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Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग १

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प्राणवान् प्रतिभाओं की खोज

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समय की माँग के अनुरूप, दो दबाव इन दिनों निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। एक व्यापक अवांछनीयताओं से जूझना और उन्हें परास्त करना। दूसरा है नवयुग की सृजन व्यवस्था को कार्यान्वित करने की समर्थता। निजी और छोटे क्षेत्र में भी यह दोनों कार्य अति कठिन पड़ते हैं, फिर जहाँ देश, समाज या विश्व का प्रश्न है, वहाँ तो कठिनाई का अनुपात असाधारण होगा ही।

    प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए तदनुरूप योग्यता एवं कर्मनिष्ठा उत्पन्न करनी पड़ती है। साधन जुटाने पड़ते हैं। इनके बिना सामान्य स्थिति में रहते हुए किसी प्रकार दिन काटते ही बन पड़ता है। इसी प्रकार कठिनाइयों से जूझने, अड़चनों के निरस्त करने और मार्ग रोककर बैठे हुए अवरोधों को किसी प्रकार हटाने के लिए समुचित साहस, शौर्य और सूझ-बूझ का परिचय देना पड़ता है। अनेकों समस्याएँ और कठिनाइयाँ, आए दिन त्रास और संकट भरी परिस्थितियाँ, बनी ही रहती हैं। जो कठिनाइयों से जूझ सकता है और प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के साधन जुटा सकता है, उसी को प्रतिभावान् कहते हैं।

    प्रतिभा की निजी जीवन के विकास में निरंतर आवश्यकता पड़ती है और अवरोधों को निरस्त करने में भी। जो आगे बढ़े-ऊँचे उठे हैं, उन्हें यह दोनों ही सरंजाम जुटाने पड़े। उत्कर्ष की सूझ-बूझ और कठिनाइयों से लड़ सकने की हिम्मत, इन दोनों के बिना उन्नतिशील जीवन जी सकना संभव ही नहीं होता। फिर सामुदायिक सार्वजनिक क्षेत्र में सुव्यवस्था बनाने के लिए और भी अधिक प्रखरता चाहिए। यह विशाल क्षेत्र, आवश्यकताओं और गुत्थियों की दृष्टि से तो और भी बढ़ा-चढ़ा होता है।

    मनुष्यों की आकृति-प्रकृति तो एक जैसी होती है, पर उनके स्तरों में भारी भिन्नता पाई जाती है। हीन स्तर के लोग परावलंबी होते हैं। वे आँखें बंद करके दूसरों के पीछे चलते हैं। औचित्य कहाँ है, इसकी विवेचना बुद्धि इनमें नहीं के बराबर होती है। वे साधनों के लिए, मार्गदर्शन के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं, यहाँ तक कि जीवनोपयोगी साधन तक अपनी स्वतंत्र चेतना के बलबूते जुटा नहीं पाते। उनके उत्थान-पतन का निमित्त कारण दूसरे ही बने रहते हैं। यह परजीवी वर्ग ही मनुष्यों में बहुलता के साथ पाया जाता है। अनुकरण और आश्रय ही उनके स्वभाव के अंग बनकर रहते है। निजी निर्धारण कदाचित् ही कभी कर पाते हैं। यह हीन वर्ग है, संपदा रहते हुए भी इन्हें दीन ही कहा जा सकता है।

    दूसरा वर्ग वह है जो समझदार होते हुए भी संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा रहता है। योग्यता और तत्परता जैसी विशेषताएँ होते हुए भी वे उन्हें मात्र लोभ, मोह, अहंकार की पूर्ति के लिए ही नियोजित किए रहते हैं। उनकी नीति अपने मतलब से मतलब रखने की होती है। आदर्श उन्हें प्रभावित नहीं करते। कृपणता और कायरता के दबाव से वे पुण्य परमार्थ की बात तो सोच ही नहीं पाते, अवसर मिलने पर अनुचित कर बैठने से भी नहीं चूकते, महत्त्व न मिलने पर वे अनर्थ कर बैठते हैं। गूलर के भुनगे जैसे स्वकेंद्रित जिंदगी ही जी पाते हैं। बुद्धिमान और धनवान् होते हुए भी इन लोगों को निर्वाह भर में समर्थ ‘प्रजाजन’ ही कहा जाता है। वे जिस तिस प्रकार जी तो लेते हैं, पर श्रेय सम्मान जैसी किसी मानवोचित उपलब्धि के साथ उनका कोई संबंध ही नहीं जुड़ता है। उन्हें जनसंख्या का एक घटक भर माना जाता है। फिर भी वे दीन-हीनों की तरह परावलंबी या भारभूत नहीं होते। उनकी गणना व्यक्तित्व की दृष्टि से अपंग, अविकसित और असहायों में नहीं होती। कम-से-कम अपना बोझ अपने पैरों पर तो उठा लेते हैं।

    तीसरा वर्ग प्रतिभाशालियों का है। वे भौतिक क्षेत्र में कार्यरत रहते हैं, तो अनेक व्यवस्थाएँ बनाते हैं। अनुशासन में रहते और अनुबंधों से बँधे रहते हैं। अपनी नाव अपने बलबूते खेते हैं और उसमें बिठाकर अन्य कितनों को ही पार करते हैं। बड़ी योजनाएँ बनाते और चलाते हैं। कारखानों के व्यवस्थापक और शासनाध्यक्ष प्राय: इन्हीं विशेषताओं से संपन्न होते हैं। जिन्होंने महत्त्वपूर्ण सफलताएँ पाईं, उपलब्धियाँ हस्तगत की, प्रतिस्पर्धाएँ जीतीं, उनमें ऐसी ही मौलिक सूझ-बूझ होती है। बोल-चाल की भाषा में उन्हें ही प्रतिभावान कहते हैं। अपने वर्ग का नेतृत्व भी वही करते हैं। गुत्थियाँ सुलझाते और सफलताओं का पथ प्रशस्त करते हैं। मित्र और शत्रु सभी उनका लोहा मानते हैं। मरुस्थल में उद्यान खड़े करने जैसे चमत्कार भी उन्हीं से बन पड़ते हैं। भौतिक प्रगति का विशेष श्रेय यदि उन्हें ही दिया जाए तो अत्युक्ति न होगी। सूझ-बूझ के धनी, एक साथ अनेक पक्षों पर दृष्टि रख सकने की क्षमता भी तो उन्हीं में होती है। समय सबके पास सीमित है। कुछ लोग उसे ऐसे ही दैनिक ढर्रों के कार्यों में गुजार देते हैं, पर कुछ ऐसे भी होते हैं जो एक ही समय में, एक ही शरीर-मस्तिष्क से, अनेकों ताने-बाने बुनते और अनेकों जाल-जंजाल सुलझाते हैं। सफलता और प्रशंसा उनके आगे-पीछे फिरती है। अपने क्षेत्र समुदाय या देश की प्रगति ऐसे सुव्यवस्थित प्रतिभावानों पर ही निर्भर रहती है।

    सबसे ऊँची श्रेणी देव-मानवों की है, जिन्हें महापुरुष भी कहते हैं। प्रतिभा तो उनमें भरपूर होती है, पर वे उसका उपयोग आत्म परिष्कार से लेकर लोकमंगल तक के उच्चस्तरीय प्रयोजनों में ही किया करते हैं। निजी आवश्यकताओं और महत्त्वाकांक्षाओं को घटाते हैं, ताकि बचे हुए शक्ति भंडार को परमार्थ में नियोजित कर सकें। समाज के उत्थान और सामयिक समस्याओं के समाधान का श्रेय उन्हें ही जाता है। किसी देश की सच्ची संपदा वे ही समझे जाते हैं। अपने कार्यक्षेत्र को नंदनवन जैसा सुवासित करते हैं। वे जहाँ भी बादलों की तरह बरसते हैं, वहीं मखमली हरीतिमा का फर्श बिछा देते हैं। वे वसंत की तरह अवतरित होते हैं। अपने प्रभाव से वृक्ष-पादपों को सुगंधित, सुरभित पुष्पों से लाद देते हैं। वातावरण में ऐसी उमंगें भरते हैं, जिससे कोयलें कूकने, भौंरे गूँजने और मोर नाचने लगें।

बड़े कामों को बड़े शक्ति केंद्र ही संपन्न कर सकते हैं। दलदल में फँसे हाथी को बलवान हाथी ही खींचकर पार करते हैं। पटरी से उतरे इंजन को समर्थ क्रेन ही उठाकर यथा स्थान रखती हैं। उफनते समुद्र में से नाव खे लाना, साहसी नाविकों से ही बन पड़ता है। समाज और संसार की बड़ी समस्याओं को हल करने के लिए, ऐसे ही वरिष्ठ प्रतिभावानों की आवश्यकता पड़ती है। पुल, बाँध, महल, किले जैसे निर्माणों में मूर्द्धन्य इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ती है। पेचीदा गुत्थियों को सुलझाना किन्हीं मेधावियों से ही बन पड़ता है। प्रतिभाएँ वस्तुतः ऐसी संपदाएँ हैं, जिनसे न केवल प्रतिभाशाली स्वयं भरपूर श्रेय अर्जित करते हैं, वरन् अपने क्षेत्र समुदाय और देश की अति विकट दीखने वाली उलझनों को भी सुलझाने में सफल होते हैं। इसी कारण भावनावश ऐसे लोगों को देवदूत तक कहते हैं।

    आड़े समय में इन उच्चस्तरीय प्रतिभाओं की ही आवश्यकता होती है। उन्हीं को खोजा, उभारा और खरादा जाता है। विश्व के इतिहास में ऐसे ही महामानवों की यशगाथा स्वर्णिम अक्षरों में लिखी मिलती है। संसार के अनेक सौभाग्यों और सुंदरताओं में अधिक मूर्द्धन्य महाप्राणों के व्यक्तित्व ही सबसे अधिक चमकते हैं। वे अपनी यशगाथा से असंख्यों का, अनंतकाल तक मार्गदर्शन करते रहते हैं। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि के नाम से आध्यात्मिक भाषा में जिन महान उपलब्धियों का अलंकारिक रूप से वर्णन किया जाता है, उनका सारतत्त्व वस्तुतः ऐसे ही महामनीषियों को करतलगत होता है। दूसरे लोग पूजा- पाठ के सहारे कुछ मिलने की आशा करते हैं, पर मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी ऐसे कर्मयोग की साधना में ही निरत रहते हैं, जो उनके व्यक्तित्व को प्रामाणिक और कर्तृत्व को ऊर्जा का उद्गम स्रोत सिद्ध कर सके।

    वर्तमान समय विश्व इतिहास में अद्भुत एवं अभूतपूर्व स्तर का है। इसमें एक ओर महाविनाश का प्रलयंकर तूफान अपनी प्रचंडता का परिचय दे रहा है, तो दूसरी ओर सतयुगी नवनिर्माण की उमंगें भी उछल रही हैं। विनाश और विकास एक- दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं, तो भी उनका एक ही समय में अपनी- अपनी दिशा में चल सकना संभव है। इन दिनों आकाश में सघन तमिस्रा का साम्राज्य है, तो दूसरी ओर ब्रह्ममुहूर्त का आभास भी प्राची में उदीयमान होता दीख पड़ता है। इन दोनों के समन्वय को देखते हुए ही अपना समय युगसंधि का समय माना गया है। ऐसे अवसरों पर किन्हीं प्रखर- प्राणवानों को ही अपनी सही भूमिका निभानी पड़ती है।

    त्रेता में एक ओर रावण का आसुरी आतंक छाया हुआ था, दूसरी ओर रामराज्य वाले सतयुग की वापसी, अपने प्रयास- पुरुषार्थ का परिचय देने के लिए मचल रही थी। इस विचित्रता को देखकर सामान्यजन भयभीत थे। राम के साथ लड़ने के लिए उन दिनों के एक भी राजा की शासकीय सेनाएँ आगे बढ़कर नहीं आईं। फिर भी हनुमान्, अंगद के नेतृत्व में रीछ- वानरों की मंडली जान हथेली पर रख आगे आई और समुद्र- सेतु बाँधने, पर्वत उखाड़ने लंका का विध्वंस करने में समर्थ हुई। राम ने उनके सहयोग की भाव भरे शब्दों में भूरि- भूरि प्रशंसा की। इस सहायक समुदाय में गीध, गिलहरी, केवट, शबरी जैसे कम सामर्थ्यवानों का भी सदा सराहने योग्य सहयोग सम्मिलित रहा। महाभारत के समय भी ऐसी ही विपन्नता थी। एक ओर कौरवों की विशाल संख्या वाली सुशिक्षित और समर्थ सेना थी, दूसरी ओर पाण्डवों का छोटा- सा अशक्त समुदाय। फिर भी युद्ध लड़ा गया। भगवान ने सारथी की भूमिका निबाही और अर्जुन ने गाण्डीव से तीर चलाए। जीत शक्ति की नहीं, सत्य की, नीति की, धर्म ही हुई। इन उदाहरणों में गोवर्धन उठाने वाले ग्वाल- बालों का सहयोग भी सम्मिलित है। बुद्ध की भिक्षु मंडली और गाँधी की सत्याग्रही सेना भी इसी तथ्य का स्मरण दिलाती है। प्रतिभा ने नेतृत्व सँभाला, तो सहयोगियों की कमी नहीं रही। संसार के हर कोने से, हर समय में ऐसे चमत्कारी घटनाक्रम प्रकट होते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि सत्य की शक्ति अजेय है। उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ उसे गंगावतरण काल के जैसे प्रयोजन में और परशुराम जैसे ध्वंस प्रयोजनों में प्रयुक्त करती रही हैं। महत्त्व घटनाक्रमों और साधनों का नहीं रहा, सदैव मूर्द्धन्य प्रतिभाओं ने ही महान समस्याओं का हल निकालने में प्रमुख भूमिका निबाही है।

    चाणक्य ने चंद्रगुप्त की प्रतिभा को पहचान, उसे अपनी सामर्थ्य का बोध कराया व कुछ पुरुषार्थ कर दिखाने को आगे धकेला तो असमंजस में उलझा नगण्य- सा वह व्यक्ति असामान्य कार्य कर दिखा पाने में समर्थ हुआ। प्राणनाथ महाप्रभु ने वीर छत्रसाल जैसी प्रतिभा को पहचाना व उसे वह शक्ति दी जिसने उसे उत्तर भारत में आक्रान्ताओं से भारतीय संस्कृति की रक्षा करने का साहस प्रदान किया। विवेकानन्द जैसी प्रतिभा नरेंद्र नाम के युवक में छिपी है, यह रामकृष्ण ही जान पाए एवं अपनी शक्ति का अंश देकर वे विश्व को एक महामानव दे गए। समय- समय पर परोक्ष चेतना, समस्याओं के निवारण हेतु प्रतिभाओं को ही खोजती रही है।

    इन दिनों व्यक्तिगत समस्याओं का शिकंजा भी कम कसा हुआ नहीं है। आर्थिक, सामाजिक, मानसिक क्षेत्रों में छाई हुई विभीषिकाएँ, सर्वसाधारण को चैन से जी सकने का अवसर नहीं दे रही हैं। इससे

भी बढ़कर सार्वजनिक समस्यायें है। संसार के सामने कितनी ही चुनौतियाँ है, बढ़ती हुई गरीबी, बेकारी, बीमारी, प्रदूषण, जनसंख्या वृद्धि, परमाणु विकिरण, युद्धोन्माद का बढ़ता दबाव, अंतरिक्ष क्षेत्र में धूमकेतु की तरह अपनी विकरालता का परिचय दे रहा है। हिमप्रलय, जलप्रलय, दुर्भिक्ष भूकंपों आदि के माध्यम से प्रकृति अपने प्रकोप का परिचय दे रही है। मनुष्य की बौद्धिक भ्रष्टता और व्यवहारिक दुष्टता से, वह भी तो कम अप्रसन्न नहीं है। भविष्यवक्ता इन दिनों की विनाश विभीषिका की संभावना की जानकारी, अनेक स्तरों पर देते रहे हैं। दीखता है कि वह महाविनाश कहीं अगले दिनों घटित ही तो होने नहीं जा रहा है?

    पक्ष दूसरा भी है- इक्कीसवीं सदी की ऐसी सुखद संभावना, जिसे सतयुग की वापसी कहा जा सके। इन दोनों ही प्रयोजनों में आवश्यक मानवीय भूमिका का समावेश होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस कार्य को मूर्द्धन्य प्रतिभाएँ ही संपन्न कर सकेंगी। ईश्वर, धर्म का संरक्षण और अधर्म के विनाश का काम तो करता है, पर अदृश्य प्रेरणा का परिवहन तो शरीरधारी महामानव ही करते हैं। आज उन्हीं की खोज है। उन्हीं को आकुल- व्याकुल होकर ढूँढ़ा जा रहा है। दीन- हीन और पेट- प्रजनन में निरत तो असंख्य प्रजाजन सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। पर वे तो अपने भार से ही दबे हैं, अपनी ही लाश ढो रहे हैं। युग परिवर्तन जैसे सृजन और ध्वंस के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्राणवानों की आवश्यकता है। गोताखोर उन्हीं को इस खारे समुद्र में से मणिमुक्तकों की तरह ढूँढ़ निकालने में लगे हुए हैं।

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