
विज्ञान और प्रत्यक्षवाद ने क्या सचमुच हमें सुखी बनाया है?
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समय का बदलाव, वैज्ञानिक उपलब्धियों तक, तर्क के आधार पर, प्रदर्शन करने के
रूप में जब लाभदायक प्रतीत होता है तो उसके स्थान पर तप, संयम, परमार्थ
जैसी उन मान्यताओं को क्यों स्वीकार कर लिया जाए, जो आस्तिकता,
आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की दृष्टि से कितनी ही सराही क्यों न जाती हो,
पर तात्कालिक लाभ की कसौटी पर उनके कारण घाटे में ही रहना पड़ता है।
नए समय के नए तर्क, अपराधियों- स्वेच्छाचारियों से लेकर हवा के साथ बहने वाले मनीषियों तक को समान रूप से अनुकूल पड़ते हैं और मान्यता के रूप में अंगीकार करने में भी सुविधाजनक प्रतीत होते हैं, तो हर कोई उसी को स्वीकार क्यों न करे? उसी दिशा में क्यों न चलें? मनीषी नीत्से ने दृढ़तापूर्वक घोषणा की है कि ‘‘तर्क के इस युग में पुरानी मान्यताओं पर आधारित ईश्वर मर चुका। अब उसे इतना गहरा दफना दिया गया है कि भविष्य में कभी उसके जीवित होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।’’ धर्म के सम्बन्ध में भी प्रत्यक्षवादी बौद्धिक बहुमत ने यही कहा है कि वह अफीम की गोली भर है, जो पिछड़ों को त्रास सहते रहने और विपन्नता के विरुद्ध मुँह न खोलने के लिए बाधित करता है, साथ ही वह अनाचारियों को निर्भय बनाता है ताकि लोक में अपनी चतुरता और समर्थता के बल पर वे उन कार्यों को करते रहें, जिन्हें अन्याय कहा जाता है। परलोक का प्रश्न यदि आड़े आता हो तो वहाँ से बच निकलना और भी सरल है। किसी देवी- देवता की पूजा- पत्री कर देने या धार्मिक कर्मकाण्ड का सस्ता- सा आडम्बर बना देने भर से पाप- कर्मों के दण्ड से सहज छुटकारा मिल जाता है। जब इतने सस्ते में तथाकथित पापों की प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है तो रास्ता बिल्कुल साफ है। मौज से मनमानी करते रहा जा सकता है और उससे कोई कठोर प्रतिफल की आशंका हो तो पूजा- पाठ के सस्ते से खेल- खिलवाड़ करने से वह आशंका भी निरस्त हो सकती है।
समय का प्रवाह वैज्ञानिक प्रगति के साथ प्रत्यक्षवाद का समर्थक होता जा रहा है। सच तो यह है कि जो लोग धर्म और अध्यात्म को चर्चा- प्रसंगों में मान्यता देते हैं, वे भी निजी जीवन में प्राय: वैसे ही आचरण करते देखे जाते हैं जैसे कि अधर्मी और नास्तिक करते देखे जाते हैं। धर्मोपदेशक से लेकर धर्मध्वजियों के निजी जीवन का निरीक्षण- परीक्षण करने पर प्रतीक होता है कि अधिकांश लोग उस स्वार्थपरता को ही अपनाए रहते हैं जो अधार्मिकता की परिधि में आती है। आडम्बर, पाखण्ड और प्रपंच एक प्रकार से प्रच्छन्न नास्तिकता ही है, अन्यथा जो आस्तिकता और धार्मिकता की महत्ता भी बखानते हैं, उन्हें स्वयं तो भीतर और बाहर से एक रस होना ही चाहिए था। जब उनकी स्थिति आडम्बर भरी होती दीखती है, तो प्रतीत होता है कि प्रत्यक्षवादी नास्तिकता ही नहीं, प्रच्छन्न धर्माडम्बर भी लगभग उसी मान्यता को अपनाए हुए हैं। लोगों की आँखों में धूल झोंकने या उनसे अनुचित लाभ उठाने के लिए ही धर्म का ढकोसला गले से बाँधा जा रहा है। ईश्वर को भी वे न्यायकारी- सर्वव्यापी नहीं मानते। यदि ऐसा होता तो धार्मिकता की वकालत करने वालों में से कोई भी परोक्ष रूप से अवांछनीयता अपनाए रहने के लिए तैयार नहीं होता। तथाकथित धार्मिक और खुलकर इंकार करने वाले नास्तिक लगभग एक ही स्तर के बन जाते हैं।
यह स्थिति भयानक है। वस्तुओं की जिस कमी को विज्ञान ने पूरा किया है यदि वह हस्तगत न हुई होती तो पिछली पीढ़ियों की तरह सादा जीवन अपनाकर भी निर्वाह हँसी- खुशी के साथ चलता रह सकता था। ऋषियों, तपस्वियों, महामानवों, लोक सेवियों में से अधिकांश ने कठिनाइयों और अभाव वाला भौतिक जीवन जिया है, फिर भी उनकी भौतिक या आध्यात्मिक स्थिति खिन्न- विपन्न नहीं रही। सच तो यह है कि वे आज के तथाकथित सुखी समृद्ध लोगों की तुलना में कहीं अधिक सुख- शान्ति भरा प्रगतिशील जीवन जीते थे और हँसता- हँसाता ऐसा वातावरण बनाए रहते थे, जिसे सतयुग के रूप में जाना जाता था और जिसको पुन: प्राप्त करने के लिए हम सब तरसते हैं।
भौतिक विज्ञान के सुविधा- साधन बढ़ाने वाले पक्ष ने समर्थ जनों के लिए लाभ उठाने के अनेकों आधार उत्पन्न एवं उपस्थित किए हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। बहिरंग की इसी स्तर की चमक- दमक को देखकर अनुमान लगता है कि विज्ञान ने अपने समय को बहुत सुविधा- सम्पन्न बनाया है। परन्तु दूसरी ओर तनिक- सी दृष्टि मोड़ते ही पर्दा उलट जाता है और दृश्य ठीक विपरीत दीखने लगता है। सुसम्पन्न, समर्थ, चतुर लोग संख्या में बहुत कम है। मुश्किल से दस हजार के पीछे दस। विज्ञान द्वारा उत्पादित सुविधा- सामग्री में से अधिकांश उन्हीं के हाथों में सीमित होकर रह गयी है। उन्होंने जो बटोरा है वह भी कहीं आसमान से नहीं टपका वरन् दुर्बल दीख पड़ने वाले भोले भावुकों को पिछड़े हुए समझकर उन्हीं के अधिकारों का अपहरण करके वह सम्पन्नता थोड़े लोगों के हाथों में एकत्रित हुई है। जिसे विज्ञान की देन, युग का प्रभाव, प्रगति का युग आदि नामों से श्रेय दिया जाता है। इस एक पक्ष की बढ़ोत्तरी ने अधिकांश लोगों का बड़ी मात्रा में दोहन किस प्रकार किया है, इसे देखते हुए विवेकवानों को उस असमंजस में डूबना पड़ता है कि दृष्टिगोचर होने वाली प्रगति क्या वास्तविक प्रगति है? इसके पीछे अधिकांश को पीड़ित शोषित, अभावग्रस्त रखने वाला कुचक्र तो काम नहीं कर रहा है।
नए समय के नए तर्क, अपराधियों- स्वेच्छाचारियों से लेकर हवा के साथ बहने वाले मनीषियों तक को समान रूप से अनुकूल पड़ते हैं और मान्यता के रूप में अंगीकार करने में भी सुविधाजनक प्रतीत होते हैं, तो हर कोई उसी को स्वीकार क्यों न करे? उसी दिशा में क्यों न चलें? मनीषी नीत्से ने दृढ़तापूर्वक घोषणा की है कि ‘‘तर्क के इस युग में पुरानी मान्यताओं पर आधारित ईश्वर मर चुका। अब उसे इतना गहरा दफना दिया गया है कि भविष्य में कभी उसके जीवित होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।’’ धर्म के सम्बन्ध में भी प्रत्यक्षवादी बौद्धिक बहुमत ने यही कहा है कि वह अफीम की गोली भर है, जो पिछड़ों को त्रास सहते रहने और विपन्नता के विरुद्ध मुँह न खोलने के लिए बाधित करता है, साथ ही वह अनाचारियों को निर्भय बनाता है ताकि लोक में अपनी चतुरता और समर्थता के बल पर वे उन कार्यों को करते रहें, जिन्हें अन्याय कहा जाता है। परलोक का प्रश्न यदि आड़े आता हो तो वहाँ से बच निकलना और भी सरल है। किसी देवी- देवता की पूजा- पत्री कर देने या धार्मिक कर्मकाण्ड का सस्ता- सा आडम्बर बना देने भर से पाप- कर्मों के दण्ड से सहज छुटकारा मिल जाता है। जब इतने सस्ते में तथाकथित पापों की प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है तो रास्ता बिल्कुल साफ है। मौज से मनमानी करते रहा जा सकता है और उससे कोई कठोर प्रतिफल की आशंका हो तो पूजा- पाठ के सस्ते से खेल- खिलवाड़ करने से वह आशंका भी निरस्त हो सकती है।
समय का प्रवाह वैज्ञानिक प्रगति के साथ प्रत्यक्षवाद का समर्थक होता जा रहा है। सच तो यह है कि जो लोग धर्म और अध्यात्म को चर्चा- प्रसंगों में मान्यता देते हैं, वे भी निजी जीवन में प्राय: वैसे ही आचरण करते देखे जाते हैं जैसे कि अधर्मी और नास्तिक करते देखे जाते हैं। धर्मोपदेशक से लेकर धर्मध्वजियों के निजी जीवन का निरीक्षण- परीक्षण करने पर प्रतीक होता है कि अधिकांश लोग उस स्वार्थपरता को ही अपनाए रहते हैं जो अधार्मिकता की परिधि में आती है। आडम्बर, पाखण्ड और प्रपंच एक प्रकार से प्रच्छन्न नास्तिकता ही है, अन्यथा जो आस्तिकता और धार्मिकता की महत्ता भी बखानते हैं, उन्हें स्वयं तो भीतर और बाहर से एक रस होना ही चाहिए था। जब उनकी स्थिति आडम्बर भरी होती दीखती है, तो प्रतीत होता है कि प्रत्यक्षवादी नास्तिकता ही नहीं, प्रच्छन्न धर्माडम्बर भी लगभग उसी मान्यता को अपनाए हुए हैं। लोगों की आँखों में धूल झोंकने या उनसे अनुचित लाभ उठाने के लिए ही धर्म का ढकोसला गले से बाँधा जा रहा है। ईश्वर को भी वे न्यायकारी- सर्वव्यापी नहीं मानते। यदि ऐसा होता तो धार्मिकता की वकालत करने वालों में से कोई भी परोक्ष रूप से अवांछनीयता अपनाए रहने के लिए तैयार नहीं होता। तथाकथित धार्मिक और खुलकर इंकार करने वाले नास्तिक लगभग एक ही स्तर के बन जाते हैं।
यह स्थिति भयानक है। वस्तुओं की जिस कमी को विज्ञान ने पूरा किया है यदि वह हस्तगत न हुई होती तो पिछली पीढ़ियों की तरह सादा जीवन अपनाकर भी निर्वाह हँसी- खुशी के साथ चलता रह सकता था। ऋषियों, तपस्वियों, महामानवों, लोक सेवियों में से अधिकांश ने कठिनाइयों और अभाव वाला भौतिक जीवन जिया है, फिर भी उनकी भौतिक या आध्यात्मिक स्थिति खिन्न- विपन्न नहीं रही। सच तो यह है कि वे आज के तथाकथित सुखी समृद्ध लोगों की तुलना में कहीं अधिक सुख- शान्ति भरा प्रगतिशील जीवन जीते थे और हँसता- हँसाता ऐसा वातावरण बनाए रहते थे, जिसे सतयुग के रूप में जाना जाता था और जिसको पुन: प्राप्त करने के लिए हम सब तरसते हैं।
भौतिक विज्ञान के सुविधा- साधन बढ़ाने वाले पक्ष ने समर्थ जनों के लिए लाभ उठाने के अनेकों आधार उत्पन्न एवं उपस्थित किए हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। बहिरंग की इसी स्तर की चमक- दमक को देखकर अनुमान लगता है कि विज्ञान ने अपने समय को बहुत सुविधा- सम्पन्न बनाया है। परन्तु दूसरी ओर तनिक- सी दृष्टि मोड़ते ही पर्दा उलट जाता है और दृश्य ठीक विपरीत दीखने लगता है। सुसम्पन्न, समर्थ, चतुर लोग संख्या में बहुत कम है। मुश्किल से दस हजार के पीछे दस। विज्ञान द्वारा उत्पादित सुविधा- सामग्री में से अधिकांश उन्हीं के हाथों में सीमित होकर रह गयी है। उन्होंने जो बटोरा है वह भी कहीं आसमान से नहीं टपका वरन् दुर्बल दीख पड़ने वाले भोले भावुकों को पिछड़े हुए समझकर उन्हीं के अधिकारों का अपहरण करके वह सम्पन्नता थोड़े लोगों के हाथों में एकत्रित हुई है। जिसे विज्ञान की देन, युग का प्रभाव, प्रगति का युग आदि नामों से श्रेय दिया जाता है। इस एक पक्ष की बढ़ोत्तरी ने अधिकांश लोगों का बड़ी मात्रा में दोहन किस प्रकार किया है, इसे देखते हुए विवेकवानों को उस असमंजस में डूबना पड़ता है कि दृष्टिगोचर होने वाली प्रगति क्या वास्तविक प्रगति है? इसके पीछे अधिकांश को पीड़ित शोषित, अभावग्रस्त रखने वाला कुचक्र तो काम नहीं कर रहा है।