• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • मरणोत्तर जीवन और उसकी सच्चाई
    • जन्म मृत्यु-मात्र स्थूल जगत की घटनाएं
    • जीवन सत्ता का चैतन्य स्वरूप
    • विदेशों में पुनर्जन्म की घटनाएं एवं मान्यताएं
    • जन्म मृत्यु का अविराम क्रम
    • जन्मान्तर प्रगति या पतन के आधार—आत्म-सत्ता के संकल्प एवं कर्म
    • पुनर्जन्म—पुनरावर्तन नहीं यात्रा का अगला चरण
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • मरणोत्तर जीवन और उसकी सच्चाई
    • जन्म मृत्यु-मात्र स्थूल जगत की घटनाएं
    • जीवन सत्ता का चैतन्य स्वरूप
    • विदेशों में पुनर्जन्म की घटनाएं एवं मान्यताएं
    • जन्म मृत्यु का अविराम क्रम
    • जन्मान्तर प्रगति या पतन के आधार—आत्म-सत्ता के संकल्प एवं कर्म
    • पुनर्जन्म—पुनरावर्तन नहीं यात्रा का अगला चरण
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - पुनर्जन्म : एक ध्रुव सत्य

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


जीवन सत्ता का चैतन्य स्वरूप

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 2 4 Last
ए.एन. विडगेरी ने अपनी पुस्तक ‘‘कान्टेम्पोरेरी थाट आफ ग्रेट ब्रिटेन’’ में इस बात पर चिन्ता व्यक्त की है कि सांसारिक अस्तित्व के सम्बन्ध में जितनी खोज की जा रही है, उतना मानवी-अस्तित्व के बारे में नहीं खोजा जा रहा है। लगता है—मानवी सत्ता, महत्ता और उसकी आवश्यकता को आंखों से ओझल ही किया जा रहा है अथवा चेतन को जड़ का अनुगामी सिद्ध किया जा रहा है बौद्धिक-प्रगति के यह बढ़ते हुए चरण हमें सुख-शान्ति के केन्द्र से हटाकर ऐसी जगह ले जा रहे हैं, जहां हम यांत्रिक अथवा रासायनिक बोलने-सोचने वाले उपकरण मात्र बनकर रह जायेंगे। तब हम साधन-सम्पन्न कितने ही क्यों न हों—सभ्यता और संस्कृति अन्य गरिमाओं से हमें सर्वथा वंचित ही होना पड़ेगा। जड़-जीवन के लिये बाधित की गई चेतना कितनी अपंग हो जायगी? जब यह कल्पना करते हैं तो प्रतीत होता है कि विकास की दिशा में चल रही हमारी दौड़ विनाश में अधिक विघातक सिद्ध होगी।

कई रूपों में हम—अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक अच्छे समय में रह रहे हैं। आज एक विधि तथा नियम का स्थिर शासन और निश्चित संविधान है। व्यक्तिगत सम्पत्ति एवं स्वतंत्रता अभिव्यक्ति अधिक सुरक्षित है। विज्ञान की प्रति के कारण मृत्युदर घट रही है। व्याधियों पर नियन्त्रण किया जा रहा है। औसत आयु बढ़ रही है। शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। देश-भक्ति जगी है। सुविधा सामग्री सस्ती तथा सामान्य हो गई हैं। शासन की स्थापना में जनता का हाथ है। इतना सब होते हुए भी एक भारी क्षति मानवी-दृष्टिकोण का स्तर बहुत नीचा गिर जाने की हुई है। आज सर्वाधिक ज्ञानी, सर्वाधिक धनवान् और सर्वाधिक सामर्थ्यवान् लोगों का दृष्टिकोण भी संकीर्ण और स्वकेन्द्रित हो रहा है। वर्तमान से आगे की उनकी चिन्ताएं तथा रुचियां जाती रही हैं। आत्मा के सम्बन्ध में सोचने के लिए उसके पास समय नहीं और न यह सूझ पड़ रहा है कि मानव-जाति का भविष्य बनाने के लिये—बिगाड़ को रोकने के लिए क्या क्या कुछ किया जा सकता है?

खोज और प्रगति के लिए मात्र भौतिक-क्षेत्र में ही अपने को अवरुद्ध कर लेना हमारे लिए उचित न होगा। यह और भी अधिक आवश्यक है कि जिस जीवधारी के लिए प्रकृति की शक्तियों को करतलगत करके विपुल सुविधा साधन जुटाये जा रहे हैं, उसकी अपनी हस्ती क्या है? इस पर भी विचार किया जाए और यह भी खोजा जाए कि जीवन-सत्ता का विकास-विस्तार किस हद तक सुख-शान्ति की आवश्यकता पूर्ण कर सकता है? विज्ञान का यह पक्ष भी कम उपयोगी और कम महत्वपूर्ण नहीं समझा जाना चाहिए।

अभावों और असुविधाओं से लड़ने और प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने के लिए जीवधारी की संकल्प शक्ति को प्रखर बनाया जाना चाहिए। साधनों की बहुलता तो मनुष्य को अकर्मण्य और अशक्त बनाती चली जाएगी। प्रगति का मूल आधार विचार-प्रवाह एवं संकल्प-बल ही रहा है। जीवधारियों की प्रगति का इतिहास इन्हीं उदाहरणों से भरा पड़ा है।

सृष्टि के आरम्भ में बहुकोषीय जन्तुओं की बनावट बहुत ही सरल थी। स्पन्ज, हाइड्रा, जेलीफिश, कोरल, सी. ऐनीमोन आदि ऐसे ही बहुकोषीय जीव थे। इनके आहार और मल-विसर्जन के लिए शरीर में एक ही द्वार था। इसके बाद क्रमशः सुधार होता चला गया। आहार और मल-विसर्जन के लिए दो द्वार खुले। फिर हड्डियां विकसित हुई। मेरुदण्ड बने, बिना खोपड़ी वाले जानवर धीरे-धीरे खोपड़ी वाले बने। जलचरों ने थल में रहना सीखा। फिर तो कुछ हवा तक उड़ने लगे। यही विकास क्रम उद्भिज, स्वेदज, अंडज और जरायुज प्राणियों में अग्रगामी हुआ। स्तनपायी जीवों की काया जैसे-जैसे बुद्धिमान होती गई वैसे ही वैसे उनमें अनेक प्रकार की शक्तियों और विशेषताओं का विस्तार हुआ। तदनुसार ही उनकी इन्द्रियों की क्षमता एवं अवयवों की संरचना परिष्कृत होती चली गई। इसी लम्बी मंजिल को पार करते हुए जीवन आज की स्थिति तब बढ़ता चला आया है।

विकासवाद के अनुसार दुनिया के प्राचीनतम और सर्वोत्तम जीव प्रोटोजोन्स वर्ग के हैं। इन जीवों का शरीर एक कोषीय होता है। उदाहरण के लिए अमीवा, यूग्लोना, पैरामीसियम, वर्टीसेला आदि का आरम्भ एक कोषीय-जीव के रूप में हुआ था। पीछे इनमें से कुछ ने सुरक्षा और सुविधा के लिए परस्पर मिल जुलकर रहना आरम्भ कर दिया। बालकाक्स नामक जीव छोटी-छोटी कालोनी बनाकर रहने लगे। इनने अपने-अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व बांटे और मिल-जुलकर रहने के लिए आवश्यक व्यवस्था क्रम का सूत्र-संचालन किया उनमें से कुछ आहार जुटाने कुछ वंश-वृद्धि करने, कुछ सुरक्षा संभालने, कुछ सूत्र-संचालन और कुछ वर्ग के लिए विविध श्रम साधना करने में तत्पर हो गये। इसे हम आदिम-कालीन वर्ण-व्यवस्था कह सकते हैं। इस सहयोग-व्यवस्था के फलस्वरूप जीवन-विकास में तीव्र गति उत्पन्न हुई और बहुकोषीय मल्टी सेल्यूलर जन्तुओं का उद्भव सम्भव हुआ।

सृष्टि के आदि में जीव बहुत ही छोटे एवं आकार और बनावट में बहुत ही सरल थे। धीरे-धीरे समय के साथ वातावरण के अनुकूल की परिस्थिति में सरल से जटिल और जटिल से जटिलतम होते गये। प्रकृति की इस मौलिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप सृष्टि बनी और विविधता का सूत्रपात हुआ।

सरल जीवों को जटिल जीवों में बदलने की प्रक्रिया को ‘विकास’ कहते हैं। इस विकासवाद को समझने के लिए विभिन्न सूत्र जो समय-समय पर वैज्ञानिकों ने अपने दृष्टिकोण से सामने रखे उन्हें ‘विकासवाद के सिद्धांत’ कहते हैं। इन्हें कई वैज्ञानिकों ने विविध तर्कों, तथ्यों और उदाहरणों सहित प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है। लेमार्क और ह्यूगोडिब्राहइस ने पिछली शताब्दी से इस सन्दर्भ में बहुत कुछ खोजा और बहुत कुछ कहा है। इस शताब्दी में चार्ल्स डार्विन ने विशेष ख्याति प्राप्त की है। विकासवाद के सिद्धान्त के समर्थकों में प्रसिद्ध वैज्ञानिक हीकल्स भी आते हैं कि मनुष्य शरीर का विकास एक कोषीय जीव (प्रोटोजोन्स) से हुआ। पहले अमीवा, अमीवा से स्पंज, स्पंज से हाइड्रस फिर जेलीफिश मछली, मेढ़क, सांप, छिपकली, चिड़िया, घोड़े आदि से विकसित होता हुआ आदमी बना। इसके लिए (1) जीवों के लिये अवशेषों (2) विभिन्न प्राणियों को शारीरिक बनावट के तुलनात्मक अध्ययन, (3) थ्योरी आफ यूज एण्ड डिसयूज (अर्थात् जिस अंग का प्रयोग न किया जाये, वह घिसता और नष्ट होता चला जाता है, उदाहरण के लिये पहले मनुष्य पेड़ों पर रहता था। उछल कर चढ़ने के लिये पूंछ आवश्यक होती है। तब मनुष्य की पूंछ थी यह इसका निशान (टेल-वरटिब्री) के रूप में अभी भी शरीर में है। पर जब मनुष्य पृथ्वी पर रहने लगा, पेड़ों पर चढ़ने की आवश्यकता न पड़ी तो पूंछ का प्रयोग भी बन्द होता गया और वह अपने आप घिस गई) इन तीन उदाहरणों से यह सिद्ध किया जाता है कि मनुष्य शरीर विकसित हुआ है।

किन्तु एक शरीर से दूसरे शरीर के विकास का समय इतना लम्बा है कि उन परिवर्तनों को सही मान लेना बुद्धि संगत नहीं जान पड़ता। प्रकृति के परमाणुओं में भी ऐसी व्यवस्था नहीं है कि बीज से दूसरे बीज वाला पदार्थ पैदा किया जा सके, भले ही उसके लिए भिन्न प्रकार की जलवायु प्रदान कि जाये। जलवायु के अन्तर से फल के रंग आकार में तो अन्तर आ सकता है पर बीज के गुणों का सर्वथा अभाव नहीं हो सकता।

‘‘सेल फिजियोलॉजी ग्रोथ एण्ड डेवलपमेंट’’ विभाग कार्नेल यूनिवर्सिटी के डाइरेक्टर डा. एफ.सी. स्टीवर्ड ने एक प्रयोग किया। उन्होंने एक गाजर काटी। उसका विश्लेषण करके पाया कि वह असंख्य कोशिकाओं का बना हुआ है उन सभी कोशिकाओं के गुण समान थे। कुछ कोशिकाओं को निकालकर कांच की नलियों में रखा। खाद्य के रूप में नारियल का पानी दिया। कोशिका जो संसार में जीवन की सबसे छोटी इकाई होती है, जिसके और टुकड़े नहीं किये जा सकते—वह इस खाद्य के संसर्ग में आते ही 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8 अनुपात अनुपात में बढ़ने लगी और प्रत्येक कोष ने एक स्वतन्त्र गाजर के पौधे का आकार ले लिया।

इस प्रयाग से दो बातें सामने आती हैं—(1) कोष अपने भीतर की शक्ति बढ़ाकर अपनी तरह के कोष बना सकते हैं, (2) किन्तु नई जाति का कोष बना लेना किसी अन्य कोष के लिए सम्भव नहीं, यदि ऐसा होता तो नारियल के पानी के आहार के साथ गाजर का कोष किसी अन्य प्रकार के वृक्ष और फल में बदल गया होता। प्रकृति की यह विशेषता विकासवाद के साथ स्पष्ट असहमति है। एक कोषीय जीव (प्रोटोजोआ) से मनुष्य का विकास तथ्य नहीं रखता। जोड़ गांठ करके बनाया गया तिल का ताड़ मात्र है। ‘थ्योरी आफ यूज एण्ड डिस्यूज’ की बात में तो भी कुछ दम है, उससे इच्छा शक्ति की सामर्थ्य का पता चलता है। यदि हमारे मस्तिष्क में किसी जबर्दस्त परिवर्तन की आकांक्षा हो तो निश्चय ही वह कोषों के संस्कार सूत्रों—जीन्स-कोष में बटी हुई रस्सी की तरह का अति सूक्ष्म अवयव जिस पर कोषों के विकास की सारी सम्भावनायें और भूत का सारा इतिहास संस्कार रूप में अंकित रहता है को बदल सकता है। यदि संस्कार सूत्र (जीन्स) बदल जायें तो नये बीजों में परिवर्तन आ सकता है पर यह सब चेतन इच्छा शक्ति के द्वारा ही सम्भव है, किसी वैज्ञानिक प्रयोग से नहीं।

उपरोक्त तथ्यों पर ध्यान देने से इसी निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि अभाव ही नहीं, अदक्षता और असमर्थता का निराकरण भी संकल्प-शक्ति को विकसित करके ही किया जा सकता है। क्रमिक विकास खोजों से हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। वे बताती हैं कि भावी-प्रगति की जो भी योजनायें बनाई जाएं, उनमें मानवी विचारणा, भावना और आन्तरिक प्रखरता को उच्चस्तरीय बनाने को सर्वोपरि प्रधानता दी जाय। मनुष्य इसी अवलम्बन के सहारे अन्य जीवों की तुलना में अधिक आगे बढ़ सका है। उसके भावी मनोरथ भी इस आधार को और भी अधिक दृढ़ता के साथ अपनाने पर पूरे हो सकेंगे।

वैज्ञानिक जीव-तत्व को रासायनिक पदार्थ मात्र मानकर एक विचित्र उलझन में उलझ गये हैं। वे भूल जाते हैं कि रासायन की जड़ता चेतना के भीतर संकल्प शक्ति और आकांक्षाओं का विस्मयकारी प्रभाव कैसे उत्पन्न कर सकती हैं।

जीवधारी का रासायनिक आधार—प्रोटोप्लाज्मा ही सब कुछ नहीं हैं। अब उनके भीतर अव्यक्त जीवन-रस—ईडोप्लाज्मा की सत्ता स्वीकार कर ली गई है। वंश परम्परा केवल रासायनिक ही नहीं हैं, उसके पीछे अभिरुचियां, आस्थाएं, भावनाएं और न जाने ऐसा कुछ भरा हुआ है, जिसकी व्याख्या रासायनिक द्रवों के आधार पर नहीं हो सकती। चेतना की एक अतिरिक्त श्रृंखला की स्वतन्त्र गति स्वीकार किये बिना ‘ईजोप्लाज्मा’ के क्रियाकलाप की व्याख्या हो ही नहीं सकती एक ही स्थान पर जड़ और चेतन एकत्रित हो सकते हैं सो ठीक है, पर दोनों एक नहीं हैं—उसकी सत्ता स्वतन्त्र है। भले ही एक दूसरे के पूरक हों, पर इन्हें एक ही मान बैठना भूल होगी। जीवन के व्याख्याकारों ने उसके सम्बन्ध में विविध प्रकार के मत व्यक्त किये हैं। गतिशीलता, समर्थता, चेतना, विकास की क्षमता, भोज्य पदार्थों को ऊर्जा के रूप में परिणत कर सकना, जन्म दे सकने की क्षमता आदि-आदि कितनी शर्तें जीवन-अस्तित्व के साथ जोड़ी गई हैं।

यह सारी विशेषताएं प्रोटोप्लाज्म में सीमित नहीं हो सकतीं, उसके लिए कुछ अतिरिक्त क्षमता की आवश्यकता है। हमारी भावी खोज और दिलचस्पी इस अद्भुत अतिरिक्तता पर ही केन्द्रित होनी चाहिये, जो जड़ परमाणुओं के सीमित क्रियाकलाप से कहीं अधिक ऊंचा है।

विज्ञान वेत्ता रासायनिक विश्लेषण से कभी आगे बढ़ते हैं तो विद्युतीय स्फुरणा के रूप में प्राण-चेतना की व्याख्या करने लगते हैं। मनुष्य शरीर में बिजली का विपुल-भण्डार भरा पड़ा है, यह ठीक है और यह भी सत्य है कि मस्तिष्क से विचारों के कम्पन विद्युत-प्रवाह के ही रूप में निकलते हैं और शारीरिक आन्तरिक क्रिया प्रक्रिया सम्पन्न करते हैं, साथ ही विश्व ब्रह्माण्ड में हलचल उत्पन्न करके अगणित मस्तिष्कों पर अपना प्रभाव डालते हैं और जड़ पदार्थों की दिशा मोड़ते हैं। किन्तु यह मान बैठना उचित न होगा कि यह बिजली बादलों में कड़कने वाली धूप-गर्मी के रूप में अनुभव आने वाली तथा बिजली-घरों में उत्पन्न होने वाली के ही स्तर की है। भौतिक-बिजली और प्राण-शक्ति में मौलिक अन्तर है। प्राण के कारण शरीर और मस्तिष्क में बिजली पैदा होती है, किन्तु यह विद्युत तक सीमित न होकर अनन्त अद्भुत क्षमताओं से परिपूर्ण है। मानवी विद्युत आकर्षण—ह्युमन मैग्नेटिज्म का संयुक्त स्वरूप प्राण है। उसे विश्व व्यापी महाप्राण का एक अंश भी कहा जा सकता है। क्योंकि भौतिक जगत में और चेतन सम्वेदनाओं में जो कुछ स्फुरणा रहती है, उनका समन्वित समीकरण मानवी-प्राणसत्ता में देखा जा सकता है।

‘प्रोजोक्टिजम आफ ऐस्ट्रल बाडी’ के लेखक ने बताया है कि शरीर की स्थूल रचना अपने आप में अद्भुत है, पर यदि उसके भीतर काम कर रहे विद्युत शरीर की क्रिया-प्रक्रिया को समझा-जाना जा सके तो प्रतीत होगा कि उसमें सूर्य से तथा अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों से धरती पर आने वाली ज्ञात और अविज्ञात किरणों का भरपूर समन्वय विद्यमान है। गामा, बीटा एक्स, लेजर, अल्ट्रा वायलेट, अल्फा वायलेट आदि जितने भी स्तर की शक्ति किरणें भू-मण्डल में भीतर और बाहर काम करती है उन सबका समुचित समावेश मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में हुआ है। स्थूल शरीर जड़ पदार्थों के बन्धनों से बंधा होने के कारण ससीम है, पर सूक्ष्म शरीर की सम्भावनाओं का कोई अन्त नहीं। उसका निर्माण ऐसी इकाइयों से हुआ है जिनकी हलचलें ही इस ब्रह्माण्ड में विविध-विधि क्रिया-कलाप उत्पन्न कर रही हैं।

जीवन-तत्वेत्ता ई.के. लेनकास्टर ने अधिक गहराई तक जीवन-तत्व की खोज करने के उपरान्त उसे भौतिक-जगत में चल रही समस्त क्रिया-प्रक्रियाओं से भिन्न स्तर का पाया। उसके निरूपण के लिए जो भी सिद्धान्त निर्धारित किये, वे सभी ओछे पड़े। अस्तु उन्होंने कहा—जीवन सत्ता के बारे में मानव-बुद्धि कुछ ठीक निरूपण शायद ही कर सके। उसकी व्याख्या भौतिक-सिद्धान्तों के सहारे कर सकना सम्भवतः भविष्य में भी सम्भव न हो सकेगा। जीवन एक स्वतन्त्र विज्ञान है और ऐसा जिसकी नापतौल पदार्थ विद्या के बटखरों से नहीं ही हो सकेगी।

निर्जीव पदार्थ का केवल अस्तित्व है। उनमें न अनुभूति है और न जीवन। पौधों में अस्तित्व और जीवन है, पर ज्ञान का अभाव है। प्राणियों में अस्तित्व, जीवन और अनुभूति है, परन्तु ज्ञान या स्वतन्त्र इच्छा विकसित अवस्था में नहीं है। इसके विपरीत मनुष्य में ये सब गुण विद्यमान हैं, उसमें अस्तित्व पूर्ण जीवन, अनुभूति, ज्ञान और स्वतन्त्र इच्छा शक्ति का समन्वय है, इस प्रकार उसे चेतना के सुविकसित स्तर पर प्रतिष्ठापित किया जा सकता है।

जड़ और चेतन की आणविक हलचलों में समानता हो सकती है, पर यह किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होता कि जड़ का विकास इतना अधिक हो सके कि वह चेतना के उच्चतम स्तरों की परतें उघाड़ता चला जाय। अस्तु हार-थक कर वे अन्य प्रकार के उपहासास्पद निष्कर्ष निकालते हैं। उदाहरण के लिए केल्विन, हैमरीज, किचटर, अरहेनियस की मान्यता है कि ‘जीवन किसी अन्य लोक से भूलता भटकता पृथ्वी पर आ पहुंचा है।’

टैण्डाल और पास्टयूर की मान्यता थी कि जीवन-जीवन से ही उत्पन्न हो सकता है। आरम्भ में सेल अपने आप अपनी वंश वृद्धि किया करते थे, पीछे ‘नर-मादा संयोग’ का क्रम चला। इसी प्रकार भीतर-बाहरी अवयवों की संख्या एवं क्षमता भी क्रमशः ही विकसित हुई है। जड़ से चेतन की उत्पत्ति अथवा पदार्थ का जीवन में परिवर्तन उन्होंने अशक्य माना है। चेतना की वे स्वतन्त्र सत्ता ठहराते हैं।

ब्रह्माण्ड-व्यापी महाशक्तियों में से गुरुत्वाकर्षण की क्षमता सर्वविदित है। आकाश में समस्त ग्रह-नक्षत्र उसी के आधार पर टिके हुए हैं और जीवित हैं।

इलेक्ट्रोमैगनेटिक शक्ति (विद्युत चुम्बकीय क्षमता) अगणित भौतिक प्रक्रियाओं का नियन्त्रण करती है। प्रकाश, तप, ध्वनि, विद्युत, रासायनिक परिवर्तन आदि का जो क्रियाकलाप इस जगत में चल रहा है उसके मूल में यही शक्ति काम कर रही है। ईथर अपने विभिन्न आकार-प्रकारों में वस्तुओं पर शासन स्थापित किये हुए है।

यह विद्युत चुम्बकीय क्षमता, मात्र जड़ नहीं हैं यदि वह जड़ ही होती तो अणु-परमाणुओं की संरचना में जो अद्भुत व्यवस्था दिखाई पड़ती है, उसके दर्शन नहीं होते। साथ ही चेतन प्राणियों में दूरदर्शिता, आकांक्षा, भावना जैसी कोई विशेषता न होती और न किसी जीव में कोई ऐसी अतीन्द्रिय-क्षमता पाई जाती, जिसका जड़-चेतन के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं हो।

अणु-अणु में संव्याप्त विराट चेतना— योग वशिष्ट में बताया है— परमाणु निमेषाणा लक्षांशकलनास्वपि । जगत्कल्प सहस्त्राणि सत्यानीव विभान्त्यलम् ।। तेष्वप्यन्तस्तथैवातः परमाणुं कणं प्रति । भ्रान्तिरेव मनन्ताहो इयमित्यवभासते ।। —योग वशिष्ठ 3।62। 1-2

अणावणावसंख्यानि तेन संति जगन्ति रवे । तेषान्तान्व्यवहारो घान्संख्यातु क इव क्षमः ।। —योग वशिष्ठ 6।2।176।6

हे राम! प्रत्येक परमाणु के एक क्षुद्र टुकड़े के भी छोटे-लाखवें भाग के भीतर सहस्रों विश्व स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। उन परमाणुओं में से प्रत्येक के भीतर भी वैसा ही दृश्य जगत् विद्यमान है। यह आश्चर्य और अनहोनी जैसी लगती है पर यह सत्य है राम! आकाश के अणु-अणु में सुव्यवस्थित संसार समासीन है, उनके समाचार कौन जानता है?

ज्ञान, शक्ति, प्रकाश, रूप यह चेतना ही ब्रह्म है, उसे जानना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य बताया है, शास्त्रकार ने। किन्तु हमारे सामने पदार्थ का एक विराट संसार दृष्टिगोचर हो रहा है, हम उसमें भूल जाते हैं और विज्ञान को, वैज्ञानिक मान्यताओं को सत्य मानकर अन्तःचेतना की उपेक्षा करने लगते हैं।

विज्ञान शास्त्रकार की उपरोक्त धारणा को स्थिर करता है, उसे सत्य सिद्ध करता है। सूक्ष्मदर्शी निरीक्षण (माइक्रोस्कोपिक इन्स्पेक्शन) से ज्ञात हुआ है कि मनुष्य का शरीर भी छोटे-अदृश्य परमाणुओं से बना हुआ है, उन्हें कोश (सेल) कहते हैं। कोशाओं की रचना प्याज के छिलकों की तरह (फैब्रिक फार्क्ड सेल्स टिसू) एक विशेष प्रकार की होती है, प्याज के छिलके की एक कोशिका अपनी पूरी प्याज की गांठ की तरह ही परत के भीतर परत वाली होती है। इस तरह सूक्ष्म वस्तु के भीतर भी एक नियोजित चेतना काम कर रही है।

पेड़ पौधों की पत्तियां भी सांस लेती हैं। सांस लेने की क्रिया वह पत्तियां आगे निकले हुए नुकीले भाग से करती हैं। सबसे आगे का नुकीला कोष बहुत ही छोटा होगा, वह आकाश से वायु खींच-खींचकर पहुंचाता है, वायु में अकेले हवा नहीं होती, उसमें प्रकाश के कण (इसका विवरण फोटो संस्थेसिस के लेख में करेंगे) भी होते हैं, इसी वायु और प्रकाश कणों से वृक्ष-वनस्पतियों के भीतर ठीक वैसी ही चेतनता काम करती रहती है, जिस तरह मनुष्य शरीर में श्वांस-प्रश्वास क्रिया से ही सारे क्रिया कलाप चलते रहते हैं।

छोटे से छोटे कोश में वायु, जल, प्रकाश, खनिज, लवण, धातुएं आदि विभिन्न वस्तुयें जिस-जिस मात्रा और अनुपात में होती हैं, उसी अनुपात में उनका स्वरूप बनता-बिगड़ता रहता है और इस तरह प्रकृति में एक सुव्यवस्थित हलचल दिखाई देती रहती है। अणुओं के भीतर की यह हलचल विराट, ब्रह्मांड में हो रही हलचलों की प्रतिच्छाया होती है। कुछ ऐसे तारों का पता लगाया गया है, जो कालान्तर में अपनी चमक बदलते रहते हैं। पृथ्वी में होने वाली ऋतु परिवर्तन को तो हम स्पष्ट देखते और अनुभव करते हैं।

कुछ विशेष प्रकार के नक्षत्रों के अध्ययन से पता चला है कि आगे उनकी गतिविधियां क्या होंगी, यह निश्चित रूप से जाना जा सकता है। आकाश में कुछ ऐसे भी तारे हैं, जिनको हम देख भी नहीं सकते। पर वे ध्वनि कम्पनों से अनुभव में आते हैं। वैज्ञानिकों ने इन तारों की खोज इसी आधार पर की है, जब कोई वस्तु हवा में तीव्रता से कंपन करती है, तब उसे दबाव तरंगें भी तीव्रता से उत्पन्न होती हैं। जब यह तरंगें कान से कुछ निश्चित परिस्थितियों में टकराती हैं, तभी उस ध्वनि का अनुभव होता है। और इसी तरह अनेक अदृश्य तारों के अस्तित्व का पता लगाया गया है।

विज्ञान के अनुसार यह ध्वनि, यह परिवर्तन-शीलता और यह विराट् दृश्य परमाणु में विद्यमान हैं, तप फिर हम उस परमाणु की मूल सत्ता को ही क्यों न जानें ताकि उसे जानकर विश्व-ब्रह्मांड को जान लें योगाभ्यास हमें उसी सूक्ष्म-दर्शन की प्राप्ति कराता है। इस विद्या के द्वारा मनुष्य परमाणविक चेतना में विश्वम्भर शक्ति और उसके विराट स्वरूप के दर्शन कराता है। अतः सत्ता के चैतन्य स्वरूप को समझना सर्वोपरि आवश्यकता है।

कोशिका की सत्ता का मूल स्वरूप क्या है—

हमारे शरीर का प्रत्येक भाग कोशिकाओं से बना है। एक इंच जगह में 6 हजार कोशिकाएं समा जाती हैं। प्रत्येक कोशिका के भीतर प्रोटोप्लाज्म नामक पतला चिकना पदार्थ भरा रहता है। यह प्रोटोप्लाज्म वायु खींचता वह कार्बन (दूषित वायु) बाहर फेंकता है। इस तरह हमारे शरीर के लाखों-करोड़ों प्रोटोप्लाज्म हमारी सांस के साथ सांस लेते हैं। प्रोटोप्लाज्म में एक ‘‘न्यूक्लियस’’ होता है। वैज्ञानिक उसे ही जीवन का आधार मानते हैं। नई कोशिकाएं बनाने की उसी में क्षमता होती है। जब न्यूक्लियस निर्बल होने लगता है, तो प्रोटोप्लाज्म भी सूखने लगता है और एक दिन प्रोटोप्लाज्म से मूल चेतना गायब हो जाती है। वह कहां चली जाती है, यह अभी वैज्ञानिक नहीं समझ सके हैं।

वीर्य का प्रत्येक ‘सेल’ पिता के और माता की प्रत्येक डिम्बकोष (ओवम) माता के सभी गुणों को धारण किये रहती है। सूक्ष्म रोगों, तक का वीर्य के प्रत्येक ‘सेल’ में प्रभाव होता है। ‘सेल्स’ के ‘नाभिक’ में अचेतन के समस्त भावों का प्रभाव रहता है। यानी व्यक्ति के समस्त संस्कारों की छाप प्रत्येक सेल में होती है।

संस्कारों के इतने सूक्ष्म ‘सेल्स’ में भी पूर्णतः विद्यमान होने और उनका एक शरीर से दूसरे शरीर में सम्प्रेषण सम्भव होने का यह सिद्धान्त स्पष्टतः पुनर्जन्म के सिद्धान्त की भी युक्ति युक्तता प्रतिपादित करता है। जिस तरह वीर्य के ‘सेल’ के साथ सूक्ष्म संस्कार जाते हैं, उसी तरह जीवात्मा के साथ भी वे बने रहते हैं और पुराने शरीर से नये शरीर में जाते हैं।

आधुनिक वैज्ञानिकों की मान्यता है कि सम्भवतः मृत्यु के समय शरीरस्थ ‘प्रोटोप्लाज्म’ शरीर से पृथक् हो मिट्ठी-राख आदि में मिल जाते हैं। वनस्पतियों, फसलों, पेड़-पौधों की पत्तियों, फूलों और फलों दानों आदि में वे सन्निहित रहते हैं। इन पत्तियों, फूलों, फलों-अनाज आदि को गुण—साम्य के अनुरूप भेड़-बकरी, कुत्ता, बैल-गाय-भैंस, कौआ-तोता, मनुष्य आदि खाते हैं और उनके द्वारा ‘प्रोटोप्लाज्म’ शरीर के भीतर पहुंच जाते हैं यही ‘प्रोटोप्लाज्म’ जीन्स में समाहित रहते हैं और नये शिशु के साथ पुनः जन्म लेते हैं। इस प्रकार पूर्व शरीर के प्राणी का प्रोटोप्लाज्म ही नये शरीर के साथ जन्म लेता है।

शिशु के स्मृति पटल में पहुंचकर जब कभी कोई ‘प्रोटोप्लाज्म’ जागृत हो उठता है, तो उससे सम्बन्धित पुनर्जन्म की घटनाएं भी याद आ जाती हैं इस तरह पुनर्जन्म प्रोटोप्लाज्म का होता है, आत्मा का नहीं। लेकिन इधर आत्मा सम्बन्धी खोजें वैज्ञानिकों को अपना पूर्वाग्रह परिवर्तित करने को प्रेरित कर रही है।

खोज चेतन आत्मा की जड़ उपकरणों के माध्यम से

विलियम मैग्डूगल ने आत्मा के बारे में तरह-तरह से वैज्ञानिक खोज की है। उन्होंने एक ऐसा तराजू तैयार किया, जो पलंग पर पड़े रोगी का ग्राम के हजारवें हिस्से तक वजन ले सके। उस पर एक मरणासन्न रोगी को लिटाया। कपड़े सहित पलंग का वजन, फेफड़े की सांसों का वजन, भी लिया और दी जाने वाली दवाइयों का भी। रोगी जब तक जीवित रहा। तराजू की सुई एक ही स्थान पर टिकी रही। प्राण निकलने के क्षण सुई सहसा पीछे हटी और टिक गई। वह 1 ओंस यानी आधा छटांक वजन कम बता रही थी। फिर कई रोगियों पर यह प्रयोग किया गया। एक चौथाई से डेढ़ ओंस तक वजन में कमी पाई गई। इससे मैग्डूगल ने निष्कर्ष निकाला कि शरीरस्थ कोई सूक्ष्म तत्व ही जीवन का आधार है। विभिन्न निरीक्षणों, प्रयोगों द्वारा उन्होंने उसका सामान्य औसत भार भी निकाला।

डा. गेट्स ने कालापन लिए लालसी यानी वनफशई रंग की किरणें खोजी हैं। इन किरणों का प्रकाश मनुष्य आंख से नहीं देख सकता पर कमरे की दीवारों पर रोडापसिन नामक पदार्थ का लेप कर उस पर ये किरणें फेंकी गई, तो उसका रंग बदल गया। ये किरणें हड्डी, लकड़ी, पत्थर, धातु को पार करके चमकने लगती हैं, पर इन किरणों को दीवार पर डाला जाये और बीच में कोई मनुष्य आ जाये, तो दीवार पर उसकी छाया दीखेगी यानी ये किरणें जीवित प्राणी का शरीर भेद नहीं सकती।

डा. गेट्स ने इन प्रकाश-किरणों को तत्काल मरे पशुओं की आंखों से प्राप्त किया है। एक मरणासन्न चूहे को गिलास में रखकर ये किरणें फेंकी गई। दीवार पर उस चूहे की छाया पड़ी। पर जैसे ही चूहे के प्राण निकले, एक छाया गिलास से निकली और मसाला लगी दीवार की तरफ लपकी। वह ऊपर तक गई और लुप्त हो गई। अब दीवार पर चूहे की छाया नहीं थी यानी चूहे का मृत शरीर उन किरणों के लिये पारदर्शी हो चुका था। परीक्षा के समय दो अध्यापक भी मौजूद थे। उन्होंने भी मृत्यु—क्षण में छाया को ऊपर नीचे आते व सहसा लुप्त होते देखा। अब डा. गेट्स का प्रयास है कि यह जाना जाए कि छाया जब शरीर से निकलती है—लुप्त होने के लिये, तो उस समय उसमें ज्ञान रहता है या नहीं।

इन किरणों के लिये चूहा जीवित अवस्था में पारदर्शी क्यों नहीं था? गेट्स ने उत्तर के लिये गैलवानो मीटर से उन किरणों की शक्ति तथा मानवीय देह में संचालित विद्युत तरंगों की शक्ति को मापा व बताया कि शारीरिक बिजली की शक्ति अधिक है।

जीवित स्थिति में शारीरिक विद्युत प्रवाह होने से ये किरणें शरीर से टकराकर लौट जाती हैं, शारीरिक विद्युत प्रवाह उन्हें धकेल देता है। निष्प्राण होने पर ऐसी कोई बाधा बचती नहीं और किरणें शरीर को भेद जाती हैं।

डा. गेट्स शरीर की विद्युत शक्ति को ही आत्मा की प्रकाश-शक्ति मानते हैं।

फ्रांस के डा. हेनरी वाराहुक ने अपनी मरणासन्न पत्नी एवं बच्चे पर प्रयोग कर मृत्यु के फोटो लिये, तो कुछ रहस्यमय किरणों के चित्र प्राप्त हुये। डा. एफ. एम. स्ट्रा ने तो इस तरह का सार्वजनिक प्रदर्शन ही किया, जिसमें अखबार प्रतिनिधियों ने भी चित्र लिये और रहस्यमय किरणों के चित्र प्राप्त किये।

अमरीका में बिलसा क्लाउड चेम्बर द्वारा आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी अनेक प्रयोग किये गए हैं। वह चेम्बर एक खोखला पारदर्शी सिलेण्डर है। इसके भीतर से हवा पूरी तरह निकालकर, भीतर रासायनिक घोल पोत देते हैं। इससे सिलेण्डर में एक मन्द प्रकाश पूर्ण कुहरा छा जाता है। इस कुहरे से यदि एक भी इलेक्ट्रोन गुजरे तो फिट किये गये शक्ति सम्पन्न कैमरों द्वारा उनका फोटो ले लिया जाता है। सिलेण्डर में होने वाली हर हलचल का चित्र आ जाता है।

इस चेम्बर में जीवित चूहे और मेंढक रखकर बिजली के करेन्ट से उनको प्राणहीन किया गया। देखा गया कि मरने के बाद चूहे या मेढ़क की हूबहू शक्ल उस रासायनिक कुहरे में तैर रही है। उस आकृति की गति-विधियां सम्बन्धित प्राणी के जीवन काल की ही गतिविधियों के अनुरूप थी। क्रमशः यह सत्ता धुंधली होती जाती है फिर कैमरे की पकड़ से बाहर चली जाती है।

लन्दन के प्रसिद्ध डा. डब्ल्यू.जे. किल्लर ने एक पुस्तक लिखी है—‘दि ह्यूमन एडमॉस्कियर’। इसमें उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण तथ्य गिनाकर भौतिक विज्ञान को इन चुनौतियों से जूझने का आवाहन किया है। एक तथ्य यह है—अपने सेन्ट जेम्स अस्पताल में डा. किल्लर ने रोगियों के परीक्षण के दौरान एक दिन खुर्दबीन पर एक दुर्लभ रासायनिक रंग के धब्बे देखे। यह रंग आया कहां से, वे व्यग्रता से खोज करने लगे।

दूसरे दिन इसी रासायनिक रंग की लहरें उन्होंने एक रोगी की जांच करते समय शीशे से देखी और चौंक पड़े। एक रोगी के सभी कपड़े हटा दिए फिर देखा—रोगी के छह सात इंच की परिधि में वही लहरें एक आभामण्डल बनाये हैं। वह प्रकाश किसी भी शारीरिक अस्वस्थता का परिणाम नहीं था। प्रकाशमण्डल मन्द पड़ रहा था। डा. किल्लर सतर्क हो गये। रोगी मरणासन्न था। जैसे-जैसे प्रकाशमण्डल मन्द पड़ता गया, रोगी शिथिल होता गया। सहसा वह प्रकाश जाने कहां खो गया। डा. किल्लर ने देखा, रोगी निष्प्राण हो चुका था। अब उस ठण्डे शरीर के आस-पास कहीं कोई रासायनिक रंग शेष नहीं रहा था। इस घटना की रिपोर्ट छपी तो लोग चकित रह गये। वाकले, कैलीफोर्निया (अमरीका) में कार्यरत डा. सनेला और उनके साथियों ने इस विषय पर न केवल खोज की है, बल्कि ‘साइकोसिस और ट्रान्सेन्डेन्स?’ शीर्षक एक लेख में ‘दि रिबर्थ प्रासेस’ (पुनर्जन्म प्रक्रिया) की गहरी छानबीन व दस्तावेजों से भरी व्याख्या भी प्रस्तुत की है।

डा. सनेला के समूह ने शोजीफ्रेनिया, मेनिअक, डिप्रेशन (एक अवधि के लिये मानसिक उन्माद की स्थिति आ जाना फिर सामान्य मनःस्थिति, इसी तरह अनवरत क्रम), तथा मानसिक असन्तुलन जन्य अन्य रोगों के रोगानुसन्धानों का विवरण देते हुए यह तथ्य प्रदर्शित किया है। कि उनमें से अधिकांश उच्चतर मानसिक विकास की प्रक्रिया वाले वे लोग हैं, जो विराट आन्तरिक शक्तियों के अपरिपक्व तथा असन्तुलित प्रस्फुटन के कारण इस स्थिति में पहुंचे हैं। सनेला—समूह के अनुसार विकास की यह स्थिति वस्तुतः मानसिक रोग नहीं है, बल्कि ‘पुनर्जन्म-प्रक्रिया’ की ओर यह गति मात्र है।

पहले विज्ञान पदार्थ की चार अवस्थाएं ही जानता था—ठोस, द्रव, गैस और प्लाज्मा। प्लाज्मा मात्र वाह्य अन्तरिक्ष में विद्यमान है, किन्तु भौतिकी प्रयोगशालाओं में भी उसे अत्युच्च तापमान पर उत्पादित किया जा सकता है।

1944 में सोवियत भौतिकी विद् व्ही.एस. ग्रिश्चेन्को ने पहली बार पदार्थ की पंचम अवस्था—‘‘जैव प्लाज्मा’’ की खोज की जो कि सभी जीवधारियों में विद्यमान प्राण ही है। प्रो. ग्रिश्चेन्को के अनुसार जैव प्लाज्मा में इयान्स, स्वतन्त्र इलेक्ट्रान और स्वतन्त्र प्रोटान होते हैं, जो कि नाभिक से स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। यह तीव्र संचालक हैं और दूसरे अवयवों या जीवधारियों में शक्ति के संग्रहण रूपान्तरण तथा संवहन में सक्षम होता है। यह मनुष्य के मस्तिष्क में और सुषुम्ना नाड़ी में एकत्रित रहता है। यह अत्यधिक दूरियों को तीव्र गति से लांघ सकता है और इस तरह टेलीपैथी, मनोवैज्ञानिक और मनोगति की प्रक्रियाओं से सम्बन्धित है।’

इस अनुसंधान के बाद, सोवियत विज्ञान ने तेजी से इस क्षेत्र में प्रगति की है। अपने प्रयोगों के दौरान रूसियों ने अत्यधिक विकसित उपकरणों का उपयोग किया उच्च वोल्टेज वाली फोटोग्राफी की प्रक्रिया जिसमें इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप भी शामिल हो, क्लोज—सर्किट टेलीविजन, तथा मोशन-पिक्चर, टेक्नीक का उपयोग, जिसे, ऐस.डी. कीर्लिलन और व्ही. के. कीर्लियन ने विकसित किया है। रेडिएशन-फील्ड फोटोग्राफी को रूसी ‘‘कीर्लियन औरा’’ कहते हैं। इनके द्वारा प्रो. ग्रिश्चेन्को की ‘बायो-प्लाज्मा’ और उसके भारतीय समतुल्य ‘सूक्ष्म-शरीर’ तथा उसमें परिव्याप्त प्राण-आवरण को अवधारणाओं की पुष्टि होती है। इस तरह यह अज्ञात ईथर तत्व के जगत में वैज्ञानिकों द्वारा अति महत्वपूर्ण भौतिक आधारों की खोज है।

सोवियत रूस के प्रसिद्ध अन्तरिक्ष केन्द्र के पास आल्माअता में कजाकिस्तान राज्य विश्वविद्यालय की जैव विज्ञान प्रयोगशाला के निर्देशक डा. ह्बी.एम. इन्युशियन पी.एच.डी. ने अपने एक शोधपत्र में कहा है कि उच्चस्तरीय विशेषीकृत तथा क्लिष्ट विधियों के द्वारा अत्युच्च संवेदना वाली कीर्लियन—फोटोग्राफिक प्रक्रियाओं द्वारा पहले खरगोश और बाद में मनुष्यों के फोटोग्राफ लिए जाने पर, सोवियत वैज्ञानिक ‘बायोप्लाज्मा’ तथा शरीर के चारों ओर उसकी परिव्याप्त (झीनी चादर) की फोटो लेने में सफल रहे हैं। कीर्लियन फोटोग्राफों से पता चलता है कि जैविक-प्रकाश (चमक) का कारण जैव-प्लाज्मा है। इनका आधार होता है और इनमें ध्रुवीय छोर होते हैं। प्रयोगों से प्रमाणित होता है कि—

(1) प्लाज्मा मस्तिष्क में सर्वाधिक सघन है।

(2) सुषुम्ना-नाड़ी और उसकी रासायनिक कोशिकाएं वायो-प्लाज्मा गतिविधियों के केन्द्र हैं।

(3) यह अंगुलियों के छोर तथा सूर्य-चक्र की पीठ में अधिक सुदृढ़ होता है।

(4) रक्त की तुलना में स्नायुओं के केन्द्रों में अधिक प्लाज्मा होता है।

नेत्र तीव्र विकिरण के स्रोत हैं। (इनसे पता चलता है कि हिप्नोटिस्ट क्यों अपने सब्जेक्ट की आंखों में गहराई तक झांकते हैं और इस तरह अपने विचारों से उसे प्रभावित करते हैं।)

डा. इन्सुशिन स्पष्ट करते है—अपनी प्रयोगशाला में हमने लगातार प्रयोग किये हैं यह जानने के लिए कि क्या वायो-प्लाज्मा का (प्राण शक्ति का) वास्तविक अस्तित्व है। हम जानते हैं कि प्रत्येक जीवधारी के पास एक ऐसी प्रणाली है जो शक्ति का विकरण करती है और एक क्षेत्र (सूक्ष्म शरीर) तैयार करती है।

किन्तु हम जीवधारियों की शक्ति-प्रक्रिया को बहुत कम जानते हैं, विशेषकर टेलीपैथी में, जबकि दो व्यक्ति एक ऐसी दूरी पर रहते हुये एक साथ परस्पर सम्बद्ध क्रियाएं करते हैं, कि उसकी प्रक्रिया परम्परागत साधनों द्वारा ठीक से समझाई नहीं जा सकती।

एक जीवित देहधारी को एक जैविक क्षेत्र कहा जा सकता है, जिसमें एक दूसरे को प्रभावित करने वाली शक्तिधाराओं का अस्तित्व हो। जैविक क्षेत्रों का स्पष्ट रूपाकार है और ये विभिन्न भौतिक क्षेत्रों द्वारा विनिर्मित हैं— इलेक्ट्रोस्टेटिक, इलेक्ट्रो मैग्नेटिक, हाइड्रोडायनमिक तथा सम्भवतः ऐसे अनेक क्षेत्र भी जिनके बारे में हम अच्छी तरह जानते नहीं, बायो-प्लाज्मा इनमें से किसी एक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है।

मनुष्य की विभिन्न शरीर क्रियावैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं की जांच की गई। देखा गया कि सुषुम्ना नाड़ी का केन्द्र, अनेक स्नायविक कोशिकाओं के गुच्छों के साथ चक्र) जैव प्लाज्मीय सक्रियता का केन्द्र है। बायो-प्लाज्मिक सक्रियता ‘मूड़’ पर निर्भर देखी गई। उदाहरणार्थ कलाकार किसी कलाकृति के बारे में सोचते समय उच्चस्तरीय चेतना की स्थिति में थे। यानी उनका ‘कोरोना’ अत्यन्त प्रकाशवान था, जबकि कुण्ठित तनावग्रस्त व्यक्ति का ‘कोरोना’ बहुत पतला था तथा उसमें कई काले धब्बे थे।

शरीर में जैव-प्लाज्मीय (बायो-प्लाज्मिक) क्षेत्र की सापेक्ष स्थिरता के बावजूद वायो-प्लाज्मा के द्वारा शक्ति का एक महत्वपूर्ण अंश अन्तरिक्ष में विकीर्ण होता है। यह माइक्रोस्टीमर्स के रूप में हो सकता है या फिर बायोप्लाज्माइड्स के रूप में। माइक्रोस्टीमर्स हवा के द्वारा बनने वाले ‘बायो-प्लाज्मिक’ अवयवों के स्रोत हैं, जबकि बायो-प्लाज्माइड्स वायो-प्लाज्मा के वे टुकड़े हैं, जो शरीर से अलग हो गये हैं यानी वे कास्मिक-चेतना को मानवीय-चेतना से जोड़ने के स्रोत हैं।

एक अन्य प्रख्यात वैज्ञानिक जर्मनी के प्रो. बिलहेमरीच भी प्राण शरीर के अस्तित्व में भारतीय सिद्धान्त का मानवीय देह की एक प्रतिकृति के अस्तित्व के रूप में समर्थन करते हैं। वे इसे ‘आर्गोन’ कहते हैं यानी एक जैव विद्युतीय शक्ति, जो नीले रंग की है।

सोवियत खोज को अमेरिकन वैज्ञानिकों के सामने प्रस्तुत करते हुए, शैला आस्ट्रेन्डर तथा लिन स्क्रोडर ने लिखा है, ''सोवियतों को साक्ष्य मिल गया प्रतीत होता है कि समस्त जीवधारियों में शक्ति का कोई सांचा, एक प्रकार का अदृश्य शरीर अथवा भौतिक शरीर को परिवृत करने वाला कोई प्रकाश पिंड होता है.......’’

इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप की आंखों से इन वैज्ञानिकों ने प्रशान्त उच्चस्तरीय ‘फ्रीक्वेन्सी’ पर कोई ऐसी वस्तु निरन्तर ‘डिस्चार्ज’ होते देखी है, जो पहले ‘क्लेयर वोवेन्टस्’ (भविष्यदृष्टा) ही देख पाते थे। उन्होंने जीवित देह में एक जीवित प्रतिकृति को गतिवान देखा है......

‘‘यह प्रतिकृत क्या है? यह एक समग्र एकीभूत देह ही है।’’ जो एक ईकाई की तरह काम करती है। यह अपने स्वयं के विद्युत चुम्बकीय क्षेत्रों का अतिक्रमण करती है तथा जीव-वैज्ञानिक क्षेत्र का यह आधार है।

यह जैविक प्रकाश पिंड, जो कीर्लियन चित्रों में देखा जा सकता है, बायो-प्लाज्मा के द्वारा विनिर्मित है। कजाक वैज्ञानिकों के अनुसार इस कम्पनशील, रंगीन, शक्ति-शरीर की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसकी एक विशिष्ट स्थानिक संरचना है। उसमें आकार है तथा वह पोलराइण्ड भी हैं (यानी उसमें छोर भी है)।

यह हैं कुछ निष्कर्ष जो पदार्थ विज्ञान के आधार पर मरणोत्तर जीवन की सम्भावनाओं पर प्रकाश डालते हैं और शरीर त्यागने के उपरान्त भी जीवात्मा का अस्तित्व बना रहने की मान्यता का समर्थन करते हैं। किन्तु यह यो तो तथ्य का एक छोटा और भोंड़ा पक्ष है। वस्तुतः उस संदर्भ में दूसरे आधार पर नये सिरे से विचार करना होगा। विशाल ब्रह्माण्ड का लघुतम घटक अणु-अण्ड है। दोनों के सघन समन्वय पर ही इस संसार की विधि हलचलों की व्याख्या विवेचना सम्भव होती है। भौतिकी का सुविस्तृत शास्त्र इन्हीं शोध प्रयोजनों में संलग्न रहता है। यह विश्व का स्थूल आवरण हुआ उसका प्राणतत्व उस सूक्ष्म सत्ता के रूप में जाना जाता है जिसे ब्रह्माण्डीय चेतना अथवा ब्रह्म तत्व कहते हैं। विराट् ब्रह्म का लघुत्तम घटक जीव है। जीव और ब्रह्म के बीच होने वाले आदान-प्रदान पर ही चेतनात्मक हलचलों का आधार खड़ा है। जीव ब्रह्म में से ही उदय होता है और अंततः उसी में उसे लय भी होना पड़ता है। भौतिकी को आवरण विवेचना कहा गया है और ब्रह्म-विद्या को चेतना का तत्व दर्शन। दोनों के अपने-अपने क्षेत्र हैं और अपने-अपने प्रयोजन। जिस दिन भौतिकी की तरह ब्रह्म विद्या का भी सुनिश्चित एवं प्रामाणिक शास्त्र बन कर तैयार हो जायगा उसी दिन जीवसत्ता और ब्रह्म-सत्ता का पारस्परिक सम्बन्ध सम्पर्क ठीक प्रकार समझा जा सकेगा। ऋषियों ने अपने ढंग से दार्शनिक पृष्ठभूमि पर ब्रह्म-विद्या का ढांचा खड़ा किया था आज उन निष्कर्षों का समर्थन प्रत्यक्षवादी आधारों पर किये जाने की युग अपेक्षा है सत्य तो सत्य ही है। तथ्य तो तथ्य ही है। उन्हें इस आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता है और उस आधार पर भी। ब्रह्म-सत्ता को प्रत्यक्षवादी आधार ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में मान्यता दे रहे हैं और जीव को बायो-प्लाज्मा के रूप में। दोनों का तारतम्य बैठ रहा है। आशा की जानी चाहिए कि अगले ही दिन जीवचेतना के सम्बन्ध में अनेकों महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रत्यक्ष वादी पृष्ठभूमि पर भी प्रस्तुत हो सकेंगे तब सर्वसाधारण के लिए मरणोत्तर जीवन के अस्तित्व के तथ्य को सिद्ध कर सकना भी कुछ कठिन न रह जायगा।

आइन्स्टाइन कहते थे—आज न सही, कल यह सिद्ध होकर रहेगा कि अणु सत्ता पर किसी अविज्ञात चेतना का अधिकार और नियन्त्रण है। भौतिक-जगत उसी गुस्फरणा है। पदार्थ मौलिक नहीं है, चेतना की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ही पदार्थ का उद्भव हुआ है। भले ही आज यह तथ्य प्रयोगशाला में सिद्ध न हो सके, पर मेरा विश्वास है कि कभी वह सिद्ध होगा अवश्य।

जीव-तत्व की शोध के स्वस्थ कदम आत्मा की स्वतन्त्र चेतन सत्ता स्वीकार करने पर ही आगे बढ़ सकेंगे। आत्मा को जड़ सिद्धान्तों के अन्तर्गत बांधते रहने से—चेतना विज्ञान के उपयुक्त विकास में बाधा ही खड़ी रहेगी और सही निष्कर्ष तक पहुंचने में एक भारी व्यवधान खड़ा रहेगा।

वैज्ञानिक शोधों में जिस जिज्ञासा की आवश्यकता पड़ती है, उसी सूक्ष्म दृष्टि को अपना कर आत्म-सत्ता की महत्ता और उसके स्वस्थ विकास की सम्भावनाओं को समझा जा सकता है। इस लाभ से मनुष्य जिस दिन लाभान्वित होगा, उस दिन उसे न अभाव, दारिद्रय का सामना करना पड़ेगा और न शोक-सन्ताप का।

कठोपनिषद् के अनुसार ‘बालक नचिकेता’—महाभाग यम से जीवन और मृत्यु की पहेली का उत्तर पूछता है। तैत्तरीय उपनिषद् में भृगु अपने पिता वरुण से ब्रह्म की प्रकृति तथा सर्वोच्च यथार्थ के बारे में जानना चाहता है। श्वेत केतु ज्ञान से समृद्ध होकर लौटता है तो उसके पिता उससे पूछते हैं कि क्या उसने ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया? जनक निरन्तर याज्ञवल्क्य से एक के बाद एक प्रश्न पूछते हुए—एतरेय उपनिषद् में यही जानना चाह रहे हैं कि जीव को शुद्ध अंतर्दृष्टि से किस प्रकार पूर्णता का बोध होता है? इस समाधान को प्राप्त करके ही मानवी-चिन्तन की सार्थकता और विकास क्रम की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
First 2 4 Last


Other Version of this book



पुनर्जन्म : एक ध्रुव सत्य
Type: TEXT
Language: HINDI
...

पुनर्जन्म : एक ध्रुव सत्य
Type: SCAN
Language: EN
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • मरणोत्तर जीवन और उसकी सच्चाई
  • जन्म मृत्यु-मात्र स्थूल जगत की घटनाएं
  • जीवन सत्ता का चैतन्य स्वरूप
  • विदेशों में पुनर्जन्म की घटनाएं एवं मान्यताएं
  • जन्म मृत्यु का अविराम क्रम
  • जन्मान्तर प्रगति या पतन के आधार—आत्म-सत्ता के संकल्प एवं कर्म
  • पुनर्जन्म—पुनरावर्तन नहीं यात्रा का अगला चरण
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj