
अस्तेय का दर्शन एवं रहस्य
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धर्म धारणा के प्रमुख नियमों में एक निर्धारण "अस्तेय" का भी है। अस्तेय का मोटा अर्थ है "चोरी न करना।" पर देखने में यह आता है कि प्रत्यक्ष चोरी कर सकने का अवसर तो किन्हीं विरलों को कभी- कभी ही मिलता है। फिर ऐसे गौण क्रिया को प्रमुखता किस आधार पर मिली? जेबकटी, उठाईगीरी, सेंध लगाना जैसे कुकृत्य तो कोई अति साहसी, क्रिया- कुशल अभ्यस्त प्रशिक्षित ही कर पाते हैं। वैसी घटनाएँ कम ही होती हैं। असावधान लोग ही उचक्कों की चपेट में आते हैं। जागरूकता और सतर्कता का आश्रय लिए रहने पर उन प्रपंचियों की दाल सहज नहीं गल पाती। ढीठता जो यदि प्रयत्नपूर्वक पकडा़ और प्रताडि़त किया जा सके तो दूसरे देखने वालों को भी नसीहत मिलती है और उन आशकांओं की सम्भावना बहुत घट जाती है। पहरेदारी का प्रबन्ध करके चोरी रोकी भी जा सकती है। मनुष्य जीवन में चोरी के खतरे का भय कम ही रहता है। वह भी ऐसा नहीं है, जिसे प्रयत्नपूर्वक रोका ना जा सकता हो आमतौर से प्रमादी और असावधान लोग ही चोरी जैसी क्षति उठाते हैं। किन्तु धर्म आचरणों में जिस अस्तेय को प्रमुखता दी गई है, वह एक दुष्प्रवृत्ति है, जो मनुष्य के स्वभाव की गहराई में घुसी पायी जाती है। बाहर से चोरी की घटना न होने पर भी इस प्रवृत्ति में संलग्न और उससे आक्रान्त अनेक लोग पाये जाते हैं।
चोरी को प्रधानतया आर्थिक अपराध माना जाता है। यदि उसे इसी सीमा तक रखना हो, तो उसमें कुछ अन्य तथ्य भी जोड़ने पडे़गे। बिना परिश्रम की कमाई को अथवा थोडे़ श्रम के बदले बहुत लाभ उठाने को भी चोरी माना जाना चाहिए। व्यवसाय में आमतौर से इस प्रवृत्ति का गहरा पुट रहता देखा गया है। मुनाफाखोरी के नाम से यह बदनाम तो है तब भी उसे आचरण में लाते उस क्षेत्र में अधिकांश लोग देखे गए हैं।
मुनाफे की एक सीमित मर्यादा होनी चाहिए। लाभांश उतना लिया जाना चाहिए, जिससे उत्पादक और उपभोक्ता की मध्यवर्ती दलाली के रूप में उचित माना जाय। वस्तु को उसके गुण- अवगुण बताए हुए बेचा जाना चाहिए, ताकि क्रयकर्ता के पीछे पछताना न पडे़। दूसरी जगह भाव तलाश करने पर यह न सोचना पडे़। दूसरी जगह भाव तलाश करने पर यह न सोचना पडे़ कि हमें ठगा गया। यदि व्यापार, व्यवसाय में खरा माल, एक दाम की परिपाटी चल पडे़, तो समझा जाना चाहिए कि खुलेआम चल रही चोरी का बडा़ द्वार बन्द हो गया। खाद्य पदार्थों में सोना- चाँदी में मिलावट एक बहु प्रचलन के रूप में सामने है। यदि इसे जनआक्रोश उभार कर रोका जा सके, ऐसे चोरों को तिरस्कृत- बहिष्कृत करने का आन्दोलन उठ खडा़ हो, तो आर्थिक क्षेत्र की चोरी में से व्यवसाय क्षेत्र को निकाला जा सकता है। ऐसा ही प्रचलन सरकारी क्षेत्र में अफसरों द्वारा की जाने वाली रिश्वत की माँग के सम्बन्ध में भी है। वे अनुचित काम कराने वालों से भी उस काली कमाई में साझीदार बनते ही हैं, उचित काम करने वालों के कार्य में भी अड़ंगे लगाकर उन्हें अनुचित हैरानी से बचने की कीमत भी माँगते हैं। यह भ्रष्टाचार देने और लेने वालों के सहयोग से निरन्तर चलता रहता है और साझेदारी के आधार पर किए जाने वाली व्यभिचार की तरह पकड़ में नहीं आता। इस प्रकार मुनाफाखोरी, करचोरी, जमाखोरी की तरह रिश्वतखोरी भी चोरी का एक सभ्य तरीका बन गई है। उस काली कमाई से बचे रहने की वालों की इस जमाने में प्रशंसा ही नहीं, अभ्यर्थना भी की जा सकती है।
हराम की कमाई भी चोरी है। जो प्राप्त किया गया है, उसके बदले आवश्यक परिश्रम करना, समय देना, मन लगाना आवश्यक है। बिना मूल्य बचपन में अभिभावकों का अनुदान प्राप्त किया जाता है। उसे मुफ्त का न माना जाय, अधिकार न समझा जाय, यह ध्यान रखा जाय कि वह राशि उधार मिले हुए कर्ज की भाँति है, जैसे वृद्धावस्था में उनकी सेवा सहायता के रूप में तो चुकाया ही जाना चाहिए। साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि उनके छोडे़ उत्तरदायित्वों को पूरा करने में सहायता करके उस पितृ ऋण से उऋण हुआ जाय। छोटे बहिन- भाइयों, परिवार के अन्य असमर्थ सदस्यों की सहायता करना, पितृ- ऋण चुकाना ही है। बच्चों को अभिभावक अकेले ही नहीं पाल लेते, वरन् परिवार के सभी सदस्यों का किसी न किसी रूप में योगदान रहता है। इसलिए वयस्क और कमाऊ सदस्यों पर परिवार के सभी लोगों का उनकी स्थिति के अनुरूप सहायता पाने का हक बनता है। इसे न चुकाना, कमाऊ होते ही अपना चूल्हा अलग बनाकर पृथक रहने लगना, यह भी एक प्रकार से चोरी है। उससे समूचे परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने का दोष आता है, संयुक्त परिवार में तो विशेष रूप से।
पूर्वजों का छोडा़ हुआ धन भी हराम की कमाई है। जो स्वयं कमा सकते हैं, उसे वह धन लूट के माल की तरह हड़प जाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। छोटे बालकों, अनाश्रित महिलाओं को पूर्वजों का छोडा़ धन उनके स्वावलम्बी बनने तक काम आये, उसका तो औचित्य है, पर जो कमाने लगे, स्वावलम्बन पूर्वक गुजर करने लगे, उनके लिए यही उचित है कि पूर्वजों की छोडी़ हुई राशि को परमार्थ प्रयोजनों में उनकी आत्म- शान्ति के लिए लगा दें। इससे समाज का हित भी होगा। सत्प्रवृत्तियों की पुण्य परम्परा भी बढे़गी। अपंग अनाश्रितों को अवलम्बन भी मिलेगा। उत्तराधिकार में मिले धन का यही सदुपयोग है। कृषि व्यवसाय आदि में लगी पूँजी को उस अर्थतन्त्र के चलाने का माध्यम तो माना जाय, पर उनमें श्रमिकों को भी भागीदार रखा जाय, ताकि स्थापित अर्थतन्त्र का लाभ व्यक्ति विशेष, को न मिलकर उस तन्त्र को चलाने वाले सभी घटकों को मिलता रहे।
श्रमिकों के लिए उचित है कि जिस काम के लिए पैसा लिया है, उसे पूरी ईमानदारी और मेहनत के साथ सम्पन्न करें। वेतन पूरा लेना और काम अधूरा करना यह भी काम चोरी है, जिसे मुनाफाखोरी के सदृश्य ही अनुचित समझा जाना चाहिए। श्रम और उपलब्धि के बीच तारतम्य बिठाए रखना कर्तव्य और अधिकार को मिला- जुला रखने की तरह आवश्यक है।
साझेदारी के कामों में कोई भागीदार अधिक लाभ उठाए और दूसरे भागीदारों को, उनके हक को दबा ले, तो यह भी चोरी हुई, निर्धारित राज कर को भी ईमानदारी के साथ चुकाया जाना चाहिए। इस प्रकार आमदनी में कुछ कमी भले ही पड़ जाय; पर सरकारी और गैर सरकारी जन- समुदाय की दृष्टि में अपनी फर्म की जो प्रतिष्ठा बढ़ती है, उसके आधार पर उसकी प्रतिष्ठा- प्रामाणिकता बढ़ती जाती है और अन्ततः कम लाभ लेते हुए भी अधिक मुनाफा मिलने की सूरत बन जाती है। संसार के प्रसिद्ध और प्रमुख व्यापारी उसी नीति को अपना कर उन्नति के चरम शिखर तक पहुँचे हैं। बेईमानी का धंधा करने वाले जल्दी ही अपने ग्राहकों में बदनाम हो जाते हैं और नफे के स्थान पर नुकसान उठाते हैं।
कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों में कटौती करना, उपेक्षा बरतना, यह नैतिक चोरी है। समाज की प्रगति में सहयोग न देकर मात्र अपने ही संकीर्ण स्वार्थ साधन में लगे रहना, इसे भी चोरी का ही एक तरीका माना जा सकता है। मनुष्य जीवन सामाजिक सहयोग पर ही पूरी तरह अवलम्बित है। उसे उपयोग की सभी आवश्यक वस्तुएँ तभी मिल पाती हैं, जब दूसरों के कौशल एवं श्रम का सहयोग इस निर्माण से जुडा़ हुआ हो। एकाकी मनुष्य तो अन्न, वस्त्र, निवास की सामान्य आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं कर पाता। मानवी प्रगति का एक मात्र आधार बहुमुखी सहयोग से लाभान्वित होना है। इसके बदले हर किसी का कर्तव्य बनता है, कि वह सामाजिक प्रगति के कामों में अपनी सामर्थ्य भर उत्साह पूर्वक सहयोग करें। उसकी उपेक्षा करना भी कर्म की चोरी है। चोरी किसी भी स्तर की क्यों न हो, उससे बचा ही जाना चाहिए।
चोरी को प्रधानतया आर्थिक अपराध माना जाता है। यदि उसे इसी सीमा तक रखना हो, तो उसमें कुछ अन्य तथ्य भी जोड़ने पडे़गे। बिना परिश्रम की कमाई को अथवा थोडे़ श्रम के बदले बहुत लाभ उठाने को भी चोरी माना जाना चाहिए। व्यवसाय में आमतौर से इस प्रवृत्ति का गहरा पुट रहता देखा गया है। मुनाफाखोरी के नाम से यह बदनाम तो है तब भी उसे आचरण में लाते उस क्षेत्र में अधिकांश लोग देखे गए हैं।
मुनाफे की एक सीमित मर्यादा होनी चाहिए। लाभांश उतना लिया जाना चाहिए, जिससे उत्पादक और उपभोक्ता की मध्यवर्ती दलाली के रूप में उचित माना जाय। वस्तु को उसके गुण- अवगुण बताए हुए बेचा जाना चाहिए, ताकि क्रयकर्ता के पीछे पछताना न पडे़। दूसरी जगह भाव तलाश करने पर यह न सोचना पडे़। दूसरी जगह भाव तलाश करने पर यह न सोचना पडे़ कि हमें ठगा गया। यदि व्यापार, व्यवसाय में खरा माल, एक दाम की परिपाटी चल पडे़, तो समझा जाना चाहिए कि खुलेआम चल रही चोरी का बडा़ द्वार बन्द हो गया। खाद्य पदार्थों में सोना- चाँदी में मिलावट एक बहु प्रचलन के रूप में सामने है। यदि इसे जनआक्रोश उभार कर रोका जा सके, ऐसे चोरों को तिरस्कृत- बहिष्कृत करने का आन्दोलन उठ खडा़ हो, तो आर्थिक क्षेत्र की चोरी में से व्यवसाय क्षेत्र को निकाला जा सकता है। ऐसा ही प्रचलन सरकारी क्षेत्र में अफसरों द्वारा की जाने वाली रिश्वत की माँग के सम्बन्ध में भी है। वे अनुचित काम कराने वालों से भी उस काली कमाई में साझीदार बनते ही हैं, उचित काम करने वालों के कार्य में भी अड़ंगे लगाकर उन्हें अनुचित हैरानी से बचने की कीमत भी माँगते हैं। यह भ्रष्टाचार देने और लेने वालों के सहयोग से निरन्तर चलता रहता है और साझेदारी के आधार पर किए जाने वाली व्यभिचार की तरह पकड़ में नहीं आता। इस प्रकार मुनाफाखोरी, करचोरी, जमाखोरी की तरह रिश्वतखोरी भी चोरी का एक सभ्य तरीका बन गई है। उस काली कमाई से बचे रहने की वालों की इस जमाने में प्रशंसा ही नहीं, अभ्यर्थना भी की जा सकती है।
हराम की कमाई भी चोरी है। जो प्राप्त किया गया है, उसके बदले आवश्यक परिश्रम करना, समय देना, मन लगाना आवश्यक है। बिना मूल्य बचपन में अभिभावकों का अनुदान प्राप्त किया जाता है। उसे मुफ्त का न माना जाय, अधिकार न समझा जाय, यह ध्यान रखा जाय कि वह राशि उधार मिले हुए कर्ज की भाँति है, जैसे वृद्धावस्था में उनकी सेवा सहायता के रूप में तो चुकाया ही जाना चाहिए। साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि उनके छोडे़ उत्तरदायित्वों को पूरा करने में सहायता करके उस पितृ ऋण से उऋण हुआ जाय। छोटे बहिन- भाइयों, परिवार के अन्य असमर्थ सदस्यों की सहायता करना, पितृ- ऋण चुकाना ही है। बच्चों को अभिभावक अकेले ही नहीं पाल लेते, वरन् परिवार के सभी सदस्यों का किसी न किसी रूप में योगदान रहता है। इसलिए वयस्क और कमाऊ सदस्यों पर परिवार के सभी लोगों का उनकी स्थिति के अनुरूप सहायता पाने का हक बनता है। इसे न चुकाना, कमाऊ होते ही अपना चूल्हा अलग बनाकर पृथक रहने लगना, यह भी एक प्रकार से चोरी है। उससे समूचे परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने का दोष आता है, संयुक्त परिवार में तो विशेष रूप से।
पूर्वजों का छोडा़ हुआ धन भी हराम की कमाई है। जो स्वयं कमा सकते हैं, उसे वह धन लूट के माल की तरह हड़प जाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। छोटे बालकों, अनाश्रित महिलाओं को पूर्वजों का छोडा़ धन उनके स्वावलम्बी बनने तक काम आये, उसका तो औचित्य है, पर जो कमाने लगे, स्वावलम्बन पूर्वक गुजर करने लगे, उनके लिए यही उचित है कि पूर्वजों की छोडी़ हुई राशि को परमार्थ प्रयोजनों में उनकी आत्म- शान्ति के लिए लगा दें। इससे समाज का हित भी होगा। सत्प्रवृत्तियों की पुण्य परम्परा भी बढे़गी। अपंग अनाश्रितों को अवलम्बन भी मिलेगा। उत्तराधिकार में मिले धन का यही सदुपयोग है। कृषि व्यवसाय आदि में लगी पूँजी को उस अर्थतन्त्र के चलाने का माध्यम तो माना जाय, पर उनमें श्रमिकों को भी भागीदार रखा जाय, ताकि स्थापित अर्थतन्त्र का लाभ व्यक्ति विशेष, को न मिलकर उस तन्त्र को चलाने वाले सभी घटकों को मिलता रहे।
श्रमिकों के लिए उचित है कि जिस काम के लिए पैसा लिया है, उसे पूरी ईमानदारी और मेहनत के साथ सम्पन्न करें। वेतन पूरा लेना और काम अधूरा करना यह भी काम चोरी है, जिसे मुनाफाखोरी के सदृश्य ही अनुचित समझा जाना चाहिए। श्रम और उपलब्धि के बीच तारतम्य बिठाए रखना कर्तव्य और अधिकार को मिला- जुला रखने की तरह आवश्यक है।
साझेदारी के कामों में कोई भागीदार अधिक लाभ उठाए और दूसरे भागीदारों को, उनके हक को दबा ले, तो यह भी चोरी हुई, निर्धारित राज कर को भी ईमानदारी के साथ चुकाया जाना चाहिए। इस प्रकार आमदनी में कुछ कमी भले ही पड़ जाय; पर सरकारी और गैर सरकारी जन- समुदाय की दृष्टि में अपनी फर्म की जो प्रतिष्ठा बढ़ती है, उसके आधार पर उसकी प्रतिष्ठा- प्रामाणिकता बढ़ती जाती है और अन्ततः कम लाभ लेते हुए भी अधिक मुनाफा मिलने की सूरत बन जाती है। संसार के प्रसिद्ध और प्रमुख व्यापारी उसी नीति को अपना कर उन्नति के चरम शिखर तक पहुँचे हैं। बेईमानी का धंधा करने वाले जल्दी ही अपने ग्राहकों में बदनाम हो जाते हैं और नफे के स्थान पर नुकसान उठाते हैं।
कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों में कटौती करना, उपेक्षा बरतना, यह नैतिक चोरी है। समाज की प्रगति में सहयोग न देकर मात्र अपने ही संकीर्ण स्वार्थ साधन में लगे रहना, इसे भी चोरी का ही एक तरीका माना जा सकता है। मनुष्य जीवन सामाजिक सहयोग पर ही पूरी तरह अवलम्बित है। उसे उपयोग की सभी आवश्यक वस्तुएँ तभी मिल पाती हैं, जब दूसरों के कौशल एवं श्रम का सहयोग इस निर्माण से जुडा़ हुआ हो। एकाकी मनुष्य तो अन्न, वस्त्र, निवास की सामान्य आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं कर पाता। मानवी प्रगति का एक मात्र आधार बहुमुखी सहयोग से लाभान्वित होना है। इसके बदले हर किसी का कर्तव्य बनता है, कि वह सामाजिक प्रगति के कामों में अपनी सामर्थ्य भर उत्साह पूर्वक सहयोग करें। उसकी उपेक्षा करना भी कर्म की चोरी है। चोरी किसी भी स्तर की क्यों न हो, उससे बचा ही जाना चाहिए।