्तःकरण में होता है तो आत्मा में समाया हुआ सतोगुण जागृत होता है। भावना क्षेत्र में उच्चकोटि के सात्विक विचारों की दिन-दिन अभिवृद्धि होती है और उसके फलस्वरूप स्वभाव एवं कार्यक्रम में भी परिवर्तन होने लगता है। जिसकी आत्मा में सतोगुणी विचार बढ़ेंगे, उसके कार्यों में भी वह उत्तमता अवश्य ही परिलक्षित होगी। स्वभाव कोई सुनिश्चित या चिरस्थायी वस्तु नहीं है। वह परिस्थितियों एवं भावनाओं के अनुरूप बदलता रहता है। आज जो पापी है वह आगे सारे जीवन भर पापी ही रहे यह आवश्यक नहीं। इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि जो व्यक्ति आज सज्जन एवं सदाचारी है उसकी यह प्रवृत्ति आगे भी सदा बनी रहेगी। परिस्थितियां और भावनाएं मनुष्य में इतना परिवर्तन कर सकती हैं कि वह बिलकुल ही बदला हुआ प्रतीत हो। पाप एक प्रकार की मानसिक परिस्थिति एवं आदत है। उसे मनोबल के द्वारा छोड़ देना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। इस परिवर्तन में, पाप-त्याग में जिस मनोबल की आवश्यकता है वह गायत्री-उपासना द्वारा आशाजनक मात्रा में प्राप्त होता है और आन्तरिक कायाकल्प के साधन सहज ही जुट जाते हैं। पापों से छुटकारा पाना उतना ही सरल है जितना बढ़ी हुई दाढ़ी को मुड़ा डालना। किसी कुमार्गगामी का यह सोचना उचित नहीं कि हम अब तक कुमार्गगामी बने रहे हैं। बुरे विचारों को, बुरे कार्यों को अपनाये रहे हैं तो आगे हमारा सुधार किस प्रकार सम्भव है? ऐसी निराशा उचित नहीं, हर गिरने वाला उठ सकता है, हर पापी पवित्र बन सकता है। इतिहास बताता है कि एक चाण्डाल कुलोत्पन्न भयंकर तस्कर बदल कर महर्षि बाल्मीकि हो गया। जीवन भर वैश्यावृत्ति करने वाली गणिका आन्तरिक परिवर्तन के कारण परम साध्वी देवियों को प्राप्त होने वाली परमगति की अधिकारिणी हुई, कसाई का पेशा करते हुए जिन्दगी गुजार देने वाला अजामिल और सदन, परम भागवत कहलाये। इस प्रकार अनेकों नीच काम करने वाले उच्चता को प्राप्त हुए हैं और हीन कुलोत्पन्नों को उच्च वर्ण की प्रतिष्ठा मिली है। रैदास चमार, कबीर जुलाहे, रामानुजन शूद्र, षट्कोपाचार्य खटीक, तिरुवल्लुवर अन्त्यजवर्ण में उत्पन्न हुए थे, पर उनकी स्थिति अनेकों ब्राह्मणों से ऊंची थी। विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण बने थे। जहां पतित स्थान से ऊपर चढ़ने के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है, वहां उच्च स्थिति के लोगों के पतित होने के भी उदाहरण कम नहीं हैं। पुलिस्त के उत्तम ब्रह्मकुल में उत्पन्न हुआ चारों वेदों का महापण्डित रावण, मनुष्यता से भी पतित होकर राक्षस कहलाया, खोटा अन्न खाने से द्रोण और भीष्म जैसे ज्ञानी पुरुष, अन्यायी कौरवों के समर्थक हो गए। विश्वामित्र ने क्रोध में आकर वशिष्ठजी के निर्दोष बालकों की हत्या कर डाली, व्यास ने धीरव की कुमारी कन्या से व्यभिचार करके सन्तान उत्पन्न की, विश्वामित्र ने वैश्या पर आसक्त होकर उसे लम्बे समय तक अपने पास रखा, चन्द्रमा जैसा देवता गुरु-माता के साथ कुमार्गगामी बना, देवताओं के राजा इन्द्र को व्यभिचार के कारण शाप का भाजन होना पड़ा, ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए, ब्रह्मचारी नारद मोहग्रस्त होकर विवाह करने को स्वयम्वर में पहुंचे, सड़ी-गली काया वाले वयोवृद्ध च्यवन ऋषि को सुकुमार सुकन्या से विवाह करने की सूझी, बलि राजा के दान में भांजी मारते हुए शुक्राचार्य ने अपनी आंख गंवा दीं। धर्मराज युधिष्ठिर तक ने अश्वत्थामा के मरने की पुष्टि करके अपने मुख पर कालिख पोती और धीरे से ‘नरोवा कुञ्जरोवा’ गुन-गुनाकर अपने को छद्म से बचाने की प्रवंचना की। कहां तक कहें, किस-किस की कहें, इस दृष्टि से इतिहास देखते हैं तो बड़ों-बड़ों को स्थान-च्युत हुआ पाते हैं। इससे प्रकट होता है कि आंतरिक स्थिति में हेर-फेर हो जाने से भले मनुष्य बुरे और बुरे मनुष्य भले बन सकते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि मनुष्य मजबूरी, अज्ञान, कुसंग, कौतूहल या परिस्थितिवश बुराई कर बैठता है। उस समय वह उस पाप की कोई बहुत बड़ी भयंकरता नहीं समझता। पीछे उसका मानसिक विकास होने पर वही बुराई बहुत बढ़ी चढ़ी मालूम पड़ती है। ऐसे पाप चूंकि उस समय की घटिया मानसिक स्थिति के कारण किये गये थे, इससे उनके मूल्य का दण्ड भी उतना ही छोटा होता है। बिल्ली रोज ही चूहे पकड़ती है। चिड़िया रोज ही कीड़े मकोड़े खाती हैं, उनकी मानसिक स्थिति के अनुसार यह कार्य साधारण एवं स्वाभाविक हैं, पर मनुष्य की अन्तरात्मा के अनुसार जीव हिंसा के समय करुणा उत्पन्न होती है इसलिए वह उसके लिए पाप है। मनुष्यों की मानसिक परिस्थितियों में भी कारणवश बिल्ली और मनुष्य जितना न्यूनाधिक अन्तर हो सकता है। ऐसी दशा में उस दुर्बल मनोवृत्ति के व्यक्ति द्वारा अज्ञानावस्था में किए हुए पाप ईश्वर की दृष्टि में उतने गम्भीर नहीं माने जाते जितने कि प्रचलित आचार संहिता के अनुसार भयंकर माने जाते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि मनुष्य सदुद्देश्य से कुछ ऐसे काम कर डालता है जो प्रचलित आचार संहिता के कारण भारी पाप मालूम पड़ते हैं। पर न्याय की तुला पर वे उतने गर्हित नहीं मालूम पड़ते, वरन् अनेक बार क्षम्य ही नहीं वे बुरे कार्य प्रशंसनीय भी बन जाते हैं। कोई व्यक्ति दूसरों का धन अपहरण करने के लिए किसी की हत्या करता है यह हत्या घोर पाप हुई। कोई न्यायाधीश या जल्लाद समाज के शत्रु अपराधी को न्याय की रक्षा करने के लिए प्राण दण्ड देता है, वह उसके लिये कर्तव्य-पालन है। कोई व्यक्ति आततायी डाकुओं के आक्रमण से किसी असहाय का प्राण बचाने के लिए अपने को जोखिम में डालकर उन अत्याचारियों का वध कर देता है तो वह पुण्य है। हत्या तीनों ने की पर तीनों ही हत्याएं अलग-अलग परिणाम वाली हैं। तीनों हत्यारे—डाकू, न्यायधीश एवं आततायी से लड़कर उसका वध करने वाले—समान रूप से पापी नहीं गिने जा सकते। चोरी एक बुरा कर्म है। परन्तु परिस्थितियोंवश वह भी सदा बुरा कर्म नहीं रहता। स्वयं सम्पन्न होते हुये भी जो अन्याय पूर्वक दूसरों का धन हरण करता है वह पक्का चोर है। दूसरा उदाहरण लीजिए—भूख से प्राण जाने की मजबूरी में किसी सुसम्पन्न आदमी का कुछ चुराकर आत्म-रक्षा करना कोई बहुत बड़ा पाप नहीं है। तीसरी स्थिति में—किसी दुष्ट की साधन सामग्री चुराकर उसे शक्तिहीन बना देना और उस चुराई हुई सामग्री को सन्मार्ग में लगा देना पुण्य का काम है। तीनों चोर समान श्रेणी के पापी नहीं ठहराये जा सकते। परिस्थिति, मजबूरी, धर्मरक्षा तथा बौद्धिक स्वल्प विकास के कारणों वश कई बार ऐसे कार्य होते हैं जो स्थूल दृष्टि से देखने में निन्दनीय मालूम पड़ते हैं पर वस्तुतः उनके पीछे पाप-भावना छिपी नहीं होती। ऐसे कार्य पाप नहीं कहे जा सकते। बालक का फोड़ा चिरवाने के लिये माता का उसे अस्पताल ले जाना पड़ता है और बालक को कष्ट में डालना पड़ता है। रोगी की प्राण-रक्षा के लिये डॉक्टर को कसाई के समान चीर-फाड़ करने का कार्य करना पड़ता है। रोगी की कुपथ्य कारक इच्छाओं को टालने के लिये उपचारक को झूंठे बहाने बनाकर किसी प्रकार समझाना पड़ता है। बालकों की जिद का भी प्रायः ऐसा ही समाधान किया जाता है। हिंसक जन्तुओं, शस्त्रधारी दस्युओं पर सामने से नहीं बल्कि पीछे से छिपकर आक्रमण करना पड़ता है। प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि अनेक महापुरुषों को भी धर्म की स्थूल मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़ता है। लोक-हित, धर्म-बुद्धि और अधर्मनाश की सद्भावना के कारण उन्हें वैसा पापी नहीं बनना पड़ा जैसे कि वही काम करने वाले आदमी को साधारणतः बनना पड़ता है। भगवान विष्णु ने भस्मासुर से शंकरजी के प्राण बचाने के लिए मोहनी रूप बनाकर उसे छला और नष्ट किया। समुद्र-मन्थन के समय अमृत-घट के बटवारे पर जब देवताओं और असुरों में झगड़ा हो रहा था तब भी विष्णु ने मायामोहिनी रूप बनाकर असुरों को धोखे में रखा और अमृत देवताओं को पिला दिया। सती वृन्दा का सतीत्व डिगाने के लिए भगवान ने जालन्धर का रूप बनाया था। राजा बलि को छलने के लिए वामन का रूप धारण किया था। पेड़ की आड़ में छिपकर राम ने अनुचित रूप से बाली को मारा था। महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वत्थामा की मृत्यु का छलपूर्ण समर्थन किया। अर्जुन ने शिखण्डी की ओट में खड़े होकर भीष्म को मारा, कर्ण का रथ कीचड़ में गढ़ जाने पर भी उसका वध किया। घोर दुर्भिक्ष में क्षुधा-पीड़ित होने पर विश्वामित्र ऋषि ने चाण्डाल के घर से कुत्ते का मांस लाकर खाया। प्रहलाद का पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना, विभीषण का भाई को त्यागना, भरत का माता की भर्त्सना करना, बलि का गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा न मानना, गोपियों का परपुरुष श्री कृष्णजी से प्रेम करना, मीरा का अपने पति को त्याग देना, परशुरामजी का अपनी माता का शिर काट देना आदि कार्य साधारणतः अधर्म प्रतीत होते हैं, पर इनके कर्त्ताओं ने सदुद्देश्य से प्रेरित होकर किया था इसलिए धर्म की सूक्ष्म दृष्टि से यह कार्य पातक नहीं गिने गये। शिवाजी ने अफलजखां का वध कूटनीतिक चातुर्य से किया था। भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सरकार के साथ जिस नीति को अपनाया था उसमें चोरी, डकैती, जासूसी, हत्या, कत्ल, झूंठ बोलना, छल, विश्वासघात आदि ऐसे सभी कार्यों का समावेश हुआ था, जो मोटे तौर से अधर्म कहे जाते हैं। परन्तु उनकी आत्मा पवित्र थी, असंख्य दीन-दुखी प्रजा की करुणाजनक स्थिति से द्रवित होकर अन्यायी शासकों को उलटने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया था। कानून उन्हें भले ही अपराधी बतावे पर वस्तुतः वे पापी कदापि नहीं कहे जा सकते। अधर्म का नाश और धर्म की रक्षा के लिए भगवान को युग-युग में अवतार लेकर अगणित हत्यायें करनी पड़ती हैं और रक्त की धार बहानी पड़ती है। इसमें पाप नहीं होता। सदुद्देश्य के लिए किया हुआ अनुचित कार्य भी उचित के समान ही उत्तम माना गया है। इस प्रकार मजबूत किये गये, सताये गये, विभुक्षित, संत्रस्त, दुखी, उत्तेजित, आपत्तिग्रस्त अथवा अज्ञानी, बालक, रोगी, पागल कोई अनुचित कार्य कर बैठते हैं, तो वह क्षम्तव्य माने जाते हैं, कारण यह है कि उस मनोभूमि का मनुष्य, धर्म और कर्तव्य के दृष्टिकोण से किसी बात पर ठीक विचार करने में समर्थ नहीं होता। पापियों की सूची में जितने लोग हैं उनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं जिन्हें उपरोक्त किन्हीं कारणों से अनुचित कार्य करने पड़े, पीछे वे उनके स्वभाव में आ गये। परिस्थितियों ने, मजबूरियों ने, आदतों ने उन्हें लाचार कर दिया और वे बुराई की ढालू सड़क पर फिसलते चले गये। यदि दूसरे प्रकार की परिस्थितियां, सुविधाएं उन्हें मिलतीं, ऊंचा उठाने वाले और सन्तोष देने वाले साधन मिल जाते तो निश्चय ही वे अच्छे बने होते। कानून और लोकमत चाहे किसी को कितना ही दोषी ठहरा सकता है, स्थूल दृष्टि से कोई आदमी अत्यन्त बुरा हो सकता है पर वास्तविक पापियों की संख्या इस संसार में बहुत कम है। जो परिस्थितियों के वश बुरे बन गये हैं, उन्हें भी सुधारा जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक का आत्मा ईश्वर का अंश होने के कारण तत्वतः पवित्र है। बुराई उसके ऊपर छाया मैला है। मैले को साफ करना न तो असम्भव है न कष्टसाध्य। वरन् यह कार्य आसानी से हो सकता है। कई व्यक्ति सोचते हैं कि हमने अब तक इतने पाप किये हैं, इतनी बुराइयां की हैं हमारे प्रकट और अप्रकट पापों की सूची बहुत बड़ी है। हम सुधर नहीं सकते। हमें न जाने कब तक नरक में सड़ना पड़ेगा। हमारा उद्धार और कल्याण अब कैसे हो सकता है। ऐसा सोचने वालों को जानना चाहिए कि सन्मार्ग पर चलने का प्रण करते ही उनकी पुरानी मैली-कुचैली पोशाक उतर जाती है और उसमें भरे हुए जूएं भी उसी में रह जाते हैं। पाप-वासनाओं का परित्याग करने और उनका सच्चा हृदय से प्रायश्चित करने से पिछले पापों के बुरे फलों से छुटकारा मिल सकता है। केवल वे परिपक्व प्रारब्ध कर्म जो इस जन्म के लिये भाग्य प्रारब्ध बन चुके हैं उन्हें तो किसी समय भोगना ही पड़ता है। वे इसके अतिरिक्त अनेकों पापों का साधन हो सकते हैं। बुराइयों के आगे न करने एवं पिछले समय में किये हुए पापों का प्रायश्चित करने से ईश्वरीय दण्ड व्यवस्था हलकी हो सकती है, क्षमादान भी मिल सकता है। गायत्री उपासना से उत्पन्न आत्मबल निश्चय ही साधक की अनेक बुराइयों, बुरी आदतों, पाप वृत्तियों को छुड़ाने में सहायक होता है। कई लोग पूछते हैं हम में अमुक बुराई हैं, भोजन में भक्ष-अभक्ष का अब तक हमने ध्यान नहीं रखा है, अमुक-अमुक दुष्कर्म किये हैं? क्या हम भी गायत्री-उपासना के अधिकारी हो सकते हैं? ऐसे लोगों को भली प्रकार समझना चाहिए कि गायत्री एक प्रकार का साबुन है जो हर मैले कपड़े को साफ कर सकता है, हर मैले कपड़े को साबुन का उपयोग करने का अधिकार है। साबुन का निर्माण ही मैल काटने के लिए हुआ है, फिर यह सोचना व्यर्थ है कि उसका उपयोग करने का अधिकारी मैला कपड़ा है या नहीं? मनोभूमि पर छाये हुए कुसंस्कारों, मतभेदों को साफ करने के लिए गायत्री का उपयोग एक आध्यात्मिक साबुन की तरह है। उसका उपयोग करने से किसी मैले कपड़े को, पापी मनुष्य को, संकोच करने की आवश्यकता नहीं है। आन्तरिक स्थिति में परिवर्तन होने से पाप-वृत्तियों से छुटकारा पूर्ण सुनिश्चित एवं सरल है। आज जो पापी है कल ही यदि वह सन्त बन जाय तो इसमें कुछ भी असंभव या आश्चर्य की बात नहीं है। इसी सीधी सी बात को शास्त्र–कारों ने गायत्री द्वारा पाप-नाश का महात्म्य बताते हुए बहुत जोर देकर कहा है। इस पर अविश्वास या सन्देह करने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। यह दूसरा प्रश्न है कि जो पाप अब तक किये जा चुके हैं उनके कर्म फल से, दण्ड या नरक से छुटकारा मिलेगा या नहीं? इस सम्बन्ध में यह आशंका होती है कि यदि यह माना जाय कि अमुक उपाय से पिछले कर्मों के दण्ड से छुटकारा मिल जाता है तो कुमार्गगामी लोग पाप कर्म करते रहेंगे और उस शोधन उपाय-उपासना आदि को करके यह सोच लिया करेंगे कि हमारे पिछले पाप तो नष्ट हो ही गये। अब आगे भी उन पाप कर्मों को जारी रखें और उस पाप-नाशक उपासना को कर लिया करें, जिससे पाप के द्वारा होने वाले लाभ भी मिलते रहें और उपासना द्वारा उनके दण्ड से छुटकारा प्राप्त करने का लाभ भी मिलता रहे। यह आशंका हर विचारशील को निर्मूल कर लेनी चाहिये। यदि पाप कर्म आगे भी जारी रहें तो वह व्यक्ति पापी ही रहा। उसके पाप-मुक्त होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं हुआ। जब मनुष्य पापों से घृणा करने लगे और उन घृणित विचारों से, घृणित कार्यों से उसी प्रकार बचे जैसे स्वच्छता की दृष्टि से मल-मूत्र की गंदगी से बचा जाता है। ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर उस व्यक्ति की मनोदशा यह नहीं रह सकती कि पाप कर्मों को अपनाये रहे और यह आशा कर कि केवल थोड़े से भजन की रिश्वत पाकर परमात्मा उसके निरन्तर किये जाने वाले दुष्कर्मों को क्षमा कर देगा। परन्तु जिनने पाप कर्म छोड़ दिये हैं, पाप-वृत्तियों का परित्याग ही नहीं, पिछली भूलों का प्रायश्चित भी किया है उनकी पिछली भूलों पर परमात्मा की कचहरी में उदार दृष्टि से विचार किया जाता है। अपराधों की निवृत्ति के लिए सर्वत्र ‘दण्ड विधान’ काम लाया जाता है। बच्चों ने गड़बड़ी की कि माता की डांट चपत पड़ी। शिष्य ने प्रमाद किया कि गुरु ने छड़ी संभाली। सामाजिक नियमों को भंग किया कि, पंचायत ने दण्ड दिया। कानून का उल्लंघन हुआ कि जुर्माना, जेल, काला पानी या फांसी तैयार है। ईश्वर दैविक, दैहिक, भौतिक दुख देकर पापों का दण्ड देता है। यह दण्ड विधान प्रतिशोध या प्रतिहिंसा पात्र नहीं है। ‘खून का बदला खून’ की जंगली प्रथा के कारण नहीं, दण्ड विधान का निर्माण उच्च आध्यात्मिक विज्ञान के आधार पर किया गया है। कारण यह है कि दण्ड स्वरूप जो कष्ट दिए जाते हैं, उनसे मनुष्य के भीतर एक खलबली मचती है, प्रतिक्रिया होती है, तेजी आती है, जिससे उसका गुप्त मानस चौंक पड़ता है और भूल को छोड़कर उचित मार्ग पर आ जाता है। ‘तप’ में ऐसी ही शक्ति है। तप की गर्मी से अनात्म तत्वों का संहार होता है। दूसरों द्वारा दण्ड के रूप में बलात् तप कराके हमारी शुद्धि की जाती है। इस प्रणाली को हम स्वयं ही अपनालें, अपने गुप्त-प्रकट पापों का दण्ड स्वयं ही अपने को देकर स्वेच्छापूर्वक तप करें तो वह दूसरों द्वारा बलात् कराये हुए तप की अपेक्षा असंख्य गुना उत्तम है। उसमें न अपमान होता है न प्रतिहिंसा एवं न आत्म-ग्लानि से चित्त क्षुभित होता है, वरन् स्वेच्छा तप से एक आध्यात्मिक आनन्द आता है, शौर्य और साहस प्रकट होता है तथा दूसरों की दृष्टि में अपनी श्रेष्ठता, प्रतिष्ठा बढ़ती है। पापों की निवृत्ति के लिए आत्म-तेज की अग्नि चाहिए, इस अग्नि की उत्पत्ति से दुहरा लाभ होता है, एक तो हानिकारक तत्वों का, कषाय-कल्मषों का नाश होता है, दूसरे उसी ऊष्मा और प्रकाश से दैवी तत्वों का विकास, पोषण एवं अभिवर्धन होता है, जिसके कारण साधक तपस्वी, मनस्वी एवं तेजस्वी बन जाता है। हमारे धर्म-शास्त्रों में पग-पग पर व्रत, उपवास, दान, स्नान, आचार-विचार आदि के विधि-विधान इसी दृष्टि से किए गये हैं कि उन्हें अपनाकर मनुष्य इन दुहरे लाभों को उठा सके। अपने से कोई भूल, पाप या बुराइयां बन पड़ी हों उनके अशुभ फलों के निवारण के लिए सच्चा प्रायश्चित तो यही है कि उन्हें फिर न करने का दृढ़ निश्चय किया जाय, पर यदि इस निश्चय के साथ-साथ थोड़ी तपश्चर्या भी की जाय तो उस प्रतिज्ञा को बल मिलता है और उसके पालन में दृढ़ता आती है। साथ ही यह तपश्चर्या सात्विकता की तीव्र गति से वृद्धि करती है, चैतन्यता उत्पन्न करती है और ऐसे उत्तमोत्तम गुण, कर्म, स्वभावों को उत्पन्न करती है जिससे पवित्रतामय, साधनामय, मंगलमय जीवन बिताना सुगम हो जाता है। गायत्री-शक्ति के आधार पर की गई तपश्चर्या बड़े से बड़े पापों को भी निष्पाप बनाने, उसके पाप-पुंजों को नष्ट करने तथा भविष्य के लिए उसे निष्पाप रहने योग्य बना सकती है। पापों से छुटकारा प्राप्त करना सम्भव है या नहीं? इस प्रश्न पर विचार करते हुए हमें यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिये कि आत्मा सर्वथा स्वच्छ, निर्मल, पवित्र, शुद्ध बुद्ध और निर्लिप्त है। श्वेत कांच या पारदर्शी पात्र अपने आप में स्वच्छ होता है, उसमें कोई रंग नहीं होता, पर उस पात्र में किसी रंग का पानी भर दिया जाय तो उसी रंग का दीखने लगेगा। साधारणतः उसे उसी रंग का पात्र कहा जायगा, इतने पर भी पात्र का मूल सर्वथा रंग रहित ही रहता है। एक रंग का पानी उस कांच के पात्र में भरा हुआ है, उसे फैलाकर यदि दूसरे रंग का पानी भर दिया जाय तो फिर इस परिवर्तन के साथ ही पात्र दूसरे रंग का दिखाई देने लगेगा। मनुष्य की यही स्थिति है। आत्मा स्वभावतः निर्विकार है, पर उसमें जिस प्रकार के गुण, कर्म, स्वभाव भर जाते हैं वह उसी प्रकार की दिखाई देने लगती है। गीता में कहा गया है कि—‘विद्या विनय सम्पन्न, ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल आदि को जो समत्व बुद्धि से देखता है, वह पण्डित है।’’ इस समत्व का रहस्य यह है कि आत्मा सर्वथा निर्विकार है, उसकी मूल स्थिति में परिवर्तन नहीं होता, केवल मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय, रंगीन—विकारग्रस्त हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य अस्वाभाविक, विपन्न, विकृत दशा में पड़ा हुआ प्रतीत होता है। इस स्थिति में यदि परिवर्तन हो जाय तो आज के ‘दुष्ट’ का कल ही ‘सन्त’ बन जाना कुछ भी कठिन नहीं है। कोई मनुष्य अपने पिछले जीवन का अधिकांश भाग कुमार्ग में व्यतीत कर चुका है या बहुत सा समय निरर्थक बिता चुका है तो इसके लिए केवल दुख मानने, पछताने या निराश होने से कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा। जीवन का जो भाग शेष रहा है, वह भी कम से कम महत्वपूर्ण नहीं है। राजा परीक्षित को मृत्यु से पूर्व एक सप्ताह आत्म-कल्याण को मिला था, उसने इस छोटे से समय का सदुपयोग किया और अभीष्ट लाभ प्राप्त कर लिया। सूरदास को अपनी जन्म भर की व्यभिचारी आदतों से छुटकारा मिलते न देखकर अन्त में आंखें फोड़ लेनी पड़ी थीं। तुलसीदास का कामातुर होकर रातों रात ससुराल पहुंचना और परनाले में लटका हुआ सांप पकड़ कर स्त्री के पास जा पहुंचना प्रसिद्ध है। इस प्रकार के असंख्यों व्यक्ति अपने जीवन का अधिकांश मार्ग बुरे कार्यों में व्यतीत करने के उपरान्त सत्पथगामी हुये और थोड़े से ही समय में योगी और महात्माओं को प्राप्त होने वाली सद्गति के अधिकारी हुये हैं। यह एक रहस्य तथ्य है कि मन्द बुद्धि, मूर्ख, डरपोक, कमजोर तबियत के ‘सीधे’ कहलाने वालों की अपेक्षा वे लोग अधिक जल्दी आत्मोन्नति कर सकते हैं, जो अब तक सक्रिय, जागरूक, चैतन्य, पराक्रमी, पुरुषार्थी एवं बदमाश रहे हैं। कारण यह है कि मन्द चेतना वालों में शक्ति का स्रोत बहुत ही न्यून होता है, वे पूरे सदाचारी और भक्त रहें तो भी मन्द शक्ति के कारण उनकी प्रगति अत्यन्त मन्दगति से होती है। पर जो लोग शक्तिशाली हैं, जिनके अन्दर चैतन्यता और पराक्रम का निर्झर तूफानी गति से प्रवाहित होता है वे जब भी, जिस दिशा में भी, लगेंगे उधर ही सफलता का ढेर लगा देंगे। अब तक जिन्होंने बदमाशी में अपना झंडा बुलन्द रखा है, वे निश्चय ही शक्ति-सम्पन्न तो हैं पर उनकी शक्ति कुमार्गगामी रही है यदि वह शक्ति सत्पथ पर लग जाय तो उस दिशा में भी आश्चर्यजनक सफलता उपस्थित कर सकते हैं। गधा दस वर्ष में जितना बोझ ढोता है, हाथी उतना एक दिन में ढो सकता है। आत्मोन्नति भी एक पुरुषार्थ है। इस मंजिल पर भी वे ही लोग शीघ्र पहुंच सकते हैं जो पुरुषार्थी हैं, जिनके स्नायुओं में बल और मन में अदम्य साहस तथा उत्साह है। जो अब तक पथ-भ्रष्ट रहे हैं, कुमार्ग पर चलते रहे हैं, अनेक बुराइयां कर चुके हैं, उनके लिए भी गायत्री माता का स्नेहमय अंचल खुला हुआ है। वे अब तक की भूलों पर पश्चाताप करें, आगे उन्हें न करने का व्रत लें, सन्मार्ग पर चलने को तत्पर हों तो वे पुनः अपने स्वाभाविक आध्यात्मिक गुण पवित्रता को उपलब्ध करके महान बन सकते हैं। गायत्री-उपासना से इस मार्ग पर प्रगति निश्चित रूप से होती है। सारी बुराइयां एक साथ पूर्ण रूप से भले ही न छूटें पर उपासना शक्ति के अनुसार बुराइयों में कमी अवश्य होती चलती है। सतोगुण की, सद् विचार और सत् कर्मों की अभिवृद्धि होना गायत्री उपासना का सुनिश्चित परिणाम है।
2 Last


Other Version of this book



पापनाशिनी गायत्री
Type: TEXT
Language: HINDI
...

પાપનાશક ગાયત્રી
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...


Releted Books


Articles of Books

  • पाप-नाशिनी गायत्री
  • पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएं
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj