
पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएं
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अग्नि की उष्णता से संसार के सभी पदार्थ जल, बदल या गल जाते हैं। कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसमें अग्नि का संसर्ग होने पर भी परिवर्तन न होता हो। तपस्या की अग्नि भी ऐसी ही है वह पापों के समूह को निश्चित रूप से गलाकर नरम कर देती है, बदल कर मनोभावन बना देती है अथवा जलाकर भस्म कर देती है। जो प्रारब्ध कर्म समय के परिपाक से प्रारब्ध और भवितव्यता बन चुके हैं, जिनका भोगा जाना अमिट रेखा की भांति सुनिश्चित हो चुका है, वे कष्टसाध्य भोग, तपस्या की अग्नि के कारण गलकर नरम हो जाते हैं। उन्हें भोगना आसान हो जाता है। जो पाप परिणाम दो महीने तक भयंकर उदरशूल होकर प्रकट होने वाला था, वह साधारण कब्ज बनकर दो महीने तक मामूली गड़बड़ी करके आसानी से चला जाता है। जिस पाप के कारण हाथ या पैर कट जाते, भारी रक्तस्राव होने की सम्भावना थी, वह मामूली ठोकर लगने से या चाकू आदि चुभने से दस-बीस बूंद खून बहकर निवृत्त हो जाता है। जन्म-जन्मांतरों के संचित वे पाप जो कई-कई जन्मों तक भारी कष्ट देते रहने वाले थे, वे थोड़ी-थोड़ी चिह्न-पूजा के रूप में प्रकट होकर इसी जन्म में निवृत्त हो जाते हैं और मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग, मुक्ति का अत्यन्त वैभवशाली जन्म मिलने का मार्ग साफ हो जाता है। देखा गया है कि तपस्वियों को इस जन्म में प्रायः कुछ असुविधाएं रहती हैं। इसका कारण यह है कि जन्म जन्मान्तरों के समस्त पाप-समूह का भुगतान इसी जन्म में होकर आगे का मार्ग साफ हो जाय इसलिए ईश्वरीय वरदान की तरह हलके-फूलके कष्ट तपस्वियों को मिलते रहते हैं। यह पापों का गलना हुआ। बदलना इस प्रकार होता है कि पाप का फल जो सहना पड़ता है उसका स्वाद बड़ा स्वादिष्ट हो जाता है। धर्म के लिए, कर्तव्य के लिए, यश, कीर्ति और परोपकार के लिए जो कष्ट सहने पड़ते हैं, वे ऐसे ही हैं जैसे प्रसव पीड़ा। प्रसूता को प्रसवकाल में पीड़ा तो होती है, पर उसके साथ-साथ एक उल्लास भी रहता है। चन्द्र से मुख का सुन्दर बालक देखकर तो वह पीड़ा बिलकुल भुला दी जाती है। राजा हरिश्चन्द्र, दधीचि, प्रहलाद, मोरध्वज आदि को जो कष्ट सहने पड़े, वे उनके लिए उस काल में भी उल्लासमय थे और अन्ततः अमर कीर्ति और सद्गति की दृष्टि से तो वे कष्ट उनके लिए सब प्रकार मंगलमय ही रहे। दान देने में जहां ऋण मुक्ति होती है वहां यश तथा शुभ गति की भी प्राप्ति होती है। तप द्वारा इस प्रकार ‘‘उधार पट जाना और मेहमान जीम जाना’’ दो कार्य एक साथ हो जाते हैं। पाप का जल जाना इस प्रकार का होता है कि जो पाप अभी प्रारब्ध नहीं बने हैं, भूल अज्ञान या मजबूरी में हुए हैं, वे छोटे-मोटे अशुभ कर्म तप की अग्नि में जल-बलकर अपने आप भस्म हो जाते हैं। सूखे हुए घास-पात के ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिनगारी जला डालती है, वैसे ही इस श्रेणी के पाप-कर्म तपश्चर्या, प्रायश्चित करने और भविष्य में वैसा न करने के दृढ़ निश्चय से अपने आप नष्ट हो जाते हैं। प्रकाश के सम्मुख जिस प्रकार अन्धकार विलीन हो जाता है, वैसे ही तपस्वी अन्तःकरण की प्रखर किरणों से पिछले कुसंस्कार नष्ट हो जाते हैं और साथ ही उन कुसंस्कारों की छाया, दुर्गन्धि, कष्टकर परिणामों की घटा का भी अन्त हो जाता है। तपश्चर्या से पूर्वकृत पापों का गलना, बदलना एवं जलना होता हो सो बात ही नहीं है, वरन् तपस्वी में एक नई परम सात्विक अग्नि पैदा होती है। इस अग्नि को दैवी विद्युत शक्ति, आत्म–तेज, ब्रह्म-तेज, तपोबल आदि नामों से भी पुकारते हैं। इस बल से अन्तःकरण में छिपी हुई सुप्त शक्तियां जागृत होती हैं, दिव्य सतोगुण का विकास होता है। स्फूर्ति, उत्साह, साहस, धैर्य, दूरदर्शिता, संयम, सन्मार्ग में प्रवृत्ति आदि अनेकों गुणों की विशेषता प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगती है। कुसंस्कार, कुविचार, कुटेव, कुकर्म से छुटकारा पाने के लिए तपश्चर्या एक रामबाण अस्त्र है। प्राचीन काल में अनेकों, देव-दानवों ने तपस्याएं कर-करके मनोरथ पूरा करने वाले वरदान पाये हैं। घिसने की रगड़ से गर्मी पैदा होती है। अपने को तपस्या के पत्थर पर घिसने से आत्म-शक्ति का उद्भव होता है। समुद्र को मथने से चौदह रत्न मिले। दूध के मथने से घी निकलता है। काम-मन्थन से प्राणधारी बालक की उत्पत्ति होती है। भूमि-मन्थन से अन्न उपजता है। तपस्या द्वारा आत्म-मन्थन से उच्च आध्यात्मिक तत्वों की वृद्धि का लाभ प्राप्त होता है। पत्थर पर घिसने से चाकू तेज होता है, अग्नि में तपाने से सोना निर्मल बनता है। तप से तपा हुआ मनुष्य भी पाप-मुक्त, तेजस्वी और विवेकवान बन जाता है। अनेक तपस्याओं में गायत्री तपस्या का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। नीचे कुछ पाप-नाशिनी और ब्रह्मतेज-वर्द्धिनी तपश्चर्याएं बताई जाती हैं:— (1) अस्वाद तप— तप उन कष्टों को कहते हैं, जो अभ्यस्त वस्तुओं के अभाव में सहने पड़ते हैं। भोजन में नमक और मीठा यह दो स्वाद की प्रधान वस्तुएं हैं। इनमें से एक भी वस्तु न डाली जाय, वह भोजन स्वाद रहित होता है। प्रातः लोगों को स्वादिष्ट भोजन करने का अभ्यास होता है। इन दोनों स्वाद तत्वों को या इनमें से एक छोड़ देने से जो भोजन बनता है, उसे सात्विक प्रकृति वाला ही कर सकता है। राजसिक प्रकृति वाले का मन उनसे नहीं भरेगा। जैसे-जैसे स्वाद रहित भोजन में सन्तोष पैदा होता है, वैसे ही वैसे सात्विकता बढ़ती जाती है। सबसे प्रारम्भ में एक सप्ताह, एक मास या एक ऋतु के लिये इसका प्रयोग करना चाहिए। प्रारम्भ में बहुत लम्बे समय के लिए नहीं करना चाहिए। यह अस्वाद तप हुआ। (2) तितीक्षा तप— सर्दी या गर्मी के कारण शरीर को जो कष्ट होता है उसे थोड़ा-थोड़ा सहन करना चाहिए। जाड़े की ऋतु में धोती और दुपट्टा या कुर्ता दो वस्त्रों में गुजारा करना, रात को रुई का कपड़ा न ओढ़कर कम्बल से काम चलाना, गरम पानी का प्रयोग न करके ताजे जल से स्नान करना, अग्नि पर न तापना, यह शीत सहन के तप हैं। पंखा, छाता और बरफ का त्याग गर्मी की तपश्चर्या है। (3) कर्षण तप— प्रातःकाल एक-दो घण्टे रात रहे उठकर नित्यकर्म में लग जाना, अपने हाथ से बनाया भोजन करना, अपने लिए स्वयं जल भरकर लाना, अपने हाथ वस्त्र धोना, अपने बर्तन स्वयं मलना आदि अपनी सेवा के काम दूसरों से कम से कम कराना जूता न पहन कर खड़ाऊं या चट्टी से काम चलाना। पलंग पर शयन न करके तख्त या भूमि पर शयन करना। धातु के बर्तन प्रयोग न करके पत्तल या हाथ पर भोजन करना, पशुओं की सवारी न करना, खादी पहनना, पैदल यात्रा करना आदि कर्षण तप हैं। इनमें प्रतिदिन शारीरिक सुविधाओं का त्याग और असुविधाओं को सहन करना पड़ता है। (4) उपवास तप— गीता में उपवास को विषय-विकारों से निवृत्त करने वाला बताया गया है। एक समय अन्नाहार और एक समय फलाहार आरम्भिक उपवास है। धीरे-धीरे इसकी कठोरता बढ़ानी चाहिए। दो समय फल, दूध, दही आदि का आहार इससे कठिन है। इससे कठिन एक समय अन्न रहित आहार पर रहना है। केवल दूध या छाछ पर रहना हो तो उसे कई बार अधिक मात्रा में बिना प्यास के भी पीना चाहिये। जो लोग उपवास में जल नहीं पीते या कम पीते हैं, वे भारी भूल करते हैं। इससे पेट की अग्नि आंतों में पड़े हुए मल को सुखाकर गांठें बना देती है। इसलिए उपवास में कई बार खूब पानी पीना चाहिये। उसमें नीबू, सोड़ा, शकर मिला लिया जाय तो स्वास्थ्य और आत्म-शुद्धि के लिए और भी अच्छा है। (5) गव्य-कल्प तप— शरीर और मन के अनेक विकारों को दूर करने के लिए गव्य कल्प अभूतपूर्व है। राजा दिलीप जब निस्सन्तान रहे तो उन्होंने कुलगुरु के आश्रम में गौ चराने की तपस्या पत्नी समेत की थी। नन्दनी गौ को वे चराते थे और गौरस का सेवन करके ही रहते थे। गाय का दूध, गाय का दही, गाय की छाछ, गाय का घी सेवन करना, गाय के गोबर के कण्डों से दूध को गरम करना चाहिए। गौ मूत्र की शरीर पर मालिश करके सिर में डालकर स्नान करना, चर्म-रोगों तथा रक्त-विकारों के लिए बड़ा लाभदायक है। गाय के शरीर से निकलने वाला तेज बड़ा सात्विक एवं बल पूर्वक होता है, इसलिए गौ चराने का भी बड़ा सूक्ष्म लाभ है। गौर के दूध, दही, घी, छाछ पर मनुष्य तीन मास निर्वाह करे तो उसके शरीर का एक प्रकार से कल्पना हो जाता है। (6) प्रदातव्य तप— अपने पास जो शक्ति हो उसमें से कम मात्रा में अपने लिए रखकर दूसरों को अधिक मात्रा में देना दान है। धनी आदमी धन का दान करते हैं। जो धनी नहीं हैं, वे अपने समय, बुद्धि, ज्ञान, चातुर्य, सहयोग आदि को उधार या दान देकर दूसरों को लाभ पहुंचा सकते हैं। शरीर का, मन का दान भी धन-दान की ही भांति महत्वपूर्ण है। अनीति उपार्जित धन का सबसे अच्छा प्रायश्चित यही है कि उसका सत्कार्य के लिए दान कर दिया जाय। समय का कुछ न कुछ भाग लोक-सेवा के लिए लगाना आवश्यक तप है। दान देते समय पात्र और कार्य का ध्यान करना आवश्यक है। कुपात्र का दिया हुआ, अनुपयुक्त कार्य के लिए दिया हुआ दान व्यर्थ है। मनुष्येतर प्राणी भी दान के अधिकारी हैं। गौ, चींटी, चिड़िया, कुत्ते आदि उपकारी जीव-जन्तुओं को भी अन्न-जल का दान देने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। स्वयं कष्ट सहकर, अभावग्रस्त रहकर भी दूसरों की उचित सहायता करना, उन्हें उन्नतिशील, सात्विक, सद्गुणी बनाने में सहायता करना, सुविधा देना दान का वास्तविक उद्देश्य है। दान-प्रशंसा में धर्म-शास्त्रों का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। उसके पुण्य के सम्बन्ध में अधिक क्या कहा जाय। वेद ने कहा है—‘‘सौ हाथों से कमा और हजार हाथों से दान कर।’’ (7) निष्कासन तप— अपनी बुराइयों और पापों को गुप्त रखने से मन भारी रहता है, पेट में गन्दा मल भरा रहे उससे नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, वैसे ही अपने पापों को छिपाकर रखा जाय, तो यह गुप्त रुके हुए मल की तरह गन्दगी और सड़न पैदा करके समस्त मानसिक क्षेत्र को दूषित कर देती है, इसलिए कुछ ऐसे मित्र चुनने चाहिए जो काफी गम्भीर और विश्वस्त हों। उनसे अपनी पाप-कथाएं कह देनी चाहिए। अपनी कठिनाइयां, दुख-गाथाएं, इच्छाएं, अनुभूतियां भी इसी प्रकार किन्हीं ऐसे लोगों से कहते रहना चाहिए, जो इतने उदार हों कि उन्हें सुनकर घृणा न करें और कभी विरोध हो जाने पर उन्हें दूसरों पर प्रकट करके हानि न पहुंचायें। यह गुप्त बातों का प्रकटीकरण एक प्रकार का आध्यात्मिक जुलाब है, जिससे मनोभूमि निर्मल होती है। प्रायश्चित्यों में ‘‘दीप-प्रकाशन’’ का महत्वपूर्ण स्थान है। गौ-हत्या हो जाने का प्रायश्चित शास्त्रों ने यह बताया है कि मरी गौ की पूंछ हाथ में लेकर एक-सौ गांवों में वह व्यक्ति उच्च स्वर से चिल्ला चिल्लाकर यह कहे कि मुझसे गौ-हत्या हो गई है। इस दोष-प्रकाशन से गौ-हत्या का दोष छूट जाता है। जिसके साथ बुराई की हो उससे क्षमा मांगनी चाहिए, क्षति-पूर्ति करनी चाहिए और जिस प्रकार वह सन्तुष्ट हो सके वह करना चाहिए। यदि यह भी न हो सके तो कम से कम दोष-प्रकाशन द्वारा अपनी अन्तरात्मा पर एक भारी बोझ तो हलका करना ही चाहिए। (8) साधना तप— गायत्री का चौबीस हजार जप नौ दिन में पूरा करना, सवा लक्ष जप चालीस दिन में पूरा करना, गायत्री यज्ञ, गायत्री की योग साधनाएं, पुरश्चरण, पूजन, स्तोत्र पाठ आदि साधनाओं से पाप घटता है और पुन्य बढ़ता है। कम पढ़े लोग पंचाक्षरी गायत्री—ॐ भूर्भुवः स्वः का जप या ‘गायत्री चालीसा’ का पाठ नित्य करके अपनी गायत्री-भक्ति को बढ़ा सकते हैं और इस महामन्त्र से बढ़ी हुई शक्ति के द्वारा तपोबल के अधिकारी बन सकते हैं। (9) ब्रह्मचर्य तप— वीर्य-रक्षा, मैथुन से बचना, काम विकार पर काबू रखना ब्रह्मचर्य व्रत है। मानसिक काम-सेवन शारीरिक काम सेवन की ही भांति हानिकारक है। मन को काम क्रीड़ा की ओर न जाने देने का सबसे अच्छा उपाय उसे उच्च आध्यात्मिक एवं नैतिक विचारों में लगाये रहना है। बिना उसके ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती। मन को ब्रह्म में—सत् तत्व में लगाये रहने से आत्मोन्नति भी होती है, धर्म साधन भी और वीर्य-रक्षा भी। इस प्रकार एक ही उपाय से तीन लाभ कराने वाला यह तप गायत्री-साधना वालों के लिए सब प्रकार उत्तम है। (10) चन्द्रायण तप— यह व्रत पूर्णमासी से प्रारम्भ किया जाता है। पूर्णमासी को अपनी जितनी पूर्ण खुराक हो, उसका सोलहवां भाग प्रतिदिन कम करते जाना चाहिए। जैसे अपना पूर्ण आहार एक सेर है तो प्रतिदिन एक छटांक आहार कम करते जाना चाहिए। कृष्णपक्ष का चन्द्रमा जैसे 1-1 कला नित्य घटता है, वैसे ही 1-1 षोडसांश नित्य कम करते चलना चाहिए। अमावस्या और पड़वा को चन्द्रमा बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता। उन दो दिनों बिलकुल भी आहार न लेना चाहिए। फिर शुक्ल पक्ष की दौज को चन्द्रमा एक कला निकलता है और धीरे-धीरे बढ़ता है। वैसे ही 1-1 षोडसांश बढ़ाते हुए पूर्णमासी तक पूर्ण आहार पर पहुंच जाना चाहिए। इस एक मास में आहार-विहार का संयम, स्वाध्याय, सत्संग में प्रवृत्ति, सात्विक जीवनचर्या तथा गायत्री-साधना में उत्साह पूर्वक संलग्न रहना चाहिये। अर्ध चन्द्रायण व्रत पन्द्रह दिन का होता है। उसमें भोजन का आठवां भाग आठ दिन कम करना और आठ दिन बढ़ाना होता है। आरम्भ में अर्ध-चन्द्रायण ही करना चाहिये। जब एक बार सफलता मिल जावे तो पूर्ण चन्द्रायण के लिये कदम बढ़ाना चाहिए। (11) मौन तप— मौन से शक्तियों का क्षरण रुकता है, आत्म–बल का संयम होता है, दैवी तत्वों की वृद्धि होती है, चित्त की एकाग्रता बढ़ती है, शान्ति का प्रादुर्भाव होता है, बहिर्मुखी वृत्तियां अन्तर्मुखी होने से आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। प्रतिदिन या सप्ताह में अथवा मास में कोई नियत समय मौन रहने के लिए निश्चित करना चाहिये। कई दिन या लगातार भी ऐसा व्रत रखा जा सकता है। अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार मौन की अवधि निर्धारित करनी चाहिए। मौन काल का अधिकांश भाग एकान्त में, स्वाध्याय अथवा ब्रह्म चिन्तन में व्यतीत करना चाहिए। (12) अर्जन तप— विद्याध्ययन, शिल्प–शिक्षा, देशाटन, मल्लविद्या, संगीत आदि किसी भी प्रकार की उत्पादक, उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके अपनी शक्ति, योग्यता, क्षमता, क्रियाशीलता, उपयोगिता बढ़ाना अर्जन तप है। विद्यार्थी को कष्ट उठाना पड़ता है, जिस प्रकार मन मारना पड़ता है और सुविधाएं छोड़कर कठिनाई से भरा कार्यक्रम अपनाना पड़ता है, वह तप का लक्षण है। बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था का विचार न करके विद्यार्थी की भांति आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु आश्रम में उपस्थित होना और वहां ब्रह्मचारी, तपस्वी विद्यार्थी की तरह कार्य-क्रम बनाकर आचार्य के नियंत्रण में छोटे छात्रों की भांति रहना अर्जन तप है। इससे ज्ञान-प्राप्ति के साथ-साथ अनेक बुराइयों, पाप-वृत्तियों का भी शमन होता है। घर छोड़ कर गुरु आश्रम में तपस्या साधना करना भी इसी तप के अन्तर्गत आता है। अपने अब तक के संचित कुसंस्कारों एवं पाप-वृत्तियों से छुटकारा पाने के लिए सुविधानुसार साधकों को यह प्रायश्चित तप करते रहना चाहिए। जिससे जो बन पड़े जितना बन पड़े उतना उत्तम ही है। सभी तप एक साथ किये जायं यह आवश्यक नहीं। यह तप-साधना पाप-नाश के लिए निश्चित रूप से बड़ी ही महत्वपूर्ण है। ****समाप्त*