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Books - शिक्षा ही नहीं विद्या भी

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लोक-रंजन के साथ जुड़ा हुआ लोक-मंगल

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    युग चेतना का स्वरूप निर्धारण, उसका लेखन प्रकाशन शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार और युग निर्माण योजना मथुरा द्वारा छोटे साधनों से चल रहा है। फिर भी वह अपनी गुणवत्ता के कारण निरंतर लोकप्रिय हो रहा है। मूल्य इतना सस्ता रखा गया है कि इस स्तर के प्रकाशनों की पंक्ति में उसे एक कीर्तिमान स्तर का कहा जा सकता है। इसे व्यावसायिक प्रकाशन वाले दृष्टिकोण से सर्वथा पृथक रखा गया है। लगभग कागज, छपाई जितना ही इनका मूल्य रखा गया है; ताकि ईसाई मिशनों द्वारा छपने और प्रचारित किए जाने वाले स्तर से समता की जा सके।

    इन दिनों जो करना, लिखना और प्रतिपादन प्रस्तुत करना शेष है, वह इतना सुविस्तृत है कि युग-मनीषियों की कई सुनियोजित मंडलियाँ खप सकती हैं। प्रकाशन के लिए इतना बड़ा तंत्र चाहिए, जितना कि विशालकाय कल-कारखाने में लगता है। क्षेत्रीय भाषाओं में से कितनी ही ऐसी हैं, जिनने संसार के विशाल भागों पर अपना वर्चस्व जमा रखा है। इन क्षेत्रों में युग चिंतन, उन परिस्थितियों के साथ जोड़ते हुए प्रस्तुत किया जाना है, जिनसे उनकी जीवन पद्धति और विचार शृंखला जुड़ी हुई है। इनको माध्यम बनाना हो, तो मौलिक आदर्शों को यथावत रखते हुए भी उनका व्यावहारिक स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत करना पड़ेगा, जो उन समुदायों की वर्तमान मान्यताओं के साथ तालमेल बिठाते हुुए प्रगति का व्यावहारिक स्वरूप प्रस्तुत कर सके।

    ईसाई धर्म की एक छोटी सीमा है, पर उसने अपनी विचार-धारा को व्यापक बनाने के लिए बाइबिल से लेकर छोटी पुस्तिकाओं तक को संसार की प्राय: सभी भाषाओं में करोड़ों की संख्या में छापा और उपयुक्त व्यक्तियों तक पहुँचाया है। यही कारण है कि उस विचारधारा से प्रभावित होकर संसार के प्राय: एक तिहाई मनुष्यों ने उस धर्म में प्रवेश पा लिया है।

    साम्यवादी देशों ने भी अपने सीमित क्षेत्र में ही नहीं, संसार की अनेक भाषाओं में अपने मंतव्य को प्रकाशित किया है। सरकारें अपनी-अपनी नीतियों का स्पष्टीकरण करने के लिए प्रचार प्रकाशन पर एक बड़ी राशि खर्च कर रही है। यह न तो अकारण है और न अनावश्यक। अब लोक मानस इतना समर्थ हो गया है कि उसे साथ लिए बिना बहुसंख्यक लोगों का समर्थन प्राप्त करना संभव ही नहीं रहा है। युग परिवर्तन प्रक्रिया उपरोक्त सभी क्षेत्रों से बढ़कर है। उसका सीधा संबंध संसार के ६०० करोड़ मनुष्यों के साथ जुड़ता है। यदि विशाल समुदाय में नवयुग के प्रति उत्सुकता, श्रद्धा एवं प्रयत्नपरायणता उत्पन्न न की जा सकी, तो पिछड़ापन चिरकाल तक अपनी हथकड़ियाँ, बेड़ियाँ कसे ही रहेगा।

    दुर्भाग्य से संसार में अभी एकता-समता को अपनाने के लिए अधिक उत्साह नहीं उपजा है। इस संदर्भ में भाषाओं की भिन्नता कोढ़ में खाज की तरह है। कोई एक भाषा ऐसी नहीं जिसका अवलंबन लेकर विश्व मानव तक उज्ज्वल भविष्य के संदेश एवं आलोक को पहुँचाया जा सकना संभव हो सके। ऐसी दशा में विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्रों के लिए उन्हीं के अनुरूप भाषाओं का आश्रय लेकर, उसी स्तर का प्रकाशन आवश्यक हो जाता है।

    अब लोक चेतना को दिशा देने के लिए कुछ और सशक्त माध्यम अपनी प्रचंड शक्ति का परिचय देने लगे हैं। इनमें से एक है सिनेमा-फिल्म व्यवसाय। इसी का दूसरा छोटा भाई अभी और जन्मा है, वह है वीडियो। इनके द्वारा दृश्य और श्रव्य दोनों माध्यमों ने लोक चेतना को असाधारण रूप से प्रभावित किया है। इनकी पहुँच साहित्य क्षेत्र से कम नहीं रही, वरन वे और भी अधिक बढ़ गई है। इनका लाभ संसार की एक तिहाई शिक्षित जनता ही नहीं उठाती, वरन शेष दो तिहाई अशिक्षित जनता भी संपर्क में आती और प्रभाव ग्रहण करती है।

सरकारों के कब्जे में दूरदर्शन और रेडियो दोनों आ गए हैं। वे अपने मतलब की जानकारियाँ तो जनता तक पहुँचाते ही है, साथ ही ऐसा बहुत कुछ घुला-मिला देते हैं, जो कामुकता जैसी दुष्प्रवृत्तियों को मनोरंजन का नाम देकर दर्शकों के गले उतार देता है। यह दोनों समर्थ साधन युग चेतना के अनुरूप चल सकते हैं, इसकी आशा तो फिलहाल नहीं की जा सकती है, पर इनके और भी दूसरे सुलभ संस्करण इस स्थिति में हैं कि उनका उपयोग जन स्तर के समर्थ संगठनों द्वारा किया जा सके।

    टेप और टेप रिकार्डर द्वारा रेडियो की एक छोटी सीमा तक आवश्यकता पूरी की जा सकती है। फिल्में बनाने वाले यदि कुछ साहस करें, तो वे भी विचार क्रांति की महती आवश्यकता में अपना कुछ कहने लायक योगदान दे सकते हैं। फिर उसका छोटा भाई वीडियो भी अब इस योग्य हो सकता है कि अपने दुबले पैरों और पंखों द्वारा किसी प्रकार घिसटते-घिसटते जन समुदाय के एक बड़े भाग तक अपना प्रभाव पहुँचा सके। यदि संभव हो तो समर्थ व्यक्ति इन दोनों माध्यमों को भी इतना सरल और सस्ता बना सकता है कि जन-जन तक उनकी पहुँच हो सके और समय की माँग को पूरा करने में वे दोनों कुछ कहने लायक बड़ी भूमिका निभा सकें। ग्रामोफोन रिकार्डर उद्योग और स्लाइड प्रोजेक्टर अब समय से पीछे पड़ गए हैं, पर जहाँ तक प्रचार माध्यमों का संबंध है, वहाँ उनको भी पिछड़े क्षेत्रों में और पिछड़े समुदायों में अपनी भूमिका निभाते रहने में अभी भी उपयोगी बनाया जा सकता है।

    कभी जनशक्ति के सहारे चलने वाले प्रचार प्रयोजन भी गाँव-गाँव पहुँचते और लोक रंजन के साथ-साथ लोक मंगल का काम भी अच्छी तरह करते थे। उनसे आजीविका भी मिल जाती थी और लोक रंजन के साथ-साथ लोकमंगल का प्रचार कार्य भी बहुत हद तक हो जाता था, पर बढ़ती हुई यांत्रिक सभ्यता के कारण उनका आधार लड़खड़ा गया है।

    राम लीला, रास लीला, नौटंकी, संगीत मंडलियों, कठपुतलियों आदि के द्वारा कुछ समय पूर्व तक बड़ा काम होता रहता था और हजारों लोगों को आजीविका मिलती थी, पर अब ग्रामोद्योगों की तरह उन्हें भी उपेक्षा का भाजन बनना पड़ रहा है। एक प्रकार से उनका अस्तित्व ही मिटता जा रहा है। गाँवों में लगने वाली हाटें अपने थोड़े से उद्योगों को असाधारण रूप से प्रोत्साहित किया करती थीं, पर इन दिनों की परिस्थितियों को देखते हुए कुछ कहा नहीं जा सकता है कि इन सब का भविष्य क्या है? फिर भी यदि गतिशील प्रतिभाएँ कुछ प्रयत्न करें, तो यह भी हो सकता है कि वे माध्यम, कुछ सुधरे हुए रूप से निर्वाह करने लगें।

    बड़े माध्यम जिनके हाथ नहीं हैं, वे भी अपने संपर्क क्षेत्र में विचार विनिमय का कोई न कोई रास्ता निकाल सकते हैं। नाटक, अभिनय, लोक नृत्य आदि की सही व्यवस्था न बन पड़े, तो इतना तो हो ही सकता है कि अपने से छोटों को किस्से-कहानियाँ सुनाकर, आदर्श जनों के जीवन चरित्र सुनाकर, उन पर गीत बनाकर, खंजरी जैसे छोटे वाद्यों के सहारे उन्हें जगह-जगह सुनाते रहने का क्रम अपनाया जाए। आठवें दर्जे का विद्यार्थी छोटे दर्जे के छात्रों को बहुत कुछ पढ़ाने-सिखाने की सहायता तो कर ही सकता है। बड़ों को न सही छोटों को आदर्शवादी प्रेरणाएँ देते रहने की दृष्टि से तो हम सभी उपयोगी सिद्ध हो ही सकते है।


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