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Books - युगगीता (भाग-३)

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आदर्शनिष्ठ महामानव कैसे बनें

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आदित्यवत् परं प्रकाशयति

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥ ५/१६

यह है वह श्लोक, जिसका अर्थ विगत अंक में दिया गया था। तदज्ञानं अर्थात् तत् अज्ञानं—वह अज्ञान, माया का आवरण, जो वासना, तृष्णा, अहंता के रूप में सहज ही भटका देता है। हमारे अंदर के परमात्मा के वास्तविक स्वरूप तक, जो त्रिगुणातीत हैं, सत, रज, तम से भरी प्रकृति के दोषों से मुक्त हैं, जब तक ज्ञानरूपी आदित्य का प्रकाश नहीं पहुँचेगा, वे ज्ञान से प्रकाशित नहीं होंगे, तब तक आत्मबोध नहीं हो पाएगा— अपने आप के बारे में जानकारी नहीं मिलेगी। तत् परम् अर्थात् वह सच्चिदानंद विग्रह भगवद्सत्ता। ज्ञानी के लिए वे ब्रह्म हैं, तो कर्मयोगी के निकट परमात्मा उनका स्वरूप है। भक्त के लिए वे सत्, चित्, आनंद से भरी सत्ता के समान हैं।

 श्रीचरितामृत के अनुसार-


ज्ञान योग भक्ति तिन साधनार वशे।
ब्रह्म आत्मा भगवान् त्रिविध प्रकाशे॥

यही ब्रह्म की सगुण व निर्गुण व्याख्या है। यह जो सोलहवाँ श्लोक एवं उसके आगे वाला सत्रहवाँ श्लोक है, उसे यदि गूढ़ तत्त्वदर्शन के साथ भली भाँति समझ लिया गया, तो यह मान लेना चाहिए कि मनुष्य भवबंधनों से, चौरासी लाख योनियों के चक्र से मुक्त हो गया। फिर उसे पुनर्जन्म नहीं लेना होगा। वह इससे परे परब्रह्म में ही विलीन होकर तादात्म्य स्थापित कर लेगा। यही भाव इससे अगले श्लोक का है।

यहाँ भगवान् ने उपमा बड़ी सुंदर दी है। ज्ञान जब अवतरित होता है तो आदित्यवत् परं प्रकाशयति —सूर्य की तरह अज्ञानांधकार को नष्ट कर देता है और आत्मतत्त्व को प्रकाशित कर देता है। अपरोक्ष अनुभव प्राप्त होते ही सर्वोच्च सत्ता की जानकारी हो जाती है; क्योंकि वह प्रकाशित रूप में सामने ही दिखाई देने लगती है। सूर्य का प्रकाश जैसे ही पूरब की उषा की लालिमा के समान दिखाई देने लगता है, अंधकार, जो अत्यधिक घना हो गया था, भागने को विवश हो जाता है। प्रकाश का अभाव ही तो अंधकार है। उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व थोड़े ही है। इसी तरह ज्ञान का अभाव ही अज्ञान है, जिसमें व्याप्त होकर हम अविवेकी जीवन जीते हैं। वासनाओं से प्रेरित भोग प्रधान यह जीवन तृष्णा व अहंता के वशीभूत हो हमें दुष्कर्मों में प्रवृत्त कर देता है। परिणाम बड़े भयंकर होते हैं—संत्रास, कष्ट, तनाव, संक्षोभ, सभी प्रकार की आधि- व्याधियाँ। हम विधाता को दोष देते हैं, किंतु वे तो त्रिगुणातीत हैं। उनका जो अनंत आत्मा वाला स्वरूप हमारे अंदर है, उसकी मौजूदगी का ज्ञान यदि हमें हो, तो उस उपस्थिति के बोधभाव मात्र से हमारे इस भौतिक जीवन में प्राणों का संचार होने लगता है। अंधकार भागने लगता है। हम त्रितापों से मुक्त हो जाते हैं; क्योंकि सत्य क्या है? एवं परम सत्ता हमारे अंदर विराजमान है, यह जानकारी हमारी आत्मा को बलशाली बना देती है।

साधना द्वारा ही अज्ञान का नाश संभव

सबसे बड़ी बात यह है कि हमारा अहंभाव, जीवभाव समाप्त होना चाहिए। हमें शुद्ध अहं में—ब्रह्मभाव में प्रवेश करना चाहिए। यह सतत साधना से ही संभव है। चाहे कोई सा भी मार्ग हो, निरंतर की गई साधना, गहन आत्म- पर्यवेक्षण मनुष्य को उस आत्मतत्त्व का बोध करा ही देते हैं। ‘आदित्य’ की उपमा प्रभु ने दी है, तो यहाँ यह भी जान लेना चाहिए कि गायत्री- साधना भी आदित्य की—सूर्य की—सूर्य के ‘भर्ग तत्त्व’ की साधना ही है। यदि सविता देवता का प्रकाश ज्ञानरूप में हमारे अंतरतम तक पहुँच जाए, उनका ब्रह्मवर्चस प्रधान भर्गतत्त्व अंदर तक प्रविष्ट हो जाए, तो अज्ञान (पापनाशक तेज से)—माया के बंधन कटें एवं हम आत्मतत्त्व का बोध कर पाएँ, जो कि निरंतर अंदर प्रकाशमान है। गायत्री- साधना हमें परमपूज्य गुरुदेव ने इस तत्त्व तक पहुँचाने के लिए ही कराई है; ताकि बाहर के सविता देवता का तेज, जो कि प्राणस्वरूप है, सुखस्वरूप है, दुःखनाशक है, श्रेष्ठतम है, तेजस्विता से अभिपूरित है, पापनाशक है एवं दिव्यता से ओत- प्रोत है, जैसे ही हमारे द्वारा, हमारी अंतरात्मा द्वारा सोख लिया जाता है (धीमहि), हमारी बुद्धि सही दिशा में, सन्मार्ग की ओर जबरदस्ती (बलात्) चलने लगती है; हम लोभ- मोह रूपी दुर्बुद्धि के मार्ग से हटकर आत्मतत्त्व को प्रकाशित कर सद्बुद्धि के मार्ग पर चल पड़ते हैं। आदिकाल से ऋषिगण, अवतारी सत्ताएँ, दिव्यकर्मी इसी महामंत्र का आश्रय लेकर ज्ञान, कर्म, भक्ति तीनों में से जो मार्ग उन्हें ठीक सूझा, उसका अवलंबन कर जगदीश्वर की वेदी पर स्वयं को समर्पित करते रहे हैं। एक ही कारगर तरीका है—सतत साधना, निरंतर एक ही प्रयास कि हम अज्ञान के बंधनों से मुक्त हों, चिन्मय परब्रह्म की सत्ता हमें अपने प्रकाश से पारदर्शी बना दे। हमारे अंदर का अँधियारा, मटमैलापन मिटता जाए एवं हमारी अंतरात्मा पूर्णतः ज्ञानरूपी सूर्य से प्रकाशित होती चली जाए।

सामान्य से ऊपर उठें, योगमय जीवन जिएँ

हम अपने भीतर के कर्ताभाव को सब कर्मों के अधीश्वर परमात्मा को समर्पित कर दें। मर्यादा का उल्लंघन करें, पापकर्म करें और दोष ईश्वर को दे दें, यह तो अज्ञान ही हुआ न! हमारे अंदर वह ज्ञान अवतरित हो, जो हमारे व्यक्तित्व की परतों को प्रकाशित कर जीवट प्रदान करे, मानसिक- बौद्धिक स्तर पर हमें सही निर्णय लेने की, विवेकशीलता के, दूरदर्शिता के पथ पर चलने की सद्बुद्धि मिले एवं यही विवेक हमारी इंद्रियों का मार्गदर्शन करे, तो ही हम सामान्य जीवों से ऊपर उठकर कल्याणकारी दिव्यकर्मी का जीवन जी पाएँगे।

भगवान् का सारा प्रयास अर्जुन को सामान्य धरातल से ऊपर उठाकर दिव्य स्तर पर लाने का है, जो कि हर मनुष्य का, यह मनुष्य- तन पाने का परमोद्देश्य भी है। अर्जुन अज्ञान- मोह में उलझकर सारे तर्क श्रीकृष्ण से कर रहा है, इसलिए वे उसे कर्मयोग का मर्म बताकर ज्ञान की उस सर्वोच्च स्थिति में ले जा रहे हैं, जहाँ अज्ञानजन्य भ्रांतियाँ सहज ही मिट जाती हैं। अज्ञान की दो स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हमारे अंदर हैं—एक कर्ताभाव की, दूसरी भोक्ताभाव की। हमें इनसे ऊपर उठना है। वह प्रसन्नता का मार्ग है, ज्ञान की आनंदपूर्ण अवस्था का पथ है एवं आत्मपद की प्राप्ति करा देने वाला राजमार्ग है।

धर्ममय जीवन, योगमय जीवन हर श्वास में जिया जाना चाहिए। यह हर मनुष्य का कर्त्तव्य है। वह तभी संभव है, जब हम विषय- सुख की खोज में इधर- उधर इंद्रिय तुष्टि हेतु हाथ- पाँव मारकर जीवन को नष्ट करने से बचा लें। एक सुसंस्कृत मनुष्य का परम कर्त्तव्य है कि वह स्वार्थपूर्ण प्रयोजनों में लिप्त न हो, भौतिक पदार्थों की प्राप्ति व संग्रह हेतु पशु स्तर की प्रवृत्तियों में न लगे, वरन् जगदीश्वर की सेवा में लगे। अपना आपा ही सबमें समाया पड़ा है और एक ही दिव्यतत्त्व हम सबको प्रकाशित कर रहा है, यह बोध होते ही एक दिव्य शांति की अनुभूति सबको होती है। हम सही अर्थों में रचनात्मक, आध्यात्मिक जीवन जीने लगते हैं। परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है, धर्ममय जीवन में ही सारे लौकिक कर्म भी निभते चले जाएँगे, यह परम समर्पण का भाव हमें सेवामय जीवन की ओर ले जाएगा। हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति भी करेगा और संकीर्ण स्वार्थपरता में हमें न उलझाकर हमारे भीतर के संगीत को बेसुरा नहीं बनाएगा।

श्रीमद्भगवद्गीता सही अर्थों में जीवन जीने की कला का शिक्षण देने वाली कुंजी है—एक पाठ्यपुस्तक है। आज के मनुष्य की, मानवजन्य सभी समस्याओं का समाधान उसमें है। यदि इस गीतामृत को हम जीवन में उतारने का प्रयास करें, तो हमारे अंदर पैदा हुआ जागरूकता का भाव हमें आध्यात्मिक उत्कर्ष की उच्चतम स्थिति तक पहुँचा सकता है। इस तथ्य को भली भाँति समझकर अब हम अगले श्लोक की ओर बढ़ते हैं, जो हमें ‘तत्’ (तत्सवितुर्वरेण्यम् का तत्) के रूप में परमात्मा से एकाकार होने की परिणति बताता है। ‘तत्’—परब्रह्म—सच्चिदानंदघन परमात्मा को ज्ञान द्वारा प्रकाशित कर लिया एवं उसके मर्म से परिचित हो गए, तो फिर देरी किस बात की! अब उससे एकरूप हुआ जाए—द्वैतभाव मिटाया जाए।
तत्परायण होने की दिशा में

सत्रहवाँ श्लोक है—

तद्‌बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः  ||५/१७

भावार्थ देखें—जिनकी बुद्धि उनमें लीन हो गई है, जिनका मन उनकी भक्ति से भर गया है और जिनकी उसी सच्चिदानंदघन परमात्मा में निष्ठा होकर जो निरंतर उन्हीं में एकीभाव से स्थित हैं, ऐसे मनुष्य, जिनके जीवन का सर्वस्व ही वह हो गया है, ज्ञान द्वारा पाप रहित होकर ऐसी स्थिति को प्राप्त होते हैं, जहाँ से लौटना पुनः नहीं होता अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।

छोटे- से श्लोक में गागर में सागर की तरह से कुछ मार्मिक सूत्र समाए हुए हैं। शब्दों के अर्थ से भाव जोड़ें तो वह ऐसा बनेगा—

तद्बुद्धयः (परब्रह्म में जिनका चित्त लीन है), तदात्मानः (ब्रह्म में एकात्मभाव से युक्त), तन्निष्ठाः (आत्मनिष्ठ), तत्परायणाः (आत्मपरायण व्यक्ति, जो परब्रह्म से एकाकार हो गए हैं), ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः (आत्मज्ञान के द्वारा पाप रहित हुए साधक), अपुनरावृत्तिम् (बार- बार जन्म की आवृत्ति नहीं), गच्छन्ति (ब्रह्मस्वरूप होकर जन्म- मृत्यु के प्रवाह से चिरमुक्त हो जाते हैं—परमगति को प्राप्त हो जाते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता) यहाँ बार- बार तत् शब्द आया है, उसकी बुद्धि, आत्मा, निष्ठा, अंतःकरण की मुक्ति बताई है। यह परोक्ष ज्ञान के अंतर्गत ‘ब्रह्म’—परमात्मन् के लिए प्रयुक्त हुआ है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ हो जाने के बाद मनुष्य परमगति को प्राप्त हो जाता है। जैसे ही देहात्म- ज्ञान नष्ट हुआ ब्रह्म के साथ—परम सत्ता के साथ तादात्म्य हो जाता है। यह मोक्ष में प्रतिष्ठा है। यह आत्मा की पूर्णमदः पूर्णमिदम् वाली जीवनयज्ञ की पूर्णाहुति है। परमात्मतत्त्व से मिलन का राजमार्ग

    मानव हृदय में वह निर्झर फूट पड़े, ताकि वह परब्रह्म परमात्मन् की स्पष्ट अनुभूति कर सके, ऐसे प्रतिपादन पर श्रीकृष्ण अब आ गए हैं। यह गीताकार की अपरोक्षानुभूति से भरे इस ज्ञान की पराकाष्ठा है। एक प्रकार से वह राजमार्ग बताया जा रहा है, जिस पर चलकर जीव व ब्रह्म का मिलन होता है, मनुष्य का परमात्म सत्ता से साक्षात्कार होता है।

    भगवान् की इस श्लोक के माध्यम से हर दिव्यकर्मी के लिए चार अनिवार्य शर्तें हैं, जिन्हें पूरा करके ही हम परम चैतन्य से संपर्क स्थापित कर सकते हैं। इन्हें ऐसे भी कह सकते हैं कि चार प्रकार के परिवर्तन मनुष्य को अपनी आत्मसत्ता में लाने होंगे। तद्बुद्धयः, तदात्मानः, तन्निष्ठाः एवं तत्परायणाः। अब इन सबकी संक्षिप्त व्याख्या—

    तद्बुद्धयः—बुद्धि तरह-तरह के खेल दिखाती है। तर्कशक्ति एवं जानकारियों के संग्रह द्वारा मनुष्य बुद्धि की दृष्टि से कहीं-का-कहीं पहुँच सकता है। शास्त्रों का अध्ययन जरूरी है, पर जब तक वह, ‘तत्’—उस परमात्म तत्त्व से एकाकार होकर नहीं किया जाएगा, तब तक वह ज्ञान अहंकारी ही बनाएगा। तरह-तरह के शास्त्रार्थों में पटखनी देने में आनंद आता रहेगा। जो आदर्श हमारी समझ में आ गए हैं, हमारे बौद्धिक तंत्र ने जिन्हें स्वीकार कर लिया है, वे हमारे मन में उतरने चाहिए। हमारा मस्तिष्क-मन समुच्चय (माइंड-ब्रेन एनटाइटी) ही नहीं, हमारा कण-कण उस परमात्म तत्त्व की अनुभूति से स्पंदित हो उठना चाहिए। इसे कहते हैं—तदबुद्धयः।

    तदात्मानः (जिसका मन उस परमात्मा की भक्ति से सराबोर है) का अर्थ है—जीवन के वे आदर्श, जो हमारी बुद्धि ने स्वीकार कर लिए हैं, अब हमारे द्वारा मनन किए जाने चाहिए। उच्चस्तरीय कार्यों के प्रति पूर्ण मनोयोग के साथ परम सत्ता से तादात्म्य स्थापित कर हम कार्य करेंगे, तो हमारी यह भक्ति—यह कर्मयोग हमें सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में स्थापित करेगा। यहाँ प्रसंगवश यह बता देना अनिवार्य है कि तद्बुद्धयः एवं तदात्मानः की व्याख्या यहाँ कर्मयोग के परिप्रेक्ष्य में हो रही है। यही बात बारहवें अध्याय में, जो भक्तियोग की पराकाष्ठा पर हमें ले जाता है, भगवान् इस प्रकार कहते हैं—मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय (श्लोक आठ)। जब यह कहते हैं, तो तत् शब्द को सीधे वे मयि एव मनः, मयि बुद्धिं के स्तर पर ले आते हैं। यहाँ मयि से तात्पर्य श्रीकृष्ण के मैं से नहीं, परमात्मसत्ता के विराट् ‘मैं’ से है। इस प्रसंग की चर्चा बाद में।

    अगली स्थिति है तन्निष्ठाः—जिसमें निष्ठा मजबूत हो गई है एवं परमात्म तत्त्व में ही जो स्थित हैं। यह तीसरी अवस्था वह है, जिसमें व्यक्ति की बुद्धि एवं मन ने स्वीकार कर आदर्शों को-परमात्म तत्त्व को व्यवहार में लाना स्वीकार कर लिया है। परमात्मा आदर्शों-सत्प्रवृत्तियों-श्रेष्ठताओं का समुच्चय ही तो है। उसमें हमारी निष्ठा इतनी मजबूत होनी चाहिए कि हमारे हर प्रयास उसी के अनुशासन में चलने चाहिए। आज आदर्शों की, उपदेशों की चर्चा तो है, पर आचरण में न उतरने के कारण व्यर्थ के वाक् -जाल बनकर रह जाते हैं, कहने वाले के जीवन में नहीं उतरे, तो सुनने वाले के जीवन में क्या उतरेंगे। हमारा आचरण परमात्म सत्ता के निर्देशों के अनुसार हो। हम प्रलोभनों से प्रभावित न हो असाधारण स्तर का त्याग दिखा सकें।

    अब चौथी और अंतिम स्थिति आती है तत्परायणाः—वह परमात्म तत्त्व, आदर्शों का समूह हमारा सर्वस्व बन जाए, हम उसके साथ पूरी तरह घुल-मिल जाएँ। धर्मपरायण, कर्त्तव्यपरायण शब्दों से समझा जा सकता है कि परायण होना अर्थात् वही सब कुछ बन जाना। उच्च सांस्कृतिक जीवन मूल्य ही फिर व्यक्ति के जीवन का अंग बन जाते हैं। ऐसा व्यक्ति फिर अपने पुराने घिसे-पिटे ढर्रे पर नहीं लौटता, न ही मर्यादाओं का उल्लंघन करता है। आदर्शों के प्रति पूर्ण समर्पित जीवन उसे नया जीवन जीने, आदर्शों के हिमालय पर चढ़ने के लिए प्रेरित करता रहता है। परमात्मा उसके जर्रे-जर्रे से फूट पड़ता है। ऐसे आदर्शनिष्ठ महामानव को फिर अपने लक्ष्य तक पहुँचने से कोई रोक नहीं सकता। ये दृढ़निश्चयी व्यक्ति पूरे श्रद्धा और विश्वास से, उत्साह और उल्लास से युक्त होकर सफलता के उच्चतम सोपानों पर चढ़ते ही चले जाते हैं।
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