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Books - परिवर्तन के महान् क्षण

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त्रिधा भक्ति एवं उसकी अद्भुत सिद्धि

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First 6 8 Last
उपासना का अपना प्रयोगक्रम चला और उसे अनेकानेक परीक्षणों की कसौटियों पर कसे जाने के उपरान्त सही एवं सशक्त पाया गया। इसी आधार पर अब यह सोचने, कहने और करने की व्यवस्था बन गई है कि संसार को एक नया सन्देश दिया जा सके कि उपेक्षित, तिरस्कृत, विडम्बनाग्रस्त अध्यात्म को यदि पुनर्जीवित किया जा सके तो विश्व चेतना के साथ एक उच्चस्तरीय माहौल जुड़ सकता है। तब भौतिक विज्ञान के लिए भी यह न सोचना पड़ेगा कि वह लाभ देने की तुलना में हानि, विनाश के सरंजाम अधिक जुटाता है। इसलिए उसके उपयोग को आशंका एवं भयानकता के साथ जुड़ा हुआ सोचा जाए। वस्तुतः बढ़े हुए विज्ञान के चरणों को आध्यात्मिक प्रगति के साथ जोड़ा जा सके तो हम भूतकाल के सतयुग की अपेक्षा और भी अच्छी स्थिति में पहुँच सकते हैं। यों जिस तरह नया आधार सँजोया गया है, उसे देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि हम और भी अधिक ऊँचे स्तर का ‘‘महासतयुग’’ अगले दिनों अपनी इसी धरती पर उतारकर रहेंगे।

    अपने समय का मनुष्य बहुत बौना है। इस बौनेपन को संकीर्ण स्वार्थपरता के रूप में भी लिया जा सकता है, होता यही रहा कि वैज्ञानिक उपलब्धियों को भी संकीर्ण- स्वार्थों के लिए तथाकथित समर्थ लोगों ने प्रयुक्त किया और असंख्य समस्याएँ उत्पन्न कीं। ठीक इसी प्रकार प्रपंचों से बचकर जो अध्यात्म किसी लँगड़े- लूले रूप में शेष रह गया था उसे भी अपने अथवा अपनों की सम्पन्नता, यशलिप्सा, असाधारण सफलता आदि के लिए ही प्रयुक्त किया जाता रहा। तथाकथित सिद्ध पुरुष भी अपने को वरिष्ठ सिद्ध करने और जिन कुपात्रों ने उन्हें जिस तिस प्रकार प्रसन्न कर लिया, उन्हें उस अध्यात्म द्वारा अधिकाधिक सम्पन्न बनाने में लगे रहे। उस अनुदान का उपयोग निजी विलासिता एवं महत्त्वाकाँक्षा को पूरा करने के अतिरिक्त किसी लोकोपयोगी काम में न हो पाया।

    अपने प्रयोग में आरम्भ से ही यह व्रतशीलता धारण की गई कि परम सत्ता के अनुग्रह से जो भी मिलेगा उसे उसी के विश्व उद्यान को अधिक श्रेष्ठ, समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए ही खर्च किया जाता रहेगा। अपना निजी जीवन मात्र ब्राह्मणोचित निर्वाह भर से काम चला लेगा। औसत नागरिक स्तर से बढ़कर अधिक सुविधा, प्रतिष्ठा आदि की किसी ललक को पास में न फटकने दिया जाएगा।

    इस प्रयोग के अन्तर्गत अपना आहार- विहार वस्त्र- विन्यास रहन- सहन व्यवहार, अभ्यास ऐसा रखा गया जो न्यूनतम था। आहार इतना सस्ता जितना कि देश के गरीब से गरीब व्यक्ति को मिलता है। वस्त्र ऐसे जैसे कि श्रमिक स्तर के लोग पहनते हैं। महत्त्वाकांक्षा न्यूनतम। आत्म प्रदर्शन ऐसा जिसमें किसी सम्मान, प्रदर्शन और अखबारों में नाम छपने जैसी ललक के लिए कोई गुंजायश न रहे। व्यवहार ऐसा जैसा बालकों का होता है। यह पृष्ठभूमि बना लेने के उपरान्त शारीरिक और मानसिक श्रम इतना जितना कि कोई पुरुषार्थ परायण कर सकता है, इसे पूजा उपासना तो नहीं पर जीवन साधना अवश्य कहा जा सकता है।    

    इसके उपरान्त उपासना की निर्धारित पद्धति की बारी आई। उसमें श्रद्धा- विश्वास का गहरा पुट रहा और ध्यान रहा कि किसी भी अधिक आवश्यक काम के बहाने उसे किसी भी प्रकार चुकाए जाने का अवसर न मिलने पाए। चिन्तन निजी लाभ का नहीं, परमार्थ सम्पादन का ही रहा। यही कारण है कि अपने पास निजी कहे जाने योग्य एक कानी- कौड़ी की भी कोई संचित सम्पदा नहीं है। पैतृक सम्पदा बड़ी थी पर उसका भी एक- एक पैसा उपयोगी परमार्थिक इमारतों में लगा दिया। यह सारा जंजाल सिर पर से उतर जाने के उपरान्त व्यामोह से विरक्त मन इतना खाली हो गया जिसका ‘‘वैक्यूम’’ एक सशक्त चुम्बक की तरह ईश्वरीय अनुकम्पा की अजस्र वर्षा करने लगा। सामर्थ्य भी इतनी आ धमकी जिसके लिए अपनी ओर से नगण्य जितना ही प्रयत्न बन पड़ा।
अध्यात्म सिद्धियों के साथ जुड़ा हुआ माना जाता है। क्या वे हमें हस्तगत हुईं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है ‘‘हाँ’’। उनमें से यहाँ कुछ ऐसे प्रसंगों की ही चर्चा की जा सकती है जो सर्वविदित हैं, जिनके लिए हर किसी को अपनी आँखें और अपनी निज की जानकारी ही साक्षी रूप में पर्याप्त हो सकती है। उसके लिए किसी प्रकार की खोजबीन करने की कदाचित ही किसी को आवश्यकता पड़े।

    युग साहित्य का सृजन इतनी बड़ी मात्रा में बन पड़ा। उसका इतनी भाषाओं में अनुवाद हुआ कि उस सारे संग्रह को किसी एक मनुष्य के शरीर जितना भारी तोला जा सकता है। इसी लेखन की हर पंक्ति ऐसी है जिसके सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि किसी ने भारी खोज, गहन मन्थन एवं व्यक्तिगत अनुभव की छत्रछाया में ही लिखा है। सामान्य बुद्धि यही कह सकती है कि एक व्यक्ति कम से कम पाँच जन्मों में अथवा पाँच शरीर से ही इतना साहित्य- सृजन कर सकता है। इस प्रयास को भी यदि कोई चाहे तो सिद्ध स्तर का गिन सकता है।

    दूसरा कार्य है— नव सृजन में कुछ कारगर भूमिका निभा सकने योग्य साथी- सहयोगियों के विशालकाय परिकर का एकत्रीकरण। इन दिनों उन सभी की संख्या जो कुछ समय पूर्व पाँच लाख भर थी, अब बढ़कर पच्चीस लाख हो गई है। यह क्रम एक से पाँच, पाँच से पच्चीस, पच्चीस से एक सौ पच्चीस, वाली गुणन- प्रक्रिया के आधार पर द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है और आश्वासन दे रहा है कि प्रगति रुकेगी नहीं, क्षेत्रों और देशों की परिधि लाँघते हुए विश्वभर में सज्जनों के संवर्धन की प्रक्रिया पूरी करेगी।

    तीसरी सिद्धि है— दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष की असाधारण रणनीति वाली मोर्चा बन्दी। साथ ही सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए हजारों प्रज्ञा केन्द्रों की स्थापना और उनकी गतिविधियों में नवसृजन की, सत्प्रवृत्ति संवर्धन की रचनात्मक प्रवृत्तियों की अनवरत अभिवृद्धि।

    जिन्होंने विनिर्मित प्रज्ञा पीठों की हजारों की संख्या में भव्य इमारतें देखी हैं, वे एक ही बात सोच सकते हैं कि यह अपने समय का अभिनव सृजन आन्दोलन है। चार धाम बनाने वालों को जितना श्रेय मिला उसकी तुलना में यह सृजन कार्य कितना महँगा और कितना विस्तृत बन पड़ा है, इसे एक आश्चर्य ही कहना चाहिए। प्रचलित कुरीतियों एवं अवांछनीयताओं के साथ टक्कर लेने की मोर्चेबन्दी को दूसरे महाभारत के समतुल्य कहा जा सकता है।

    ईर्ष्यालुओं दुर्जनों और विद्वेषियों के आक्रमण सच्चाई को किस प्रकार हराने और तोड़ने में असफल होते हैं, इस तथ्य को मात्र वे लोग ही जानते हैं जो अपने निकट सम्पर्क में रहे और उन हरकतों से परिचित रहे हैं। चूँकि इन प्रसंगों की कभी चर्चा नहीं की गई, प्रतिरोध के लिए एक पतली छड़ी तक नहीं उठाई गई तो वे अनाचार कैसे प्रगट होते, जिन्हें दैवी प्रयोजनों में विश्वामित्र यज्ञ- ध्वंस षड्यन्त्र की ही उपमा दी जा सकती है। भक्त की रक्षा कैसे होती है, इसके प्रमाण में प्रहलाद की, गज की, द्रौपदी आदि की उपमा दी जाती है। एक कड़ी और भी इन्हीं दिनों की यह जुड़ सके तो कोई हर्ज नहीं। इसे भी एक सिद्धि कह सकते हैं।

    सहायता के लिए किसी के आगे हाथ न पसारने के पीछे कोई अहंकार प्रदर्शन का भाव नहीं रहा किन्तु यह एक प्रयोग परीक्षण था कि यदि भगवत् प्रयोजन के लिए कहीं से कोई प्रामाणिकता उभरे तो उसकी शक्ति और सम्पदा कितनी बढ़ जाती है? इसके लिए पुरातन उदाहरण हनुमानजी का है। नया उदाहरण अपने समय के इस प्रयोग- परीक्षण को समझा जा सकता है कि गंगा के याचना न करने पर भी हिमालय किस प्रकार कभी न सूखने वाली जलराशि प्रदान करता रहता है? अपनाए गए क्रिया- कलापों में कितनी जनशक्ति की, कितनी धनशक्ति की, कितने साधनों की आवश्यकता पड़ती है और वह सुदामापुरी को द्वारिका पुरी में बदल जाने का कैसे उदाहरण बनती है? इस दृश्य को कोई एक प्रकार से सिद्ध स्तर की भी गिन सकता है।

    अपनी अपेक्षा पिछड़ों, दुःखियारों, आवश्यकताओं की सहायता करना मानवी कर्तव्य है। गिरों को उठाने, उठों को उछालने में ही सच्चे सामर्थ्यवानों के हाथ खुलते और सहायता देते रहे हैं। इस लम्बे जीवन की अवधि में कितनों की कितनी भौतिक एवं आत्मिक सहायता बन पड़ी, यह प्रसंग तो असाधारण रूप से विस्तृत है, पर उसकी चर्चा पर इसलिए प्रतिबन्ध लगा दिया है कि देने वाले का अहंकार उभर सकता है और लेने वाला किसी अहसान की अनुभूति में अपनी हेठी समझकर संकोचग्रस्त हो सकता है।

    सिद्धियों के और भी किसी प्रत्यक्ष प्रमाण का परिचय प्राप्त करना हो तो उसी गणना में एक कड़ी यह भी है कि इन दिनों अस्सी वर्ष की आयु तक पहुँचने वाले प्राय: जराजीर्ण हो जाते हैं और मौत के घर जाने की तैयारी करने लगते हैं। पर यहाँ दृश्य दूसरा ही है। शरीर, मन, संकल्प और पुरुषार्थ उसी स्तर का परिचय दे रहा है जैसे कि वयोवृद्ध द्रोणाचार्य धनुष संधानने और लक्ष्य बेधने की शिक्षा अंत काल तक देते रहे। बुढ़ापे में भी जवानी जीवंत रह सकती है, इस स्तर का इस प्रयोक्ता का एक सघन स्वरूप यह भी है।

    चर्चा को अप्रासंगिक, अनावश्यक और अहंकार स्तर का उद्धत उल्लेख न समझा जाए, इसलिए इस लम्बे प्रसंग को उनके लिए शेष छोड़ दिया है, जो शरीर न रहने पर कुछ और खोजने- बताने के लिए उत्सुक होंगे।
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