आगामी दस वर्ष-अति महत्त्वपूर्ण
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प्राचीन काल में सतयुग का वातावरण अनायास ही नहीं बना रहा था। उसके लिए ऋषिकल्प महामानव विद्या विस्तार के दायित्व को पूरी तत्परता से सँभालते थे। आश्रमों, तीर्थों, आरण्यकों, गुरुकुलों, मंदिरों जैसे स्थानों एवं कथा-सत्संगों तीर्थ-यात्राओं घर-घर अलख जगाने जैसी विधाओं के माध्यम से जन-जन को श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों से विभूषित किया जाता था। अध्यात्म विद्या का अविरल प्रवाह हर क्षेत्र में बहता रहता था जिसके कारण हर व्यक्ति आदर्शों को अपनाने तथा उस दिशा में कुछ कर गुजरने के लिए हुलसता रहता था।
अंतराल में सद्भावनाएँ लहराती हों, तो कोई कारण नहीं कि प्राण-चेतना में उल्लास भरी उमंगें न उभरें और उस आकर्षण से प्रकृति का अनुग्रह अजस्र रूप से न बरसे, वातावरण में सुख-शांति के तत्त्व उछलते-उफनते दीख न पड़ेंगे। सतयुग इन्हीं परिस्थितियों का नाम था। उसका सृजन उत्कृष्टता की पक्षधर मन:स्थिति ही किया करती थी।
अगले दिनों सतयुग की वापसी के सरंजाम पूरी तरह संभावित हो रहे हैं। उनमें भी पूर्ववर्ती सौम्य-संपदाओं का समुचित समावेश होने जा रहा है। अस्तु, यह भी स्वाभाविक है कि वैसा ही जनमानस बने और उसके लिए पुरोहित वर्ग में सम्मिलित समझे जाने वाले, जनमानस के परिष्कार में संलग्न देव-मानवों का एक सशक्त और बड़ा वर्ग, नियंता की नियति को शिरोधार्य करते हुए आगे आये। उसके लिए जीवंतों और जीवितों के मन-मानस में समुद्र मंथन-स्तर का हृदयमंथन चल रहा है। विचार-परिवर्तन और दैवी-आह्वान को सुनने-समझने एवं अपनाने के लिए प्रवाह बह रहा है। इन दिनों ऐसे भँवर-चक्रवात इतनी तेजी से उभर रहे हैं, जिन्हें देखकर समय की प्रबलता का अनुमान कोई भी कर सकता है। महाकाल जब करवटें बदलता है, तो ऐसी उलट-पुलट बन पड़ती है, जिसे देखकर दाँतों तले अँगुली दबानी पड़े। इन दिनों ऐसा ही कुछ हो रहा है-होने वाला है।
समय चक्र के अंतर्गत यों पुनर्जीवन भी होता रहता है। पर पुनर्जागृति के दृश्य तो आये दिन देखने को मिलते ही रहते हैं। रात आते ही लोग सो जाते हैं और प्रात:काल नयी स्फूर्ति लेकर सभी उत्साहपूर्वक उठ खड़े होते हैं। पतझड़ में पेड़ ठूँठ बन जाते हैं, पर बसंत आते ही उन्हें नयी कलियों एवं नये फूलों से लदा हुआ देखा जा सकता है। कुयोग जैसा कलियुग विगत शताब्दियों में अपनी विनाश-लीला दिखाता रहा है। अंत तो उसका होना ही था, हो भी रहा है। सतयुग की वापसी का इंतजार दसों दिशाएँ उत्सुकतापूर्वक कर रही हैं।
युग संधि काल बारह वर्ष में ऐसा ही ताना-बाना बुन रहा है। उसने अपना घोंसला शान्तिकुञ्ज में बनाया है। कार्य क्षेत्र तो उनका द्रुतगामी गरुड़ पक्षी की तरह दसों दिशाओं मे फैलना निर्धारित है। इस घोंसले में एक से एक बढ़कर अंडे-बच्चे उगने, विकसित होने और निखिल आकाश में पंक्तिबद्ध उड़कर एक सुहावना दृश्य उत्पन्न करने वाले हैं।
वसंत सन् 1990 से लेकर सन् 2000 तक के दस वर्षों मेें युग चेतना को वहन करने वाले समर्थ पक्षधर विनिर्मित एवं कार्यरत होने जा रहे हैं। प्रारंभिक निश्चय यह है कि एक वर्ष में एक लाख को ढूँढ़ा और पकाया जाय। स्थान की कमी इस कार्य में प्रधान बाधा थी। आसुरी शक्तियाँ सदा से सत्प्रयोजन में अड़चन उत्पन्न करने में चूकती नहीं हैं। उन्हीं का प्रकोप इन दिनों भी काम करता दीख पड़ रहा है, फिर भी गति रुके नहीं, ऐसा उपाय निकाल लिया गया है। प्राचीन काल में ऋषियों की पाठशालाएँ वृक्षों की नीचे, घास-फूस की कुटियों में चलाई जाती रहीं, तो कोई कारण नहीं कि इन दिनों वह कार्य टीन शेडों में न चल सके। मँहगी भूमि और इमारती सामान की दसियों गुनी मँहगाई को देखते हुए शान्तिकुञ्ज की वर्तमान इमारत को ही तीन मंजिल बना दिया गया है। जहाँ कहीं काम के योग्य जमीन थी, वहाँ टीन शेड खड़े कर दिये गये हैं और ऐसी व्यवस्था बना दी गयी है कि एक वर्ष मेें एक लाख युग शिल्पियों का शिक्षण किसी प्रकार चल जाया करेगा।
स्थान कम और लक्ष्य बड़ा होने के कारण शिक्षण सत्रों को सिकोड़ कर पाँच दिवसीय बना दिया गया है। पढ़ने-पढ़ाने में तो लंबा समय चाहिए; पर प्राण-प्रत्यावर्तन तो थोड़े समय में भी हो सकता है। देवर्षि नारद कहीं भी ढाई घड़ी से अधिक नहीं रुकते थे; पर इतने में ही जिस पर भी हाथ रखते थे, उसी को चैतन्य कर देते थे। विश्वामित्र ने राम -लक्ष्मण को थोड़े ही समय में बला-अतिबला विद्याएँ सिखा दी थीं। इस दृष्टि से अभिनव 5 दिवसीय सत्र-शृंखला भी काम चलाऊ परिणाम प्रस्तुत कर ही सकती है।
एक वर्ष मेें एक लाख अर्थात्-दस वर्ष में दस लाख की शिक्षण योजना है। साथ ही जो प्रशिक्षण प्राप्त करें, उन सबके जिम्मे यह दायित्व सौंपा गया है कि वे समय दान का क्रम निर्धारित गति से चलाते रहें और दस नये अपने जैसे अपने क्षेत्र में लोकसेवी उत्पन्न करें। इस प्रकार दस वर्षों में वे दस लाख न रहकर एक करोड़ की सीमा तक पहुँच जायेंगे। आशा की गयी है, नैष्ठिकों का यह वर्ग इंजन के रूप में अगणित डिब्बों को अपने साथ घसीटता ले चलेगा और वह परिकर इतना बड़ा हो जाएगा कि सतयुग की वापसी का आधार बन सके। यह वितान इतने विस्तार में तन सके कि जिसकी छत्र-छाया में पर्याप्त मात्रा में नव सृजन के कर्णधार आवश्यक आश्रय प्राप्त कर सकें।
कहा जा चुका है कि युगसाधना की पूर्णाहुति अब सन् 1995 और सन् 2000 के दो खंडों में होगी। इन्हें एक स्थान पर न करके 24 सौ निजी प्रज्ञापीठों और 24 हजार बिना निजी इमारतों वाले प्रज्ञाकेंद्रों में संपन्न किया जाएगा। हर केंद्र में सौ से लेकर हजार वेदी वाले दीप यज्ञ संपन्न होंगे। इस प्रकार उनकी संख्या भी एक लाख से अधिक हो जाएगी। एक लाख वेदी के गायत्री यज्ञ और एक करोड़ साधकों की संख्या में चलने वाले 24 करोड़ जप का यह महापुरश्चरण सम्मिलित रूप से इतना विशालकाय होगा कि अब तक के धर्मानुष्ठानों में से इसे अभूतपूर्व और सतयुग की वापसी के पुण्य पर्व के आगमन का विश्वव्यापी उद्घोष कहा जा सके। आशा की गयी है कि इस आयोजन के संपर्क में आने वालों की संख्या भी करोड़ों-अरबों तक पहुँचेगी। उनका अपना बदलाव और संपर्क क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला परिवर्तन इतना सशक्त होगा कि उस सम्मिलित शक्ति के सहारे नवयुग का अवतरण सर्वथा सार्थक बन पड़े और हम सब इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण का-मत्स्यावतार का-प्रत्यक्ष दर्शन अपने ही समय में कर सकने में समर्थ हो सकें।
जो परिजन इस दुर्लभ समय का महत्व समझ रहे हैं, वे एक क्षण भी नष्ट किए बिना स्वयं को अग्रदूतों की भूमिका में प्रवृत्त करने को तत्पर हो रहे हैं। नव सृजन की यह बेला अपनी झोली में असीम शक्तियाँ और असाधारण सौभाग्य भरे हुए है। सत्पात्रों को वे अनुदान देने के लिए समय आतुर हो रहा है। इस अवसर का लाभ लेने के लिए आगे बढ़कर साहस दिखाने वालों के अभिनंदन-प्रशिक्षण के लिए शान्तिकुञ्ज पूरी तरह तत्पर है।
अंतराल में सद्भावनाएँ लहराती हों, तो कोई कारण नहीं कि प्राण-चेतना में उल्लास भरी उमंगें न उभरें और उस आकर्षण से प्रकृति का अनुग्रह अजस्र रूप से न बरसे, वातावरण में सुख-शांति के तत्त्व उछलते-उफनते दीख न पड़ेंगे। सतयुग इन्हीं परिस्थितियों का नाम था। उसका सृजन उत्कृष्टता की पक्षधर मन:स्थिति ही किया करती थी।
अगले दिनों सतयुग की वापसी के सरंजाम पूरी तरह संभावित हो रहे हैं। उनमें भी पूर्ववर्ती सौम्य-संपदाओं का समुचित समावेश होने जा रहा है। अस्तु, यह भी स्वाभाविक है कि वैसा ही जनमानस बने और उसके लिए पुरोहित वर्ग में सम्मिलित समझे जाने वाले, जनमानस के परिष्कार में संलग्न देव-मानवों का एक सशक्त और बड़ा वर्ग, नियंता की नियति को शिरोधार्य करते हुए आगे आये। उसके लिए जीवंतों और जीवितों के मन-मानस में समुद्र मंथन-स्तर का हृदयमंथन चल रहा है। विचार-परिवर्तन और दैवी-आह्वान को सुनने-समझने एवं अपनाने के लिए प्रवाह बह रहा है। इन दिनों ऐसे भँवर-चक्रवात इतनी तेजी से उभर रहे हैं, जिन्हें देखकर समय की प्रबलता का अनुमान कोई भी कर सकता है। महाकाल जब करवटें बदलता है, तो ऐसी उलट-पुलट बन पड़ती है, जिसे देखकर दाँतों तले अँगुली दबानी पड़े। इन दिनों ऐसा ही कुछ हो रहा है-होने वाला है।
समय चक्र के अंतर्गत यों पुनर्जीवन भी होता रहता है। पर पुनर्जागृति के दृश्य तो आये दिन देखने को मिलते ही रहते हैं। रात आते ही लोग सो जाते हैं और प्रात:काल नयी स्फूर्ति लेकर सभी उत्साहपूर्वक उठ खड़े होते हैं। पतझड़ में पेड़ ठूँठ बन जाते हैं, पर बसंत आते ही उन्हें नयी कलियों एवं नये फूलों से लदा हुआ देखा जा सकता है। कुयोग जैसा कलियुग विगत शताब्दियों में अपनी विनाश-लीला दिखाता रहा है। अंत तो उसका होना ही था, हो भी रहा है। सतयुग की वापसी का इंतजार दसों दिशाएँ उत्सुकतापूर्वक कर रही हैं।
युग संधि काल बारह वर्ष में ऐसा ही ताना-बाना बुन रहा है। उसने अपना घोंसला शान्तिकुञ्ज में बनाया है। कार्य क्षेत्र तो उनका द्रुतगामी गरुड़ पक्षी की तरह दसों दिशाओं मे फैलना निर्धारित है। इस घोंसले में एक से एक बढ़कर अंडे-बच्चे उगने, विकसित होने और निखिल आकाश में पंक्तिबद्ध उड़कर एक सुहावना दृश्य उत्पन्न करने वाले हैं।
वसंत सन् 1990 से लेकर सन् 2000 तक के दस वर्षों मेें युग चेतना को वहन करने वाले समर्थ पक्षधर विनिर्मित एवं कार्यरत होने जा रहे हैं। प्रारंभिक निश्चय यह है कि एक वर्ष में एक लाख को ढूँढ़ा और पकाया जाय। स्थान की कमी इस कार्य में प्रधान बाधा थी। आसुरी शक्तियाँ सदा से सत्प्रयोजन में अड़चन उत्पन्न करने में चूकती नहीं हैं। उन्हीं का प्रकोप इन दिनों भी काम करता दीख पड़ रहा है, फिर भी गति रुके नहीं, ऐसा उपाय निकाल लिया गया है। प्राचीन काल में ऋषियों की पाठशालाएँ वृक्षों की नीचे, घास-फूस की कुटियों में चलाई जाती रहीं, तो कोई कारण नहीं कि इन दिनों वह कार्य टीन शेडों में न चल सके। मँहगी भूमि और इमारती सामान की दसियों गुनी मँहगाई को देखते हुए शान्तिकुञ्ज की वर्तमान इमारत को ही तीन मंजिल बना दिया गया है। जहाँ कहीं काम के योग्य जमीन थी, वहाँ टीन शेड खड़े कर दिये गये हैं और ऐसी व्यवस्था बना दी गयी है कि एक वर्ष मेें एक लाख युग शिल्पियों का शिक्षण किसी प्रकार चल जाया करेगा।
स्थान कम और लक्ष्य बड़ा होने के कारण शिक्षण सत्रों को सिकोड़ कर पाँच दिवसीय बना दिया गया है। पढ़ने-पढ़ाने में तो लंबा समय चाहिए; पर प्राण-प्रत्यावर्तन तो थोड़े समय में भी हो सकता है। देवर्षि नारद कहीं भी ढाई घड़ी से अधिक नहीं रुकते थे; पर इतने में ही जिस पर भी हाथ रखते थे, उसी को चैतन्य कर देते थे। विश्वामित्र ने राम -लक्ष्मण को थोड़े ही समय में बला-अतिबला विद्याएँ सिखा दी थीं। इस दृष्टि से अभिनव 5 दिवसीय सत्र-शृंखला भी काम चलाऊ परिणाम प्रस्तुत कर ही सकती है।
एक वर्ष मेें एक लाख अर्थात्-दस वर्ष में दस लाख की शिक्षण योजना है। साथ ही जो प्रशिक्षण प्राप्त करें, उन सबके जिम्मे यह दायित्व सौंपा गया है कि वे समय दान का क्रम निर्धारित गति से चलाते रहें और दस नये अपने जैसे अपने क्षेत्र में लोकसेवी उत्पन्न करें। इस प्रकार दस वर्षों में वे दस लाख न रहकर एक करोड़ की सीमा तक पहुँच जायेंगे। आशा की गयी है, नैष्ठिकों का यह वर्ग इंजन के रूप में अगणित डिब्बों को अपने साथ घसीटता ले चलेगा और वह परिकर इतना बड़ा हो जाएगा कि सतयुग की वापसी का आधार बन सके। यह वितान इतने विस्तार में तन सके कि जिसकी छत्र-छाया में पर्याप्त मात्रा में नव सृजन के कर्णधार आवश्यक आश्रय प्राप्त कर सकें।
कहा जा चुका है कि युगसाधना की पूर्णाहुति अब सन् 1995 और सन् 2000 के दो खंडों में होगी। इन्हें एक स्थान पर न करके 24 सौ निजी प्रज्ञापीठों और 24 हजार बिना निजी इमारतों वाले प्रज्ञाकेंद्रों में संपन्न किया जाएगा। हर केंद्र में सौ से लेकर हजार वेदी वाले दीप यज्ञ संपन्न होंगे। इस प्रकार उनकी संख्या भी एक लाख से अधिक हो जाएगी। एक लाख वेदी के गायत्री यज्ञ और एक करोड़ साधकों की संख्या में चलने वाले 24 करोड़ जप का यह महापुरश्चरण सम्मिलित रूप से इतना विशालकाय होगा कि अब तक के धर्मानुष्ठानों में से इसे अभूतपूर्व और सतयुग की वापसी के पुण्य पर्व के आगमन का विश्वव्यापी उद्घोष कहा जा सके। आशा की गयी है कि इस आयोजन के संपर्क में आने वालों की संख्या भी करोड़ों-अरबों तक पहुँचेगी। उनका अपना बदलाव और संपर्क क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला परिवर्तन इतना सशक्त होगा कि उस सम्मिलित शक्ति के सहारे नवयुग का अवतरण सर्वथा सार्थक बन पड़े और हम सब इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण का-मत्स्यावतार का-प्रत्यक्ष दर्शन अपने ही समय में कर सकने में समर्थ हो सकें।
जो परिजन इस दुर्लभ समय का महत्व समझ रहे हैं, वे एक क्षण भी नष्ट किए बिना स्वयं को अग्रदूतों की भूमिका में प्रवृत्त करने को तत्पर हो रहे हैं। नव सृजन की यह बेला अपनी झोली में असीम शक्तियाँ और असाधारण सौभाग्य भरे हुए है। सत्पात्रों को वे अनुदान देने के लिए समय आतुर हो रहा है। इस अवसर का लाभ लेने के लिए आगे बढ़कर साहस दिखाने वालों के अभिनंदन-प्रशिक्षण के लिए शान्तिकुञ्ज पूरी तरह तत्पर है।