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Books - जीवन देवता की साधना-आराधना

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जीवन साधना के सुनिश्चित सूत्र

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उपासना पक्ष के चार चरण पिछले पृष्ठों पर बताये जा चुके हैं- (१) प्रात:काल आँख खुलते ही नया जन्म, (२) रात्रि को सोते समय नित्य मरण, (३) नित्य कर्म से निवृत्त होने के बाद जप ध्यान वाला भजन, (४) मध्याह्न के बाद मनन के क्रम में अपनी स्थिति का विवेचन और उदात्तीकरण। कुछ दिन के अभ्यास से इन चारों को दिनचर्या का अविच्छिन्न अंग बना लेना सरल सम्भव हो जाता है।

    इष्टदेव के साथ अनन्य आत्मीयता स्थापित कर लेना, उसके ढाँचे में ढलने का प्रयत्न करना, यही सच्ची भगवद्भक्ति है। द्वैत को अद्वैत में बदलना इसी आधार पर बन पड़ता है। सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय परमात्मा के साथ लिपटने की वास्तविकता को इसी आधार पर परखा जा सकता है। जीवन क्रम में शालीनता, सद्भाव, उदारता, सेवा- संवेदना जैसी उमंगें अन्तराल में उठती हैं या नहीं। आग के सम्पर्क में आकर ईंधन भी अग्नि बन जाता है। ईश्वर भक्त में अपने इष्टदेव की अनुरूपता उभरनी चाहिये। इस कसौटी पर हर किसी की भक्ति भावना कितनी यथार्थता है- इसकी जाँच- परख की जा सकती है। भगवान का अनुग्रह भी इसी आधार पर जाँचा जाता है। जहाँ सूर्य की किरणें पड़ेंगी वहाँ गर्मी और रोशनी अवश्य दृष्टिगोचर होगी। ईश्वर का सान्निध्य निश्चित रूप से भक्तजनों में प्रामाणिकता और प्रखरता की विभूतियाँ अवतरित करता है। इस आधार पर उसका चिन्तन, चरित्र और व्यवहार उत्कृष्ट आदर्शवादिता की हर कसौटी पर खरा उतरता चला जाता है। सच्ची और झूठी भक्ति की परीक्षा हाथों हाथ प्राप्त होती चलती है। यह प्रतीत होता रहता है कि समर्थ सत्ता का अनुग्रह हाथों हाथ प्राप्त होने की मान्यता पर उपासना खरी उतरी या नहीं।

    आत्मोत्कर्ष की दूसरा अवलम्बन है- साधना साधना अर्थात् जीवन साधना। साधना अर्थात् अस्तव्यस्तता को सुव्यवस्था में बदलना। इसके लिये दो प्रयास निरन्तर जारी रखने पड़ते हैं- एक अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों को बारीकी से देखना, समझना और उन्हें उखाड़ने के लिये अनवरत प्रयत्नशील- संघर्षशील रहना। दूसरा कार्य है- मानवी गरिमा के अनुरूप जिन सत्प्रवृत्तियों की अभी कमी मालूम पड़ती है, उनकी आवश्यकता, उपयोगिता को समझते हुए, उसके लिये अनुकूलता स्तर का मानस बनाना। यह उभयपक्षीय क्रम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यवहृत होते चले तो समझना चाहिये कि जीवन साधना साधने का सरंजाम जुटा।

    माना कि कार्य समयसाध्य और श्रमसाध्य है, फिर भी वह असम्भव नहीं है। कछुआ धीमी गति से चलकर भी बाजी जीत गया था। असफल तो वे खरगोश होते हैं जो क्षणिक उत्साह दिखाने के उपरान्त मन बदल लेते और इधर- उधर भटकते हैं। स्थिरता, तत्परता और तन्मयता हर प्रसंग में सफलता का श्रेष्ठ माध्यम बनती हैं। जीवन साधना के लिये भी किया गया प्रयत्न सफल होकर ही रहता है।

    किसान अपने खेत में खरपतवार उखाड़ता रहता है। कंकड़- पत्थर बीनता रहता है, इसे परिशोधन कहा जा सकता है। जानवरों, पक्षियों से खेत की रखवाली करना भी इसी स्तर का कार्य है। कीटनाशक दवाओं का प्रयोग भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये है। खेत में खाद- पानी लगाना पड़ता है। यह परिपोषण पक्ष है। निराई- गुड़ाई का एक उद्देश्य यह भी है कि जमीन पोली बनी रहे। जड़ों में धूप, हवा की पहुँच बनी रहे। फसल को उगाने का यही तरीका है। जीवन को सुविकसित करना भी एक प्रकार का कृषि का कार्य है। इसके लिये भी इसी नीति को अपनाना होता है।

    शरीर में मल, मूत्र, पसीना, कफ़ आदि के द्वारा सफाई होती है। स्नान का उद्देश्य भी यही है। सफाई से सम्बन्धित अनेक उपक्रम भी इसीलिये चलते हैं कि विषाणुओं का आक्रमण न होने पाये। सर्दी- गर्मी से बचने के लिये अनेक प्रयत्न भी इसी उद्देश्य से किये जाते हैं कि हानि पहुँचाने वाले तत्त्वों से निपटा जाता रहे। जीवन भी एक शरीर है, उसे गिराने के लिये पग- पग पर अनेकानेक संकट, प्रलोभन, दबाव उपस्थित होते रहते हैं। उनसे निपटने के लिये सतर्कता न बरती जाये तो बात कैसे बने? चोर- उचक्कों ठगों, उद्दण्डों की उपेक्षा न होती रहे, तो वे असाधारण क्षति पहुँचाये बिना न रहेंगे।

    दुष्प्रवृत्तियाँ जन्म- जन्मान्तरों से संचित पशु- प्रवृत्तियों के रूप में स्वभाव के साथ गुँथी रहती है। फिर निकटवर्ती लोग जिस राह पर चलते और जिस स्तर की गतिविधियाँ अपनाते हैं, वे भी प्रभावित करती हैं और अपने साथ चलने के लिये ललचाती हैं। जो कुछ बहुत जनों द्वारा किया जाता दीखता है, अनुकरणप्रिय स्वभाव भी उसकी नकल बनाने लगता है। इतना विवेक तो किन्हीं विरलों में ही पाया जाता है कि वे उचित- अनुचित का विचार करें, दूरवर्ती परिणामों का अनुमान लगायें और सन्मार्ग पर चलने के लिये बिना साथियों की प्रतीक्षा किये एकाकी चल पड़ने का साहस जुटायें। आमतौर से लोग प्रचलित ढर्रे पर चलते देख गये हैं। पत्ते और धूलिकण हवा के रुख के साथ उड़ने लगते हैं। दिशाबोध उन्हें कहाँ होता है? यही स्थिति लोकमानस के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। नीर- क्षीर की विवेक बुद्धि तो कम दीख पड़ने वाले राजहंसों में ही होती है। अन्य पक्षी तो ऐसे ही कूड़ा- कचरा और कीड़े- मकोड़े खाते देखे गये हैं।

    किसी वस्तु को प्राप्त कर लेना एक बात है और उसका सदुपयोग बन पड़ना सर्वथा दूसरी। स्वास्थ्य सभी को मिला है, पर उसे बनाये रखने में समर्थ विरले ही होते हैं। अधिकांश तो असंयम अपनाते और उसे बरबाद ही करते हैं। बुद्धि का सदुपयोग कठिन है, चतुर कहे जाने वाले लोग भी उसे कहाँ कर पाते हैं? धन कमाते तो सभी हैं, पर उसका आधा चौथाई भाग भी सदुपयोग में नहीं लगता। उसे जिन कामों में जिस तरह खरचा जाता है, उससे खरचने वालों की, उनके सम्पर्क में आने वालों की तथा सर्वसाधारण की बरबादी ही होती है। प्रभाव का उपयोग प्राय: गिराने, दबाने, भटकाने में ही होता रहता है। इसे समझदार कहे जाने वाले मनुष्य की नासमझी ही कहा जायेगा। यह व्याधि सर्वसाधारण को बुरी तरह ग्रसित किये हुए है। इसी को कहते हैं राजमार्ग छोड़कर मृगतृष्णा में, भूल- भुलैयों में भटकना। जीवन सम्पदा के सम्बन्ध में भी यही बात है। जन्म से मरणपर्यन्त पेट प्रजनन जैसी सामयिक बातों में ही आयुष्य बीत जाता है। आवारागर्दी में दिन कट जाता है।

    हर व्यक्ति की मनःस्थिति परिस्थिति अलग होती है। यही बात दुर्गुणों और सद्गुणों की न्यूनाधिकता के सम्बन्ध में भी है। किसे अपने में क्या सुधार करना चाहिये और किन नई सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन गुण, कर्म, स्वभाव के क्षेत्र में करना है? यह आत्म- समीक्षा के आधार पर सही विश्लेषण होने के उपरान्त ही सम्भव है। इसके लिये कोई एक निर्धारण नहीं हो सकता है। यह कार्य हर किसी को स्वयं करना होता है। दूसरों को तो थोड़ा- बहुत परामर्श ही काम दे सकता है। नित्य- निरन्तर हर कोई किसी के साथ रहता नहीं। फिर रोग का कारण और निदान जानते हुए उपचार का निर्धारण कोई अन्य किस प्रकार कर सके? थोड़े समय तक सम्पर्क में आने वाला केवल उतनी ही बात जान सकता है, जितनी कि मिलन काल में उभरकर सामने आती है। यह सर्वथा अधूरी रहती है। इसलिये अन्यान्यों के परामर्श पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहा जा सकता। यह कार्य स्वयं अपने को ही करना पड़ता है। इसमें भी एक कठिनाई यह है कि मानसिक संरचना के अनुसार हर व्यक्ति अपने को निर्दोष मानता है, साथ ही सर्वगुण सम्पन्न भी समझता रहता है। यह स्थिति सुधार और विकास दोनों में बाधक है? जब तक कमी का आभास न हो तब तक उसकी पूर्ति का तारतम्य कैसे बने? अस्तु, आत्मविकास के मार्ग पर चलने वाले, जीवन साधना के मार्ग पर अग्रसर होने के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि निष्पक्षता की मनोभूमि विकसित की जाये। खासतौर से अपने सम्बन्ध में उतना ही तीखापन होना चाहिये जितना कि आमतौर से दूसरों के दोष- दुर्गुण ढूँढ़ने में हर किसी का रहता है। आरोप लगाने और लांछित करने में हर किसी को प्रवीण पाया जाता है। इस सहज वृत्ति को ठीक उल्टा करने से आत्मसमीक्षा की वह प्राथमिक आवश्यकता पूरी होती है, जिसके बिना व्यक्तित्व का निखार प्राय: असम्भव ही बना रहता है। वह न बन पड़े तो किसी को भी महानता अपनाने और प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँच सकने का अवसर मिल ही नहीं सकता।

    क्या करें? प्रश्न के उत्तर में एक पूरक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या नहीं हो रहा है? और ऐसे क्या अनुपयुक्त हो रहा है, जिसे नहीं सोचा या नहीं किया जाना चाहिये था। किन्हीं सुविकसित और सुसंस्कृत बनने वालों के निजी दृष्टिकोण, स्वभाव और दिशा निर्धारण को समझते हुये यह देखा जाना चाहिये कि वैसा कुछ अपने से बन पड़ रहा है या नहीं? यदि नहीं बन पड़ रहा है तो उनका कारण और निवारण क्या हो सकता है? इस प्रकार के निर्धारण जीवन साधना के साधकों के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक है। जो अपनी त्रुटियों की उपेक्षा करता रहता है, जो अगले दिनों अधिक प्रखर और अधिक प्रामाणिक बनने की बात नहीं सोच सकता, उस प्रकार की योजना बनाकर उनके लिये कटिबद्ध होने की तत्परता नहीं दिखा सकता, उसके सम्बन्ध में यह आशा नहीं की जा सकती कि वह किसी ऐसी स्थिति में पहुँच सकेगा जिसमें अपने गर्व- गौरव अनुभव करने का अवसर मिल सके। साथ ही दूसरों का सहयोग, सम्मान पाकर अधिक ऊँची स्थिति तक पहुँच सकना सम्भव हो सके।

साधक के लिये आलस्य, प्रमाद, असंयम, अपव्यय एवं उन्मत्त और अस्त- व्यस्त रहना प्रमुख दोष है। अचिन्त्य चिन्तन और अकर्मों को अपनाना पतन- पराभव के यही दो कारण हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता में अपने को जकड़े रहने वाले अपनी और दूसरों की दृष्टि में गिर जाते हैं। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता से रिश्ता तोड़ लेने पर लोग समझते हैं कि इस आधार पर नफे में रहा जा सकेगा। पर बात यह है कि ऐसों को सर्वसाधारण की उपेक्षा सहनी पड़ती है और असहयोग की शिकायत बनी रहती है। अपना चिन्तन, चरित्र, स्वभाव और व्यवहार यदि ओछेपन से ग्रसित हो तो उसे उसी प्रकार धो डालने का प्रयत्न करना चाहिये जैसे कि कीचड़ से सन जाने पर उस गन्दगी को धोने का अविलम्ब प्रयत्न किया जाता है। गन्दगी से सने फिरना किसी के लिये भी अपमान की बात है। इसी प्रकार मानवी गरिमा से अलंकृत होने पर भी क्षुद्रताओं और निकृष्टताओं का परिचय देना न केवल दुर्भाग्य सूचक है, वरन साथ में यह अभिशाप भी जुड़ता है कि कोई महत्त्वपूर्ण, उत्साहवर्द्धक और अभिनन्दनीय प्रगति कर सकने का आधार कभी हाथ ही नहीं आता। पेट भरने और परिवार के लिये मरते- खपते रहना किसी भी गरिमाशील के लिये पर्याप्त नहीं हो सकता। इस नीति को तो पशु- पक्षी और कीट- पतंग ही अपनाते रहते हैं और मौत के दिन किसी प्रकार पूरे कर लेते हैं। यदि मनुष्य भी इसी कुचक्र में पिसता और दूसरों को पीसता रहे, तो समझना चाहिये कि उसने मनुष्य जन्म जैसी देव दुर्लभ सम्पदा को कौड़ी मोल गँवा दिया।

    नित्य आत्मविश्लेषण, सुधार, सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का क्रम यदि जारी रखा जाये तो प्रगति के लक्ष्य उपलब्ध कराने की दिशा में अपने क्रम से बढ़ चलना सम्भव हो जाता है। इन्द्रियसंयम, समयसंयम, अर्थसंयम और विचारसंयम को व्यवहारिक जीवन की तपश्चर्या माना गया है। तप से सम्पत्ति और सम्पत्ति से सिद्धि प्राप्त होने का तथ्य सर्वविदित है। दुष्प्रवृत्तियों से अपने को बचाते रहने की संयमशीलता किसी को भी सशक्त बना सकने में समर्थ हो सकती है। यह राजमार्ग अपनाकर कोई भी समुन्नत होते हुए अपने आप को देख सकता है।

    समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के चार सद्गुण यदि अपने व्यक्तित्व के अंग बनाये जा सकें, उन्हें पुण्य परमार्थ स्तर का माना जा सके तो अपना आपा देखते- देखते इस स्तर का बन जाता है कि अपने सुख बाँटने और दूसरों के दुःख बँटा लेने की उदार मनोदशा विनिर्मित होने लगे। जीवन साधना इसी आधार पर सधती है। मनुष्य जन्म को सार्थक इन्हीं आधारों को अपनाकर बनाया जा सकता है।


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